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________________ आचार्य सिद्धसेन । ( लेखक-श्रीयुत मुनि जिनविजयजी।) जैनहितैषीकी गत श्रावण और भाद्रपद इस विषयमें हमारा अभिप्राय यह है मासकी युग्मसंख्यामें ( भाग ११, अंक कि हरिभद्रसूरिने अपने धर्मबिन्दुमें जिन १०-११ ) · आचार्य सिद्धसेन ' के सिद्धसेनका मत दिया है वे जैन नहीं; विषयमें संपादकका एक नोट निकला अन्यधर्मी हैं। सिद्धसेनके पहले जितने .. है । उसका मतलब यह है कि आदिपु- आचार्योंके नाम हैं वे सब अन्यधर्मी होनेसे राण और हरिवंशपुराण आदिके कर्ताओंने सिद्धसेन भी अन्य ही हैं । धर्मबिंदुके प्रजिन सिद्धसेनाचार्यका उल्लेख किया है वे सिद्ध टीकाकार श्रीमुनिचद्रसूरि ( जिनका कब और कहाँ हुए इसका कोई पता नहीं । स्वर्गवास विक्रम संवत् ११७८ में हुआ अभी तक यह खयाल था कि, ये वे ही था ) ने भी इन्हें । परतीर्थी , लिखा है। सिद्धसेन होंगे जो श्वेतांबरसंप्रदायमें : दिवा- परतीर्थी शब्दका वही अर्थ है जो ' एकांतकर' के विशेषणसे प्रसिद्ध हैं। परंतु अब वादी' का है । टीकाकारका उल्लेख इस इसमें कुछ संदेह होने लगा है । संदेहका प्रकार हैकारण प्रेमीजीने हरिभद्रसूरिके धर्मबिन्दु- “अथैतस्मिन्नेवार्थे परतीर्थिकमतानि द. को लिखा है । इस ग्रंथके चौथे अध्याय- श स्वमतं चोपदयितुमिच्छुः 'नियम एवामें दीक्षा लेने योग्य मनुष्यका वर्णन करते यमिति वायुः' इत्यादिकम्; 'भवन्त्यल्पाऽपि असाधारणगुणाः कल्याणोत्कर्षसाधकाः' हुए ग्रंथ-कर्ताने वाल्मीकि, व्यास, सम्राट, इत्येत्पर्यन्तं सूत्रकदम्बकमाह । वायु, नारद, वसु, क्षीरकदंबक, बृहस्पति, अध्याय ४ सूत्र ९ । विश्व और सिद्धसेन इन दश आचार्योंके “ इत्थं परतीर्थिकमतान्युपदर्य, स्वमतमत दिये हैं और उनको ठीक न बतला- मुपदर्शयन्नाह ।” अध्याय४ सूत्र २३॥ कर अंतमें अपना मत दिया है। सिद्धसेनका तथा स्वयं सिद्धसेनके मतको प्रदर्शित कमत सबसे पीछे दिया है और अंतमें अपना। रनेवाले ' सर्वमुपपन्नमिति सिद्धसेनः । इससे मालूम होता है कि ये सिद्धसेना- ( अध्याय ४, सू० २२ ) इस सूत्रके व्याचार्य हरिभद्रसे पहले हो गये हैं और ख्याताने, सिद्धसेनको नीतिकार और शास्त्रसंभवतः उनके संप्रदायके नहीं किन्तु विशेषका बनानेवाला-सिद्धसेनो नीतिदिगंबर संप्रदायके थे।" कारशास्त्रकृद्विशेषः-लिग्वा है । इससे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522822
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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