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________________ २४ जैनहितैषी - प्रशस्य मतभेद था । इस भेदके कारण आचार्य - गण दो दलमें बँट गये थे। जिनभद्रगणि · क्षमाश्रमण आदि आचार्य ' सैद्धान्तिक ' पक्षके समर्थक थे और सिद्धसेनसूरि ' तार्किक' मतके संस्थापक थे । जिनभद्रगणिके मतके पोषक आचार्य 'सैद्धान्ति' कहे जाते हैं और सिद्धसेनसूरिके मत- पोषक ' तार्किक या ' सिद्धसेनीय' कहे जाते हैं । हमारे विचारसे, शाकटायनकी अमोघवृत्तिमें ' सिद्धसेनीयाः' और ' सैद्धसेनाः ' ऐसे जो उदाहरण " नाम दु: । १ । १ । १ । " इस सूत्रकी व्याख्यामें दिये हैं, वे इसी आशयको लेकर दिये गये हैं । + विवादास्पद विषयोंमें, केवलज्ञान और केवलदर्शन मुख्य हैं। सिद्धान्तपक्षी आचार्योंका कथन है कि सिद्धान्तों- आगमोंमें केवलज्ञान और केवलदर्शन दोनों पृथक् पदार्थ माने गये हैं । इस लिए सर्वज्ञको ये दोनों उपयोग क्रमशः होते हैं । तर्कवादी सिद्धसेन कहते हैं कि, नहीं यह बात तर्कसे सिद्ध नहीं होती । केवलज्ञान और केवलदर्शन दोनों पृथक् पदार्थ नहीं, एक ही हैं। तर्कसे यही * " क्रमोपयोगवादिनां जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणपूज्यपादानां, ** * यदेव केवलज्ञानं तदेव केवलदर्शनमिति वादिनां च महावादिश्रीसिद्धसेनदि - वाकराणां साधारण्यों विप्रतिपत्तयः ॥ " - ज्ञान बिन्दु, यशोविजयोपाध्याय । + अमोघवृत्तिके ‘षड्नयानाडुः सिद्धसेनीयाः सैद्ध सेना: ' इस उदाहरणसे मालूम होता है कि सिद्धसेन और उनके अनुयायी छह नय मानते थे, सात नहीं । - सम्पादक । Jain Education International 1 सिद्ध होता है । जो केवलज्ञान है वही केवल . दर्शन है । इस मतको तर्कसे खूब पुष्ट किया है । इनके तर्क बड़े बलिष्ठ और प्रौढ़ हैं । इस लिए इनका नाम तार्किकतयां प्रसिद्ध हुआ । इनके मतका समर्थन करनेवाले विद्वान् तार्किक, सिद्धसेनीय या सैद्धसेनके विशेषणसे उल्लिखित किये जाते हैं। विद्वानों का मत है कि जैन साहित्य में जो तर्कशास्त्र प्रविष्ट हुआ है वह इन्हीं की बदौलत । इनके पूर्वमें जैनोंका खास कोई तर्कशास्त्र नहीं था । पिछले आचार्योंने जो तर्कशास्त्र रचे हैं वे इन्हींके बनाये हुए मार्ग के ऊपर अवलंबित हैं । डा० सतीशचन्द्र विद्याभूषणने, मध्यकालीन भारतीय न्यायशास्त्र के इतिहासकी जो पुस्तक ( History of the Mediavel School of Indian Logic. ) लिखी है, उसमें सिद्धसेन सूरिके विषयमें लिखा है कि— “ऐतिहासिक कालके सबसे पहले न्याय - शास्त्रको नियमबद्ध लिखनेवाले जैन लेखक सिद्धसेन दिवाकर मालूम होते हैं । इनसे पहले शायद जैन न्यायका कोई खास ग्रंथ मौजूद नहीं था । उस समय न्याय की बातें धर्म और सिद्धान्त ग्रंथों में ही गर्भित थीं । इन्होंने ही सबसे पहले न्यायावतार नामक न्यायग्रंथ बनाकर न्यायशास्त्र की स्थापना की । यह छोटासा ग्रंथ केवल ३२ श्लोकोंका है । ( जैनहितैषी, भा० ९, अं० ३. ) इन उल्लेखोंसे यह सिद्ध होता है कि सिद्धसेन दिवाकरको जो महावादी आदि 1 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522822
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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