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- हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः । ।
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बारहवाँ भाग।
अंक १.
जैनहितैषी।
IREEममा
पौष २४४२. जनवरी १९१६.
Anna Asastanasanay S सारे ही संघ सनेहके सूतसौं, संयुत हों, न रहे कोउ द्वेषी । प्रेमसौं पालैं स्वधर्म सभी, हैं सत्यके साँचे स्वरूप-गवेषी ॥5
वैर विरोध न हो मतभेदतै, हों सबके सब बन्धु शुभैषी। "भारतके हितको समझें संब, चाहत है यह जैनहितैषी ॥5 Resesprosesservus Town
महाकार भगवान्।
( सोहनी ) धन्य तुम महावीर भगवान, लिया पुण्य अवतार जगतका, करनेको कल्याण ॥१॥ बिलबिलाट करते पशुकुलको, देख दयामयप्राण। परम अहिंसा-मय सुधर्मकी, डाली नीव महान ॥२॥ ऊँच नीचके भेदभावका, बढ़ा देख परिमाण । सिखलाया सबको स्वाभाविक, समता तत्त्व प्रधान ॥३॥ मिला समवसृतमें सुर नर पशु, सबको सम सम्मान। समता औ उदारताका यह, कैसा सुभग विधान ॥४॥ अन्धी श्रद्धाका ही जगमें, देख राज्य बलवान । कहा, “ न मानो विना युक्तिके, कोई वचन प्रमाण" ॥५॥ जीव समर्थ स्वयं, करता है स्वतः भाग्यनिर्माण। यों कह स्वावलम्ब स्वाश्रयका, दिया सुफलप्रद ज्ञान ॥६॥ इन ही आदर्शोके सम्मुख, रहनेसे सुखखान । भारतवासी एक समय थे, भाग्यवान गुणवान ॥७॥
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