Book Title: Aagam 11 VIPAK SHRUT Moolam evam Vrutti
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [११] श्री विपाक(श्रुताङ्ग)सूत्रम् नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः । “विपाकश्रुतम्” मूलं एवं वृत्ति: [मूलं एवं अभयदेवसूरि रचित वृत्तिः ] [आदय संपादक: - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. ] (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पुन: संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D.) | 13/10/2014, सोमवार, २०७० आसो कृष्ण ५ jain_e_library's Net Publications मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र-[११], अंग सूत्र-[१५] “विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [-], ----------------------- अध्ययनं - ----------------------- मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अहम्। श्रीमच्चन्द्रकलीन श्रीमदभयदेवाचार्य विहितविवरणयुतं विपाक(श्रुताङ्ग) सूत्रम् प्रकाशयित्री हेसाणा बारका अष्टि वीकपकाल हीराचंद श्रेष्ठि गुलाबचन्द्र हर्षचन्दपली उमीया कोर विहितसाहाय्येन श्रेष्ठि वेणिचन्द्र सुरचन्द्रद्वारा आगमोदय समितिः॥ एवं पुस्तकं पुणामध्ये आर्यभूषण यन्त्रालये म्यानेजर अनंत विनायक पटवर्धन द्वारा मुद्रापितम् ॥ चौरसंवत् २४४६. विक्रमसंवत् १९७६. क्राइस्ट सन् १९२० पण्यंः-१०-० दशकमाणकानाम् । अनुक्रम विपाक(श्रुताङ्ग)सूत्रस्य मूल “टाइटल पेज" Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाका: ३५+०९ विपाकश्रुताङ्ग सूत्रस्य विषयानुक्रम दीप-अनुक्रमा: ४७ श्रुतस्कंध - १ [ आश्रव] ००४ श्रुतस्कंध - २ [ संवर ] २०० मूलांक: | पृष्ठांक: | पृष्ठांक: अध्ययन पृष्ठांक: मूलांक: | अध्ययन ००१ -१- मगापुत्रः मलाक: ०३५ ००४ -१- सुबाहः ११७ ०११ -२- उज्झितक: ०२८ ०३८ ।-२- भद्रनंदी ०१८ । -३ अभग्नसेन: ___०४९ । ०३९ -३- सुजात: ०२४ -४- शकट: । ०६८। ०४० -४- सवासवः । १२८ ०२७ -५- बृहस्पतिदत्त: oley ०४१ -५- जिनदास: १२८ ___०२९ । -६- नन्दिवर्धन: ___०७८ ०४२ -६- धनवती १२८ ०३१ -७- उम्बरदत्त: ___०८६ ०४३ -७- महाबल: १२८ ०३२ -८- सौर्यदत्त: ०४४ -८-भद्रनंदी । १२९ ०३३ -९- देवदत्ता १०२ ०४५ -९- महाचंद्रः १२९ ०३४ -१०- अंजू ११४ । । ०४६-४७ -१०-वरदत्त: १२९ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~2~ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ['विपाकश्रुत' मूलं एवं वृत्तिः ] इस प्रकाशन की विकास- गाथा यह प्रत सबसे पहले “विपाकश्रुताङ्ग” के नामसे सन १९२० (विक्रम संवत १९७६) में आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादकमहोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी महाराज साहेब | इसी प्रत को फिर से दुसरे पूज्यश्रीओने अपने-अपने नामसे भी छपवाई, जिसमे उन्होंने खुदने तो कुछ नहीं किया, मगर इसी प्रत को ऑफसेट करवा के, अपना एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. जिसमे किसीने पूज्यपाद् सागरानंदसूरिजी के नाम को आगे रखा, और अपनी वफादारी दिखाई, तो किसीने स्वयं को ही इस पुरे कार्य का कर्ता बता दिया और श्रीमद्सागरानंदसूरिजी तथा प्रकाशक का नाम ही मिटा दिया | - * हमारा ये प्रयास क्यों? * आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर श्रुतस्कन्ध, अध्ययन और मूलसूत्र के क्रमांक लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा श्रुतस्कंध एवं अध्ययन चल रहे है उसका सरलता से ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके । हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस [-] दिए है और जहां गाथा है वहाँ ॥- ॥ ऐसी दो लाइन खींची है या फिर गाथा शब्द लिख दिया है। हमने एक अनुक्रमणिका भी बनायी है, जिसमे प्रत्येक श्रुतस्कंध, अध्ययन आदि लिख दिये है और साथमें इस सम्पादन के पृष्ठांक भी दे दिए है, जिससे अभ्यासक व्यक्ति अपने चहिते वर्ग, अध्ययन या विषय तक आसानी से पहुँच शकता है | अनेक पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट भी लिखी है, जिसमे उस पृष्ठ पर चल रहे ख़ास विषयवस्तु की, मूल प्रतमें रही हुई कोई-कोई मुद्रण-भूल की या क्रमांकन सम्बन्धी जानकारी प्राप्त होती है | अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल, सस्ता और आधुनिक रास्ता है, आगे जाकर ईसि को मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है। ..मुनि दीपरत्नसागर. ~3~ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत [-] दीप अनुक्रम [-] श्रुतस्कंध: [-], मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ ( मूलं + वृत्तिः ) अध्ययनं [-] nimated वृत्तिकार-कृत् प्रस्तावना ॥ अहेम् ॥ श्रीमद्वादशाङ्गी विरचयितृश्रीमद्गणधारि संकलितं । श्रीमदभयदेवाचार्य संदृब्धविवरणयुतं । श्रीमद् - विपाकसूत्रम् । १ नत्वा श्रीवर्धमानाथ, वर्द्धमानताध्वने । विपाकयुतशास्त्रस्य वृत्तिकेयं विधास्यते ॥ १ ॥ अथ विपाकश्रुतमिति कः शब्दार्थः ?, उच्यते, विपाकः- पुण्यपापरूपकर्मफलं तत्प्रतिपादनपरं श्रुतं-आगमो विपाकमुतं इदं च द्वादशाङ्गस्य प्रवचनपुरुषस्यैकादशमङ्ग, इह च | शिष्टसमयपरिपालनार्थं मङ्गलसम्बन्धाभिधेयप्रयोजनानि किल वाच्यानि भवन्ति, तत्र चाधिकृतशास्त्रस्यैव सकलकल्याणकारि सर्ववेदिप्रणीतश्रुतरूपतया भावनन्दीरूपत्वेन मङ्गलखरूपत्वात् न ततो भिन्नं मङ्गलमुपदर्शनीयं, अभिधेयं च शुभाशुभकर्मणां विपाकः, स चास्य नाम्नैवाभिहितः, प्रयोजनमपि श्रोतृगतमनन्तरं कर्म्मविपाकावगमरूपं नात्रैवोक्तमस्य, यत्किल कर्मविपाकावेदकं श्रुतं शृण्वतां प्रायः कर्मविपाकावगमो भवत्येवेति, यत्तु निःश्रेयसावाप्तिरूपं परम्परप्रयोजनमस्य तदाप्तप्रणीततथैव प्रतीयते, न साप्ता यत्कथविन्निःश्रेयसार्थ न भवति तत्प्रणयनायोत्सहन्ते आप्तत्वहानेरिति, सम्बन्धोऽप्युपायोपेयभावलक्षणो वान्त्रैवास्य प्रतीयते, तथाहि इदं शास्त्रमुपायः कर्म| विपाकावगमस्तूपेयमिति, यस्तु गुरुपर्वक्रमलक्षणसम्बन्धोऽस्य तत्प्रतिपादनायेदमाह Les For Presen ~4~ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [3] विपाके श्रुत० १ ॥ ३३ ॥ श्रुतस्कंध [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .. a৩%ই “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [१] मूलं [१] .. आगमसूत्र [११], अंग सूत्र [११] "विपाकश्रुत मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः १ मृगापु 'तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा णामं णयरी होत्था वण्णओ, पुन्नभद्दे चेइए, तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी अज्जमुहम्मे णामं अणगारे जाइसंपन्ने वण्णओ चउदसपुच्ची ५ त्रीयाध्य. चउनाणोवगए पंचहि अणगारसएहिं सद्धिं संपरिबुडे पुष्वाणुपुवि जाव जेणेव पुण्णभद्दे चेहए अहपडिरूवं जाब बिहरइ, परिसा निग्गया धम्मं सोचा निसम्म जामेव दिसं पाउन्भूया तामेव दिसं पडिगया, मगरादिवर्ण ० सू० १ १ 'तेणं काले 'मित्यादि, अस्य व्याख्या- 'तेणं कालेणं तेणं समएणं'ति तस्मिन् काले तस्मिन् समये, शंकारो वाक्यालङ्कारार्थत्वात् एकारस्य च प्राकृतप्रभवत्वात्, अथ कालसमययोः को विशेषः ?, उच्यते, सामान्यो वर्त्तमानावसर्पिणीचतुर्थारक लक्षणः कालो विशिष्टः पुनस्तदेकदेशभूतः समय इति, अथवा तेन कालेन हेतुभूतेन तेन समयेन हेतुभूतेनैव 'होत्थ'त्ति अभवत्, यद्यपि इदानीमप्यस्ति सा नगरी तथाऽप्यवसर्पिणीकालखभावेन हीयमानत्वाद्वस्तुस्वभावानां वर्णकमन्योक्तखरूपा सुधर्मस्वामिकाले नास्तीतिकृत्वाऽतीतकालेन निर्देशः कृतः, 'वण्णओ'त्ति 'ऋद्धित्थिमिवसमिद्धेत्यादि वर्णकोऽस्या अवगन्तव्यः, स चौपपातिकवद्रष्टव्यः । 'पुनभद्दे चेइए' त्ति पूर्णभद्राभिधाने 'चैत्ये' व्यन्तरायतने । २ 'अहापडिरूवं जाव विहरइति अनेनेदं सूचितं द्रष्टव्यम्"अज्जसुहम्मे थेरे अहापडिरूवं उम्माई उग्गिण्हइ अहा० उग्गिण्डित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं मावेमाणे विहरद्द" तत्र येन प्रकारेण | प्रतिरूप:- साधूचितस्वरूपो यथाप्रतिरूपोऽतस्तमवग्रहं - आश्रयमिति 'विहरति' आस्ते, 'जामेव दिसं पाउचभूया' यस्या दिशः सकाशात् 'प्रादुर्भूता' प्रकटीभूता आगतेत्यर्थः 'तामेत्र दिसिं पडिगया' तस्यामेव दिशि प्रतिगतेत्यर्थः । Jus Education intemational अथ प्रथम अध्ययनं "मृगापुत्र" आरभ्यते For Persim Price अत्र प्रथम श्रुतस्कंध : आरब्धः ~5~ ॥ ३३ ॥ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [3] श्रुतस्कंध [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... * “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [१] मूलं [१] .. आगमसूत्र [११], अंग सूत्र [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः | तेणं कालेणं तेणं समपुर्ण अजसुहम्मअंतेवासी अजजंबूनामं अणगारे सत्तुस्सेहे जहा गोर्थमसामी तहा जाव [झाणकोट्टो [वगए] विहरति, तए णं अज्जजंबूनामे अणगारे जायसढे जाव जेणेव अज्जसुरमे अणगारे तेणेव उवा १ 'सत्तुरसेहे 'ति सप्तहस्तोत्सेधः सप्तहस्तप्रमाण इत्यर्थः २ 'जहा गोयमसामी तहा' इति यथा गौतमो भगवत्यां वर्णितः तथाऽयमिह वर्णनीयः कियदूरं यावत् ? इत्याह- 'जाव झाणकोट्ठो' ति 'झाणकोडोवगए' इत्येतत्पदं यावदित्यर्थः स चायं वर्णकःसमचउरंस संठाणसंठिए वारिसहनारावसंघयणेत्ति विशेषणद्वयमपीदमागमसिद्धं 'कणगपुलगनिघसपम्हुगोरे' कनकस्य सुवर्णस्य यः पुलको-लवस्तस्य यो निकष:-- रुपपट्टे रेखालक्षणः तथा 'पम्ह'ति पद्मगर्भस्तद्वद् गौरो यः स तथा 'उग्गतवे' उग्रम्-अप्रधृष्यं तपो यस्य स तथा 'दिसतवे' दीतं हुताशन इव कर्मवनदाहकत्वेन ज्वलत्तेजस्तत्तपो यस्य स तथा 'तत्ततवे' तप्तं तापितं तपो येन स तथा एवं हि तेन तपस्तप्तं येन कर्माणि संताप्य तेन तपसा स्वात्माऽपि तपोरूपः संतापितो यतोऽन्यस्यासंस्पृश्यमिव जातमिति, 'महातवें' प्रशस्त तपाः बृहत्तपा वा, 'उराले' भीमः अतिकष्टतपः कारितया पार्श्ववर्त्तिनामल्यसत्त्वानां भवजनकत्वादुदारो वा प्रधान इत्यर्थः 'घोरः' निर्घृणः | परीषदाद्यरातिविनाशे 'घोरगुणे' अन्यैर्दुरनुचरगुणः 'घोरतवस्सी' घोरैखपोमिस्तपस्वी 'घोरवंभचेरवासी' घोरे अल्पसत्त्वदुरनुचरत्वेन दारुणे ब्रह्मचर्ये वस्तुं शीलं यस्य स तथा 'उच्छूढसरीरे उच्छूढम् उज्झितमिव उज्झितं शरीरं येन तत्प्रतिकर्मत्यागात् 'संखित्तविउलतेडलेस्से' संक्षिप्ता शरीरान्तर्वर्त्तिनीत्याद्विपुला च विस्तीर्णा अनेकयोजनप्रमाणक्षेत्राश्रितवस्तुदद्दनसमर्थत्वात् तेजोलेश्या - विशिष्टतपोजन्यलब्धिवि| शेषप्रभवा तेजोज्वाला यस्य स तथा 'जाणू' शुद्धपृथिव्यासनवर्जनात् औपग्रहिकनिषद्याया अभावाच्च उत्कटुकासनः सन्नुपदिश्यते ऊर्ध्व Jan Education intemational गौतमस्वामिन: वर्णनं Cor P&Pests Use Only ~6~ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [3] दीप अनुक्रम [१] श्रुतस्कंध: (१). मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... विपाके श्रुत० १ ॥ ३४ ॥ “विपाकश्रुत” अंगसूत्र -११ ( मूलं + वृत्तिः) अध्ययनं [१] मूलं [१] ... आगमसूत्र [११], अंग सूत्र [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः .......... Education Intel गौतमस्वामिन: वर्णनं - - गए तिक्खुत्तो आग्राहिणपयाहिणं करेति २त्ता वंदति २त्ता नमंसति २त्ता जावं पज्जुवासति, एवं वयासी(सू० १) जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं दसमस्स अंगस्स पण्हावागरणाणं अय मट्ठे पन्नत्ते, एकारसमरस णं भंते! अंगस्स विवागसुयस्स समणेणं जावसंपत्तेर्ण के अट्ठे पन्नत्ते ?, तते णं अज्जसुहम्मे अणगारे जंबु अणगारं एवं वयासी - एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं एकारसमस्स अंगस्स जानुनी यस्य स ऊर्ध्वजानुः 'अहोसिरो' अधोमुखो नोर्द्ध तिर्यग्वा विक्षिप्तदृष्टिरिति भावः 'झाणकोडोवगए' ध्यानमेव कोष्ठो ध्यानकोष्ठस्तमुपगतो यः स तथा 'विहरइत्ति 'संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरई' इत्येवं दृश्यं, 'जायस' प्रवृत्तविवक्षितार्थश्रवणवाञ्छः, यावत्करणादिदं दृश्यं 'जायसंसए' प्रवृतानिद्धरितार्थप्रत्ययः 'जायको उद्धे' प्रवृत्तश्रवणौत्सुक्यः ३ 'उप्पन्नस' प्रागभवदुद्भूतश्रवणवाच्छः उत्पन्नश्रद्धत्वात् प्रवृत्तश्रद्धः इत्येवं हेतुफलविवक्षणान्न पुनरुकता, एवं उप्पन्नसंसए उत्पन्नकोउले ३ संजायसड्डे संजायसंसए संजायको -- उहले ३ समुत्पन्नसट्टे समुप्पन्नसंसए समुप्पन्न कोउहले ३' व्यक्तार्थानि, नवरमेतेषु पदेषु संशब्दः प्रकर्षादिवचनः अन्ये त्वाहु:-- | 'जातश्रद्धो' 'जातप्रभवाञ्छः १, सोऽपि कुतो ?, यतो जातसंशयः २, सोऽपि कुतो ?, यतो जातकुतूहल: ३, अनेन पदत्रयेणावमह उक्तः, एवमन्येन पदानां त्रयेण श्रयेण ईहा १ वाय २ धारणा ३ उक्ता भवन्तीति, 'तिक्स्युत्तों'त्ति 'त्रिकृत्वः' श्रीन् वारान् 'आयाहिण'चि आदक्षिणात् दक्षिणपार्श्वादारभ्य प्रदक्षिणो-दक्षिणपार्श्ववत आदक्षिणप्रदक्षिणोऽतस्तं 'बंद'ति स्तुत्या 'नमंसई'ति नमस्यति प्रणामतः । १६ यावत्करणादिदं दृश्यं 'सुस्सूसमाणे नमसमाणे विणणं पंजलिउडे अभिमुद्देति व्यक्तं च । ForParsons Use Onde ~7~ १ मृगापुत्रीयाध्य. अध्ययनोपोद्घातः सू० २ ॥ ३४ ॥ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [२] गाथा दीप अनुक्रम [२-४] अनु. ८ “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [१] मूलं [२] + गाथा श्रुतस्कंध [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः विवागसुपस्स दो सुयक्खधा पत्ता, तं० विवागाय १ सुहविवागा य २, जइ णं भंते! समणेणं जाब संपशेणं एकार समस्त अंगस्स विवागसुयस्स दो सुयक्खंधा पन्नत्ता, तंजहा -- दुहविवागा य. १ सुहविवागा य २, पढमस्स णं भंते! सुयक्खंधस्स दुहविवागाणं समणेणं जाव संपत्तेणं कई अज्झयणा पत्ता?, तते णं असुहम्मे अणगारे जंबू अणगारं एवं वयासी - एवं खलु जंबू ! समणेणं० आइगरेणं तित्थगरेणं जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं दस अझयणा पन्नता, तंजहा - 'मियापुले १ य उज्झियते २ अभग्ग ३ सगडे ४ बहस्सई ५ नंदी ६ । उंबर ७ सोरियदते ८ य देवदत्ता य९ अंजू या १० ॥ १ ॥ जइ णं भंते! समणेणं० आइगरेणं तित्थयरेणं १ 'दुविवागा यति 'दुःखविपाकाः पापकर्मफलानि दुःखानां वा दु:खहेतुत्वात् पापकर्मणां विपाकास्ते यत्राभिधेयतया स त्यसौ 'वरणानगर' मिति न्यायेन दुःखविपाका:- प्रथमश्रुतस्कन्धः, एवं द्वितीयः मुखविपाकाः, 'तए णं'ति ततः - अनन्तरमित्यर्थः । २ 'मियउत्ते' इत्यादिगाथा, तत्र 'मियउत्ते'ति मृगापुत्राभिधानराजसुतवतव्यताप्रतिबद्धमध्ययनं मृगापुत्र एवं १, एवं सर्वत्र, नवरम् 'उज्झियए'ति उज्झितको नाम सार्थवाहपुत्रः २, 'अभग्ग'त्ति सूत्रत्वादभमसेनो विजयाभिधानचौरसेनापतिपुत्रः ३, 'सग| डे'ति शकटाभिधान सार्थवाहसुतः ४, 'वहस्सइति सूत्रत्वादेव बृहस्पतिदत्तनामा पुरोहितपुत्रः ५, 'नंदी' इति सूत्रत्वादेव नन्दिवर्द्धनो राजकुमारः ६, 'उबर'त्ति सूत्रत्वादेव उदुम्बरदत्तो नाम सार्थवादसुतः ७, 'सोरियदत्ते' शौरिकदत्तो नाम मत्स्यबन्धपुत्रः ८, शब्दः समुचये 'देवदत्ता य'त्ति देवदत्ता नाम गृहपतिसुता ९, चः समुचये 'अंजू यत्ति अजूनामसार्थवाहसुवा १०, पशब्दः समुचये, इति गावासमासार्थः, विस्तरार्थस्तु यथास्वमभ्ययनार्थावगमादवगम्य इति । Ja Education Internation श्रुतस्कन्ध एवं अध्ययनस्य नामानि For Pasta Lise Only ~8~ wor Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [१] ------------------------ मूलं [२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत विपाके श्रुत०१ सूत्रांक ॥३५॥ 4-45515s जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं दस अज्झयणा पन्नत्ता, तं-मियापुत्ते य १ जाव अंजू य १०, पढमस्स णं मृगापुभंते! अज्झयणस्स दुहविवागाणं समणेणं जाव संपत्तेणं के अढे पन्नते?, तते णं से सुहम्मे अणगारे जंबूअण- त्रीयाध्य. गारं एवं वयासी-एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं मियगामे नामे णगरे होत्था वण्णओ, तस्स णं है मृगापुत्र|मियगामस्स णयरस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए चंदणपायवे नाम उज्जाणे होत्था, सव्वोउयव- जन्म पणओ, तत्थ णं सुहम्मस्स जक्खस्स जक्खाययणे होत्था चिरातीए जहा पुन्नभद्दे, तस्थ णं मियग्गामे णगरे सू०२ विजएनाम खत्तिए राया परिवसह वन्नओ, तस्स णं विजयस्स खत्तियस्स मिया नामं देवी होत्था अहीणवनओ, तस्स णं विजयस्स खत्तियस्स पुत्ते मियाए देवीए अत्तए मियापुत्ते नार्म दारए होत्या, जातिअंधे| जाइमूए जातिबहिरे जातिपंगुले य हुंडे व बायब्वे य, नस्थि णं तस्स दारगस्स हत्था वा पाया वा कन्ना वा अच्छी चा नासा वा, केवलं से तेर्सि अंगोवंगाणं आगई आगतिमित्ते, १ एवं खलु'त्ति एवं' वक्ष्यमाणप्रकारेण 'खलुः' वाक्यालङ्कारे 'सब्बोउयवण्णओ'त्ति सर्व ककुसुमसंछन्ने नंदणवणप्पगासे इत्याविरुद्यानवर्णको वाच्य इति, 'चिराइए'ति चिरादिक-चिरकालीनप्रारम्भमित्यादिवर्णकोपेतं वाच्यं, यथा पूर्णभद्रचैत्यमौपपातिके, 'अहीणवन्नओ'ति 'अहीणपुन्नपंचिंदियसरीरे' इत्यादिवर्णको वाच्यः 'अत्तए'त्ति आत्मजः-सुतः 'जाइअंधे'त्ति जात्यन्धोजन्मकालादारभ्यान्ध एवं 'हुंडे यति हुण्डका सर्वावववप्रमाणविकलः 'वायब्वे'त्ति वायुरस्खास्तीति वायवो-वातिक इत्यर्थः, 'आगिई ॥ ३५॥ आगइमेत्ते'त्ति अङ्गावयवानामाकृति:-आकारः किंविधा ? इत्याह-आकृतिमात्रं-आकारमात्र नोचितस्वरूपेत्यर्थः दीप अनुक्रम [२-४] CANCS दुःखविपाक-श्रुतस्कन्धे मृगापुत्रस्य कथायाः आरम्भ: ~9~ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [१] ------------------------ मूलं [२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक NORAMA तते णं सा मियादेवी तं मियापुत्तं दारगं रहस्सियंसि भूमिघरंसि रहस्सिएणं भत्तपाणेणं पडिजागरमाणी रविहरह (सू०२) तत्थणं मियग्गामे णगरे एगे जातिअंधे पुरिसे परिवसह, सेणं एगेणं सचक्खुतेणं परिसेणं पुरओ दंडएणं पगढिजमाणे २ फूहडाइडसीसे मच्छियाचडगरपहकरेणं अपिणजमाणमग्गे मियग्गामे नयरे गेहे २ कालुणवडियाए विर्ति कप्पेमाणे विहरह। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जाव समोसरिए जाव परिसा निग्गया। तए णं से विजए खसिए इमीसे कहाए लढे समाणे जहा कोणिए तहा निग्गते जाव पब्रुवासह, तते णं से जातिअंधे पुरिसे तं महया जणसई जाच सुणेत्ता तं पुरिसं एवं बयासी-किन्न देवाणुप्पिया! अज्ज मियग्गामे णगरे इंदमहेइ वा जाव निग्गच्छद, तते णं से पुरिसे तं जातिअंधपुरिसं एवं वयासी-नो खलु देवाणुप्पिया! १ 'रहस्सिय'ति राहसिके जनेनाविदिते 'फुट्टहडाहडसीसेति 'फुट्ट ति स्फुटितकेशसंचयत्वेन विकीर्णकेशं 'इडाहडं ति अत्यर्व शीर्ष-शिरो यस्य स तथा, 'मच्छियाचडकरपहयरेणं ति मक्षिकाणां प्रसिद्धानां चटकरप्रधानो-विस्तरवान् यः प्रहकर:-समूहः स तथा अथवा मक्षिकाचटकराणां-तद्वन्दानां यः प्रहकरः स तथा तेन 'अणिज्जमाणमग्गे'त्ति 'अन्वीयमानमार्गः' अनुगम्यमानमार्गः, मलाविलं हि वस्तु प्रायो मक्षिकाभिरनुगम्यत एवेति 'कालुणवडियाए'त्ति कारुण्यवृत्या 'वित्तिं कप्पेमाणे'त्ति जीविका कुर्वाणः । २ 'जाव समोसरिए'त्ति इह यावत्करणात् 'पुव्वाणुपुर्वि परमाणे गामाणुगामं दूइजमाणे इत्यादिवर्णको दृश्यः, 'तं महया जणसई पति सूत्रखान्महाजनशब्द प, इद यावत्करणात् 'जणवूई च जणबोलं 'त्यादि दृश्य, तत्र जनम्यूहः-पकायाकारा समूहस्तस्य | शब्दसदभेदाजनन्यूह एवोच्यते ऽतसं बोल:-अव्यक्तवर्णों ध्वनिरिति दीप अनुक्रम [२-४] * ~ 10~ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [१] ------------------------ मूलं [3] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: विपाके श्रुत०१ प्रत ॥३६॥ गमा सूत्रांक SCAAAAAAसर इंदमहेह वा जाव णिग्गच्छति, एवं खलु देवाणुपिया! समणे जाव विहरति, तते णं एते जाव| मृगापुनिग्गच्छति, तते णं से अंधपुरिसे तं पुरिसं एवं वयासी-गच्छामो णं देवाणुप्पिया! अम्हेवि समणं त्रीयाध्य. भगवं जाव पजुवासामो, तते णं से जातिअंधे पुरिसे पुरतो दंडएणं पगढिजमाणे २ जेणेव समणे भगवंजात्यन्धामहावीरे तेणेव उवागए २त्ता तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ २सा वंदति नमसति २त्ता जाच पज्जुवासति, तते णं समणे० विजयस्सतीसे य. धम्ममाइक्खति. परिसा जाव पडिगया, विजएवि गते सू०३ (सू०३) तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स० जेहे अंतेवासी इंदभूतिनाम अणगारे जाव विहरह, तते गं | १'इंदमहे इ वति इन्द्रोत्सवो वा, इह यावत्करणात् 'खंदमहे वा रुद्दमहे वा जाव उजाणजत्ताइ वा, जन्न बहवे उग्गा भोगा जाव एगदिसि एगाभिमुहा' इति दृश्यम्, इतो यहाक्यं तदेवमनुसर्तव्यं, सूत्रपुसके सूत्राक्षराण्येव सन्तीति, 'तए णं से पुरिसे तं | जाइअंधपुरिसं एवं वयासी-नो खलु देवाणुप्पिया! अज मियग्गामे नवरे इंदमहे वा जाव जत्ताइ वा जन्नं एए उम्गा जाव एगदिसि | एगाभिमुहा णिग्गच्छंति, एवं खलु देवाणुप्पिया! समणे भगवं महावीरे जाव इह समागते इह संपत्ते इहेब मियगामे णगरे मिगवणुजाणे | अहापडिरूवं उम्गई उग्गिहित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरति, तए णं से अंधपुरिसे तं पुरिसं एवं वयासी' इति, 'विजयस्स तीसे य धम्म'त्ति इदमेवं दृश्य-विजयस्स रनो तीसे व मइइमहालियाते परिसाए विवित्तं धम्ममाइक्खइ जहा| जीवा बझंती'त्यादि परिषद् यावत् परिगता 'जाइअंधेत्ति जातेरारभ्यान्धो जात्यन्धः, स च चक्षुरुपघातादपि भवतीत्यत आह'जायअंधारूवेति जातं-उत्पन्नमन्धक-नयनयोरादित एवानिष्पत्तेः कुत्सिताझं रूपं सरूपं यस्यासी जातान्धकरूपः, दीप अनुक्रम 138 ~114 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [४] दीप अनुक्रम [ε] “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कंध : [१], अध्ययनं [१] मूलं [४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .. .. आगमसूत्र [११], अंग सूत्र [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः से भगवं २ गोयमे तं जातिअंधपुरिसं पास २ ता जायस जाव एवं वयासी - अस्थि णं भंते! केई पुरिसे जातिअंधे जातिअंधारूवे ?, हंना अत्थि, कहणणं भंते! से पुरिसे जातिअंधे जातिअंधारूवे ?, एवं खलु गोयमा। इहेब मियागामे नगरे विजयस्स खत्तियस्स पुत्ते मियादेवीए अत्तए मियापुत्ते नामं दारए जातिअंधे जातिअंधारू, नत्थि णं तस्स द्वारगस्स जाव आगतिमिते, तते णं सा मियादेवी जाव पडिजागरमाणी २ विहरति, तते गं से भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं बंद नम॑सति २ सा एवं वयासी- इच्छामि णं भंते! अहं तुम्भेहिं अन्भणुन्नाए समाणे मियापुत्तं दारगं पासितए, अहासुहं देवाणुप्पिया !, तते णं से भगवं गोयमे समणेणं भगवया० अन्भणुन्नाए समाणे हट्ठे तुढे समणस्स भगवओ० अंतियाओ पडिनिक्खमइ २ ता अतुरियं जाव सोहेमाणे २ जेणेव मियग्गामे नगरे तेणेव उवागच्छति २ सा भियग्गामं नगरं मज्झंमज्झेण जेणेव मियादेवीए गेहे तेणेव उवागए, तते णं सा मियादेवी भगवं गोयमं एजमाणं पास २ त्ता हतुंड जाव एवं क्यासी- संदिसंतु णं देवाणुप्पिया । किमागमणपयोयणं?, तते णं भगवं गोयमे मियादेविं एवं वयासी- अहरणं देवाणुप्पिए । तव पुत्तं पासितुं हृब्वैमागए, तते णं सा मियादेवी १ 'अतुरियं'ति अत्वरितं मनःस्थैर्यात् यावत्करणादिदं दृश्यम् 'अचवलमसंभंते जुगंतरपलोयणाए दिद्वीप पुरओ रियंति तत्राचपकायचापल्याभावात् क्रियाविशेषणे येते, तथा 'असंभ्रान्तः ' भ्रमरहितः युगं-यूपस्तप्रमाणो भूभागोऽपि युगं तस्यान्तरेमध्ये प्रलोकनं यस्याः सा तथा तया या चक्षुषा 'रियं'ति ईर्वा गमनं तद्विषयो मार्गोऽपीयऽतस्तां 'जेणेव 'त्ति यस्मिन् देशे २ 'हट्ठजाब'ति इह 'तुमादिए' इत्यादि दृश्यम् एकार्थाचैते शब्दाः, ३ 'हवं' वि शीघ्रम । Educatunintentiona For Park Use Only ~ 12 ~ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [ε] विपाके श्रुत० १ ॥ ३७ ॥ “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ ( मूलं + वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१], अध्ययनं [१] मूलं [४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... .. आगमसूत्र [११], अंग सूत्र [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः मियापुत्तस्स दारगस्स अणुमग्गजायते चत्तारि पुते सव्वालंकारविभूसिए करेति २ त्ता भगवतो गोय मस्स पादेसु पाडेति २ ता एवं वयासी- एए णं भंते! मम पुत्ते पासह, तते णं से भगवं गोयमे मिया| देवीं एवं वयासी-नो खलु देवा० अहं एए तव पुत्ते पासि हव्यमागते, तत्थ णं जे से तब जेडे मियापुते दारए जाइअंधे जातिअंधारूवे अं णं तुमं रहस्सिसि भूमिधरंसि रहस्सिएणं भत्तपाणेणं पडिजागरमाणी २ विहरसि तं णं अहं पासिउं हवमागए, तते णं सा मियादेवी भगवं गोयमं एवं वयासी-से के णं गोयमा ! से तहारूवे णाणी वा तवस्सी वा जेणं तव एसमट्ठे मम ताव रहस्सिकए तुम्भं हव्वमक्खाए जेओ नं तुन्भे जाणह ?, तते णं भगवं गोयमे मियादेवीं एवं क्यासि - एवं खलु देवाणुप्पिया ! मम धम्मायरिए समणे भगवं महावीरे जतो णं अहं जाणामि, जावं च णं मियादेवी भगवया गोयमेण सद्धिं एयम संलवति तावं चणं मियापुत्तस्स दारगस्स भत्तवेला जाया यावि होत्था, तते णं सा मियादेवी भगवं गोयमं एवं वयासी -तुम्भे णं भंते! इहं चेव चिट्ठह जाणं अहं तुम्भं मियापुत्तं दारगं उवदंसेमित्तिकट्टु जेणेव भत्तपाणघरे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता वैत्थपरियद्वयं करेति वत्थपरियहयं करिता कट्टसगडियं गिण्हति कट्टसग डियं गिव्हित्ता विपुलस्स असणपाणखाइमसाइमस्स भरेति विपुलस्स असणपाणखाइमसाइमस्स भरित्ता १ 'जओ णं'ति यस्मात् । २ 'जाया यावि होत्था' जाता चाप्यभवदित्यर्थः । ३ 'वत्थपरियहं ति वस्त्रपरिवर्त्तनम् । Eaton nationa For Par Lise On ~13~ १ मृगापु श्रीयाध्य. मृगापुत्रा वलोकन सू० ४ ॥ ३७ ॥ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [१] ------------------------ मूलं [४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक तं कहसगडियं अणुकहमाणी २ जेणामेव भगवं गोयमे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता भगवं गोयम एवं घयासी-एहणं तुन्भे भंते ! मम अणुगच्छह जा णं अहं तुम्भं मियापुत्तं दारगं उचदंसेमि, तते णं से भगवं गोयमे मियं देवि पिट्ठओ समणुगच्छति, तते णं सामियादेवीतं कट्ठसगडियं अणुकद्दमाणी २ जेणेव भूमिघरे ? तेणेव उवागच्छह २त्ता चउप्पुडेणं वस्थेणं मुहं बंधेति मुहं बंधमाणि भगवं गोयम एवं चयासी तुम्भेऽवि गं भंते! मुहपोत्तियाए मुहं बंधह, तते णं से भगवं गोयमे मियादेवीए एवं बुत्ते समाणे मुहपोत्तियाए मुहं बंधे-15 ति, तते णं सा मियादेवी परम्मुही भूमिघरस्स दुवारं विहाडेति, तते णं गंधे निग्गच्छति से जहानामए अहिमडेति वा सप्पकडेवरे इ वा जाव ततोऽविणं अणिहतराए चेव जाव गंधे पन्नत्ते, तते णं से मियापुत्ते दारए तस्स विपुलस्स असणपाणखाइमसाइमस्स गंघेणं अभिभूते समाणे तंसि विपुलंसि असणपाण मुच्छितेतं विपुलं असणं ४ आसएणं आहारेति आहारित्ता खिप्पामेव विद्धंसेति विद्धंसेत्ता ततो पच्छा पूयत्ताए य सोणियत्ताए य परिणामेति तंपि य णं पूर्य च सोणियं च आहारेति, तते णं भगवओ गोयमस्स तं मिया से जहानामए'त्ति तद्यथा नामेति वाक्यालकारे । २ 'अहिमडेइ वा सपकडेवरे इ वा इह यावत्करणात् 'गोमडेइ वा सुणहदगडेइ वा' इत्यादि द्रष्टव्यम् । ३ 'ततोविणं'ति ततोऽपि-अहिकडेवरादिगन्धादपि । ४ 'अणिद्वतराए चेय'त्ति अनिष्टतर एवं गन्ध | इति गम्यते, इह यावत्करणात् 'अकंततराए चेव अपियतराए चेव अमणुनतराए चेव अमणामतराए वत्ति दृश्यम् , एकार्थाश्वते ।। ४/५ 'मुच्छिए' इत्यत्र गढिते गिद्धे अझोववन्ने इति पदत्रयमन्यद् दृश्यम् , एकार्थान्येतानि चत्वार्यपीति । दीप अनुक्रम [६] ~14~ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [&] “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कंध : [१], अध्ययनं [१] मूलं [४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... .. आगमसूत्र [११], अंग सूत्र [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ॥ ३८ ॥ विपाके पुत्तं दारयं पासित्ता अयमेयारूवे अज्झत्थिए समुप्पज्जित्था - अहो णं इमे दारए पुरापोराणाणं दुचिण्णाणं श्रुत० १ २ दुप्पडिकंताणं असुभाणं पावाणं कडाणं कम्माणं पावगं फलवित्तिविसेसं पचणुग्भवमाणे विहरति, ण मे दिट्ठा णरगा वा णेरड्या वा पचक्खं खलु अयं पुरिसे नरयपडिरूचियं वेयणं वेयतित्तिकहु मियं देविं आपुच्छति २ ता मियाए देवीए गिहाओ पडिनिक्खमति गिहा २त्सा मियग्गामं नगरं मज्झमज्झेणं निग्गच्छति नि २ सा जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति २ सा समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ २ त्ता वंदति नम॑सति २ ता एवं बयासी एवं खलु अहं तुम्भेहिं अन्भणुष्णाए समाणे मियग्गामं नगरं मज्झमज्झेण अणुप्पविसामि जेणेव मियाए देवीए गेहे तेणेव उवागते, तते णं सा मियादेवी ममं एजमाणं पासइ २ त्ता हड्डा तं चैव सव्वं जाव पूर्व च सोणियं च आहारेति, तते गं मम हमे अज्झत्थिए समुप्पज्जित्था - अहो णं इमे दारए पुरा जाव विहरह (सू० ४ ) से णं भंते! पुरिसे १ 'अज्झथिए' इत्यत्र 'चितिए कप्पिए पत्थिए मणोगए संकष्पे इति दृश्यम् एतान्यप्येकार्थानि । २ ' पुरापोराणाणं दुच्चिनाणं' इहाक्षरघटना 'पुराणानां' जरठानां कक्खडी भूतानामित्यर्थः 'पुरा' पूर्वकाले 'दुचीर्णानां' प्राणातिपातादिदुश्चरितहेतुकानां 'दुष्पडिकंताणं'ति दुःशब्दोऽभावार्थस्तेन प्रायश्चित्तप्रतिपत्त्यादिना अप्रतिक्रान्तानां अनिवर्त्तितविपाकानामित्यर्थः, 'असुभाणं'ति असु खहेतूनां 'पावाणं'ति पापानां दुष्टखभावानां 'कम्माण' वि ज्ञानावरणादीनाम् । Education International For Palsta Use On ~15~ १ मृगापु त्रीयाध्य. मृगापुत्रा वलोकनं सू० ४ ॥ ३८ ॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], -------------------- अध्ययनं [१] -------------------- मूलं [५] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक का %A8-% पुन्वभवे के आसि [किंनामए वा किंगोए वा] कयरंसि गामंसि वा नयरंसि वा किं वा दचा किं वा भोचा किं वा समायरित्ता केसि वा पुरा जाब विहरति?, गोयमाइ समणे भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं ब-17 यासी-एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे २भारहे वासे सयदुवारे नाम नगरे होत्था रिद्धस्थिमिए वन्नओ, तत्थ णं सयदुवारे नगरे धणवई नामंराया हुत्था वणओ, तस्स सयदुवारस्स नगरस्स अदूरसामते दाहिणपुरच्छिमे दिसीभाए विजयबद्धमाणे णाम खेडे होत्था रिथिमियसमिडे, तस्स णं विजइयवद्धमाणस्स खेडस्स पंच गामसयाई आभोए यावि हुत्या, तत्थ णं विजयवद्धमाणे खेडे इकाई णामं रहकूडे, होत्था अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे, से णं इकाई रहकूडे विजयवद्धमाणस्स खेडस्स पंचण्हं गामसयाणं १ 'पुष्यभवे के आसि' इत्यत एवमध्ये-किनामए वा किंगोत्तए वा' तत्र नाम-यादृच्छिकमभिधानं गोत्रं तु-यथार्थ कुलं वा 'कयरंसि गामंसि वा नगरैसि वा किंवा दचा किंवा भोचा किंवा समायरेचा केसि वा पुरा पोराणाणं दुचिन्नाणं दुप्पडिकताणं असुहाणं पावाणं कम्माणं पावर्ग फलवित्तिचिसेसं पञ्चणुभवमाणे विहरईत्ति । २ 'गोयमाइत्ति गौतम इत्येषमामक्येति गम्यते ३ 'ऋद्धिस्थिमिए'त्ति ऋद्धिप्रधानं स्तिमितं च--निर्भयं यत्तत्तथा, 'वण्णओ'त्ति नगरवर्णकः, स चौपपातिकवद्रष्टव्यः, 'अदूरसामंते'त्ति नातिदूरे न च समीपे इत्यर्थः, 'खेडे'त्ति भूलीमाकारं 'रिद्धत्ति रिद्धत्वमियसमिद्धे' इति द्रष्टव्यम् , 'आभोए'त्ति विस्तारः 'राउडे'ति | राष्ट्रकूटो-मण्डलोपजीवी राजनियोगिकः ४ 'अहम्मिए'त्ति अधार्मिमको यावत्करणादिदं दृश्यम्-'अधम्माणुए अधम्मि अधम्मपलोई | अधम्मपलजणे अधम्मसमुदाचारे अधम्मेणं चेव वित्ति कप्पेमाणे दुस्सीले दुब्बए'त्ति, तन्त्र अधार्मिकत्वपश्वनायोच्यते-'अधम्माणुए' दीप अनुक्रम [७-८] ERACK 4 For P OW मृगापुत्रस्य पूर्वभव: -- "इक्काई रहकूड" ~ 16~ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [१] ------------------------ मूलं [५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक मृगापुत्रीयाध्य. मृगापुत्रपूर्वभवः सू०५ ॥६९॥ [५] ॐ4%* * % 4 विपाके आहेबच्चं जाव पालेमाणे विहरइ, तए णं से इक्काई विजयवद्धमाणस्स खेडस्स पंच गामसयाई बहहिं करेहि श्रुत०१४ मधर्म-श्रुतचारित्राभावं अनुगच्छतीत्यधर्मानुगः, कुत एतदेवमित्याह-अधर्म एव इष्टो-वल्लभः पूजितो वा यस्य सोऽधम्मिष्टः अति- शयेन बाऽधर्मी-धर्मवर्जित इत्यधम्मिष्टः, अत एवाधर्माख्यायी-अधर्मप्रतिपादकः अधर्मख्याति -अविद्यमानधर्मोऽयमित्येवंप्रसिद्धिकः, तथाऽधर्म प्रलोकयति-उपादेयतया प्रेक्षते यः स तथा, अत एवाधर्मप्ररजन:-अधर्मरागी अत एवाधर्मः समुदाचार:-समाचारो यस्य स तथा, अत एवाधर्मेण-हिंसादिना वृत्ति-जीचिका कल्पयन् सन् दुःशील:-शुभखभावहीनः दुर्बतन-व्रतवर्जितः दुष्पत्यानन्दःसाधुदर्शनादिना नानन्यत इति । १ 'आहेबछति अधिपतिकर्म, यावत्करणा दिदं यं-'पोरेवणं सामित्तं भट्टितं महत्तरगत आणाईसरसेणापर्ण कारेमाणे'त्ति तत्र पुरोवर्तित्वं-अग्रेसरत्वं स्वामित्वं-नायकत्वं भर्तृत्व-पोषकत्वं महत्तरकत्वं-उत्तमत्वं आजेश्वरस्य-आज्ञाप्रधानस्य यत्सेनापतित्वं तदाशेश्वरसेनापत्यं कारयन्-नियोगिकैविधापयन् पालयन् स्वयमेवेति । २ 'करेहि यति करैःक्षेत्राथाभितराजदेवद्रव्यैः 'भरेहि यत्ति तेषामेव प्राचुर्यैः 'विद्धीहि यति वृद्धिभिः-कुटुम्बिना वितीर्णस्य धान्यस्य द्विगुणादेहणैः, वृत्तिभिरिति कचित् , तत्र वृत्तयो-राजादेशकारिणां जीविकाः, 'उकोडाहि यत्ति लञ्चाभिः 'पराभएहि यत्ति पराभवैः 'देजेहि य' अनाभवदातव्यैः 'भेजेहि य'ति यानि पुरुषमारणाद्यपराधमाश्रित्य प्रामादिषु दण्डव्याणि निपतन्ति की दुम्बिकान् प्रति च भेदेनोदास्यन्ते तानि भेयानि अतस्तैः 'कुंतेहि यति कुन्तकम्-एतावदन्यं त्वया देयमित्येवं नियन्त्रणया नियोगिकस्य देशादेर्यत्समर्पणमिति, 'लंछपोसेहि यत्ति लम्छा:-चौरविशेषाः संभाव्यन्ते तेषां पोषा:-पोषणानि तैः, आलीवणेहि यत्ति ब्याकुललोकानां मोषणार्थ । प्रामादिप्रदीपनकै: 'पंथकोद्देहि यत्ति सार्थघातैः 'उचीलेमाणे त्ति अवपीलयन-बाधयन् । 4% **60- दीप अनुक्रम [७-८] *** ॥ ३९ ॥ * * ~17~ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [१] ------------------------ मूलं [५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक का Iय भरेहि य विद्धीहि य उक्कोडाहि च पराभवेहि य दिज्जेहि य भेजेहि य कुंतेहि य लंछपोसेहि आलीवणेहि य पंथकोद्देहि य उवीलेमाणे २ विहम्मेमाणे २ तज्जेमाणे २ तालेमाणे २ निद्धणे करमाणे २ विहरति । तते णं से इकाई रहकूडे विजयवद्धमाणस्स खेडस्स बहूणं राईसरतलवरमाइंबियकोडुंबियसेहि सस्थवाहाणं अन्नेसिं च बहणं गामेल्लगपुरिसाणं बहुसु कैजेसु य कारणेसु य संतेमु य गुजोसु य* निच्छएसु य ववहारेसु य सुणमाणे भणति-न सुणेमि असुणमाणे भणति-सुणेमि एवं पस्समाणे भासमाणे गिण्हमाणे जाणमाणे, तते णं से इकाई रहकूडे ऐयकम्मे एयप्पहाणे एयविज्जे एयसमायारे सुबहुं पावकम्मं कलिकलुसं समजिणमाणे विहरति, तते णं तस्स इकाईयस्स रहकूडस्स अन्नया कयाई सरीरगंसिर १ विहम्मेमाणेति विधर्मायन-वाचारभ्रष्टान् कुर्वन् 'तज्जमाणे ति कृतावष्टम्भान् तर्जयन्-ज्ञास्थय रे यन्मम इदं च इदं | |च न दत्स्वेत्येवं भेषयन् 'तालेमाणे'त्ति कशचपेटादिभिस्ताडयन् 'निद्धणे करेमाणे ति निर्द्धनान् कुर्वन् विहरति । २ 'तए णं से | Pइकाई रहकूडे विजयवद्धमाणस्स खेडस्स सत्कानां बहूर्ण राईसरसलवरमाडंबियकोडुंबियसेविसत्यवाहाण' इह तलवरा:-राजप्रसादवन्तो राजोत्थासनिकाः 'माडम्बिकाः' मडम्बाधिपतयो मडम्ब च-योजनद्वयाभ्यन्तरेऽविद्यमानप्रामादिनिवेशः सन्निवेशविशेषः शेषाः प्रसिद्धाः, । ३ 'कजेसु'त्ति कार्येषु-प्रयोजनेषु अनिष्पन्नेषु 'कारणेसुत्ति सिसाधयिषितप्रयोजनोपायेषु विषयभूतेषु ये मनादयो व्यवहारान्तास्तेषु, तन्त्र मन्त्रा:-पर्यालोचनानि गुह्यानि-रहस्यानि निश्चया-वस्तुनिर्णया: व्यवहारा-विवादास्तेषु विषये ४ । 'एयकम्मे एतद्व्यापारः एतदेव वा काम्य-कमनीयं यस्य स तथा, 'एयप्पहाणे'त्ति एतत्प्रधानः एतनिष्ठ इत्यर्थः, 'एयविजे ति एव विद्या-विज्ञानं यस्य स तथा 'एयसामायारे'त्ति एतज्जीतकल्प इत्यर्थः 'पावकम्मति अशुभं-ज्ञानावरणादि 'कलिकलुसं'ति कलहहेतुकलुष मलीमसमित्यर्थः । दीप अनुक्रम [७-८] ~ 18~ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [१] ------------------------ मूलं [५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: विपाके प्रत सूत्रांक श्रुत०१ ॥४०॥ गाथा जमगसमगमेव सोलस रोगायंका पाउम्भूया, तंजहा-सासे १ कासे २ जरे ३ दाहे ४, कुच्छिसूले ५ भगंदरे मृगापु६। अरिसा ७ अजीरए ८ विट्ठी ९, मुद्धसूले १० अकारए ११ ॥१॥ अच्छिवेयणा १२ कन्नवेपणा १३ कंडूत्रीयाध्य. १४ उदरे १५ कोढे १६ तते णं से इकाई रहकूडे सोलसहिं रोगायकेहिं अभिभूए समाणे कोडंपियपुरिसे मृगापुत्रसद्दावेइ २त्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया! विजयवद्धमाणे खेडे संघाडगतिगचउक्चचर- पूर्वभवः महापहपहेसु महया २ सहेणं उग्घोसेमाणा २ एवं बदह-इहं खलु देवाणुप्पिया! इकाईरहकूडस्स सरीर- सू०५ गसि सोलस रोगायंका पाउम्भूया, तंजहा-सासे १ कासे २ जरे ३ जाव कोढे १६, तं जो णं इच्छति देवाणुप्पिया! विजो वा विजपुत्तो वा जाणुओ वा जाणुयपुत्तो वा तेगिच्छी वा तेगिच्छिपुत्तो वा इकाईरहडस्स तेर्सि सोलसण्हं रोगायंकाणं एगमवि रोगायक उवसामित्तए तस्स णं इकाई रहकूडे विपुलं अत्यसंपयाणं दलयति, दोचंपि तच्चपि उग्घोसेह २ त्ता एयमाणत्तियं पचप्पिणह, तते ण ते कोढुंबियपुरिसा १ 'जमगसमग ति युगपत् 'रोगायकति रोगा-व्याधयस्त एवातका:-कष्टजीवितकारिणः । 'सासें' इत्यादि श्लोकः, 'जोणि|सूले'त्ति अपपाठः 'कुच्छिसूले' इत्यस्यान्यत्र दर्शनात् , 'भगंदले'त्ति भगन्दरः 'अकारए'त्ति अरोचकः, 'अच्छिवेयणा' इत्यादि| | लोकातिरिक्त, उदरे त्ति जलोदरं । शृङ्गाटकादयः स्थानविशेषाः । २ बिजो वति वैद्यशाने चिकित्सायां च कुशलः 'विजपुत्तो वति तत्पुत्रः 'जाणुओ वत्ति ज्ञायक:-केवलशास्त्रकुशलः 'तेगिच्छिओ वत्ति चिकित्सामात्रकुशलः 'अत्थसंपयाणं दलयइति | ला॥४०॥ अर्थदानं करोतीत्यर्थः, दीप अनुक्रम [७-८] अत्र मूल सम्पादकेन न किचित् स्वतंत्र सूत्र घोषित:, परंतु एका सूत्र संख्या-क्रमांकने स्खलना कृता: मया तत् स्थाने स्वतन्त्र अनुक्रम: दत्वा सूत्र . ६ इति सूत्रक्रम-६ लिखितं ...[यहां प्रत के संपादनमें सूत्र ५ के बाद ६ के स्थानमे सिधा ७ सूत्रक्रम हि दिया है, मैने सूत्रगाथा के बाद अतिरिक्त . क्रम देकर सू०६, सू०७ ऐसा लिख दिया है ] ~19~ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [१] ------------------------ मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक जाव पञ्चप्पिणंति, तते णं से विजयवद्धमाणे खेडे इमं एयारूवं उग्घोसणं सोचा निसम्म बहवे विज्जा य ६ सत्यकोसहत्थगया सरहिं २ गिहेहिंतो पडिनिक्खमंति २त्ता विजयवद्धमाणस्स खेडस्स मझमजलेणं जे व इकाइरहकूडस्स गिहे तेणेव उवागच्छद २त्ता इकाईरहकूडस्स सरीरगं परामुसंति २ ता तेसिं रोगाणं निदाणं पुच्छंति २त्ता इक्काईरहकूडस्स बहूहिं अन्भंगेहि य उब्वहणाहि य सिणेहपाणेहि य वमणेहि य विरेयणेहि य अवद्दहणाहि य अवण्हाणेहि य अणुवासणाहि य वस्थिकम्मेहि य निरुहेहि य सिरावेहेहि य तच्छणेहि य पच्छणेहि य सिरोवस्थीहि य तप्पणाहि य पुडपागेहि य छल्लीहि य मूलेहि य कंदेहि य SANCHAR दीप अनुक्रम १ 'सत्थकोसहत्थगय'त्ति शस्त्रकोशो-नखरदनादिभाजनं हस्ते गतो-व्यवस्थितो येषां ते तथा, २ 'अबद्दहणाहि यत्ति दम्भनैः 'अवण्हाणेहि यत्ति तथाविधद्रव्यसंस्कृतजलेन सानैः 'अणुवासणाहि यत्ति अपानेन जठरे तैलप्रवेशनैः 'बस्थिकम्मेहि | यति चर्मवेष्टनप्रयोगेण शिराप्रभृतीनां स्नेहपूरणैः गुदे वा वादिक्षेपणैः 'निरुहेहि यत्ति निरुहः-अनुवास एव केवलं द्रव्यकृतो विशेष: 'सिरावेहेहि यत्ति नाडीवेधैः 'तच्छणेहि यत्ति क्षुरादिना त्वचसनूकरणैः 'पच्छणेहि यत्ति हखैस्त्वचोविदारणैः 'सिरो-15 वस्थीहि यत्ति शिरोमस्तिभिः शिरसि बद्धस्य धर्मकोशकस्य द्रव्यसंस्कृततैलायापूरणलक्षणामिः, प्रागुक्तबसिकमाणि सामान्यानि अनुवासनानिरुह शिसवस्तयस्तु बदाः 'तप्पणाहि यत्ति तर्पणैः स्नेहादिभिः शरीवृंदणैः 'पुडपागेहि यति पुटपाका:-पाकविशेपनिष्पन्ना औषधिविशेषाः 'छल्लीहि यत्ति छल्लयो-रोहिणीप्रभृतयः ~ 20~ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [१] ------------------------ मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक विपाके पत्तेहि य पुष्फेहि य फलेहि य बीएहि य सिलियाहि य गुलियाहि य ओसहेहि य भेसज्जेहि य इच्छंति मृगापुश्रुत०१तसिं सोलसह रोगायंकाणं एगमवि रोगायंकं उवसमाविसए, नो चेव णं संचाएंति उबसामित्सए। ततेत्रीयाध्य. ते बहवे विज्जा य विजपुत्ता य जाहे नो संचाएंति तेसिं सोलसहं रोगार्यकाणं एगमवि रोगायक उप- मृगापुत्र॥४१॥ सामित्तए ताहे संतो तंता परितंता जामेव विसि पाउन्भूया तामेव दिसि पडिगया, तते णं इमाईरहकडेपूर्वभवः विबेहि य पडियाइक्खिए परियारगपरिचते निविषणोसहमेसजे सोलसरोगायंकेहिं अभिभूए समाणे रज्जेय रडेय जाय अंतेउरे य मुछिए रज्जं च रहेंच आसाएमाणे पत्थेमाणे पीहेमाणे अभिलसमाणे अद्वसहे अहाइजाई वाससयाई परमाउयं पालइत्ता कालमासे कालं किया इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उक्को सू०५ दीप अनुक्रम 'सिलियाहि यति शिलिका:-किराततिक्तकप्रभृतिकाः 'गुलियाहि यत्ति द्रव्यवटिकाः 'ओसहेहि यति औषधानिएकद्रव्यरूपाणि 'भेसजेहि यत्ति भैषज्यानि-अनेकद्रव्ययोगरूपाणि पध्यानि चेति । २ 'संत'त्ति आन्ता देहखेदेन 'तेत'त्ति तान्ता मनःखेदेन 'परितंत'त्ति उभयसेदेनेति 'रजे य रढे य' इत्यत्र यावत्करणाविदं दृश्यं-'कोसे व कोडागारे य वाहणे याति, 'मुच्छिए गढिए गिद्धे अज्झोववणें त्ति एकार्थाः, आसाएमाणे त्यादय एकार्थाः, 'अदृदुहट्टवसट्टे'त्ति आत्तों मनसा दुःखितो-दुःखातों देहेन वशार्तस्तु-इन्द्रियवशेन पीडितः, ततः कर्मधारयः, 'उजला' इह यावत्करणादिदं दृश्य-विउला ककसा पगाढा वेडा दुहा तिव्या दुरहियास'त्ति एकार्था एव, 'अणिट्ठा अकंता अप्पिया अमणुना अमणामा' एतेऽपि तथैव । X ॥४१॥ ~214 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [१] ------------------------ मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक ASRECENSAX सेणं सागरोवमद्वितीएम नेरइएसु नेरइयत्ताए उववन्ने, से णं ततो अणंतरं उध्वहित्ता इहेव मियग्गामे गगरेट |विजयस्स खसियस्स मियाए देवीए कुञ्छिसि पुत्सत्ताए उववन्ने, तते णं तीसे मियाए देवीए सरीरे वेयणा पाउन्भूया उज्जला जाव जलंता, जप्पमिदं च णं मियापुसे दारए मियाए देवीए कुञ्छिसि गम्भत्साए उववन्ने तप्पमिईच णे मियादेवी विजयस्स अणिट्ठा अर्कता अप्पिया अमणुन्ना अमणामा जाया यावि होत्था, तते णं तीसे मियाए देवीए अन्नया कयाई पुन्वरत्तावरसकालसमयंसि कुटुंबजागरियाए जागरमाणीए इमे एयारूवे अजमथिए जाव समुप्पजिस्था-एवं खलु अहं विजयस्स खसियस्स पुचि हा धेज्जा सासिया अणुमया आसी, जप्पमिदं च णं मम इमे गम्भे कुञ्छिसि गन्भत्साए उववन्ने तप्पभिई च णं अहं विजयस्स खत्तियस्स अणिवा जाव अमणामा जाया यावि होत्था, निच्छति णं विजए खसिए मम नामं वा गोयं %ACANCote दीप अनुक्रम १'पुष्यरत्तावरत्तकालसमयंसि'त्ति पूर्वरात्रो-रात्रेः पूर्वभाग: अपररात्रो-रात्रेः पश्चिमो भागस्तलक्षणो यः कालसमयः |-कालरूपः समयः स तथा तत्र 'कुटुंबजागरियाए'त्ति कुटुम्बचिन्तयेत्यर्थः, 'अज्झस्थिए'त्ति आध्यात्मिकः आत्मविषयः, इह चा न्यान्यपि पदानि दृश्यानि, तद्यथा-'चिंतिए'त्ति स्मृतिरूपः 'कप्पिए'ति बुझ्या व्यवस्थापितः 'पस्थिति प्रार्थितः प्रार्थनारूपः 'मणो" गए'त्ति मनस्येव वृत्तो बहिरप्रकाशितः संकल्पः-पर्यालोचः, 'इडे'त्यादीनि पञ्चैकार्थिकानि प्राग्वत्, 'धिजे ति ध्येया 'वेसासिय'त्ति विश्वसनीया अणमय'ति विप्रियदर्शनस्म पश्चादपि मता अनुमतेति, 'नाम'ति पारिभाषिकी सझा 'गोयंति गोत्रं-आन्वर्थिकी सीवेति ~ 22 ~ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [१] ------------------------ मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: विपाके श्रुत०१ प्रत सूत्राक ॥४२॥ %*र दीप वा गिण्हित्तए वा किमंग पुण दंसणं वा परिभोग वा १, तं सेयं खलु मम एयं गन्भ बहूहि गम्भसाडणाहि य १मृगापुपाडणाहि य गालणाहि य मारणाहि य साडित्तए वा ४, एवं संपेहेइ संपेहित्ता बहूणि खाराणि य कडु- त्रीयाध्य. याणि य तूवराणि य गन्भसाडणाणि य खायमाणी य पीयमाणी य इति तं गम्भं साडित्तए वा ४ नो मृगापुत्रचेव णं से गन्भे सडइ वा ४। तते णं सा मियादेवी जाहे नो संचाएति तं गन्भं साडेत्तए वा ४ ताहे| | पूर्वभवः संता तंता परितंता अकामिया असवसा तं गन्भं दुहंदुहेणं परिवहद, तस्स णं दारगस्स गम्भगयस्स चेव। अट्ट नालीओ अम्भितरप्पवहाओ अट्ठ नालीओ बाहिरपवहाओ अट्ठ पूयप्पवहाओ अट्ट सोणियप्पवहाओ दुवे दुवे कपणंतरेसु दुवे दुवे अच्छित्तरेसु दुवे दुचे नक्कतरेसु दुवे दुचे धमणिअंतरेसु अभिक्खणं अभिक्खणं पूयं च सोणियं च परिसवमाणीओ२ चेच चिट्ठति, तस्स णं दारगस्स गन्भगयस्स चेव अग्गिए नामं वाही १ किमंग पुण'त्ति किं पुनः 'अंग' इत्यामन्त्रणे 'गब्भसाडणाहि यत्ति शातना:-गर्भस्य खण्डशो भवनेन पतनहेतवः 'पाडणाहि य'त्ति पातनाः यैरुपावैरखण्ड एवं गर्भः पतति 'गालणाहि यत्ति वैर्गों द्रवीभूय क्षरति 'भारणाहि यत्ति मरणहेतवः । २'अकामिय'ति निरभिलाषा: 'असयंवसति अवयंवशा 'अट नालीओ'त्ति अष्टौ नाड्य:-शिरा: 'अम्भितरपवहाउति शरीरस्वाभ्यन्तर एव रुधिरादि सवन्ति यास्तास्तथोच्यन्ते, 'बाहिरप्पवहाउत्ति शरीरादहिः पूषावि क्षरन्ति यास्तास्तथोकाः, एता एव षोडश || विभज्यन्ते 'अडे'त्यावि, कथमित्याह-'दुवे दुवेत्ति द्वे पूयप्रवाहे वे च शोणितप्रवाहे, ते च केल्याह-कन्नंतरेसु' श्रोत्ररन्ध्रयोः, एवमेताश्चतस्रः, एवमन्या अपि व्याण्येयाः, नवरं धमन्य:-कोष्टकट्टान्तराणि 'अग्गियए'ति अनिको भस्मकाभिधानो वायुविकारः अनुक्रम %% % ~23~ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [१] ------------------------ मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप पाउन्भूए जे णं से दारए आहारेति से णं खिप्पामेव विद्धसमागच्छति पूयत्साए सोणियत्ताए य परिणमति, तंपिय से पूर्यच सोणियं च आहारेति, तते णं सा मियादेवी अन्नया कयाई नवण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं दा-13 रगं पयाया जातिअंधे जाव आगइमित्ते, तते णं सामियादेवी तं दारगं हुंडं अंधारूवं पासति २त्ता भीया अम्मधाई सद्दावेति २त्ता एवं वयासी-गच्छह णं देवाणुप्पिया! तुम एयं दारगं एगते उकुरुडियाए उ-12 ज्झाहि, तते णं सा अम्मधाई मियादेवीए तहत्ति एयम8 पडिमुणेति २त्ता जेणेव विजए खत्तिए तेणेव उवागच्छद तेणेव उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं एवं वयासी-एवं खलु सामि! मियादेवी नवण्हं मासाणं जाव आगतिमित्ते, तते णं सा मियादेवी तं हुंडं अंधारूवं पासति २त्ता भीया तत्था उचिग्गा संजायभया ममं सद्दावेइ २त्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया! एवं दारगं एगते उकुरुडियाए|४ उज्झाहि, तं संविसह णं सामी! तं दारगं अहं एगते उज्झामि उदाहु मा?, तते णं से विजए खत्तिये तीसे अम्मधाईए अंतिए एयमह सोचा तहेव संभंते उट्ठाए उद्देति उट्ठा २त्ता जेणेष मियादेवी तेणेव उवागच्छ १'जाइअंधे' इत्यत्र यावत्करणात् 'जाइमूए' इत्यादि दृश्यं, 'हुंडं ति अव्यवस्थिताकावयव 'अंधारूवं'ति अन्धाकृतिः, 'भीया' इत्यत्रैतदृश्यं 'तत्था उब्विग्गा संजायभया' भयप्रकर्षाभिधानायैकार्थाः शब्दाः, 'करयले यत्र 'करयलपरिग्गहियं दसणहं | मत्थए अंजलिं कुटु' इति दृश्य, 'नवण्ह'मित्यत्र 'मासाणं बहुपडिपुन्नाण'मित्यादि दृश्य, तथा 'जाइअंध'मित्यापि च, 'संभंतेति उत्सुकः 'उडाते उद्देइति उत्थानेनोत्तिष्ठति, 'पय'त्ति ग्रजा:-अपत्यानि, 'रहस्सिगयंसि'त्ति राहसिके विजने इत्यर्थः । SECRECACA-CA सरकASANA अनुक्रम ~ 24 ~ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [६] दीप अनुक्रम [s] विपाके श्रुत० १ “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययनं [१] मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... .. आगमसूत्र [११], अंग सूत्र [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ॥ ४३ ॥ ति २ ता मियादेवीं एवं बयासी देवाणुप्पिया! तुब्भं पढमं गन्भे तं जइ णं तुभे एवं एगंते कुरुडियाए उज्झासि ततो णं तुम्भे पया नो थिरा भविस्सति, तो णं तुमं एवं दारगं रहस्सियस भूमिघरंसि रहस्सिएणं भत्तपाणेणं पडिजागरमाणी २ विहराहि तो णं तुभं पया थिरा भविस्सति, तते णं सा मियादेवी ४ विजयस्स खत्तियस्स तहत्ति एयमहं विणएणं परिसुणेति पडि २ सा तं दारणं रहस्सियंसि भूमिघरंसि रह० भत्तपाणेणं पडिजागरमाणी विहरति, एवं खलु गोयमा ! मियापुत्ते दारए पुरापुराणाणं जाव पञ्चशुष्भवमाणे विहरति । (सू० ६) मियापुत्ते णं भंते! दारए हओ कालमासे कालं किवा कहिं गमहिति ? कहिँ उबवजिहिति १, गोयमा । मियापुत्ते दारए छब्बीसं वासाई परमाउयं पालइत्ता कालमासे कालं किया इहेब अंबुद्दीवे दीवे भार वाले वेहगिरिपायमूले सीहकुलंसि सीहत्ताए पञ्चायाहिति, से णं तत्थ सीहे भवि स्पति अहम्मिए जाव साहसिए सुबहूं पावं जाव समजिणति जाव समज्जिणित्ता कालमासे कालं किया इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उक्कोससॉगरोवमठितीएस जाव उववज्जिहिति, से णं ततो अनंतरं उच्च १ 'पुरा पोराणाणं'ति पुरा - पूर्वकाले कृतानामिति गम्यम् अत एव 'पुराणानां' चिरन्तनानाम्, इह च यावत्करणात् 'दुचिन्नाणं दुष्पडिकंताणं' इत्यादि 'पावर्ग फलवित्तिविसेस' मित्यन्तं द्रष्टव्यम् । २ 'अहम्मिए' इत्यत्र यावत्करणाविवं दृश्यं --- 'बहुनगरनिग्गयजसे सूरे दढप्पहारी ति, व्यक्तं च । ३ 'कालमासे'त्ति मरणावसरे । ४ 'सागरोत्रम जावति 'सागरोपमहिईएस नेरइयत्ताएं द्रष्टव्यम् । मृगापुत्रस्य आगामि-भवा: For Praise Only ~ 25~ १ मृगापुत्रीयाध्य. मृगापुत्रगत्यादि सू० ७ ॥ ४३ ॥ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [७] दीप अनुक्रम [१०] “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ ( मूलं + वृत्तिः ) श्रुतस्कंध : [१], अध्ययनं [१] मूलं [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... .. आगमसूत्र [११], अंग सूत्र [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः हिसा सरीसवेसु उववज्जिहिति, तत्थ णं कालं किया दोचार पुढवीए उक्कोसेणं तिनि सागरोवमाहूं, से णं ततो अनंतरं उच्चहित्ता पक्खीसु उववज्जिहिति, तत्थवि कालं किया तथाए पुढवीए सत्त सागरोवमाई, से णं ततो सीहेसु य, तथाणंतरं चोत्थीए उरगो पंचमी० इत्थी छुट्टी० मणुआ० अहे सत्तमाएं, ततोऽणंतरं उब्वहित्ता से जाहूं हमाई जलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं मच्छकच्छभगाहमगर सुसुमारादीर्ण अ खतेरस जातिकुल कोडिजोणिपमुहसयसहस्साइं तत्थ णं एगमेगंसि जोणीविहाणंसि अणेगसतसहस्सखुत्तो उद्दाहत्ता २ तत्थेव भुजो २ पच्चायाइस्सति, से णं ततो उब्वहित्ता एवं चउपएस उरपरिसप्पेसु भुयपरिस|प्पेसु खहयरेसु चरिंदिएस तेइंदिएस बेईदिए वणफइएस कडुयरुक्खेसु कडुयदुद्धिएस वाउ० तेऊ० आऊ० पुढवी० अणेगसय सहस्सखुत्तो से णं ततो अनंतरं उब्वहित्ता सुपदट्ठपुरे नगरे गोणत्ताएं पचायाहिति, से णं तरथ उम्मुक जाव बालभावे अन्नया कथाई पढमपाउसंसि गंगाए महानईए खलीयमहियं खणमाणे तडीए पेल्लिए समाणे कालगए तत्थेव सुपट्टे पुरे नगरे सेहिकुलंसि पुमत्ताए पञ्चायाहस्संति, से १ 'जाइकुलकोडी जोणिप्प मुहसय सहस्साई ति जाती- पञ्चेन्द्रियजाती कुलकोटीनां योनिप्रमुखानि - योनिद्वारकाणि योनिशतसहस्राणि तानि तथा । २ 'जोणीविहाणंसि 'ति योनिभेदे । ३ 'खलीणमट्टिय त्ति खलीनां - आकाशस्थां छिन्नतटोपरिवर्तिनी मृत्तिकामिति । Education Internation मृगापुत्रस्य आगामि-भवा: For Park Use Only ~26~ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [१] ------------------------ मूलं [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक ७) विपाके तत्य उम्मुक्कबालभावे जाव जोवणगमणुपत्ते तहारूवाणं थेराणं अंतिए धम्मं सोचा निसम्म मुंडे भवित्ता ४ामृगार श्रुत०१ अगाराओ अणगारियं पव्वहस्सति, से णं तत्थ अणगारे भविस्सति ईरियासमिए जाव बंभयारी, से गंदीयाध्य. तस्थ बहूई वासाई सामनपरियागं पाणित्ता आलोइयपडिकते समाहिपत्ते कालमासे कालं किया सोहम्मे मृगापुत्र॥४४॥ कप्पे देवत्ताए उववजिहिति, से णं ततो अणंतरं चयं चइत्ता महाविदेहे बासे जाई कुलाई भवंति अट्ठाई ४ गत्यादि जैहा दढपइन्ने सा चेव वत्तवया कलाओ जाव सिजिझहिति । एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावी सू०७ रेणं जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयमढे पन्नत्तेत्तिबेमि (सू०७)॥१॥ १ उम्मुक जाव'त्ति 'उम्मुकपालभावे विजयपरिणयमेचे जोव्वणगमणुपत्तेत्ति दृश्य, तत्र विश एवं विज्ञकः स चासौ परिणतमात्रश्न-बुद्धशादिपरिणामापन्न एव विज्ञकपरिणतमात्रः । २ 'अणंतरं चयं चइत्तति अनन्तरं शरीरं त्यक्त्वा व्यपनं वा कृत्वा । ट्र ३ 'जहा दढपइन्नेत्ति औपपातिके यथा दृढप्रतिज्ञाभिधानो भव्यो वर्णितस्तथाऽयमपि वाच्यः, कस्मादेवमित्याह-सा चेव ति| सैव दृढप्रतिशसम्बन्धिनी अस्यापि बक्तव्यतेति, तामेव स्मरयमाह-कलाओ'त्ति कलास्तेन गृहीष्यन्ते दृढप्रतिज्ञेनेव यावकरणाञ्च प्रत्रज्यामहणादिः तस्येवास्य वाच्यं, यावत्सेत्स्यतीत्यादि पदपश्चकमिति, ततः सेत्स्यति-कृतकृत्यो भविष्यति भोत्स्यते-केवळशानेन सकलं शेयं शास्थति मोक्ष्यति-सकलकर्मविमुक्तो भविष्यति परिनिर्वास्थति-सकलकर्मकृतसन्तापरहितो भविष्यति, किमुक्तं भ-| ॥४४॥ डावति ?-सर्वदुःखानामन्तं करिष्यतीति ॥ प्रथमाध्ययनविवरणं ॥ १ ॥ दीप अनुक्रम [१०] मृगापुत्रस्य सिद्धिगमनं अब प्रथम अध्ययनं परिसमाप्त ~27~ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [२] ------------------------ मूलं [८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक १८ दीप द्वितीये किञ्चिल्लिख्यते-- जहणं भंते । समणेणं जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयमढे पन्नसे दोचस्स णं भंते । अज्झयणस्स सुहविवागाणं समणेणं जाच संपत्तेणं के अहे पपणते?, तते णं से सुहम्मे अणगारे जंबू अणगारं एवं वयासी-एचं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियगामे नाम नयरे होत्था रिद्धिस्थिमिपसमिद्धे, तस्स णं वाणियगामस्स उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए दूईपलासे नाम उजाणे होत्या, तत्थ णं दूइपलासे सुहम्मस्स जक्खस्स जक्खाययणे होत्या, तत्थ णं वाणियगामे मित्रो नाम राया होत्था बन्नओ, तस्स णं मित्तस्स रन्नो सिरीनामं देवी होत्था वपणओ, तत्थ णं बाणियगामे कामज्झया नामं गणिया होत्था अहीण जाच सुरूवा बाबत्तरिकलापंडिया चउसहिगणियागुणोवचेया एगूणतीसविसेसे रममाणी १'अहीणे ति अहीणपुण्णपबिंदियसरीरेत्यर्थः, यावरकरणात् 'लक्खणवंजणगुणोववेया माणुम्माणप्पमाणपडिपुन्नसुजायसव्वंहै गसुंदरंगी'त्यादि द्रष्टव्यं, तत्र लक्षणानि-स्वस्तिकादीनि व्यजनानि-मपीतिलकादीनि गुणाः-सौभाग्यादयः मान-जलद्रोणमानता उन्मानंअर्धभारप्रमाणता प्रमाण-अष्टोत्तरशताङ्गुलोच्छ्रयतेति, 'बावत्तरीकलापंडिय'त्ति लेखाद्याः शकुनरुतपर्यन्ताः गणितप्रधानाः कलाः प्रायः पुरुषाणामेवाभ्यासयोग्याः स्त्रीणां तु विज्ञेया एव प्राय इति, 'चउसद्विगणियागुणोववेया' गीतनृत्यादीनि विशेषतः पण्यत्रीजनोचितानि | यानि चतुष्पष्टिविज्ञानानि ते गणिकागुणाः अथवा वात्स्यायनोकान्यालिङ्गनादीन्यष्टौ वस्तुनि तानि च प्रत्येकमष्टभेदस्वायतुःषष्टिर्भवन्तीति, चतुःषष्ठा गणिकागुणैरुपपेता या सा तथा, एकोनविंशद्विशेषा एकविंशती रतिगुणा द्वात्रिंशच पुरुषोपचाराः कामशाखप्रसिद्धाः, अनुक्रम [११] +ACCRACK अथ द्वितीयं अध्ययनं "उज्झितक' आरभ्यते ~ 28~ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [२] ------------------------ मूलं [८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: विपाके प्रत सूत्रांक ॐॐॐ ॥४५॥ १८ दीप एकवीसरतिगुणष्पहाणा बत्तीसपुरिसोवयारकुसला णवंगसुत्तपडियोहिया अट्ठारसदेसीभासाविसारया उज्झिसिंगारागारुचारुवेसा गीयरतिपगंधवनदृकुसला संगयगय० सुंदरथण ऊसियज्झया सहस्सलमा विदि-II |तकाध्य. पणछत्तचामरवालवीयणीया कन्नीरहप्पयाया यावि होत्था, वरणं गणियासहस्साणं आहेचचं जाब विहरवा कामध्व जावेश्याक. १ 'नवंगसुत्तपडियोहिय'त्ति द्वे ओत्रे द्वे चक्षुषी द्वे प्राणे एका जिला एका त्वक एकं च मनः इत्येतानि नयागानि | सू०८ सुप्तानीव सुप्तानि यौवनेन प्रतिनीधितानि-स्वार्थमहणपटुत्ता प्राषितानि यस्याः सा तथा 'अट्ठारसदेसीभासाविसारयति रूढिगम्यं | 'सिंगारागारचारुवेस'त्ति शृङ्गारस्य-रसविशेषस्यागारमिव चारु वेषो यस्याः सा तथा, 'गीयरइगंधवनदृकुसल'त्ति गीतरतिश्वासौ गन्धर्वनाट्यकुशला चेति समासः, गन्धर्व नृत्यं गीतयुक्तं नाट्यं तु नृत्यमेवेति, 'संगयगय'त्ति 'संगयगयभणियविहियविलाससललियसंलावनिउणजुत्तोववारकुसले ति दृश्य सङ्गतानि-उचितानि गतादीनि यस्याः सा तथा, सललिता:-प्रसन्नतोपेता ये संलापास्तेषु निपुणा या सा तथा, युक्ताः-सङ्गता ये लपचारा-व्यवहारास्तेषु कुशला या सा तथा, ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः, 'सुंदरथण'त्ति एतेनेदं दृश्यं-'मुंदरथणजहणवयणकरचरणनयणलावण्णविलासकलियत्ति व्यक्तं नवरं जवनं-पूर्वकटीभागः लावण्यं-आकारस्य स्पृहणीयता विलास:-श्रीणां चेष्टाविशेषः 'ऊसियज्झय'त्ति ऊर्तीकृतजयपताका सहस्रलाभेति व्यक्तं विदिन्नछत्तचामरवालवीयणीय'त्ति वि| तीर्ण-राज्ञा प्रसादतो दत्तं छत्रं चामररूपा वालव्यजनिका यस्याः सा तथा, 'कन्नीरहप्पयाया यावि होत्य'त्ति कर्णीरथः-प्रवहणं तेन प्रयात-गमनं यस्याः सा तथा 'बाऽपीति समुषये 'होत्थति अभवदिति, 'आहेवचंति आधिपत्यम्-अधिपतिकर्म, इह यावत्करणा अनुक्रम [११] ~29~ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [२] ------------------------ मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम (सू०८)तत्थ णं वाणियगामे विजयमित्ते नाम सत्थवाहे परिवसति अड्डे तस्स णं विजयमित्तस्स सुभद्दा नाम भारिया होत्था अहीण, तस्स णं विजयमित्तस्स पुसे सुभद्दाए भारियाए अत्तए उज्झियए नाम दारए होत्या अहीण जाव सुरूवे । तेणं कालेणं तेणे समएणं समणे भगवं महावीरे समोसवे परिसा निग्गया राया निग्गओ जहा कोणिओ तहा णिग्गओ धम्मो कहिओ परिसा पडिगया राया य गओ, सेणं कालेणं है तेणं समपणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेढे अंतेवासी इंदभूइनामं अणगारे जाव लेसे ण्टुंछट्टेणं जहा प्रपन्नत्तीए पढम जाव जेणेव वाणियगामे तेणेच उवा० उच्चनीयअडमाणे जेणेव रायमग्गे तेणेव ओगावे, तत्थ |विदं दृश्य-पोरेव' पुरोवर्तित्वं-अग्रेसरत्वमित्यर्थः भर्तृत्व' पोषकत्वं 'स्वामित्वं' खस्वामिसम्बन्धमानं 'महत्तरगत महत्तरत्वं शेष वेश्याजनापेक्षया महत्तमताम् 'आणाईसरसेणावचं आशेश्वर:-आज्ञाप्रधानो यः सेनापतिः-सैन्यनायकस्तस्य भावः फर्म वा आज्ञेश्वरसेनापत्यम् आशेश्वरसेनापत्यमिव आशेश्वरसेनापत्र 'कारेमाणा' कारयन्ती परैः 'पालेमाणा' पालयन्ती खयमिति । १'अहीण'त्ति 'अहीणपुन्नपंचिंदियसरीरे'त्ति व्यक्तं च, यावत्करणादिदं दृश्यं 'लक्खणवंजणगुणोषवेए' इत्यादि । २ 'इंदभूई इत्यत्र यावत्करणात् 'नामे अणगारे गोयमगोण'मित्यादि 'संखित्तविउलतेयलेसें' इत्येतदन्तं दृश्यं । ३ 'छदैछट्टेणं जहा पन्नत्तीए'त्ति | यथा भगवत्या तवेदं वाच्यं, तचैव-छट्वछट्टेणं अणिक्खित्तेणं तबोकम्मेणं अप्पाणं भावमाणे विहरति, तए णं से भगवं गोयमे छहक्समणपारणगंसि' 'पढम' इत्यत्र थावत्करणादिदं दृश्य-पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेति बीयाए पोरिसीए झाणं झियाति तइयाए पोरिसीए | अतुरियमचवलमसंभंते मुहपोत्तियं पडिलेहेद भावणवत्थाई पडिलेहेइ भावणाणि पमजति भायणाणि उग्गाहेइ जेणेव समणे भगवं महा [१२] ~30~ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [२] ------------------------ मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक (8) दीप अनुक्रम [१२] विपाके पण बहवे हत्थी पासइ सन्नद्धबद्धवम्मियगुडियउप्पीलियकच्छे उद्दामियघंटे णाणामणिरयणविविहगेविजउत्त- २ झिश्रुत०१ रकंचुइज्जे पडिकप्पिए झयपडागवरपंचामेलआरूढहत्यारोहे गहियाउहप्पहरणे अन्ने य तत्थ बहवे आसे 8 तकाध्य. वीरे तेणामेव उवागमछति २ समणं भगर्व महावीरं बंदइ नमसइ २ एवं वयासी-इच्छामि गं भंते ! तुज्झेहिं अब्भणुण्णाए समाणे हा उज्झित॥४६॥ छडक्खमणपारणगंसि वाणियगामे णगरे उचनीयमज्झिमकुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडित्तए' गृहेषु भिक्षार्थ भिक्षाचर्यया- कावस्था भैक्षसमाचारेणाटितुमिति वाक्यार्थः, 'अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पटिबंध' स्खलना मा कुल्चित्यर्थः, 'तए णं भगवं गोयमे समणे ३8 सू०९ अब्भणुनाते समाणे समणस्स ३ अंतियाओ पडिनिक्खमति अतुरियमचवलमसंभंते जुगतरप्पलोयणाए विद्वीए पुरओ रियं सोहेमाणे'त्ति १'संनद्धबद्धवम्मियगुडिए'ति संनद्वा:-सन्महत्या कृतसन्नाहाः तथा बद्धं चर्म-स्वकाणविशेषो येषां ते बद्धवर्माणस्त एव | बद्धवमिंकाः, तथा गुढा-महांतनुत्राणविशेषः सा संजाता येषां ते गुडितास्ततः कर्मधारयः, 'उप्पीलियकच्छे'त्ति उत्पीडिता-गाड-18 तरबद्धा कक्षा-उरोवन्धनं येषां से तथा तान् 'उद्दामियघंटे'त्ति उहामिता-अपनीववन्धना प्रलम्बिता इत्यर्थः घण्टा येषां ते तथा तान् 'नाणामणिरयणविविहगेबिजेत्ति नानामणिरनानि विविधानि अवेयकानि-श्रीवाभरणानि उत्तरकक्षुकान-तनुत्राणविशेषाः सन्ति वेषां ते तथा, अत एव 'पडिकप्पिए'त्ति कृतसन्नाहादिसामग्रीकान् 'झयपडागवरपंचामेल आरूढहत्थारोहे' बजा:-गरुडादियजाः। पताका:-रुडाविवर्जितास्ताभिर्वरा ये ते तथा पञ्च आमेलका:-शेखरका येषां ते तथा आरूढा हत्यारोहा-महामात्रा येषु ते तया, ततः पदत्रयस्थ कर्मधारयोऽतस्तान , 'गहियाउहप्पहरणा' गृहीतानि आयुधानि प्रहरणाव येषु अथवा आयुधान्यक्षेप्याणि प्रहरणानि | ॥४६॥ तु क्षेप्याणीति। ~31~ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [२] ------------------------ मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: % % प्रत % सूत्रांक पासति सन्नद्धबद्धवम्मियगुडिए आविद्धगुडिओसारियपक्खरे उत्तरकंचुइयओचूलमुहचंडाधरचामरथासकपरिमंडियकडिए आरूआसारोहे गहियाउहप्पहरणे अन्ने य तस्थ बहवे पुरिसे पासइ सपणबद्भव|म्मियकवए उप्पीलियसरासणपट्टीए पिणिद्धगेवेज्जे विमलवरबद्धचिंधपढे गहियाउहप्पहरणे, तेसिं च णं पुरिसाणं मझगयं पुरिस पासति अवउडगवंधणं उकित्तकन्ननासं नेहतुप्पियगत्तं यज्झकक्खडियजुयनियत्थं १'सन्नद्धबद्धवम्मियगुडिए'त्ति एतदेव व्याख्याति–'आविद्धगुडे ओसारियपक्खरे ति आविद्धा-परिहिता गुडा येषां ते तथा, गुडा च यद्यपि हस्तिनां तनुत्राणं रूढा तथाऽपि देशविशेषापेक्षयाऽश्वानामपि संभवतीति, अवसारिता--अवलम्बिताः पक्खरा:तनुत्राणविशेषा येषां ते तथा तान, 'उत्तरकंचुइयओचूलमुहचंडाधरचामरथासगपरिमंडियकडिय'त्ति उत्तरकधुक:-तनुत्रागविशेष एव येषामस्ति ते तथा, तथाऽवचूलकैर्मुखं चण्डाधर-रौद्राधरौष्ठं येषां ते तथा, तथा चामरैः यासकैश्व-दर्पणैः परिमण्डिता कटी येषां ते तथा, ततः कर्मधारयोऽतस्तान्, 'उप्पीलियसरासणपट्टीए'त्ति उत्पीडिता-कृतप्रत्यचारोपणा शरासनपट्टिका-धनुर्यष्टिबाहुपट्टिका वा यैस्ते तथा तान् , 'पिणिद्धगेविज चि पिनद्ध-परिहितं अवेयकं वैस्ते तथा तान् , 'विमलवरबद्धचिंधपट्टे विमलो बरो बद्धश्चिह्नपट्टोत्रादिमयो यैस्ते तथा तान्, 'अवजडगबंधणं'ति अवकोटकेन-कृकाटिकाया अधोनयनेन बन्धनं यस्य स तथा| तम् , 'उक्खित्तकन्ननासंति उत्पाटितकर्णनासिक 'नहतुप्पियगति स्नेहने हितशरीरं 'बज्झकक्खडियजुयणियच्छति बध्यश्चासौ| करयो:-हस्तयोः कट्यां-कटीदेशे युग-युग्मं निवसित इव ।नेवसितश्चेति समासोऽतस्तम्, अथवा वभ्यस्य यत्करकटिकायुगं-निन्द्यचीवरिकाद्वयं तन्निवसितो यः स तथा । % 4 दीप अनुक्रम [१२] SIS ~ 32~ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [१२] विपाके श्रुत० १ ॥ ४७ ॥ “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [२] मूलं [९] श्रुतस्कंध : [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः कंठेगुणरतमलदामं चुण्यगुंडियगत्तं चुण्णयं वज्झपाणपीयं तिलंतिलं चेव छिनमाणं काकणीमंसाई खावियं- ४२ उज्झि तं पावं खक्खरगसएहिं हम्ममाणं अणेगनरनारीसंपरिवुढं चचरे चचरे खंडपडहएणं उग्घोसिज्यमाणं, इमं ४ तकाध्य च णं एयारूवं उग्घोसणं पडिसुषेति-नो खलु देवा! उज्झियगस्स दारगस्स केइ राया वा रायपुत्तो वा उज्झितकअवरज्झइ अप्पणी से सयाई कम्माई अवरज्झन्ति (सू० ९) तते थं से भगवतो गोपमस्स तं पुरिसं पा स्य पूर्वभवः सिला इमे अज्झत्थिए ५ अहो णं इमे पुरिसे जाव नरयपडिरूवियं वेदणं वेदेतित्तिकडु वाणियगामे नवरे ४ सू० १० १ 'कंठेगुणरसमहदामं' कण्ठे-गले गुण इव-कण्ठसूत्रमिव रक्तं-लोहितं महदाम - पुष्पमाला यस्य स तथा तं 'चुन्नगुंडिय गायं गैरिकक्षोदागुण्डितशरीरं 'चुनाव'ति संत्रस्तं 'बज्झपाणपीयं'ति वया वाला वा प्राणाः- उच्छ्रासादयः प्रतीत्ताः प्रिया यख स तथा तं 'तिलंतिलं चैव विजमाणं'ति तिलशश्छिद्यमानमित्यर्थः 'कागणिमसाई खावियंतं' काकणीमांसानि तद्देहोत्कृत्तहस्वमांसखण्डानि खाद्यमानं 'पार्वति पापिष्ठं 'खक्खरसएहिं हम्ममाणं ति खर्खरा अश्वोत्रासनाय चर्म्मभया वस्तुविशेषाः स्फुटितवंशा वा तैईन्यमानं - वाड्यमानम् 'अप्पणो सेसयाई'ति आत्मनः - आत्मीयानि 'से' क्ल स्वकानि । २ 'अज्झत्थिए' आत्मगतः, - दमन्यदपि दृश्यं 'कपिए' कल्पितो-भेदवान् कल्पिको वा उचितः 'चिंतिए' स्मृतिरूपः 'पत्थर' प्रार्थितो भगवदुत्तरप्रार्थनाविषयः 'मणोगए'ति अप्रकाशित इत्यर्थः संकल्पो-विकल्पः 'समुप्यजित्था' समुत्पन्नवान् 'अहो णं इमे पुरिसे पुरापोराणाणं दुचित्राणं दुप्पडिताणं असुभाणं पावाणं कम्माणं पावनं फलवित्तिविसेसं पञ्चणुभवमाणे विहरह, न मे दिट्ठा परा का नेरइया ॥ ४७ ॥ वा पचवलं खलु अयं पुरिसे निरयपडिरूवियं बेयणं वेrsत्तिकटु' इत्येतत्प्रथमाध्ययनोक्तं वाक्यमाश्रित्याधिकृताक्षराणि गमनीयानीति । Ja Eucation International For Penal Use Only ~33~ Cror Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) (११) श्रतस्कंध: [१] ... .....------ अध्ययनं [२] ...... . .... .- मूलं [१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत % सूत्रांक अचमीयमजिझमकुले जाव अडमाणे अहापजसं समुयाणियं गिण्हति २त्ता वाणियगामे नयरे मझमज्झणंद। जाव परिदसति, समर्ण भगवं महावीरं वंदद ममंसह २ सा एवं बयासी-एवं खलु अहं भंते! तुमहिं | अम्भणुझाए समाणे वाणियगामं जाय तहेव वेदेति, सेणं भंते! पुरिसे पुटवभये के आसी? जाव पञ्चणु म्भवमाणे विहरति ।, एवं खलु गोयमा। तेणं कालेणं तेणं समएम इहेव जंबुडीवे २ भारहे वासे हत्थिणादाउरे नाम नगरे होत्था रिद्ध०, तत्थ णं हथियाउरे गरे सुनंदे नामं राया होत्था महया हि०, तस्थ णं ह६ स्थिणाउरे गगरे बहुमझदेसभाए एत्थणं महं एगे गोमंडवए होस्था अणेगखंभसयसन्निविटे साईए ४, तत्थ णबहये णगरगोरूवाणं सणाहा य अणाहा यणगरगाविओ य जगरवसभा य जगरबलिवद्दा य गगरिपड्याओ य परतणपाणिया निम्भया निरुवसग्गा सुहंसुहेणं परिवति, तस्थ गं हथिणाउरे नगरे भीमे % [१०] C4%A दीप अनुक्रम [१३] A % रिद्धि'त्ति 'रिस्थिमिवसमिद्धे' इत्यादि दृश्य, तत्र ऋझु-भषनादिमिनिगुपगतं सिमित भयवर्जितं समृद्ध-धनादिमायुक्तमिति । २ 'महया हि'ति इह 'महयाहिमवैतमलयमंदरमहिंदसा इत्यादि दृश्य, तत्र महाहिमवदादयः पर्वतास्तद्वत्सास-प्रधानो या| | स तथा, 'पासा' इत्यत्र 'पासाईए दरिसणिज्जे अमिरूवे पतिरूवेत्ति दृश्य, तत्र प्रासादीयो-मनःप्रसन्नताहेतुः वर्शनीयो-यं पश्यञ्चक्षुर्न | आम्यति अभिरूप:-अभिमतरूपः प्रतिरूपः-द्रष्टारं द्रष्टारं प्रति रूपं यस्येति । ३ 'नगरबलीवद्दे'त्यादौ वलीवा-बर्द्धितगवाः पडिकाइस्थमहिष्यो इस्वगोत्रियो वा वृषभाः-साण्डगवः 'कूडगाहे'त्ति कूटेन जीवान् गृहातीति कूटयाहः । | उज्झितकस्य पूर्वभव: -- "गोत्रास" ~ 34 ~ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) (११) श्रतस्कंध: [१], .....................-- अध्य यनं [२]---- -- -- मूल [१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: विपाके प्रत सूत्रांक ॥४८॥ [१०] दीप अनुक्रम [१३] नाम कूडग्गाही होत्या अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे । तस्स गं भीमस्स कूडग्गाहस्स उप्पला नाम भा- सज्झिदारिया होत्था अहीण, तते णं सा उच्पला कूडग्गाहिणी अन्नया कयाई आवनसत्ता जाया यावि होस्था, तकाध्य. तते णं तीसे जुप्पलाए कृडगाहिणीए तिण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं अपमेयारूवे दोहले पाउन्भूते-धन्नाओ|उमितकण ताओ अम्मयाओ ४ जाव सुलद्धे जम्मजीविए (यफले) जाओ णं बटणं णगरगोरुवार्ण सणाहाण य जावस्य पूर्वभवः सू.१० | " १'अहम्मिए'त्ति धर्मेण परति व्यवहरति वा धार्मिकस्तनिषेधादधामिका, यावत्करणादिदं श्यम्-'अहम्माणुए' अधमान्-पापलोकान् अनुगच्छत्तीत्यधर्मानुगः 'अहम्मि?' अतिशयेनाधर्मो-धर्मरहितोऽम्मिष्टः 'अहम्मखाई' अधर्मभाषणशीलः अधाम्पिकप्रसिद्धिको वा 'अधम्मपलोई अधानेव-परसम्बन्धिदोषानेव प्रलोकयति-प्रेक्षते इत्येवंशीलोऽधर्मप्रलोकी 'अहम्मपलजणे' अधर्म एव-हिंसादौ प्ररज्यते-अनुरागवान् भवतीत्यधर्मप्ररजनः 'अहम्मसमुदाचारों' अधर्मरूपः समुदाचार:-समाचारो यस्य स तथा 'अहम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणे'त्ति अधर्मेण-पापकर्मणा वृत्ति-जीविकां कल्पयमान:-कुर्वाणः तच्छील इत्यर्थः 'दुस्सीले' दुष्टशीलः 'दुचए' अविद्यमाननियम इति 'दुप्पडियाणंदे दुष्प्रत्यानन्दः बहुमिरपि सन्तोषकारणैरनुत्पद्यमानसन्तोष इत्यर्थः । २ 'अहीण त्ति 'अहीणपुण्णपंचेंदियसरीरे'यादि दृश्यम्। ३ 'आवनसत्त'ति गर्भे समापनजीवेत्यर्थः । ४ 'धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ'चि अम्बा-जनन्यः, इइ यावत्करणादिदं दृश्यं-पुन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ कयत्याओ णं ताओ अम्मयाओ। ॥४८॥ कयलक्खणाओ णं ताओ, तासिं अम्मयाणं सुलद्धे जम्मजीवियफले'त्ति व्यकं च । * ~ 35~ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) (११) श्रतस्कंध: [१], .....................-- अध्य यनं [२]---- -- -- मूल [१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत वसभाण य ऊहेहि य थणेहि य वसणेहि य छप्पाहि य ककुहेहि य वहेहि य कन्नेहि य अच्छिहि य ना. साहि य जिन्भाहि य उद्देहि य कंबलेहि य सोल्लेहि य तलिएहि य भजिएहि य परिसुफेहि य लावणेहि य सुरं च महुंच मेरगं च जातिं च सीधुं च पसण्णं च आसाएमाणीओ विसाएमाणीओ परिभुजेमाणीओ परिभाएमाणीओ दोहलं विणयंति, तं जइणं अहमवि बहूर्ण नगर जाव विणिज्जामित्तिका, तंसि दोहलंसि अविणिज्जमाणंसि सुक्का भुक्खा निम्मंसा ओलुग्गा ओलुग्गसरीरा नित्तेया दीणविमणवयणा पंडुल्लइयमुहा सूत्रांक [१०] ee दीप अनुक्रम [१३] %96 १ 'ऊहेहि यत्ति गवादीनां स्तनोपरिभागैः 'थणेहि यत्ति व्यक्तं 'वसणेहि य'त्ति दृषण:-अण्डै: 'छप्पाहि य'त्ति पुच्छैः । ककुदैः स्कन्धशिखरैः 'बहेहि यत्ति बहै। स्कन्धैः कर्णादीनि व्यक्तानि 'कंबलेहि यत्ति सानाभिः 'सोल्लिएहि यति पकै 'तलिएहि यत्ति मेहेन पकैः ‘भजिएहि यत्ति भ्रष्टैः 'परिसुक्केहि यत्ति स्वतः शोषमुपगतैः 'लावणेहि यत्ति लवणसंस्कृतैः सुरातन्दुलधवादिल्लीनिष्पन्ना मधु च-माक्षिकनिष्पन्न मेरकं तालफलनिष्पन्नं जातिश्च-जातिकुसुमवर्ण मयमेव सीधु च-गुडधातकीसंभव है। प्रसन्ना-द्राक्षादिद्वन्यजन्या मनःप्रसत्तिहेतुरिति । 'आसाएमाणीओ'त्ति ईधत्स्वादयन्त्यो बटु च लान्यन्त्य इक्षुखण्डादेरिव 'विसाएमाणीओ'त्ति विशेषेण खादयन्त्योऽल्पमेव त्यजन्य खजूरादेरिव 'परिभाएमाणीओ'त्ति ददत्यः परि जमाणीओ'त्ति सर्वमुपभुजानाः | अल्पमप्यपरित्यज्यन्त्यः शुष्का-शुष्केव शुष्का रुधिरक्षयात् 'भुक्ख'त्ति भोजनाकरणाद्धीनबलतया बुभुक्षायुक्तेव बुभुक्षा अत एव निमासा 'ओलुग्ग'त्ति अवरुग्णा-भन्नमनोवृत्तिः 'ओलुग्गसरीरा' भनदेहा 'णित्यत्ति गतकान्तिः 'दीणविमणवयण'त्ति दीना-दैन्यवती k 4 ~36~ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) (११) श्रतस्कंध: [१] ... .....------ अध्ययनं [२] ...... . .... .- मूलं [१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: विपाके श्रुत०१ प्रत ॥४९॥ सूत्रांक ओमंथियनयणवयणकमला जहोइयं पुप्फवस्थगंधमल्लालंकाराहारं अपरिभुञ्जमाणी करयलमलियन्च कमलमा-II उजिझला ओहय जाव झियायति । इमं च णं भीमे कूडग्गाहे जेणेव उपस्ता कूडग्गाहिणी तेणेव उवाग-प्रतकाध्य. च्छति रसा ओहय जाव पासति ओहय जाय पासिसा एवं बयासी-किं णं तुमे देवाणुप्पिए! ओहय उज्झितकझियासि, तते णं सा उप्पला भारिया भीमं कूष्ट एवं क्यासी-एवं खलु वेवाणुप्पिया। ममं तिराहं | स्य पूर्वभवः मासाणं बहुपडिपुत्राणं दोहला पाउम्भूया धन्ना ताओ जाओ गं बहणं गो कह लावणपहि प सुरं पदसू०१० आसाएमाणी ३ दोहलं विणेति, तते णं अहं देवाणुप्पिया! तंसि दोहलंसि अविणिज्जमाणंसि जाब झियामि। [१०] दीप अनुक्रम [१३] विमना:-शून्यचित्ता हीणा च-भीतेति कर्मधारयः, 'दीणविमणवयण'चि पाठान्तरं, तत्र विमनस इव-विगतचेतस इव बर्ग यस्लाः सा तया, दीना चासौ विमनवदना चेति समासः, 'पंडलइयमुहा' पाण्डकित्तमुखी पाण्दुरीभूतवदनेत्यर्थः 'भोमंथियणयणवयणकमलेति 'ओमंथियति अधोमुखीकृतानि नयनवदनरूपाणि कमलानि यया सा तथा, 'ओहय'ति ओहयमणसंकप्पा विगतयुक्तायुक्तविवेचनेत्यर्थः, इह यावत्करणाविदं दृश्यं करतलपल्लत्यमुहा' करतछे पर्वसं-निवेशितं मुखं यवा सा तथा 'अट्टन्झायोवगया भूमीगयदिहीया झियाईति ध्यायति-चिन्तयति । 'इमं च णति इतश्चेत्यर्थः 'भीमे कूडग्गाहे जेणेव उप्पला कुडम्गाही तेणेव उवामच्छति बवागच्चित्ता उप्पर कूड- ग्गाहिणि ओहयमाणसंकल्प' इत्यादि सूत्र प्रागुक्तसूत्रानुसारेण परिपूर्ण कृत्वाऽभ्येयं, सूचामात्रस्वात्पुस्तकस्य । ४९॥ ~37~ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) (११) श्रतस्कंध: [१], .....................-- अध्य यनं [२]---- -- -- मूल [१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: % प्रत % सूत्रांक [१०] दीप अनुक्रम [१३] तते णं से भीमे कूडग्गाही उप्पलं भारियं एवं बयासी-मा णं तुम देवाणुप्पिया! ओह. झियाहि, अहन्नं तंतहा करिस्सामि जहा णं तव दोहलस्स संपसी भविस्सति, ताहिं इहाहिं ५ जाप वर्षि समासा सेति, तते णं से भीमे कूडग्गाही अद्धरत्तकालसमयंसि एगे अबीए सन्नद्ध जाब पहरणे सयाओ गिहाओ है निग्गा सयाओ गिहाओ निग्गच्छित्ता हत्षिणाउरे नगरे मझमज्झेणं जेणेव गोमंडवे तेणेव उवागते |बहूर्ण णगरगोरुवाणं जाव वसभाण य अप्पेगइयाणं ऊहे छिदति जाव अप्पेगतियाणं कंचले छिंदति अप्पेगइयाण अण्णमण्णाणं अंगोवंगाणं वियंगेतिरजेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छति र उपपलाए कूडग्गाहिणीए उवणेति, तते णं सा उप्पला भारिया तेहिं बहहिं गोमंसेहि य सूलेहि य सुरं च आसाएमाणी तं दोहलं विणेति, सते णं सा उप्पला कूडग्गाही संपुग्नहोहला संमाणियदोहला विणीयदोहला बोच्छिन्नदोहला संपभदोहला सं गम्भ मुहंसुहेणं परिवहइ, तते णं सा उप्पला कूडग्गाहिणी अन्नया कयाई मवण्ई मासाणं बहुप ताहि इटाहिं' इत्यत्र पञ्चकलक्षणादकादिदं दृश्य-कताहिं पियाहिं मणुनाहिं मणाभाहिं' एकार्थाश्चैते, पम्गूहि ति वाग्भिः 'एगे'त्ति सहायाभावात् 'अबीए'त्ति धर्मरूपसहायाभावात् । २ 'सन्नद्धवद्धवम्मियकवए' पूर्ववत् यावत्करणात् 'उप्पीलियसरासणपट्टीए' इत्यादि 'गहियाउहपहरणे' इत्येतदन्त रश्यम् । ४ संपुन्नदोहल'त्ति समस्तवान्छितार्थपूरणात् 'सम्माणियदो. हल'त्ति वान्छितार्थसमानयनात् 'विणीयदोहल'त्ति बाच्छाविनयनात् 'विच्छिन्नदोहल'त्ति विवक्षितार्थवाम्छाऽनुबन्धविच्छेदात् 'संपन्नदोहल'त्ति विवक्षितार्थभोगसंपाद्यानन्दप्राप्तेरिति । k% ~38~ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) (११) श्रतस्कंध: [१], ...................---- अध्य यनं [२] ------.. -...---- मूलं [११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: विपाके श्रुत०१ प्रत सूत्रांक ॥५०॥ [११] डिपुन्नाणं दारय पचाया (सू०१०) तते णं तेणं दारए णं जायमेत्तेणं चेव महया महया सद्देणं विधुढे विसरे|8| उनिमआरसिते, तते णं तस्स दारगस्स आरसियसई सोचा निसम्म हत्थिणाउरे नगरे बहवे णगरगोरुवा जावतकाध्य. वसभा य भीया उब्विग्गा सवओ समंता विष्पलाइत्था, तते णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो अयमेयारूवं गोन्नासनामधेनं करेंति, जम्हा णं अम्हे इमेणं दारएणं जायमेत्तेणं चेव महया महया (चिच्ची) सद्देणं विपुढे विस्सरे आर-18 नामहेतुः |सिए तते णं एयस्स दारगस्स आरसियं सई सोचा निसम्म हत्थिणाउरे बहवे णगरगोरुवा जाव भीया ४ सू. ११ सब्बओ समंता विप्पलाइत्था तम्हाणं होउ अम्हं दारए गोत्तासए नामेणं, तते णं से गोत्तासे दारए उ-12 म्मुकबालभावे जाते यावि होत्या, तते णं से भीमे कूडग्गाहे अन्नया कयाई कालधम्मुणा संजते. तते णं से गोत्तासे दारए बहूणं मित्तणाइनियगसयणसंबंधिपरिजणेणं सद्धिं संपरिबुडे रोयमाणे कंदमाणे विलचमाणे भीमस्स कूडग्गाहिस्स नीहरणं करेति नीहरणं करित्ता बहूई लोइयमयकजाई करेति, तते णं से सुनंदे L दीप अनुक्रम **+ -CA CACACCCCCCXXC% [१४] AM ॥ ५. 'भीया' इत्यत्र 'तत्था तसिया संजायभया' इति दृश्य, भयोत्कर्षप्रतिपादनपराण्येकार्थिकानि चैतानि । २ 'सब्बओत्ति सर्वदिक्षु 'समंत'त्ति विविक्षु चेत्यर्थः, 'विपलाइत्य'ति विपलायितवन्तीति । ३ 'अयमेयारूवति इदमेवप्रकारं वक्ष्यमाणस्वरूपमि४ त्यर्थः । ४ 'महया २ चिच्ची'त्ति महत्ता २ पिश्चीयेवं चित्कारेणेत्यर्थः । ५ 'आरसिय'ति आरसितं-आरटितम् । ६ 'सोच'त्ति अवधार्य। ~39~ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) (११) श्रतस्कंध: [१], .....................-- अध्य यनं [२]---- -- -- मूल [११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: 4% प्रत सूत्रांक % [११] राया गोत्तासं दारयं अन्नया कयाइ सयमेव कूडग्गाहित्ताए ठावेति, तते णं से गोत्तासे दारए कूडग्गाहे जाए यावि होत्था अहम्मिए जाच दुप्पडियाणंदे, तते णं से गोत्तासे दारए कूडग्गाहित्ताए कल्लाकल्लिं अद्धरत्तियकालसमयसि एगे अबीए सन्नद्धबद्धकवए जाव गहिआउहपहरणे सयातो गिहाओ निग्गच्छति जे-18 व गोमंडवे तेणेव उवागच्छति तेणेच उवागच्छित्ता बहूणं णगरगोरुवाणं सणाहाण य जाव वियंगेति २ जेणेव सए गेहे तेणेव उवागते, तते णं से गोत्तासे कूड० तेहिं बहहिं गोमंसेहि य सूलेहि य मुरं च मज्नं च आसाएमाणे विसाएमाणे जाव विहरति,ततेणं से गोत्तासे कूड. एयकम्मे [एयविजेएयप० एयसमायारे] सुबहुं पावकम्मं समन्विणित्ता पंचवाससयाई परमाउयं पालइत्ता अदुहहोवगए कालमासे कालं किया दोचाए पुढवीए उकोसं तिसागरोचमठिइएसु नेरइएसु णेरइयत्ताए उपवने (सू०११) तते णं सा विजयमित्तस्स सत्यवाहस्स सुभद्दा नाम भारिया जायनिया यावि होत्था जाया जाया दारगा विणिहायमावजंति, तते पाणं से गोत्तासे कूड दोचाओ पुढवीओ अणंतरं उव्वहिता इहेब वाणियगामे नगरे विजयमित्तस्स सस्थ दीप अनुक्रम ACCAR [१४] १'एयकम्मे' इत्यत्रेदं रश्यम्-'एयप्पहाणे एयविजे एयसमायारेति । २'अदृदुहट्टोवगए'ति आर्त-आर्तध्यानं दुर्घटदुःखस्थगनीय दुर्वायमित्यर्थः अपगतः-प्राप्तो यः स तथा। ३ 'जायणिंदुया यावित्ति जातानि-उत्पन्नान्यपत्यानि निर्वृतानि-निर्यातानि मृतानीयों यस्याः सा जातनिर्द्वता चाऽपीति समर्थनार्थः, एतदेवाइ-जाना जाता दारका विनिधातमापद्यन्ते तस्या इति गम्यम् ।। उज्झितकस्य आगामि-भवा: ~ 40~ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) (११) श्रुतस्कंध: [8], ..............------------ अध्य यनं [२] ---------------------- मूल [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: विपाके श्रुत०१ २ उजिनतकाध्य. प्रत सूत्रांक ॥५१॥ वाहस्स सुभद्दाए भारियाए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उयबस्ने, तते णे सा सुभदा सत्यवाही अण्णया कयाईनवण्ह मासाणं बहुपडिपुन्नाणं दारगं पयाया, तते गं सा सुभदा सत्यवाहीसं दारगं जायमेसयं चेव एगते उकुरु- डियाए उज्झायेद उज्यावेत्ता दोचंपि गिहावेइ २ सा आणुपुब्वेणं सारक्खमाणी संगोवेमाणी संवढेति, सते णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो ठिइवेडियं चंदसूरदसणं च जागरियं महया इहीसकारसमुदएणं करति, तते णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो इकारसमे दिवसे निव्वत्ते संपत्ते पारसमे दिवसे इममेयारूवं गोण्णं गुणनिष्फन नामधेनं करेंति, जम्हा णं अम्हं इमे दारए जायमित्तए चेव एगते पक्कुरुडियाए उज्झिते तम्हा ण होउ अम्हं दारए उज्झियए नामेणं, तते णं से उजिमयए दारए पंचधातीपरिग्गहीए तंजहा-वीरपाईए १ मजणधाईप २ मंडणधाईए ३ कीलावणधाईए ४ अंकाईए ६ जहा दहपाइने जाव निवाघाए गिरिकंद भवः सू०१२ [१२] दीप अनुक्रम 4 [१५] C+ * १ 'सारक्खमाणी'ति अपायेभ्यः 'संगोवेमाणी'ति वनाच्छादनगर्भगृहप्रवेशनादिमिः। २ठिइवडियं वति स्थितिपतितां कुलक्रमागतो बर्द्धमानकादिकां पुत्रजन्मकियां 'चंदसूरपासणियं वत्ति अन्वर्धानुसारिणं तृतीयदिवसोत्सवं 'जागरिय'ति षष्ठीयविजागरणप्रधानमुल्सवम् । ३ 'गोणं गुणनिष्फन'न्ति गौषं अप्रधानमपि स्पादत्त उक्त-गुणनिष्पन्न मिति । ४ 'जहा दढपाइनेति औपपातिके यथा दृढप्रतिज्ञो वर्णितस्सवाऽयमपीह वाच्यः, किमवधिकं तत्र तत्सूत्रमित्याह-यावत् 'निवाघातगिरिकंदरमल्लीणेब्व। चंपगपायवे सुहं विहरति । + + ~41~ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) (११) श्रुतस्कंध: [8], ..............------------ अध्य यनं [२] ---------------------- मूल [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२] रमल्लीणे व चंपयपायवे सुहंसुहेणं विहरति, तते णं से विजयमिसे सत्यवाहे अन्नया कयाई गणिमं च । धरिमं च २ मेनं च ३ पारिच्छेज्जं च ४ चउब्विहं भंडगं गहाय लवणसमुदं पोयवहणेणं उवागते, तते णं से विजयमिते तत्थ लवणसमुदे पोयविवत्तीए निबुभंडसारे अत्ताणे असरणे कालधम्मुणा संजुत्ते, तते णं सं विजयमितं सत्यवाहं जे जहा बहवे ईसरतलवरमाउंषियकोडंबियइन्भसेडिसत्यवाहा लवणसमुद्दे पोय|विवत्तीए पूर्व निम्बुडभंडसारं कालघम्मुणा संजुत्तं सुणेति ते तहा हैथनिक्खेवं च बाहिरभंडसारं च गहाय एगते अवकमंति। तते णं सा सुभद्दा सत्यवाही विजयमित्तं सत्यवाहं लवणसमुद्दे पोयविवत्तीए निन्छ कालधम्मुणा संजुत्तं सुणेति २त्ता महया पइसोएणं अप्फुण्णा समाणी परसुणियत्ताविव चंपगलता धससि धरणीतलंसि सव्वंगेण सन्निवडिया, तते णं सा सुभद्दा सत्यवाही मुहत्तरेण आसत्या समाणी बहुहिं| दीप अनुक्रम +5%85%25 [१५] १'कालधम्मुण'त्ति मरणेन । २'लवणसमुद्दपोयविवत्तिय लवणसमुद्रे पोतविपत्तिर्यस्य स तथा तं, निबुभंडसारं' | निममसारभाण्डमित्यर्थः, 'कालधम्मुणा संजुत्तं ति मृतमित्यर्थः, शृण्वन्ति ते तथेति ये यथेत्यतदपेक्ष्य । ३ 'हस्थनिक्खेब'ति हस्ते निक्षेपो-न्यासः समर्पणं वस्य द्रव्यस्य तद्धस्तनिक्षेपं, 'बाहिरभंडसारं च हस्तनिक्षेपन्यतिरिक्तं च भाण्डसार-सारभाण्डं गृहीत्वा एकान्तदूरमपकामन्ति-विजयमित्रसार्थवाहभायास्तत्पुत्रस्य च दर्शनं ददति तदर्थमपहरन्तीतियावत् । ४ 'परसुणियत्ता इव'त्ति परशुनिकृत्तेव-कुठारच्छिन्नेव 'चम्पकलते'ति । ~ 42~ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) (११) श्रुतस्कंध: [8], ..............------------ अध्य यनं [२] ---------------------- मूल [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२] विपाके मित्तं जाव परिवुडा रोयमाणी कंदमाणी चिलवमाणी विजयमित्तसत्यवाहस्स लोइयाई मयकिच्चाई करेति, तते उज्झिश्रुत०१णं सा सुभद्दा सत्थवाही अन्नया कयाई लवणसमुद्दोत्तरणं च लच्छिविणासं च पोपविणासं च पतिमरणं तकाध्य. च अणुचिंतेमाणी २ कालधम्मुणा संजुत्ता (सू०१२) तते णं ते जगरगुत्तिया सुभई सत्यवाहं कालगयं जा- वेश्यागा॥५२॥ |णित्ता उज्झियगं दारगं सयाओ गिहाओ निच्छुभंति निच्छुभित्ता तं गिहं अन्नस्स दलयंति, तते णं से मिता उज्झियए दारए सयाओ गिहाओ निच्छूढे समाणे वाणियगामे णगरे सिंघाडग जाव पहेसु जूयखलएसु वे- सू० १३ सिताघरेसु पाणागारेसु य सुहंसुहेणं परिवहुति, तते णं से उजिझयए दारए अणोहहिए अणिवारिए सच्छं दमती सइरपयारे मज्जप्पसंगी चोरजूयवेसदारप्पसंगी जाते यावि होत्था, तते णं से उझियते अन्नया कट्रयाई कामजझपाए गणियाए सद्धिं संपलग्गे जाते यावि होत्था, कामज्झयाए गणियाए सद्धिं विउलाई उरा-14 दीप अनुक्रम SARKAR [१५] १ 'मित्त' इत्यत्र यावत्करणाविच रश्य-णाइणियगसंबंधित्ति, तत्र मित्राणि-मुहरः शातयः-समानजातयः निजका:पितृव्यादयः सम्बन्धिनः-श्वशुरपाक्षिकाः, 'रोयमाणी'त्ति अणि मुञ्चन्ती 'कंदमाणी'ति आक्रन्दं महाध्वनि कुर्वाणा 'विलवमाकणी'त्ति आस्वरं कुर्वन्ती। २ 'अणोहट्टएति यो बलाद्धस्तादौ गृहीत्वा प्रवर्तमान निवारयति सोऽपघट्टकस्तभावादनपघट्टकः, 13. अणिवारिए'त्ति निषेधकरहितः, अत एव 'सच्छंदमइति स्वच्छन्दा स्ववशेन वा मतिरस्य खच्छन्दमतिः, अत एव 'सइरप्पयारे' स्वैरं अनिवारिततया प्रचारो यस्य स तथा 'वेसदारपसंगीति वेश्याप्रसङ्गी कलत्रप्रसङ्गी चेत्यर्थः, अथवा वेश्यारूपा ये दारास्तत्प्रसङ्गीति । 442 ॥ ५२ ~ 43~ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) (११) श्रुतस्कंध: [8], ..............------------ अध्य यनं [२] --------------------- मूल [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३] लाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरति, तते णं तस्स विजयमित्तस्स रन्नो अन्नया कयाई सिरीए देवीप जोणिसूले पाउन्भूए याचि होत्था, नो संचाएइ विजयमिते राया सिरिए देवीए सरि उरालाई माणुस्समाई भोगभोगाई झुंजमाणे विहरित्तए, तत्ते से विजपामिले रापा अभया कयाई उजिझपदार कामज्नयार गणियाए गिहाओ निभावेति २त्ता कामज्झयं गणियं अम्भितरिय ठाति २ सा कामज्ययाए मणियाए सद्धिं खरालाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरति । तते णं से उजिसपए दारए कामझयाए। गणियाए गिहाओ निच्छुभेमाणे कामज्याए गणियाए मुछिए गिद्धे गढिए अज्झोववन्ने अन्नत्य कत्थइ सुई चरईच धिई च अविंदमाणे तचित्ते तम्मणे तल्लेसे तदझवसाणे तदहोवउत्ते तयप्पियकरणे तम्भावणाभाविए १'भोगभोगाईति भोजनं भोग: परिभोगः भुज्यन्त इति भोगा:-शब्दादयो भोगार्हाः भोगा भोगभोगा-मनोज्ञाः शब्दाय & इत्यर्थः । २ 'मुच्छितेत्ति मूञ्छितो-मूढो दोषेष्वपि गुणाध्यारोपात् 'गिद्धे'त्ति तदाकाडावान् 'गढिए'त्ति प्रवितस्तद्विषयनेहतन्तुसं दर्मितः 'अज्झोववन्नेत्ति आधिक्येन तदेकाप्रतां गतोऽभ्युपन्नः, अत एवान्यत्र कुत्रापि वस्त्वन्तरे 'सुई चति स्मृति स्मरणं 'रई चत्ति रति-आसक्ति 'पिई चत्ति धृति वा चित्तस्वास्थ्यम् 'अविंदमाणे'त्ति अलभमानः 'तच्चित्तेत्ति तस्यामेव चित्त-भावमनः सा मान्येन वा मनो यस्य स तथा 'तम्मणेत्ति द्रव्यमनः प्रतीत्य विशेषोपयोगं वा 'तल्लेससि कामध्वजागताशुभात्मपरिणामविशेषः, शालेश्या हि कृष्णादिद्रव्यसाचिन्यजनित आत्मपरिणाम इति, 'तदषसाणे ति तस्मामेवाध्यवसानं-भोगक्रियाप्रयत्नविशेषरूपं यस्य स तया, 'तदट्ठोवउत्तेत्ति तदर्थ-तत्प्राप्तये उपयुक्त:-रुपयोगवान् यः स तया, 'तयप्पियकरणे ति तस्यामेवार्पितानि-दौकितानि कर-| णानि-मन्द्रियाणि येन स तथा, 'तम्भावणाभाविए'चि तावमया-कामवजाचिन्तया भाक्तिो-बासिनो यःम तथा, - दीप अनुक्रम [१६] - अनु.११ ~44~ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [१३] दीप अनुक्रम [१६] विपाके श्रुत० १ ॥ ५३ ॥ “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ ( मूलं + वृत्तिः) श्रुतस्कंधः [१], अध्ययनं [२] मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः कामज्झयाए गणियाए बहूणि अंतराणि य छिद्दाणि य विवराणि य पंडिजागरमाणे २ विहरति, तते णं से उज्झियए दारए अन्नया कयाई कामज्झयं गणियं अंतरं लन्भेति, कामज्झयाए गणियाए गिहं रहसियं अ गुप्पविसह २त्ता कामज्झयाए गणियाए सद्धिं उरालाई माणुस्सगाईं भोग भोगाई भुंजमाणे विहरति । इमं चणं मिते राया हाते जाव पायच्छिते सव्वालंकारविभूसिए मणुस्सवागुरापरिक्खित्ते जेणेव कामज्झयाए गिहे तेणेव उवागच्छति २ त्ता तत्थ णं उज्झियए दारए कामज्झयाए गणियाए सद्धिं उरालाई भोग भोगाई जाव विहरमाणं पासति २त्ता आमुरुते तिबलियभिउडिं निडाले साहडु उज्झिययं दारयं पुरिसेहिं गिण्हावेह १ काम जाया गणिकाया बहून्यन्तराणि च-राजगमनस्यान्तराणि 'छिद्दाणि यत्ति छिद्राणि राजपरिवारविरलत्वानि 'विवराणि य'ति शेषजनविरहान् 'पडिजागरमाणे 'ति गवेषयन्निति । २ 'इमं च णं'त्ति इतश्चेत्यर्थः । ३ 'व्हाए' इत्यत्र यावत्करणादिदं दृश्यंकयबलिकम्मे' देवतानां विहितवलि विधान: 'कयको जयमंगलपायच्छित्ते त्ति कृतानि विहितानिं कौतुकानि च मषीपुण्ड्रादीनि मङ्गलानि च-सिद्धार्थकदध्यक्षतादीनि प्रायश्रित्तानीव दुःखप्रादिप्रतिघातहेतुत्वेनावश्यं करणीयत्वायेन स तथा । ४ 'मनुस्सवग्गुरापरिक्खित्ते'शि मनुष्या वागुरेव - मृगबन्धनमिव सर्वतो भवनात् तया परिक्षिप्तो यः स तथा । ५ 'आसुरुत्ते चि आशु शीघ्रं रुप्तः क्रोधेन विमोद्दिवो यः स आशुरुप्तः आसुरं वा असुरसत्कं कोपेन दारुणत्वादुक्तं भणितं यस्य स आसुरोक्तः रुष्टः-शेषवान् 'कुविए'ति मनसा कोपवान् | 'चंडिक्किए 'त्ति चाण्डिक्यितो - दारुणीभूतः 'मिसिमिसीमाणे 'ति क्रोधज्वालय ज्वलन् 'तिवलियभिउडिं णिडाले साहद्दु'त्ति त्रिवलीकां भृकुटिं लोचनविकारविशेषं ललाटे संहत्य-विधायेति 'अवउडगबंधणं' अवकोटनेन च-मीवायाः पश्चाद्भागनयनेन बन्धनं यस्य स तथा तं । Eucation International For Park Use Only ~ 45~ २ उज्झि तकाध्य. वेश्याव्यसनं सू० १३ ॥ ५३ ॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) (११) श्रुतस्कंध: [8], ..............------------ अध्य यनं [२] --------------------- मूल [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक SAGAR PR सा अट्टिमुहिजाणुकोप्परपहारसंभग्गमहितगत्तं करेति करेत्ता अवउडगवंधणं करेति २त्ता एएणं विहा णणं वझं आणावेति, एवं खलु गोयमा! उज्झियते दारए पुरापोराणाणं कम्माणं जाव पचणुम्भवमाणे विहरति । (सू०१३) उज्झियए णं भंते ! दारए इओ कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छिहिति? कहिं उवचजिहिति?, गोतमा! उज्झियते दारए पणवीसं वासाई परमाउयं पालइत्ता अजेव तिभागावसेसे दिवसे सूलीभिन्ने कए समाणे कालमासे कालं किचा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए णेरइयत्ताए उववजिहिति, से Kाणं ततो अणंतर उध्वहित्ता इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे वेयहगिरिपायमूले वानरकुलसि चाणरत्ताएर उववजिहिति, से णं तत्थ उम्मुक्कबालभावे तिरियभोगेसु मुच्छिते गिद्धे गढिते अज्झोववन्ने जाते जाते वानरपल्लए वहेहतं ऐयकम्मे [ एयप्पहाणे एयविज्जे एयसमुदायारे] कालमासे कालं किचा इहेव जंबुडीवे दीवे भारहे वासे इंदपुरे णगरे गणियाकुलंसि पुत्तत्ताए पचायाहिति, तते णं तं दारयं अम्मापियरो जायमित्तक बद्धेहिंति नपुंसगकम्मं सिक्खावेहिं ति, तते णं तस्स दारयस्स अम्मापियरो णिवत्तयारसाहस्स इमं एयारूवं णामधेज करेंति तं०-होऊ णं पियसेणे णामं णपुंसए, तते णं से पियसेणे गपुंसए उम्मुकबालभावे ___१ 'पुरापोराणाणं' इत्यत्र यावत्करणात् 'दुच्चिन्नाणं दुप्पद्धिकताण' इत्यादि दृश्यम् । २ 'वानरपेलए'ति वानरडिम्भान् । ३ 'तं एयकम्मे 'त्ति तदिति-तस्मात् एतत्कर्मा, इहेदमपरं दृश्यम्-एयप्पहाणे एयविजे एयसमुदाचारेति । ४ 'बद्धेहिति'त्ति ४ वर्द्धितकं करिष्यतः। । [१३] दीप अनुक्रम [१६] १ ~ 46~ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रतस्कंध: [१], ...................---- अध्ययनं [२] ------.. ...----- मूलं [१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रुत०१त प्रत सूत्रांक [१४] विपाकेजोव्वणगमणुप्पत्ते विण्णयपरिणयमित्ते रूवेण य जोवणेण य लावण्णेण य उक्किटे उक्किसरीरे भविस्सह, उझि तिते णं से पियसेणे णपुंसए इंदपुरे णगरे बहवे राईसर जाव पभिइओ पहूहि य विजापओगेहि य मंतचुनेहिकाय Iय हियउड्डावणाहि य निण्हवणेहि य पण्हवणेहि य वसीकरणेहि य आभिओगिएहि य अभिओगिता तिक उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरिस्सति, तते णं से पियसेणे णपुंसए एयकम्मे० सुबहुं । पावकम्मं समजिणित्ता एकवीसं वाससयं परमाउयं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए हैं। सू०१४ पुढवीए णेरइयत्ताए उववज्जिहिति, तसो सिरिसिधेसु सुंसुमारे तहेव जहा पढमो जाव पुढवि० सेणं तओ ॥५४॥ दीप % 25E5% 95% अनुक्रम [१७] १'उकिडे'त्ति सत्कर्षवान , किमुक्तं भवति ?-'उकिट्ठसरीरे'चि । २ विद्यामचचूर्णप्रयोगैः, किंविधः १ इत्याह-हिययुड्डावणेहि यत्ति हृदयोज्ञापनैः-शून्यचित्तताकारकै: 'निण्हवणेहि यचि अदृश्यताकारकै:, किमुक्तं भवति ?-अपहृतधनादिरपि परो धनापहारादिक थैरपद्धते-न प्रकाशयति तदपहवता अतस्तैः 'पण्हवणेहि यत्ति प्रसवनैः थैः परः प्रभुति भजते प्रइत्तो | भवतीत्यर्थः 'वसीकरणेहि यत्ति वश्यताकारकैः, किमुक्तं भवति-आभिओगिएहिंति अभियोगः-पारवश्यं स प्रयोजनं येषां | ते आभियोगिकाः अतस्तैः, अमियोगध द्वेधा, यहाह-"दुविहो खलु अभिओगो दब्वे भावे य होइ नायन्यो । दरमि होति | जोगा विजा मंता व भावमि ॥ १॥" [द्विविधः खल्वनियोगो द्रव्ये भावे च भवति ज्ञातव्यः । द्रव्ये भवन्ति योगाः विद्या मनाच भावे ॥१॥'अभितोगित्तति वशीकृत्य । ~ 47~ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [१४] दीप अनुक्रम [१७] “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ ( मूलं + वृत्तिः) श्रुतस्कंधः [१], अध्ययनं [२] मूलं [१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अनंतरं उब्वहित्ता इहवे जंबुद्दीचे दीवे भारहे वासे चंपाए नयरीए महिसत्ताए पचाचाहिति, से णं तत्थ अनया कयाई गोल्लिएहिं जीविआओ बवरोविए समाणे तत्थेष चंपाए नयरीए सेहिकुलंसि पुत्तताए पचायाहिति, से णं तस्थ सम्मुकबालभावे तहारूवाणं थेराणं अंतिते केवलं बोहिं अणगारे सोहम्मे कप्पे जहा पढमे जाब अंतं करेहिति । निक्लेवो ॥ (सू० १४ ) वितियं अज्झयणं सम्मतं ॥ २ ॥ १ 'निक्खेवो'चि निगमनं वाच्यं तद्यथा' एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं दुदविवागाणं बिइअस्स अज्झसमाप्ती 'बेमी'ति ब्रवीम्यहं भगवत उपश्रुत्य न यथाकथविदिति ॥ विपाकते यणस्स अयमठ्ठे पन्नत्तेत्तिवेमि' अत्र च इतिशब्दः द्वितीयाध्ययनविवरणम् ॥ उज्झितकस्य सिद्धिगमनं अत्र द्वितीयं अध्ययनं परिसमाप्तं For Praise Only ~ 48~ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति (११) श्रतस्कंध: [8], .......................--- अध्य यनं [३] ------- -- -- मूल [१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सेनाध्य. सूत्रांक स्कार [१५] सू०१५ दीप अनुक्रम [१८] विपाके अथ तृतीयमभन्नसेनाध्ययनम् । ३ अभाश्रुत०१ अथ तृतीये किञ्चिल्लिख्यते॥ ५५॥ तेचस्स उक्खेवो-एवं खलु जंबू। तेणं कालेणं तेणं समएणं पुरिमताले णामं णगरे होत्था, रिद्ध०, तस्स शालाची रपल्ली णं पुरिमतालस्स णगरस्स उत्सरपुरच्छिमे दिसीभाए एत्य णं अमोहदसणे उज्जाणे तत्थ णं अमोहदंसिस्स जक्खस्स जक्खाययणे होत्या, तत्थ णं पुरिमताले महबले नाम राया होत्या, तत्व णं पुरिमतालस्स नगरस्स उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए देसप्पंते अडवी संठिया, एत्थ णं सालानाम अडवी चोरपल्ली होत्था विसमगिरिकंदरकोलंबसण्णिविट्ठा वंसीकलंकपागारपरिक्खित्ता छिपणसेलविसमप्पवायफरिहोवगूढा १'तच्चस्स उक्लेवो'त्ति तृतीयाध्ययनस्योत्क्षेपः-प्रस्तावना वाच्या, सा चैवं-जइ णं भंते! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं दोचस्स अज्झयणस्स अयमढे पनत्ते तशस्स गं भंते ! के अढे पन्नत्ते । एवं खलु'त्ति 'एवं वक्ष्यमाणप्रकारेणार्थः प्रजातः 'खलु' वाक्यालकारे 'जंबु'ति आमन्त्रणं । २ 'देसप्पते'त्ति मण्डलप्रान्ते । ३ 'विसमगिरिकंदरकोलंबसन्निविट्ठा' विषमं यगिरेः कन्दरं-कुहरं तस्य यः कोलम्बः-प्रान्तस्तत्र सन्निविष्टः-सन्निवेशिता या सा तथा, कोलंबो हि लोके अवनतं वृक्षशाखाप्रमुच्यते इहो पचारतः कन्दरप्रान्तः कोलम्बो व्याख्यातः, 'वंसीकलंकपागारपरिक्खित्ता' वंशीकलका-वंशीजालीमयी वृत्तिः सैवप्राकारस्तेन ४ परिक्षिप्ता-वेष्टिता या सा तथा, छिन्नसेलविसमप्पवायफरिहोवगृढा' छिनो-विभक्तोऽवयवान्तरापेक्षया यः शैलस्तस्य सम्बन्धिनोरा ॥ ५५॥ टाये विषमाः प्रपाता:मास्ति एव परिखा तयोपगूढा-वेष्टिता या सावधा, अथ तृतीयं अध्ययनं "अभग्नसेन" आरभ्यते ~ 49~ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति (११) श्रुतस्कंध: [१], ------------------------ अध्य यनं [3] ---------------------------- मूलं [१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक BE [१५] दीप अनुक्रम [१८] IMभितरपाणीया सुदुल्लभजलपेरंता अणेगखंडीविदितजणदिन्ननिग्गमपवेसा सुबहुयस्सवि कुषियस्स जणस्स दुप्पहंसा यावि होत्या, तत्थ णं सालाडवीए चोरपल्लीए विजए णामं चोरसेणावई परिवसति अहम्मिए जाव (हणछिन्नभिन्नवियत्तए) लोहियपाणी बहुणगरणिग्गयजसे सूरे दढप्पहारे साहसिए सहवेही परिवसइ अह १'अम्भितरपाणीयेति व्यक्तं, 'सुदुलभजलपरंता' मुष्ठ दुर्लभं जलं पर्यन्तेषु यस्याः सा तथा, 'अणेगखंडी' अनेका नश्यता नराणां मार्गभूताः खण्डयः-अपद्वाराणि यस्यां साउनेकखण्डीति 'विदियजणदिन्ननिम्गमप्पवेसा' विदितानामेव-प्रत्यमिज्ञातानां जनानां दत्तो निर्गमः प्रवेशश्च यस्यां सा तथा, 'सुबहुस्सवि' सुबहोरपि 'कुवियजणस्सवि' मोषव्यावर्तकलोकस्य दुष्पध्वस्या चाप्यभवत् , २ 'अहम्मिए'त्ति अधर्मेण चरतीत्याधम्मिकः, यावत्करणात् 'अधम्मिट्टे' अतिशयेन निर्द्धर्मः अधम्मिष्टो निस्तूंशकर्मकारित्वात् 'अधम्मक्खाई अधर्ममाख्यातुं शीलं यस्य स तथा 'अधम्माणुए' अधर्मकर्त्तव्यम् अनुज्ञा-अनुमोदनं यस्यासावधर्मानुज्ञः | अधर्मानुगो वा अधम्मप्पलोयई अधर्मामेव प्रलोकयितुं शीलं यस्यासावधर्मप्रलोकी 'अधम्मपलजणे' अधर्मप्रायेषु कर्मसु प्रकपेण रज्यते इति अधर्मप्ररजनः, रलयोरक्यमिति कृत्वा रस्य स्थाने लकारः, 'अधम्मसीलसमुदायारे' अधर्म एव शीलं-खभावः समुदाचारय-यकिश्चनानुष्टानं यस्य स तथा 'अधम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणे विहरई' अधर्मेण-पापेन सावधानुष्ठानेनैव दहनाङ्कननिर्लान्छनादिना कर्मणा 'वृत्तिं' वर्त्तनं 'कल्पयन्' कुर्वाणो 'विहरतीति आस्ते स्म, 'हणछिंदभिंदवियत्तए' 'हन' विनाशय 'छिन्धि' द्विधा कुरु 'मिन्द कुन्तादिना भेदं विधेहीत्येवं परानपि प्रेरयन् प्राणिनो विकन्ततीति हनछिदमिन्दविककः, हनेत्यादयः शब्दाः संस्कृतेऽपि न विरुद्धाः अनुकरणरूपत्वादेषां, 'लोहियपाणी' प्राणिविकर्त्तनेन लोहितौ रक्तरक्ततया पाणी-हस्तौ यस्य स तथा ~50~ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति श्रुतस्कंध: [१], ------------------------ अध्य यनं [3] ---------------------------- मूलं [१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५] दीप अनुक्रम विपाकेम्मिए असिलद्विपढममल्ले, से णं तत्थ सालाडवीए चोरपल्लीए पंचण्डं चोरसताणं आहेवचं जाव विहरति ३ अभग्न (सू०१५) तते णं से विजए चोरसेणावई बहणं चोराण य पारदारियाण य गंठिभेयाण य संधिच्छेयाण य सेनाध्य. खंडपहाण य अन्नेसिं च वरणं छिन्नभिन्नबाहिराहियाणं कुडंगे यावि होस्था, तते णं से विजए चोरसेणा- अभन्नसे॥५६॥ वई पुरिमतालस्स णगरस्स उत्तरपुरच्छिमिलं जणवयं बहहिं गामघातेहि य नगरपातेहि य गोग्गहणेहि य नस्यापरा - धः फलंच 'बहुणगरणिग्गयजसे' बहुपु नगरेषु निर्गतं-विश्रुतं यशो यस्य स तथा, इतो विशेषणचतुष्क व्यक्तम्, 'असिलद्विपढममल्ले' असि- सू०१६ यष्टिः-खगलता तस्यां प्रथम:-आयः प्रधान इत्यर्थः मल्लो-योद्धा यः स वथा, 'आहेवञ्चति अधिपतिकर्म यावत्करणात् 'पोरेवर्ष सा-18 | मित्तं भट्टित्तं महत्तरगत्तं भाणाईसरसेणावति रश्य, व्याख्या च पूर्ववत् । १ 'गंठिभेयगाण येति घुर्धरादिना ये प्रन्थीः छिन्दन्ति ते प्रन्धिभेदकाः 'संधिच्छेयगाण येति ये मिसिसन्धीन मिन्दन्ति । | ते सन्छिच्छेदकाः 'खंडपहाण यति खण्ड:--अपरिपूर्णः पट्टा-परिधानपट्टो येषां मद्ययूनादिव्यसनाभिभूततया परिपूर्णपरिधानाप्राप्तेः ते खण्डपट्टाः-यूतकारादयः, अन्यायव्यवहारिण इत्यन्ये, धूर्ता इत्यपरे, 'खंडपाडियाण'मिति कचिदिति, 'छिन्नभिण्णवाहिराहियाण ति | छिन्ना हस्तादिषु मिन्ना नासिकादिपु 'बाहिराहिय'त्ति नगरादे यकृताः, अथवा 'बाहिरत्ति बाह्याः स्वाचारपरिभ्रंशाद्विशिष्टजनव-| IN॥५६॥ हिर्वर्तिनः 'अहिय'ति अहिता प्रामादिदाहकत्वाद् अतो द्वन्द्वस्ततस्तेषां 'कुडंग' वंशादिगहनं तयो दुर्गमत्वेन रक्षार्थमाश्रयणीयत्वसाधात्स तथा । [१८] ~514 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति (११) श्रतस्कंध: [१], ....................-- अध्य यनं [३]----- -- -- मूल [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक बंदिग्गहणेहि य पंथकोहेहि य खत्तखणणेहि य उचीलेमाणे २ विद्धंसेमाणे तज्जेमाणे तालेमाणे नित्थाणे निणे निकणे कप्पाय करेमाणे विहरति, महब्बलस्स रन्नो अभिक्खणं २ कप्पायं गेण्हति, तस्स णं विज-12 यस्स चोरसेणावइस्स खंदसिरिनाम भारिया होत्था अहीण, तस्स णं विजयचोरसेणावहस्स पुत्ते खंदसिरीए भारियाए अत्तए अभग्गसेणे णाम दारए होत्था अहीणपुन्नपंचंदियसरीरे विण्णायपरिणयमिते जो-1 व्यणगमणुपत्ते । तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे पुरिमत्ताले नयरे समोसढे परिसा निग्गया राया निग्गओ धम्मो कहिओ परिसा राया य पडिगओ, तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ म*हावीरस्स जेट्टे अंतेवासी गोयमे जाव रायमग्गं समोगाढे, तत्थ णं बहवे हत्थी पासति बहवे आसे पुरिसे सन्नद्धवद्धकवए तेसिं णं पुरिसाणं मजनगपं एग पुरिसं पासति अवजडय जाच उग्घोसेजमाणं, तते णं तं [१६] दीप अनुक्रम R [१९] १'उवीलेमाणे ति अपपीढयन् 'विहम्मेमाणे'त्ति विधर्मयन्-विगतधर्म कुर्वन, अर्थापहारे हि दानाविधाभावः स्यादेवेति, 'तज्जमाणे'त्ति तर्जयन शास्वसि रे इत्यादि भणनतः 'तालेमाणे'त्ति ताडयन् कपादिघावैः 'णिच्छाणे'ति प्राकृतत्वात् निःस्थान |-स्थानवर्जितं 'निद्धणे' निर्द्धनं गोमहिष्यादिरहितं कुर्वन्निति, कल्प:-उचितो य आव:-प्रजातो द्रव्यलाभः स कल्पायोऽतस्तम् ।। २'अहीण' इत्यत्र 'अहीणपुन्नपंचेंदियसरीरा लक्षणवंजणगुणोववेए'यादि द्रष्टव्यम्। ३ 'अवउडय' इत्यत्र थावत्करणात् 'अबउडगवं| धणबई लक्खत्तकन्ननासं नेहुत्तुप्पियगत्तं इत्यादि द्रष्टव्यं व्याख्या च प्राग्वदिति । ~52~ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [१६] दीप अनुक्रम [१९] विपाके श्रुत० १ “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ (मूलं + वृत्ति अध्ययनं [३] मूलं [१६] ..आगमसूत्र [११], अंग सूत्र [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः श्रुतस्कंध: [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .. पुरिसं रायपुरिसा पढमंमि चचरंसि निसियावेति निसियावेता अट्ठ चुल्लप्पियए अग्गओ घाएंति अग्गओ घाएता कसष्पहारेहिं तालेमाणा २ कैलुणं काकणिमसाई खावेंति खावेत्ता रुहिरपाणीयं च पायंति तदाअंतरं च णं दोचंसि चचरंसि अट्ट बुल्लमाउयाओ अग्गओ घायंति एवं तबे चचरे अट्ठ महापिउए चडत्थे, ४ अट्ठ महामाडयाओ पंचमे पुते छट्ठे सुन्हा सत्तमे जामाज्या अट्टमे धूयाओ णवमे णन्तुया दसमे णत्तुईओ एक्कारसमे णत्तुयावई बारसमे णन्तुहणीओ तेरसमे पिउस्सियपतिया चोदसमे पिउसियाओ पण्णरसमे ॥ ५७ ॥ Eucation International १ 'पढमंमि चञ्चरंसि' प्रथमे परे स्थानविशेषे 'निसियावंति'त्ति निवेशयन्ति, 'अट्ट चुलपिउए'ति अष्टौ लघुपितॄन्-पि तुर्लघुभ्रातॄन् इत्यर्थः । २ 'कलुति करुणं करुणास्पदं तं पुरुषं, क्रियाविशेषणं चेदं 'काकणिमंसाई 'ति मांसऋणखण्डानि । ३ 'दोचंसि चञ्चरंसि 'ति द्वितीये चर्मरे 'चुलमाडयातो'ति पितृलघुभ्रातृजायाः अथवा मातुर्लघुसपत्नीः । ४ एवं तच'ति तृतीये चर्चरे 'अट्ठ महापिउति अष्टौ महापितॄन् पितुज्र्ज्येष्ठभ्रातॄन् एवं यावत्करणात् 'अग्गओ घायेंती'ति वाच्यम्, 'चडत्ये 'ति चतुयें चर्चरे 'अट्ठ महामाउयाओ'ति पितुर्ज्येष्ठभ्रातृजायाः, अथवा मायुज्येष्ठाः सपत्नीः, पञ्चमे चत्वरे पुत्रानप्रतो घातयन्ति, षष्ठे 'स्नुषाः' वधूः सप्तमे 'जामातृकान्' दुहितुर्भवून अष्टमे 'धूयाओ'ति दुहितुः नवमे 'नत्तुए'ति नमृन्पौत्रान् दौहित्रान् वा दशमे 'नत्तईओ'ति नमः - पौत्री दौहित्रीर्वा एकादशे 'नत्तुयावइति नप्तृकापतीन् द्वादशे 'नत्तुरणीओत्ति नकिनीः पौत्रदौहित्रभार्याः, त्रयोदशे 'पिउसियपइय'त्ति पितृष्वसापतिकान् तत्र पितुः स्वसारो-भगिन्यस्तासां पतय एव प ४ तिका-भर्त्तारः 'चउसे पिउसियाओत्ति पितृष्वसृः- जनकभगिनीः पञ्चदशे ॥ ५७ ॥ For Parts Only ३ अभग्नसेनाध्य. अभग्नसेनस्यापराधः फलं च ~53~ + सू० १६ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति (११) श्रतस्कंध: [१], ...................---- अध्य यनं [३] --------. ...----- मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६] ACACCACAAC दीप मासियापतिया सोलसमे माउस्सियाओ सत्तरसमे मासियाओ अट्ठारसमे अवसेसं मित्सनाइनियगसयणसंबंधिपरियणं अग्गओ घातेति २सा कसप्पहारेहिं सालेमाणे २ कलुणं काकणिमसाई खावेति रुहिरपाणीयं च पाएंति । (सू०१६) तते णं से भगवं गोयमे तं पुरिसं पासेह २त्ता इमे एयारूवे अजमथिए पथिए स-ह * मुप्पन्ने जाव तहेव निग्गते एवं वयासि-एवं खलु अहन्नं भंते ! तं चेव जाव से णं भंते! पुरिसे पुन्वभवे । के आसी? जाव विहरति, एवं खलु गोयमा। तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेच जंबुद्दीचे दीवे भारहे वासे पुदारिमताले नाम नगरे होत्था रिद्धा, तत्थ णं पुरिमताले नगरे उदिओदिए नामं राया होत्था महया, तत्थ णं पुरिमताले निन्नए नाम अंडयवाणियए होस्था अढे जाव अपरिभूते अहम्मिए जाव दुष्पडियाणंदे, तस्स णं णिण्णयस्स अंडयवाणियगस्स बहवे पुरिसा दिण्णभतिभत्तवेयणा कल्लाकलिंकोदालियाओ य] १ 'भाउसियापइय'त्ति मातृष्वसुःपतिकान-जननीभगिनीभर्तृन षोडशे 'माउसियाओ'त्ति मातृवसः-जननीभगिनीः | सप्तदशे 'मासियाओ'त्ति मातुलभार्याः, अष्टादशे अवशेष 'मित्तणाइणियगसंबंधिपरियण'ति मित्राणि-सुहृदः शातयः समानजातीयाः निजका:-स्वजनाः मातुलपुत्रादयः सम्बन्धिन:-वशुरशालकादयः परिजनो-दासीदासादिः, ततो द्वन्द्वोऽतस्तत् । al'अहे' इह यावत्करणात् 'दित्ते विच्छड्डियविउलभत्तपाणे इत्यादि 'बहुजणस्स अपरिभूते' इत्येतदन्तं दृश्यम् । ३ 'दिसभइभत्त8 वेयण'त्ति दत्तं भूतिभक्तरूपं वेतन-मूल्यं येषां ते तया, तत्र भृतिः-ट्रम्मादिवर्त्तनं भक्तं तु पृतकणादि 'कल्लाकलिं'ति कल्ये च कल्ये च कल्याकल्यि-अनुदिनमित्यर्थः 'कुद्दालिकाः' भूखनित्रविशेषाः । अनुक्रम [१९] 96482 For P OW अभग्नसेनस्य पूर्वभव: ~54~ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रतस्कंध: [१], ................----- अध्ययनं [३] -------.... --.--- मूलं [१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७]] विपाके जपत्थियापिडए गेहंति, पुरिमतालस्सणगरस्स परिपेरतेसु बहवे काइअंडए य घूघूअंडए य पारेवइ टिटिभि अभन्नश्रुत०१६डए य खग्गिअ मैयूरि कुकुडिअंडए य अण्णसिं च पाहणं जलयरथलयरखयरमाईणं अंडाई गेण्हंति गेण्हेत्ता सेनाध्य. पत्थियपिडगाई भरेति जेणेव निन्नयए अंडवाणियए तेणामेव उवागच्छद २ निन्नयगस्स अंडवाणियस्स उ- पूर्वभवः ॥५८॥ वणेति, तते णं से तस्स निन्नयस्स अंडवाणियस्स बहवे पुरिसा दिण्णभतिक बहवे काइअंडए य जाव कु-15 सू० १७ कुडिअंडए य अन्नेसिं च बाहूर्ण जलयरथलयरखहयरमाईणं अंडयए तेवएसु य कवल्लीसु य कंडुएस यम-18 जणएसु य इंगालेसु य तलिंति भज्जेति सोल्लिंति तलेता भजंता सोल्लेता रायमग्गे अंतरावणसि अंडयएहि । माय पणिगएणं वित्ति कप्पेमाणा विहरति, अप्पणावि य णं से निन्नयए अंडवाणियए तेहिं बहहिं काइय अंडएहि य जाय कुकुडिअंडएहि य सोल्लेहि य तलिएहि य भजेहि य सुरं च आसाएमाणे विसाएमाणे - १ 'पथिकापिटकानि च वंशमयभाजनविशेषाः, काकी घूकी टिटिभी बकी मयूरी कुर्कुटी च प्रसिद्धा, अण्डकानि च प्रतीतान्येवेति। २ 'तवएसु यति तवकानि-सुकुमारिकादितलनभाजनानि 'कवल्लीसु यत्ति कवल्यो-गुडादिपाकभाजनानि 'कंडुसुत्ति क न्दवो-मण्डकादिपचनभाजनानि, 'भज्जणएम यत्ति भर्जनकानि कर्पराणि धानापाकभाजनानि, अकाराश्च प्रतीताः, 'तलिंति' अनौ 8 स्नेहन, भजन्ति-भानावत्पचन्ति 'सोहिंति यत्ति ओदनमिव राध्यन्ति खण्डशो वा कुर्वन्ति 'अन्तरावर्णसि'त्ति राजमार्ममध्य-13॥५८॥ भागवहिढे 'अंडयपणिएणति अण्डकपण्येन । ३ ५ 'सुरं चेत्यादि प्राग्वत् । E दीप अनुक्रम [२०] ~55~ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) (११) श्रतस्कंध: [१], ................----- अध्ययनं [३] -------.... --.--- मूलं [१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७] दीप अनुक्रम [२०] विहरति, तते णं से निन्नए अंडवाणियए एयकम्मे ४. सुबहुं पावकम्मं समजिणित्ता एगं वाससहस्सं परमा-| उयं पालइसा कालमासे कालं किच्चा तचाए पुढवीए उक्कोससत्तसागरोवमठितीएमु णेरइएमु णेरइयत्ताए दाउववन्ने (सू०१७) से णं तओ अणंतरं उव्वहित्ता इहेव सालाडवीए चोरपल्लीए विजयस्स चोरसेणावइस्स खंदसिरीए भारियाए कुच्छिसि पुत्तत्साए श्ववन्ने, तते णं तीसे खंदसिरीए भारियाए अन्नपा कयाई तिण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं इमे एयारूवे दोहले पाउम्भूए-धण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ जाओ णं बहुहिं मि-13 तणाइणियगसयणसंबंधिपरियणमहिलाहिं अण्णाहि य चोरमहिलाहिं सद्धिं संपरिखुडा पहाया कयबलिकम्मा माजाव पायच्छित्ता सव्वालंकारविभूसिया विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं सुरं च आसाएमाणी विसाए-I |माणी विहरंति जिमियभुत्तुसरागयाओ परिसनेवत्धिया सन्नद्धबद्ध जाव पहरणावरणा भरिएहि य फलि-1 एहिं णिकिहाहिं असीहि अंसागतेहिं तोणेहिं सजीवेहिं धणूहि समुक्खित्तेहिं सरेहिं समुल्लालियाहि या १ 'जिमियभुत्तुत्तरागयाओ'त्ति जेमिता:-कृतभोजनाः भुक्तोत्तर-भोजनानन्तरमागता चित्तस्थाने यास्तास्तथा । २ 'पुरिसनेवस्थिति कृतपुरुषनेपथ्याः। ३ 'सन्नद्ध' इत्यत्र यावत्करणाविदं दृश्यं सन्नद्धबवम्मिायकवाझ्या अपीलियसरासणपट्टिया पिणदगे| विजा विमलवरचिंधपट्टा गहियाउहपहरणावरणति व्याख्या तु मागिवेति, 'भरिएहि ति हसपाशितैः 'फलिएहि ति स्फटिका निकद्वाहिति कोशकादाकृष्टः 'असीहिं'ति खड्नेः 'अंसागएहिं ति स्कन्धमागतैः पृष्ठदेशे बन्धनात् 'तोणेहिति शरधीभिः 'सजीवेहि"ति स. जी:-कोट्यारोपितप्रत्यः 'धणूहिंति कोदण्डफैः 'समुक्खित्तेहिं सरेहिं'ति निसर्गार्थमुरिक्षनर्वाणैः 'समुल्लासियाहिं'ति समुल्लासिताभिः अन. airmaanaturary.orm ~ 56~ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [PC] दीप अनुक्रम [२१] विपाके श्रुत० १ ॥ ५९ ॥ “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ ( मूलं + वृत्तिः) - श्रुतस्कंधः [१], अध्ययनं [३] मूलं [१८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः दामाहिं लंबियाहि प ओसारियाहिं ऊरुघंटाहिं छिप्पतूरेणं वज्रमाणेणं २ महया उकिड जाव समुद्दरव- 2 ३ अभग्नभूयंपिव करेमाणीओ सालाडवीए चोरपल्लीए सब्बओ समता ओलोएमाणीओ २ आहिंडमाणीओ २ दो- ४ सेनाध्य. हलं विर्णेति तं जड़ णं अहंपि जाव विणिज्ञामित्तिकहु तंसि दोहलसि अविणिज्ज्ञमाणंसि जाव शियाति । * दोहदो तिते णं से विजय चोरसेणावई खंदसिरिभारियं ओहय जाव पासति, ओहह्यजायपासित्ता एवं वयासीकिष्णं तुमं देवाणुप्पिया ! ओहय जाव झियासि ?, तते णं सा खंदसिरी विजयं एवं वयासी एवं खलु जन्म सू० १८ १ 'दामा हिं'ति पाशकविशेषैः 'दाहाहिं'ति कचित् तत्र प्रहरणविशेषैः दीर्घवंशाप्रन्यस्तदात्ररूपैः 'ओसारियाहिं'ति प्रलम्बितामिः ' ऊरुघंटाहिं'ति जङ्गाघण्टिकामिः 'छिप्पतूरेणं वज्जमाणेणं' द्रुततूर्येण वाद्यमानेन, 'महता उकिट्टि' इत्यत्र यावत्करणादिदं | दृश्यं - 'महया उकिडिसीनायवोल कल्यलरवेणं' वत्र उत्कृष्टिश्च - आनन्दमहाध्वनिः सिंहनादश्च प्रसिद्धः बोटश्च वर्णव्यक्तिवर्जितो ध्वनिः कलकलच व्यक्तवचनः स एव तलक्षणो यो रखः स तथा तेन 'समुहरवभूयंपिवत्ति जलधिशब्दप्राप्तमिव तन्मयमिवेत्यर्थः गगनमण्डलमिति गम्यते । २ 'तं जइ अहंपिं'ति तत् तस्माययमपि, इह यावत्करणादिदं दृश्यं -- 'बहूहिं नित्तणाइणियगसयणसंवपिरियणमहिलाहिं अन्नाहि येत्यादि, 'दोहलं विणिएजामी 'त्ति दोहदं व्यपनयामित्तिकट्टु - इतिकृत्वा - इतिहेतोः 'तंसि दोहलंसि त्ति तस्मिन् दोहदे, इह यावत्करणात् 'अविणिजमाणंमि सुक्का मुक्खा ओलग्गा' इत्यादि 'अट्टज्झाणोबगया शिवाई' इत्येतदन्तं दृश्यमिति ३ 'तते णं से' विजयश्चौरसेनापतिः स्कन्दनियं भार्यामुपहतमनःसंकल्पां भूमिगतदृष्टिकामार्त्तध्यानोपगतां ध्यायन्तीं पश्यति, दृष्ट्वा एवमवादीत् किं णं त्वं देवानांप्रिये ! उपहतमनःसङ्कल्पेत्यादिविशेषणा घ्यायसीति, इदं वाक्यमनुश्रित्य सूत्रं गमनीयम् । For Park Use Only ~57 ~ ४ ।। ५९ ।। wor Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) (११) श्रतस्कंध: [१], .....................-- अध्य यनं [३]----- -- -- मूल [१८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८] दीप अनुक्रम देवाणुप्पिया! मम तिण्हं मासाणं जाव झियामि, तते णं से विजए चोरसेणावई खंदसिरीए भारियाए अंतिए एयमह सोचा जाव निसम्म० खंदभारियं एवं वयासी-अहासुहं देवाणुप्पियत्ति एयमहूँ पडिसुणेति, तते णं सा खंदसिरिभारिया विजएणं चोरसेणावतिणा अन्भणुपणाया समाणी हट्टतुट्ठ० बहहिं मित्त जाच अण्णाहि य बहहिं चोरमहिलाहिं सद्धिं संपरिखुडा पहाया जाव विभूसिया विपुलं असणं ४ सुरं च आसाएमाणा विसाएमाणा ४ विहरइ जिमियभुत्नुत्तरागया पुरिसनेवत्था सन्नद्धवद्ध जाब आहिंडमाणी दोहलं विणेति, तते णं सा खंद० भारिया संपुन्नदोहला संमाणियदो० विणीयदोहला वोच्छिन्नदोहला संपन्नदोहला तं गम्भं सुहंसुहेणं परिवहति, तते णं सा खंदसिरी चोरसेणावतिणी णवण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं दारगं पयाया, तते णं से विजयए चोरसेणावती तस्स दारगस्स महया इहिसक्कारसमुदएणं दसरत्तं ठिइव|डियं करेति, तते णं से विजए चोरसेणावई तस्स दारगस्स एफारसमे दिवसे विपुलं असणं ४ उवक्खडावेति मित्तणाति आमंतेति २ जाव तस्सेव मित्तनाइ० पुरओ एवं बयासी-जम्हा णं अम्हं इमंसि दारगंसि गभगयंसि समाणसि इमे एयारूवे दोहले पाउन्भूते तम्हा णं होउ अम्हं दारगे अभग्गसेणे णामेणं, १-इडिसकारसमुदएणति कख्या-वस्त्रसुवर्णाविसम्पदा सत्कार:-पूजाविशेषस्तस्य समुदायो यः स तथा तेन, 'दसरत्तं ठिइपडिय'ति दशरात्रं यावत् स्थितिपतितं-कुलक्रमागतं पुत्रजन्मानुष्ठानं तत्तथा । [२१] ~58~ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ------------------------ अध्ययनं [३] ----------------- मूलं [१८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक विपाके तते णं से अभग्गसेणे कुमारे पंचधातीए जाव परिवहूइ (सू०१८) तते णं से अभग्गसेणे कुमारे उम्मुकवा-18|३ अभग्नश्रुत०१लभावे याचि होत्था अह दारियाओ जाव अट्ठओ दाओ उप्पि पासाए भुजमाणे विहरह, तते णं से वि- सेनाध्य. ॥६ ॥ जए चोरसेणावई अन्नया कयाई कालधम्मुणा संजुत्ते, तते णं से अभग्गसेणे कुमारे पंचहिं चोरसतेहिं सद्धिं | अभग्नसेसंपरिवुडे रोयमाणे कंदमाणे विलवमाणे विजयस्स चोरसेणावइस्स महया इड्डिसकारसमुदएणं णीहरणं नस्य पल्लीकरेति २त्ता बहूई लोइयाई मयकिचाई करेति र केवइकालेणं अप्पसोए जाए यावि होत्या, तते गं ते पंच चो- पतिता रसयाई अन्नथा कयाइं अभग्गसेणं कुमारं सालाडवीए चोरपल्लीए महया २ चोरसेणाचइत्ताए अभिसिं- सू०१९ [१८] दीप अनुक्रम [२१] १'अट्ठदारियाओ'त्ति, अस्यायमर्थः-'तए णं तस्स अभग्गसेणस्स कुमारस्स अम्मापियो अभग्गसेणं कुमार सोहणसि तिहिकरणणक्खत्तमुटुत्तसि अटुहिं दारियाहिं सद्धिं एगदिवसेणं पाणि गिहाविंसुत्ति, यावत्करणादिदं दृश्य-तए णं तस्स अभग्गसे|णरस कुमारस्स अम्मापियरो इमं एयारूवं पीईदाणं दलयति ति 'अडओ दाओ'त्ति अष्ट परिमाणमस्येति अष्टको दायो-दानं वाच्य इति शेषः, स चैवम्-'अट्ठ हिरण्णकोडीओ अहसुवण्णकोडीओ इत्यादि यावत् 'अट्ठ पेसणकारियाओ अन्नं च विपुलवणकणगरवणमणिमोत्तिवसंखसिलप्पवालरत्तरयणमाइयं संतसारसावएजमिति, 'उर्णि मुंजइति अस्थायमर्थः-'तए णं से अभग्गसेणे कुमारे उर्षि पासायवरगते फुट्टमाणेहि मुयंगमत्थरहिं वरतरुणिसंपउत्तेहिं बत्तीसइबद्धेहिं नायरहिं उबगिजमाणे विउले माणुस्सए कामभोगे पश्च-18 | गुब्भवमाणे विहरति । ॥६॥ * ~59~ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ------------------------ अध्ययनं [३] ----------------- मूलं [१९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: 6964 प्रत सूत्रांक [१९] * दीप अनुक्रम चति । तते णं से अभग्गसेणे कुमारे चोरसेणावई जाते अहम्मिए जाव कप्पायं गेहति, तते णं से जाणचया पुरिसा अभग्गसेणेणं चोरसेणावइणा बहुगामघातावणाहिं ताविया समाणा अण्णमन्नं सद्दावेंति २ त्ता एवं बयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! अभग्गसेणे चोरसेणावई पुरिमतालस्स गरस्स उत्सरिल्लं जण-| वयं बहहिं गामघातेहिं जाव निद्धणं करेमाणे विहरति, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया। पुरिमताले गरे महवलस्स रन्नो एयमट्ट विनवित्तते, तते गं ते जाणवया पुरिसा एपमह अन्नमण्णेणं पडिसुणेति २ महत्थं | महग्धं महरिहं रायरिहं पाहडं गेण्हेंति २त्ता जेणेव पुरिमताले णगरे तेणेव ज्वागते २ जेणेव महम्बले राया तेणेव उवागते २ महन्थलस्स रन्नो तं महत्थं जाव पाहुडं उवणेति करयलअंजलिं कहु महब्बलं रायं एवं वयासी-एवं खलु सामी! सालाडवीए चोरपल्लीए अभग्गसेणे चोरसेणावई अम्हे बहुर्हि गामघातेहि य जाव निद्धणे करेमाणे विहरति, तं इच्छामि णं सामी! तुझं बाहुच्छायापरिग्गहिया निन्भया निरुषसग्गा सुहेणं परिवसित्सएत्तिकहु पादपडिया पंजलिउडा महब्बलं रायं एतमढ़ विण्णवेंति, तते णं से महन्धले राया तेर्सि जणवपाणं पुरिसाणं अंतिए एयमह सोचा निसम्म आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे तिवलियं भिडिं निलाडे साहहु दंडं सदावेति २ सा एवं वयासी-गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया ! सालाडवि घोरपल्लिं १ 'महत्य'ति महाप्रयोजनं 'महग्यंति बहुमूल्यं 'महरिहति महतो योग्यमिति । २ 'दंड'ति पण्डनायकम् । 22 HORSERY CRACTICNGS SC (२२ ~60~ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) (११) श्रुतस्कं ध: [१], ------------------------ अध्य यनं [3] ---------------------------- मूलं [१९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९] विपाके विलुपाहि २ अभग्गसेणं चोरसेणावई जीवग्गाहं गेण्हाहि २ मम उवणेहि, तते णं से दंडे तहत्ति एयमह अभन्नश्रुत०१ पडिसुणेति, तते णं से दंडे बहूहिं पुरिसेहिं सपणद्धबद्ध जाव पहरणेहिं सद्धिं संपरिबुडे मग्गइतेहिं फल-13 सेनाध्य. एहिं जाव छिप्पतूरेणं वजमाणेणं महया जाय उक्किहि जाव करेमाणे पुरिमतालं णगरं मझमज्झेणं निग्ग- ॥ ६१॥ अभग्नसेच्छति २त्ता जेणेच सालाडवीए चोरपल्लीए तेणेव पहारेत्य गमणाते, तते णं तस्स अभग्गसेणस्स चोरसे- नस्य पल्लीदुणावतियस्स चारपुरिसा इमीसे कहाए लदहा समाणा जेणेव सालाडवी चोरपल्ली जेणेव अभग्गसेणे चो- पतिता रसेणाचई तेणेच उवागच्छंति २त्ता करयल जाव एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! पुरिमताले गरे सू०१९ महन्यलेणं रमा महाभडचडगरेणं डंडे आणसे-गच्छहणं तुमे देवाणुप्पिया! सालाडवं चोरपलिं विलंपाहि| अभग्गसेणं चोरसेणावतिं जीवगाहं गेण्हाहि २त्ता मम उवणेहि, तते णं से दंडे महया भडचाडगरेणं जे-18 व सालाडवी चोरपल्ली तेणेव पहारेत्थ गमणाए, तते णं से अभग्गसेणे चोरसेणावई तेसिं चारपुरिसाणं है अंतिए एयमई सोचा निसम्म पंच चोरसताई सद्दावेति सद्दावेत्ता एवं बयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया। पुरिमताले गरे महब्बले जाव तेणेव पहारेथ गमणाए आगते, तते णं से अभग्गसेणे ताई पंच चोरस-IX ताई एवं वयासी-तं सेयं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं तं दंडं सालाडविं चोरपल्लिं असंपत्ते अंतरा चेव प दीप अनुक्रम [२२] K44-45 | ॥६१ १'जीवगाहं गेण्हाहित्ति जीवन्तं गृहाणेत्यर्थः। २'भडचडगरेण ति योधवृन्देन । ~ 61~ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ------------------------ अध्ययनं [३] ----------------- मूलं [१९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९] दीप अनुक्रम [२२] डिसेहित्तए, तए णं ताई पंच चोरसताई अभग्गसेणस्स चोरसेणावइस्स तहत्ति जाव पडिमुणेति, तते णं से का अभग्गसेणे चोरसेणावई विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उबक्खडावेति २सा पंचहिं चोरसएहिं सद्धिं दाबहाते जाव पायच्छिते भोयणमंडसि तं विपुलं असणं सरंच आसाएमाणा ४ विहरति, जिमियभुत्तुत्त-|४|| हैरागतेवि अ णं समाणे आयंते चोक्खे परमसुइभूए पंचहिं चोरसएहिं सद्धिं अल्लं चम्म दुरूहति अल्लं चम्म दुरूहहत्ता सण्णबद्ध जाव पहरणेहिं मग्गइएहिं जाव रवेणं पुवावरणहकालसमपंसि सालाडवीओ चोरद्रापल्लीओ णिग्गच्छद चोरपल्लीओ णिगच्छइत्ता विसमदुग्गगहणं ठिते गहिय भत्तपाणे तं दंडं पडिवाले माणे चिट्ठति, तते णं से दंडे जेणेव अभग्गसेणे चोरसेणावई सेणेव उवागच्छति तेणेव उवागच्छित्ता अभग्गसेणेणं चोरसेणावतिणा सद्धि संलग्गे यावि होत्या, तते णं से अभग्गसेणे चोरसेणावई तं दंडं खिपामेव हयमहिय जाच पडिसेहिए, तते णं से दंडे अभग्गसेणेण चोरसेणावहणा हय जाव पडिसेहिए स-18 १ 'मग्गइतेहिं हस्तपाशितैः, यावत्करणात् 'फलिएही'त्यादि दृश्यम् । २ 'विसमदुग्गगहणं ति विषम-निनोन्नतं दुर्गदुष्प्रवेशं गहन-वृक्षगहरम् । ३ 'संपलग्गे'त्ति योद्धं समारब्धः। ४ हयमहिय'ति यावत्करणादेवं दृश्यम्-'यमहियपवरवीरघाइयविवडियधिधयपडाग हतः सैन्यस्य हतत्वात् मथितो मानस्व मथनात् प्रवरवीरा:-मुभटाः पातिता:-विनाशिता यस्य स तथा, विपतिताः चिह्नयुक्तकेतवः पताकाश्च यस्य स तथा, ततः पदचतुष्टयस्य कर्मधारयः, 'दिसोदिसिं विप्पडिसेहिति'त्ति सर्वतो रणान् निवर्तयति । ACCOCCAKACK ~62~ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [१९] दीप अनुक्रम [२२] “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ ( मूलं + वृत्तिः) श्रुतस्कंधः [१], अध्ययनं [३] मूलं [१९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः विपाके श्रुत० १ ॥ ६२ ॥ * माणे अथामे अबले अवीरिए अपुरिसकारपरकमे अधारणिज्जमितिकट्टु जेणेव पुरिमताले नगरे जेणेव महत्व४ ले राया तेणेव उवागच्छति २ करयल० एवं व्यासी- एवं खलु सामी ! अभग्गसेणे घोरसेणावई विसमदु* ग्गगहणं ठिते गहितभसपाणीते नो खलु से सका केणति सुबहुएणावि आसवलेण वा हत्थियलेण वा ४ जोहबलेण वा रहबलेण वा चाउरिंगिनिंपि० उरंउरेण गिहिसर ताहे सामेण य भेद्रेण य उवप्पदाणेण य विसंभमाणे उपयते यावि होत्था, जेवि य से अभिंतरगा सीसगभमा मित्तनातिणियगसयण संबंधिपरियणं च विपुलधणकणगरयणसंतसारसावइखेणं भिदति अभग्गसेणस्स य चोरसेणावइस्स अभिक्खणं २ १ 'अथामे 'ति तथाविधस्थावमर्जितः 'अबले'त्ति शारीरबलवर्जितः 'अवीरिय'त्ति जीववीर्थरहितः 'अपुरिसक्कारपरक मे 'चि | पुरुषकार:- पौरुषाभिमानः स एव निष्पादितस्वप्रयोजनः पराक्रमः तयोर्निषेधादपुरुषकारपराक्रमः 'अधारणिजमितिकडु' ति अधारणीयं - धारवितुमशक्यं स्थातुं वाऽशक्यभितिकृत्वा - हेतोः । २ 'उरउरेणं'ति साक्षादित्यर्थः । ३ 'सामेण य'सि साम- प्रेमोत्पादकं वचनं 'भेदेण य'ति भेदः स्वामिनः पदातीनां च स्वामिन्यविश्वासोत्पादनम् 'उवप्पयाणेण यत्ति उपप्रदानं - अभिमतार्थदानं । ४ 'जेवि य से अभितरगा सीसगभम ति येऽपि च 'से' तस्याभमसेनस्याभ्यन्सरका:- आसन्ना मत्रिप्रभृतयः किंभूताः !-- 'सीसगभम 'ति शिष्या एव शिष्यकास्तेषां भ्रमा भ्रान्तिर्येषु ते शिष्यकभ्रमाः, विनीततया शिष्यतुल्या इत्यर्थः अथवा शीर्षकं - शिर एव शिरः कवचं वा तस्य भ्रमः - अव्यभिचारितया शरीररक्षत्वेन वा ते शीर्षभ्रमाः इह वानिति शेषः, मिनतीति योगः । ५ तथा 'मित्तनाइणियगेत्यादि पूर्ववत् 'भिंद'त्ति चोरसेनापती नेहं निनत्ति, आत्मनि प्रतिबद्धान् करोतीत्यर्थः । Education International For Parts Only ~63~ ‍अभग्न सेनाध्य. अभग्नसे नस्य पल्लीपतिता सू० १९ ॥ ६२ ॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) (११) श्रुतस्कं ध: [१], ------------------------ अध्य यनं [3] ---------------------------- मूलं [१९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९] ********* + है महत्थाई महग्याई महरिहाई पाहुडाई पेसेह अभंगसेणं चोरसेणावति विसंभमाणेति (सू०१९) तते णं से महन्वले राया अन्नया कयाई पुरिमताले णगरे एगं महं महतिमहालियं कूडागारसालं करेति अणेगक्खंभसयसन्निविट्टे पासाइए दरसणिज्ने, तते णं से महब्बले राया अन्नया कयाई पुरिमताले णगरे उस्सुकं जाव १'महत्थाई ति महाप्रयोजनानि 'महग्याईति महामूल्यानि 'महरिहाईति महतां योग्यानि महं वा-पूजामर्हन्ति महान् वाऽर्हः VI-पूण्यो येषां वानि तथा, एवंविधानि च कानिचित्केषाञ्चिद्योग्यानि भवन्तीत्यत आह–(रायारिहाईति राज्ञामुचितानि ) । २ 'महं. महइमहालियं कूडागारसालं'ति महती-प्रशस्ता महती चासौ अतिमहालिका च-गुर्वी महातिमहालिका ताम्, अत्यन्तगुरुकामित्यर्थः 'कूडागारसालं ति कूटस्येव-पर्वतशिखरस्येवाकारो यस्याः सा तथा स चासौ शाला चेति समासोऽतस्ताम् , 'अणेगखंभसयसन्निविडं | पासाईयं दरसणिज्जं अभिरूवं पडिरूवति व्याख्या प्राग्वत् । ३ 'उस्सुकं ति अविद्यमानशुल्कमहर्ण, यावत्करणादिदं दृश्यम्-'उकर' क्षेत्रगवादि प्रति अविद्यमानराजदेयद्रव्यम् 'अभडप्पवेस' कौटुम्बिकगेहेषु राजवर्णवतां भटानामविद्यमानप्रवेशम् 'अडंडिमकुदंडिम' दण्डो-निग्रहस्तेन निर्वृत्तं राजदेयतया व्यवस्थापितं दण्डिमं कुदण्डः-असम्यग्निप्रहस्तेन निर्वृत्तं द्रव्यं कुदंजिम ते अविधमाने यत्र प्रमोदेऽसावदण्डिमकुदण्डिमोऽतस्तम् 'अधरिमति अविद्यमानं धरिम-मणद्रव्यं यत्र स तथा तम् 'अधारणिज' अविद्यमानाधमर्णम् 'अणुहुयमुइंग' अनुदूता-आनुरूप्येण वादनार्थमुरिक्षमा अनुभृता वा-वादनार्थमेव वादकैरत्यक्ता मृदङ्गा यत्र स तथा 'अमिलायमल्लदार्म' अम्लानपुष्पमालं 'गणियावरनाडइजकलिय' गणिकावरैर्नाटकीयैः-नाटकपात्रैः कलितो यः स तथा तम् 'अणेगतालाचराणुचरिय' अनेक प्रेक्षाकारिमिरासेवितमित्यर्थः, 'पमुइयपफीलियाभिराम प्रमुवितैः प्रक्रीडितच जनैरभिरमणीय 'जहारिह'ति यथायोग्यम् । * दीप अनुक्रम [२२] -+ -+ ** -* -* ~ 64 ~ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) (११) श्रतस्कंध: [१] ... .........------ अध्ययनं [3] ...... ... .- मूलं [२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०] विपाके दसरसं पमोयं घोसावेति २ कोटुंबियपुरिसं सहावेति २एवं वयासी-गच्छह णं तुन्भे देवाणुप्पिया! सालाड-17| ३ अभग्नश्रुत०१ दावीए चोरपल्लीए तत्थ णं तुम्हे अभग्गसेणं चोरसेणावई करयल जाव एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! सेनाध्य. पुरिमताले णपरे महाबलस्स रन्नो उस्सुके जाव दसरत्ते पमोदे उग्धोसेति तं किन्नं देवाणुपिया! विलं| अभग्नसेከ የ ዘ का असणं ४ पुप्फवत्थमल्लालङ्कारं ते इहं हव्वमाणिजउ उदाह सयमेव गच्छित्ता, तते णं कोडंपियपुरिसा| नस्य ग्रहो महब्बलस्स रन्नो करपल जाव पडिमुणेति २ पुरिमतालाओ णगराओ पडि. णातिविकिठेहिं अद्धाणेहिं मृतिर्गसुहेहिं वसहिं पायरासेहिं जेणेव सालाडवी चोरपल्ली तेणेव उवागच्छंति अभग्गसेणं चोरसेनापति करयल त्यादि च जाव एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! पुरिमताले नगरे महब्बलस्स रनो उस्सुके जाव उदाहु। सू०२० सयमेव गच्छित्ता, तते णं से अभग्गसेणे चोरसेणावई ते कोटुंबियपुरिसे एवं बयासी-अहन्नं देवाणुप्पिया! पुरिमतालनगरं सयमेव गच्छामि, ते कोटुंबियपुरिसे सकारेति पडिविसजेति, तते णं से अभ-| ग्गसेणे चोर० बहुहिं मित्त जाव परिबुडे पहाते जाव पायच्छित्ते सव्वालंकारविभूसिए सालाडवीओ चोर-18 पल्लीओ पडिनिक्खमति २सा जेणेव पुरिमताले नगरे जेणेव महब्बले राया तेणेव उवागच्छति २त्ता कर CANCE दीप अनुक्रम [२३] CAMERA १'उदाहु सयमेव गच्छित्ता' उताहो स्वयमेव गमिष्यसीत्यर्थः । २'नाइविगिद्धेहि ति अनत्यन्तदीः 'अदाणेहिति | 51 प्रयाणकः 'सुहेहिति सुखैः-सुखहेतुभिः, 'वसहिपायरासेहिंति वासिकात जनैः । ~65~ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) (११) श्रतस्कंध: [१], .....................-- अध्य यनं [३]----- -- -- मूल [२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०] दीप अनुक्रम CEKACCH4 यल० महन्धलं राय जएणं विजएणं बद्धावेंति २त्सा महत्थं जाव पाहुडं उवणेति । तते णं से महब्बले राया अभग्गसेणस्स चोरसेणावइस्स तं महत्थं जाव पडिच्छति, अभग्गसेणं चोरसेणावति सकारेति सम्माणेति पडिविसज्जेति कूडागारसालं च से आवसहं दलयति, तते णं अभग्गसेणे चोरसेणावती महब्बलेणं रन्ना विसज्जिए समाणे जेणेव कूडागारसाला तेणेव उवागच्छा, तते णं से महन्बले राया कोडंबियपुरिसे सहावेति २त्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया! विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उबक्खडावेह २तं विजलं असणं ४ सुरं च ६ सुबहुं फुप्फगंधमल्लालंकारं च अभग्गसेणस्स चोरसेणावहस्स कूडागार सालं उवणेह तते णं ते कोडुंबियपुरिसा करयल जाव उवणेति, तते णं से अभग्गसेणे चोरसेणावई बहूहिं| 8| मित्तनाइ सद्धिं संपरिबुडे पहाते जाव सम्वालंकारविभूसिए तं विउलं असणं ४ सुरं च ६ आसाएमाणां प-18 मत्ते विहरंति, तते णं से महब्बले राया कोढुंबियपुरिसे सहावेति २ एवं वयासी-गच्छह णं तुम्हे देवाणुप्पिया! पुरिमतालस्स गरस्स दुवाराई पिहेह अभग्गसेणं चोरसेणाचतिं जीवगाहं गिण्हह मम उवणेह, तते णं ते कोटुंबियपुरिसा करयल जाव पडिसुणेति २ पुरिमतालस्स गरस्स दुवाराई पिहेंति अभग्गसेणं चोरसेणावई जीवगाहं गिण्हंति महब्बलस्स रपणो उवणेति, तते णं से महब्बले राया अभग्गसेणं चोरसे. एतेणं विहाणेणं वज्झं आणवेति, एवं खलु गोतमा अभग्गसेणे चोरसेणावई पुरापुराणाणं जाय विहरति । १ 'जएणं विजएणं वद्धावेईत्ति जयेन विजयेन च रिपूर्णा वखेत्येवमाशिषं प्रयुक्त इत्यर्थः । [२३] ~66~ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [२०] दीप अनुक्रम [२३] विपाके श्रुत० १ ॥ ६४ ॥ “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ ( मूलं + वृत्तिः) श्रुतस्कंधः [१], अध्ययनं [३] मूलं [२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ५ अभग्गसेणे णं भंते! चोरसेणावई कालमासे कालं किया कहिं गच्छहिति ? कहिं उबवजिहिति १, गोपमा । अभग्गसेणे चोरसेणावई सतत्तीसं वासाई परमाज्यं पालता अजेय विभागावसेसे दिवसे सुलभन्ने कए १ समाणे कालमासे कालं किवा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उक्कोसनेरइएस उववज्जिहिति, से णं ततो अणंतरं उब्वहित्ता एवं संसारो जहा पढमो जाव पुढवीए, ततो उब्बहित्ता वाणारसीए नयरीए सूयरत्ताए पच्चायाहिति से णं तत्थ सूयरिएहिं जीबियाओ बबरोविए समाणे तत्थेव वाणारसीए नयरीए सेहिकुलंसि पुसत्ताए पचायाहिति से णं तत्थ उम्मुकबालभावे एवं जहा पढमे जाब अंतं काहिति । निक्खेवो ॥ (सू० २० ॥ ततियं अज्झयणं सम्मत्तं ॥ ३ ॥ १ ननु तीर्थकरा यत्र विहरन्ति तत्र देशे पञ्चविंशतेर्योजनानामादेशान्तरेण द्वादशानां मध्ये तीर्थकरातिशयात् न वैरादयोऽनर्था भवन्ति, यदाह - "पुब्बुप्पन्ना रोगा पसमंति इइवेरमारीओ । अइबुट्टी अणाबुडी न होइ दुब्भिक्ल डमरं च ॥ १ ॥” इति [ पूर्वो त्पन्ना रोगाः प्रशाम्यन्ति इतिवैरमार्थः । अतिवृष्टिरनावृष्टिर्न भवति दुर्भिक्षं उमरं ॥] तत्कथं श्रीमन्महावीरे भगवति पुरिमताले नगरे व्यवस्थित एवाभप्रसेनस्य पूर्ववर्णितो व्यतिकरः संपन्नः १ इति, अत्रोच्यते, सर्वमिदमनर्थानर्थजातं प्राणिनां स्वकृतकर्मणः सकाशादुपजायते, कम्मे च द्वेधा सोपक्रमं १ निरुपक्रमं च २, तत्र यानि वैरादीनि सोपक्रमकर्मसंपाद्यानि तान्येव जिनातिशयादु| पशाम्यन्ति सदोपधात् साध्यव्याधिवत् यानि तु निरुपक्रमक पायानि तानि अवश्यं विपाकतो वेद्यानि नोपक्रमकारणविपाणि असाध्यव्याधिवत् अत एव सर्वातिशयसम्पत्समन्वितानां जिनानामप्यनुपशान्तवैरभावा गोशालकाय उपसर्गान् विहितवन्तः ॥ | इति विपाकश्रुते अभङ्गसेनाख्यतृतीयाध्ययनविवरणम् ॥ ३ ॥ Education International अभग्नसेनस्य आगामिभवाः एवं सिध्धिगमनं अत्र तृतीयं अध्ययनं परिसमाप्तं For Parts Only ~67~ इ अभन्न सेनाध्य. अभग्नवे नस्य ग्रहो मृति त्यादि च सू० २० ॥ ६४ ॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) (११) श्रतस्कंध: [१] ... .....------ अध्ययनं [४] ........ ... .- मूलं [२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अथ चतुर्थं शटकाख्यमध्ययनम् । प्रत ENC4%E सूत्रांक [२१] दीप अनुक्रम 45-40% अथ चतुर्थे किञ्चिलिख्यते जहणं भंते! चउत्थस्स उक्खेचो, एवं खलु जंबू। तेणं कालेणं तेणं समएणं साहजनीनामं नयरी होत्था रिथिमियसमिद्धा, तीसे णं साहंजणीए बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए देवरमणे णाम उजाणे होत्था, तत्थ णं अमोहस्स जक्खस्स जक्खाययणे होस्था पुराणे, तत्थ णं साहंजणीए णयरीए महचंदे नाम राया होत्या महया०, तस्स णं महचंदस्स रनो सुसेणे नामं अमचे होत्था सामभेयदंड० निग्गहकुसले, तत्थ णं १'जाणं भंते ! चउत्थस्स उक्खेवउत्ति 'जह णं भंते ! इत्यादि चतुर्थाध्ययनस्योत्क्षेपक:-प्रस्तावना वाच्या इति गम्यं, स चायं-'जइ णं भंते! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं तच्चस्स अज्झयणस्स अयमढे पन्नचे चउत्थस्स णं भंते के अढे पन्नते 'ति, 'महता' इत्यनेन 'महत्ताहिमवतमहंतमलयमंदरमहिंदसारे इत्यादि राजवर्णको दृश्यः, 'साम १ भेद २ दण्ड ३' इत्येत्तसदमेवं दृश्य, 'सामभेददजनवप्पयाणनीईसुपउत्तनयविह' सामः-प्रियवचनं १ भेदः-नायकसेवकयोश्चित्तभेदकरणं २ दण्ड:-शरीरधनयोरपहारः ३ उपप्रदान-अमिमतार्थदानम् ४ एतान्येव नीतयः सुप्रयुक्ता येन स तथा अत एव नयेषु विधाज्ञ:-प्रकारवेदिता य इयाविरमायवर्णको दृश्यः । [२४] REC अनु-१६ THAurare.org अथ चतुर्थ अध्ययनं "शकट" आरभ्यते ... अत्र शीर्षक स्थाने एक मुद्रण-दोष: दृश्यते- “शकट" स्थाने 'शटक' इति मुद्रितं ~68~ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रतस्कंध: [१] ... .....------ अध्ययनं [४] ........ ... .- मूलं [२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: विपाके श्रुत०१ प्रत सूत्रांक सू०१८ [२१] दीप अनुक्रम साहंजणीए नयरीए सुदसणाणामं गणिया होत्था वन्नओ, तत्व णं साहंजणीए नयरीए सुभदे नाम सत्थ- ४ शकटा. वाहे परिवसइ अहे, तस्स णं सुभहस्स सत्यवाहस्स भद्दानामं भारिया होत्या अहीण, तस्स णं सुभ- छणिकदसत्य पुत्ते भद्दाए भारियाए अत्तए सगडे नामं दारए होत्था अहीण, तेणं कालेणं तेणं समएणं स-SI भवः मणे भगवं महावीरे समोसरणं परिसा राया य निग्गए धम्मो कहिओ परिसा पडिगया, तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स जेटे अंतेवासी जाव रायमग्गमोगाडे तत्थ णं हत्थी आसे पुरिसे तेसिं च णं पुरिसाणं| | मज्झगए पासति एग सइत्थीयं पुरिसं अवउडगबंधणं उक्खित्त जाव घोसेणं चिंता तहेच जाव भगवं वागरेति, एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे छगलपुरे नाम गरे होत्या, तत्थ सीहगिरिनाम राया होत्या महया , तत्थ णं छगलपुरे णगरे छणिए नामं छगलीए परिवसति अहे० अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे, तस्स णं छणियस्स छगलियस्स बहवे अयाण य एलाण य रोज्झाण य वसभाण प ससयाण य सूयराण य पसयाण य सिंघाण य हरिणाण य मयूराण य महिसाण य सतबद्धाण य सहस्सबद्धाण य जूहाणि वाढगंसि सन्निरुद्धाई चिट्ठति, अन्ने य तत्थ यहवे पुरिसा दिन्नभइभ-18 सवेपणा बहवे य अए जाव महिसे य सारक्षमाणा संगोवेमाणा चिटुंति, अण्णे य से बहवे पुरिसा अ|याण य जाव गिर्हसि निरुद्धा चिटुंति, अन्ने य से बहवे पुरिसा दिनभइ बहवे सयए य सहस्से य जीवि-IPu५॥ याओ ववरोविंति मंसाई कप्पिणीकप्पियाई करति छणीयस्स छगलीयस्स उवणेति, अन्ने य से बहवे पुरिसा [२४] SAREauratonintamanna अत्र मूल संपादने शीर्षक-स्थाने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते- यत् सू० २१ स्थाने सू० १८ इति क्रम मुद्रितं ~69~ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) (११) श्रतस्कंध: [१] ... .....------ अध्ययनं [४] ........ ... .- मूलं [२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१] दीप अनुक्रम THIताई याहयाई अयमसाई जाच महिसमंसाई तवएसु य कवल्लीम य कंदूएसु य भजणेसु य इंगालेसु य तलंति भजेंति य सोल्लयंति य२ ततो रायमगंसि वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति, अप्पणाविय णं से छन्नियए छा-14 गलीए तेहिं बहुविह० मंसेहिं जाव महिसमंसेहिं सोल्लेहि यतलेहि य भज्जेहि य सुरंच आसाएमाणे विहरति, तते णं से छन्नीए य छगलीए एयकम्मे प०वि०स०सुबहुं पावकम्मं कलिकलुसं समजिणित्ता सत्तवाससयाई परमाउयं पालइत्ता कालमासे कालं किचा चोत्थीए पुढवीए उकोसेणं दससागरोचमठिइएसु नेर-I इयत्ताए उववन्ने (सू०२१) तते णं तस्स सुभद्दसत्यवाहस्स भद्दा भारिया जाव निदुया यावि होत्था, जाया जाया दारगा विनिहायमावति, तते णं से छन्नीए छागले चोत्थीए पुढवीए अणंतर पव्वहिता इहेव साहजणीए नयरीए सुभहस्स सत्यवाहस्स भद्दाए भारियाए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उववन्ने, तते णं सा भद्दा सत्यवाही अन्नया कयाई नवण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं दारगं पयाया, तए णं तं दारगं अम्मापियरो जायमेतं चेव सगडस्स हेटातो ठाति दोचंपि गिण्हावेंति अणुपुब्वेणं सारक्खंति संगोवेति संवहँति जहा उज्झियए जाव जम्हाणं अम्हं इमे दारए जायमेत्ते चेव सगडस्स हेट्ठा ठाविए तम्हा णं होऊ णं अम्हं एस दारए सगडे नामेणं, सेसं जहा उज्झियते, सुभद्दे लवणसमुद्दे कालगते मायावि कालगया, सेऽवि सयाओ गिहाओ नि १ 'सुभद्दे लवणे काल'त्ति अयमर्थः-'सुभदे सत्थवाहे लवणसमुद्दे कालधम्मुणा संजुत्ते यावि होत्य'ति । [२४] ~ 70~ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) (११) श्रतस्कंध: [१] ... .....------ अध्ययनं [४] ........... .- मूलं [२२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक **% [२२] दीप अनुक्रम [२५] विपाकेच्ढे तते णं से सगडे दारए सयातो गिहाओ निच्छ्ते समाणे संघाडगतहेव जाव सुदरिसणाए गणि-MY शकटा. श्रुत०१ दयाए सर्वि संपलग्गे यावि होत्या, तते णं से सुसेणे अमचे तं सगडं दारगं अन्नया कयाई सुदरिसणाए ग- वेश्यातो |णियाए गिहाओ निच्छुभावेति सुदंसणियं गणियं अम्भितरियं ठावेति २ सुदरिसणाए गणिपाए सद्धिं उरा-13/ नाशा लाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरति, तते णं से सगडे दारए सुदरिसणाओ गिहाओ निच्ढे समाणे अन्नस्थ कस्थवि सुर्ति वा अलभ० अन्नया कयाई रहसियं सुदरिसणागेहं अणुप्पविसह २ सुदरि|सिणाए सर्टि उरालाई भोगभोगाइं मुंजमाणे विहरह, इमं च णं सुसेणे अमचे पहाते जाव विभूसाप मणुहस्सबरगुराए जेणेव सुदरिसणागणियाए गेहे तेणेव उवागच्छति तेणेव उवागच्छदत्ता सगड दारयं सुदंस णाए गणियाए सद्धिं खरालाई भोगभोगाई भुजमाणं पासह आसुरुत्ते जाय मिसमिसेमाणे तिवलियं भि िनिमाले साइह सगई दारयं पुरिसेहिं गिण्डाविति अहिजाब महियं करेति अपनडगपंधणगं क-15 रेति २ जेणेव महचंदे राया तेणेव उवागवाह उवागछित्ता करयलजाव एवं पयासी-एवं खलु सामी! स गडे दारए मम अंतेपुरंसि अवरद्धे, तते णं से महगंदे राया सुसेर्ण अमचं एवं पयासी-तुम, चेष गं देवाणु* प्पिया! सगडस्स दारगस्स दंदं यत्तेहि, तए णं से सुसेणे अमचे महदेणं रमा अम्मणुबाए समाणे स-18 गडं वारयं सुदरिसणं च गणियं एएणं बिहाणेणं वनं आणयेति, तं एवं खलु गोयमा। सगडे दारगे पोरापुराणाणं पवणुम्भवमाणे विहरति (सू०२२) सगडेणं भंते! दारए कालगए कहिंगच्छिदिति ? कहिं जन 6495564545453 अत्र मूल संपादने शीर्षक-स्थाने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते- यत् सू० २२ स्थाने सू० १९ इति क्रम मुद्रितं ~ 71~ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) (११) श्रुतस्कंध: [१], ------------------------ अध्य यनं [४] ----------------------------- मूलं [२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३] वजिहिह, सगडे णं दारए गोयमा! सत्तावणं वासाइं परमाउयं पालइत्ता अब्रेव तिभागावसेसे दिवसे एगं महं अओमयं तत्तसमजोहभूयं इत्थिपडिम अवयासाविते समाणे कालमासे कालं किया इमीसे रयणपभाए पुढवीए णेरइयत्ताए उववजिहिति, सेणं ततो अणंतरं उबहित्ता रायगिहे गरे मातंगकुलंसि जुगलत्ताए पचायाहिति, तते णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो णिवत्तवारसगस्स इमं एपारूवं गोणं नामधेनं करिस्संति, तं होऊ णं दारगं सगडे नामेणं होऊ णं दारिया सुदरिसणानामेणं, तते णं से सगडे दा रए उम्मुकवालभावे जोवण [गमणुपत्ते०] भविस्सइ, तए णं सा सुदरिसणावि दारिया उम्मुफयालभावा है(विषणय) जोब्बणगमणुप्पत्ता रूवेण य जोवण य लावणेण य उशिहा उकिट्टसरीरा यावि भविस्सह, तए णं से सगडे दारए सुदरिसणाए रूवेण य जोव्वणेण य लावणेण य मुच्छिए सुदरिसणाए सद्धिं उरा-18 लाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरिस्सति, तते णं से सगडे दारए अन्नया कयाई सयमेव कूडगाहित्तं उवसंपजिसाणं विहरिस्सति, तते णं से सगडे दारए कूडगाहे भविस्सइ अहम्मिए जाव दुष्पडियाणंदे एय-1 दीप अनुक्रम %A5ॐॐॐॐ (२६] १'अओमय' ति अयोमयी 'त' तप्ता, कथम् । इत्याह 'समजोहभूयंति समा-तुल्या ज्योतिषा-वहिना भूता या सा तथा| ताम् । 'अवयासाविए'त्ति अवयासितः-आलिङ्गितः। २ 'जोवण भविस्सइ'त्ति 'जोब्बणगमणुपत्ते अलं भोगसमत्थे यावि भविस्सति' इत्येवं द्रष्टव्यम् । ३'त सत्ति 'लए णं सा' इत्येवं दृश्यम् । 'विन्नय'त्ति एतदेवं दृश्य-विण्यायपरिणयमेत्ता'। ~72~ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [२३] दीप अनुक्रम [२६] विपाके कम्मे० सुवसुं पावकम्मं समजिणित्ता कालमासे कालं किचा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए णेरइयत्ताए उबबन्ने, संसारो तहेव जाव पुढवीए, से णं ततो अनंतरं उब्वहित्ता वाणारसीए नयरीए मच्छत्ताए उववज्जिहिति, से णं तत्थ णं मच्छबंधिएहिं वहिए तत्येव वाणारसीए नयरीए सेडिकुलंसि पुत्तत्ताए पचायाहिति ॥ ६७ ॥ ४ बोहिं बुझे० पव्य० सोहम्मे कप्पे महाविदेहे वासे सिज्झिहिति निक्खेवो दुहविवागाणं चोत्थस्स | अज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते । (सू० २३) चोत्थं अज्झयणं सम्मतं ॥ ४ ॥ “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ ( मूलं + वृत्तिः ) श्रुतस्कंधः [१], अध्ययनं [४] मूलं [२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः श्रुत० १ 'निक्खेवो'सि 'एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेण चत्थस्स अायणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते' इत्येवंरूपं निगमनं वा ॥ ६७ ॥ ध्यमिति । शेषमुपयुज्य प्रथमाध्ययनानुसारेण व्याख्येयमिति चतुर्थाध्ययनविवरणम् ॥ ४ ॥ Education Internationa For Pasta Use Only अत्र मूल संपादने शीर्षक-स्थाने सूत्र क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते यत् सू० २३ स्थाने सू० २० इति क्रम मुद्रितं अत्र चतुर्थ अध्ययनं परिसमाप्तं ४ शकटा. भवान्त राणि सू० २० ~73~ waryra Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [२४] दीप अनुक्रम [२७] “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ ( मूलं + वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [१], अध्ययनं [५] मूलं [२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अथ पञ्चमे किञ्चिद्विस्यते जणं भंते! पंचमस्स अज्झयणस्स उक्खेवो, एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समपुर्ण कोसंबीनाम नयरी होत्या रिद्धत्थिमिय० वाहिं चंदोतरणे उज्जाणे सेयभद्दे जक्खे, तत्थ णं कोसंबीए नयरीए सयाणीए नाम राया होत्था महता मियावती देवी, तस्स णं स्याणीयस्स पुत्ते मियादेवीए अन्तर उदायणे णामं | कुमारे होत्था अहीण० जुबराया, तस्स णं उदायणस्स कुमारस्स पउमावतीनामं देवी होत्था, तस्स णं सयाणीयस्स सोमदत्ते नामं पुरोहिए होत्था रिउवेय०, तस्स णं सोमदत्तस्स पुरोहियस्स वसुदत्ता नाम भारिया होत्या, तस्स णं सोमदत्तस्स पुत्ते वसुदत्ताए अत्तए वहस्सतिदत्ते नामं द्वारए होत्या अहीण, तेणं कालेणं | तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसरणं, तेणं कालेणं तेणं समएणं भगवं गोयमे तहेब जाव रायमग्गमोगाढे तहेव पासह हत्थी आसे पुरिसमज्झे पुरिसं चिंता तहेव पुच्छति पुन्वभवं भगवं वागरेति, एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे सम्वतोभद्दे नाम नयरे होत्या रिद्वत्थि | मियसमिद्धे, तत्थ णं सव्वतोभद्दे नगरे जियसत्तू नामं राया, तस्स णं जियसत्तुस्स रन्नो महेसरदत्ते नामं पुरो Ecation International अथ बृहस्पतिदत्ताख्यं पञ्चममध्ययनम् । अथ पंचमं अध्ययनं "बृहस्पतिदत्त" आरभ्यते For Parts Only ~74~ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [२४] दीप अनुक्रम [२७] “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ ( मूलं + वृत्तिः ) श्रुतस्कंधः [१], अध्ययनं [५] मूलं [२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः विपाके श्रुत० १ ॥ ६८ ॥ हिए होत्था रिडेब्य ४ जाव अथव्वणकुसले आवि होत्था, तते णं से महेसरदत्ते पुरोहिए जियसचुस्स रनो ५ रजबलविषणअद्वआए कल्लाकालिं एगमेगं माहणदारयं एगमेगं खत्तियदारयं एगमेगं वहस्सदारयं एगमेगं सुदारगं गिण्हावेति २ तेसिं जीवंतगाणं चैव हिपउंडए गिण्हावेति जियसत्तुस्स रनो संतिहोमं करेति, 5 तए णं से महेसरदत्ते पुरोहिए अहमीचोदसीस दुवे माण १ खत्तिय २ वेस ३ सुद्दे ४ चोण्डं मासाणं च १ सारि २ छच्हं मासाणं अट्ठ २ संवच्छरस्स सोलस २ जाहे जाहेऽविष णं जियसनू राया परवलेणं अभिजुंजह ताहे ताहेबिय णं से महेसरदत्ते पुरोहिए असयं माहणदारगाणं असयं खतियदारगाणं असणं सुद| दारगाणं अट्ठसयं बेसदारगाणं पुरिसे मिण्हावेति गिण्हावेता तेसिं जीवंताणं चैव हिडीओ गिन्हा बेलि २ जियसत्तुस्स रण्णो संतिहोमं करेति, तते णं से परबले खिप्पामेव विद्धंसिइ वा पटिसेहिलाइ वा ( सू० २४ ) तते णं से महेसरदत्ते पुरोहिए एयकम्मे० सुबद्धं पावकम्मं समज्जिणिसा तीसं वाससपं परमाजयं | पालहला कालमासे कालं किया पंचमाए पुढवीए उक्कोसेणं सत्तर ससागरोषमट्ठिएए नरने उचयने, से पां ततो अप्यंतरं उब्वहित्ता इद्देव कोसंबीए नगरीए सोमदत्तस्स पुरोहियस्स वसुदत्ताए पुत्तत्ताए उबवन्ने, तते णं तस्स १ 'रिउब्वेय'त्ति एतेनेदं दृश्यं - रिजन्वेयजजुन्वेय सामवेयअथब्वणवेय कुसले ति दृश्वं व्यकं च । हृदयमांसपिण्डान् । For Pass Use Only २ 'हिययचंडीओ'चि अत्र मूल संपादने शीर्षक-स्थाने सूत्र क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते यत् सू० २४ स्थाने सू० २१ इति क्रम मुद्रितं ~75~ ५ बृहस्प ति. महेश्व रभवः सू० २१ ॥ ६८ ॥ wor Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) (११) श्रतस्कंध: [१] ............------ अध्ययनं [५] ..... .....- मूलं [२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५] दारगस्स अम्मापियरो निव्वत्तबारसाहस्स इमं एयारूवं नामधेनं करेंति, जम्हा णं अम्हं इमे दारए सोमदत्तस्स पुरोहियस्स पुत्ते वसुदत्ताए अत्तए तम्हाणं होउ अम्हं दारए वहस्सइदत्ते नामेणं, तते णं से वहस्सतिदत्ते दारए पंचधातिपरिग्गहिए जाव परिवड्डइ, तते णं से वहस्सति. उम्मुक्कबालभाचे जुब्वण. विण्णय होत्था से णं उदायणस्स कुमारस्स पियवालवयस्सए यावि होत्था सहजायए सहवडीयए सह-14 पंसुकीलियए, तते णं से सयाणीए राया अन्नया कयाई कालधम्मुणा संजुत्ते, तते णं से उदायणकुमारे बहु राईसर जाव सत्यवाहपभिहहिं सर्कि संपरिघुडे रोयमाणे कंदमाणे विलवमाणे सयाणीयस्स रनो महया Cइडीसक्कारसमुद्रएणं नीहरणं करेति, बहई लोइयाई मयकिचाई करेति, तते णं ते पहवे राईसर जाव सत्य वाह उदायर्ण कुमारं महया रायाभिसेएणं अभिसिंचा, तते णं से उदायणे कुमारे राया जाते महया० 18 तते णं से वहस्सतिदत्ते दारए उदायणस्स रनो पुरोहियकम्मं करेमाणे सब्बहाणेसु सव्वभूमियासु अंतेउ-18 &ारे य दिनवियारे जाए यावि होत्या, तसे णं से वहस्सतीदसे पुरोहिए उदायणस्स रपणो अंडरंसि वेलासु |य अषेलासु य काले य अकाले य राओ य वियाले य पविसमाणे अन्नया कयाई पउमावईए देवीए सद्धिं १'वेलासु'त्ति अवसरेषु-भोजनशयनादिकालेष्वित्यर्थः 'अवेलासुति अनवसरेषु 'काले तृतीयप्रथमप्रहयदी 'अकाले च' मध्याहादी, अकालं विशेषेणाह-राओ'त्ति रात्रौ 'बियालेति सन्ध्यायां 'संपलग्गो ति आसक्तः ॥ पञ्चमाध्ययनं वृहस्पतिदत्तस्येति ॥५॥ दीप अनुक्रम [२८] ~ 76~ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [२५] दीप अनुक्रम [२८] विपाके श्रुत० १ “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ ( मूलं + वृत्तिः ) श्रुतस्कंधः [१], अध्ययनं [५] मूलं [२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ।। ६९ ।। ४ * ॐ संपलग्गे यावि होत्था पउमावईए देवीए सद्धिं उरालाई भोग भोगाई भुंजमाणे विहरह, इमं च णं उदायणे राया पहाए जाब विभूसिए जेणेव पडमावई देवी तेणेव उवागच्छद्द, वहस्सतिदत्तं पुरोहियं परमावतीदेवीए सर्द्धि उरालाई भोग भोगाई भुंजमाणं पासति आसुरुते तिवलिं भिउडिं साहहुवहस्सतिदन्तं पुरोहियं पुरिसेहिं गिण्हावेति जाब एएणं विहाणेणं वजनं आणाविए, एवं खलु गोधमा ! बहस्सतिदत्ते पुरोहिए पुरापोराणाणं जाव विहरह । वहस्सतिदत्ते णं भंते! दारए हओ कालगए समाणे कहिं गच्छिहिति कहिं उववजिहिति ?, गोयमा ! वहस्सतिदत्ते णं दारए पुरोहिए चोसद्धिं वासाई परमाउयं पालता अज्जेव तिभा गावसेसे दिवसे सूलीयभिन्ने कए समाणे कालमासे कालं किया इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए संसारो तहेब पुढवी, ततो हत्थिणाउरे नगरे मिगन्ताए पचायाहस्सति, से णं तत्थ वाउरितेहिं बहिए समाणे तत्थेव हत्थिणाउरे नगरे सेहिकुलंसि पुत्तत्ताए०, बोहिं० सोहम्मे कप्पे विमाणे० महाविदेहे वासे सिज्झिहिति निक्खेवो । (सू० २५) । पंचमं अज्झयणं सम्मतं ॥ ५ ॥ Education Internation For Parts Only अत्र मूल संपादने शीर्षक-स्थाने सूत्र क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते यत् सू० २५ स्थाने सू० २२ इति क्रम मुद्रितं अत्र पंचमं अध्ययनं परिसमाप्तं ~77 ~ ५ बृहस्प. परखीतो नाशः सू० २२ ॥ ६९ ॥ wor Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रतस्कंध: [१] ... .........------ अध्ययनं [६] ...... ... .- मूलं [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ॥ अथ नन्दिवर्धनाख्यं षष्ठमध्ययनम् ॥ प्रत सूत्रांक [२६] दीप अनुक्रम अथ षष्ठे किञ्चिल्लिख्यतेजइणं भंते! छट्ठस्स उक्खेवो, एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं महुरा नाम नयरी, भंडीरे उवाणे सुदंसणे जक्खे सिरीदामे राया बंधुसिरी भारिया पुत्ते शंदिवद्धणे कुमारे अहीणे जुवराया, तस्स है सिरीदामस्स सुबन्धु नाम अमचे होत्था सामदंड०, तस्स णं सुबन्धुस्स अमचस्स बहुमित्तपुत्ते नाम दाहारए होत्था अहीण, तस्स णं सिरिदामस्स रपणो चित्ते नाम अलंकारिए होत्था, सिरिदामस्स रनो चित्त भावविहं अलंकारियकम्मं करेमाणे सव्वट्ठाणेसु य सबभूमियासु य अंतेउरे य दिनवियारे यावि होत्या. तेणे कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे परिसा निग्गया रायावि निग्गओ जाव परिसा पडिगया, तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स जेढे जाव रायमगं ओगाढे तहेव हत्थी आसे पुरिसे, तेसिं च णं पुरिसाणं १'चित्तं बहुविहति आश्चर्यभूतं बहुप्रकार चेत्यर्थः 'अलंकारियकम्मति चुरकर्म 'सब्बहाणेसु'त्ति शय्यास्थानभोजनस्था-1 नमन्त्रस्थानाविषु आयस्थानेषु वा शुल्कादिषु 'सबभूमियासु'ति प्रासादभूमिकामु सप्तमभूमिकावसानासु पदेषु वा-अमायादिषु । २ दिनवियारे'त्ति राज्ञाऽनुज्ञातसंचरणः अनुज्ञातविचारणो वा। [२९] अथ षष्ठं अध्ययनं "नन्दिवर्धन आरभ्यते ~ 78~ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रतस्कंध: [१], .....................-- अध्य यनं [६] ------ -- -- मूल [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६] विपाके मझगयं एमं पुरिसं पासति जाव नरनारिसंपरिबुडं, तते णं तं पुरिसं रायपुरिसा चच्चरंसि तत्तंसि अयोम-13 नन्दिवर्धश्रुत०१ यंसि समजोईभूपसिहासणंसि निविसाति, तयाणतरं च णं पुरिसाणं मझगयं बहुविहं अयकलसेहिं त-पीना. कमादत्तेहिं समजोहभूएहिं अप्पेगड्या तंबभरिएहिं अप्पेगइया तउयभरिएहिं अपेग० सीसगभरिएहिं अप्पेगरलोभः ॥ ७ ॥ कलकलभरिएहिं अप्पेग खारतेल्लभरिएहिं महयाररायाभिसेएणं अभिसिंचिते, तयाणतरंच णं तत्तं अयो- २३ मयं समजोइभूयं अयोमयसंडासएणं गहाय हारं पिणदंति तयाणतरं च णं अवहार जाव पट्ट मउड चिंता तहेव जाव वागरेति, एवं खलु गोयमा। तेणे कालेणं तेणं समएणं हहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे सीहपुरे नाम । दीप अनुक्रम 44 [२९] १'कलकलभरिएहि ति कलकलायत इति कलकलं-चूर्णादिमिश्रजलं तद्भूतैः, तप्तं अयोमयमित्यादि विशेषणम् । २ 'हारी पिणदंति'त्ति परिधापयन्ति, किं कृत्वा इत्याह-अयोमवं संदंशकं गृहीत्वेति, तत्र हार: अष्टादशसरिकः। ३ 'अहहार ति नवसरिका, यावत्करणात् 'तिसरियं पिगद्धति पालंबं पिणद्धति कडिसुत्तयं पिणद्धति' इत्यादि, त्रिसरिकं प्रती पालम्बो-झुम्बनकं कटीसूत्रं व्यक्तं । 'पट्टति ललाटाभरणं मुकुट-शेखरकः "चिंता तहेव'त्ति वं पुरुषं दृष्ट्वा गौतमस्य विकल्पस्तबैवाभूत् यथा हि प्रथमेऽध्ययने, तथाहि'न मे दिवा मरवा वा नेरइया वा, अयं पुण पुरिसे निरयपडिरूवियं वेयणं वेएईत्ति, यावस्करणादेवं दृश्यम्---'अहापजत्तं भत्तपाणं |पडिगाहेति २ जेणेब सभणं भगवं तेणेव उवागच्छई' इत्यादि वाच्यं वागरेति'त्ति कोऽसौ 'जन्मान्तरे भासीदित्येवं गौतमः पृच्छति भगवांस्तु ज्याकरोति-कथयति । ॥७ ॥ अत्र मूल संपादने शीर्षक-स्थाने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते- यत् सू० २६ स्थाने सू० २३ इति क्रम मुद्रितं ~79~ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) (११) श्रतस्कंध: [१], ........................--- अध्य यन [६] ------ -- - मूल [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६] नगरे होत्था रिद्ध०, तत्थ णं सीहपुरे नयरे सीहरहे नाम राया होत्या, तस्स णं सीहरहस्स रन्नो दुजोहणे | नामे चारगपालए होत्था अहम्मिए जाच दुप्पडियाणंदे, तस्स णं दुजोहणस्स चारगपालगस्स इमेयारूवे चारगभंडे होत्था बहवे अयकुंडीओ अप्पेगड्याओ तंबभरियाओ अप्पेगइयाओ तउयभरियाओ अप्पेगन सीसगभरियाओ अप्पेग० कलकल भरियाओ अप्पेग खारतेल्लभरियाओ अगणिकायंसि अद्दहिया चिट्ठति, तस्स णं दुजोहण चारग० चहवे उहियाओ आसमुत्तमरियाओ अप्पेग० हत्यिमुत्तभरिआओ अप्पेग. गोमुत्तभरियाओ अप्पेग० महिसमुत्तभरियाओ अप्पेग उहमुत्तभरियाओ अप्पेग अयमुत्तभरियाओ* अप्पेग० एलमुत्तभरियाओ बहुपडिपुनाओ चिट्ठति। तस्स णं दुजोहण चारगपालगस्स, बहवे हत्धुंडयाण य पायंदुयाण य हडीण य नियलाण य संकलाण य पुंजा निगरा य सन्निक्खित्ता चिट्ठति, तस्स णं दुजोहण चारग. स्स बहवे वेणुलयाण य वेत्तलयाण य चिञ्चालयाण य छियाणं कसाण य वायरासीण य पुंजा णिगरा दीप अनुक्रम [२९] १'चारगपाले'त्ति गुप्तिपालकः । २ 'चारगभंडे'त्ति गुस्युपकरणम् । ३ 'हत्धुंडुयाण त्ति अण्डूनि-काष्ठादिमयवन्धनविशेषाः, | एवं पादान्दुकान्यपि, 'हडीण यत्ति हडया-बोटकाः 'पुंजति सशिखरो राशिः 'निगर'त्ति राशिमात्रम् । ४ 'वेणुलयाण योति | स्थूलवंशलतानां 'वेत्तलयाण यत्ति जलजवंशलतानां 'चिंच'त्ति चिचालतानाम् अम्बिलिकाकम्बानां 'छियाण'त्ति लक्ष्णचर्मकशानां 'कसाण यति चर्मयष्टिकानां 'वायरासीण'ति बल्करश्मयो बटादित्वगमयसिंदुराणि नादनप्रयोजनानि तेषां पुजास्तिष्ठन्तीति योगः । KAR अनु.१४ नन्दिवर्धनस्य पूर्वभव: ~ 80~ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रतस्कंध: [१] ... .........------ अध्ययनं [६] ...... ... .- मूलं [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: विपाके श्रुत०१ प्रत सूत्रांक ॥७१॥ [२६] दीप अनुक्रम चिट्ठति, तस्स णं दुजोहण. चारगस्स बहवे सिलाण य लउडाण य मोग्गराण य कनंगराण य पुजा णिगरा नन्दिवचिट्ठति, तस्स णे (तए णं से) दुज्जोहण चारगास्स बहवे तंताण य वरत्ताण य वागरजाण य वालयसु- र्धना. कुसरजूण य पुंजा निगरा त चिट्ठति, तस्स णं दुजोहण चारग स्स बहवे असिपत्ताण य करपत्ताण प खुर-IM मारलोभः पत्ताण य कलंबचीरपत्ताण य पुंजा गिरा चिट्ठति, तस्स णं दुजोहण. चारगस्स बहवे लोहखीलाण या सू० २६ कैडगसकराण य चम्मपहाण य अल्लपल्लाण य पुंजा निगरा चिट्ठति, तस्स णं दुजोहण. चारग०स्स बहवे सूतीण य डंभणाण य कोहिल्लाण प पुंजा निगरा चिट्ठति, तस्सणं दुजोहण चारगस्स बहवे संस्था(पच्छा)ण य पिप्पलाण प कुहाडाण य नहच्छेयणाण य दम्भतिणाण य पुंजा निगरा चिट्ठति, तते णं से दुजोहणे 'सिलाण यत्ति दृषदा 'लउलाण यत्ति लगुडाना 'मुग्गराण यति व्यक्त 'कनंगराण यति काय-पानीयाय नगरा:बोधिस्थनिश्चलीकरणपाषाणास्ते कनङ्गराः कानंगरा वा-दंपन्नंगरा इत्यर्थः । 'तए णं से'ति एतस्य स्थाने 'तस्स 'ति मन्यामहे एतस्यैव सङ्गतस्यात् पुस्तकान्तरे दर्शनाचेति । २ 'असिपत्ताण यति असीनां 'करपत्ताण यत्ति क्रकचानां 'खुरपत्ताण य'त्ति क्षुराणां | 'कलंबचीरपत्ताण यत्ति कबु(ल)म्बचीर:-शस्त्रविशेषः । ३ 'कडि(कडग)सकराण य वंशशलाकानां 'चम्मपट्टाण यत्ति बर्हाणाम् || 'अल्लपल्लाण यति अलीना-वृश्चिकपुच्छाकृतीनां 'डंभणाण य'ति यैरप्रिप्रतापितैलोशलाकादिभिः परशरीरे उत्पाद्यते तानि दुम्भकानि 'कोहिल्लाणंति इखमुद्रविशेषाणां । ४'पच्छाण यत्ति प्रच्छनकाना 'पिप्पलाण यति इस्वक्षुराणां कुठारा नखळे- ॥७१॥ दनकानि दर्भाश्च प्रतीताः। 544RECSAX [२९] ~81~ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) (११) श्रतस्कंध: [१] ... .........------ अध्ययनं [६] ...... ... .- मूलं [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६] चारगपाले सीहरथस्स रन्नो बहवे चोरे य पारदारिए य गंठिभेदे य रायावकारी य अणधारए य बालघातए य विसंभघाते य जुतिकरे य खंडपट्टे य पुरिसेहिं गिण्हावेति २ सा उत्ताणए पाडिति लोहदंडेणं मुहं विहा डेइ अप्पेगतिए तत्ततंबं पजेति अप्पेगतिया तउयं पजेति अप्पेगतिए सीसगं प० अप्पेग० कल० २ अप्पे०| दिखारतेल्लं अप्पेगइयाणं तेणं चेव अभिसेयर्ग करेति, अप्पे० उत्ताणए पाडेति आसमु० पजेति अप्पे० इ-4 स्थिमुत्तं पजेति जाव एलमुत्तं पजेति, अप्पेगतिए हेहामुहे पाडेति, छडछडस्स वम्मावेति, अप्पेग० तेणं है चेव उवीलं दलयति अप्पे० हत्धुंडयाई बंधावेति अप्पे० पायंडियं बंधावेति अप्पे० इडिबंधणं करेति दाम्पेनियाबंधणं करेति अप्पे० संकोडियमोडिययं करेति अप्पेग० संकलबंधणं करेति अप्पेग हत्यछि मए करेति जाव सत्थोवाडियं करेति अप्पेग वंगुलयाहि य जाव वापरासीहि य हणावेति अप्पेग उत्ता दीप अनुक्रम [२९] १'अणहारए यत्ति ऋणधारकान् 'संडपट्टे यत्ति धूर्त्तान् । २ 'अप्पेगइय'त्ति अप्मेककान् कांश्चिदपीत्यर्थः 'पजेति'त्ति पाययति 'अप्पेगइयाणं तेणं चेव ओवीलं दलयति' तेनैव अवपीडं-शेखरं मस्तके तस्यारोपणात् उपपीडां वा-वेदना दलयति-क रोति 'संकोडियमोडिए'त्ति सङ्कोटिताच-सक्कोचिताना मोटिताच-चलिताङ्गाः इति द्वन्द्वोऽतस्तान 'अप्पेगइए हत्थच्छिन्नए करेति' द इत्यत्र यावत्करणादिदं दृश्य-'पायच्छिन्नए एवं नकउटुजिन्भसीसछिन्नए' इत्यादि, 'सत्थोवाडियए'त्ति शस्त्रावपादितान्-खगादिना विदारितान् 'अप्पेगइया वेणुलयाहिं' इत्यत्र यावत्करणात् 'वेत्तलयाहि य विचलयाहि इत्यादि दृश्यम् , ~ 82 ~ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [२६] दीप अनुक्रम [२९] विपाके श्रुत० १ ॥ ७२ ॥ “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ ( मूलं + वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१], अध्ययनं [६] मूलं [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः गए कारवेति उरे सिलं दलावेति तओ लउलं छुभावे २ पुरिसेहिं उक्कंपावेति अप्पेग० तंतीहि य जाव सुत्तरज्जूहि व हत्थेसु पाएसु य बंधावेति अगडंसि ओचूलयालगं पज्जेति अप्पेग० असिपत्तेहि य जाव कलंबचीरपत्ते हि य पच्छावेति खारतेल्लेणं अभिगावेति अप्पे० निलाडेसु य अवदसु य कोप्परेसु य जाणुसु य खलुएस अ लोहकीलए य कडसकराओ य दवावेति अलए भंजावेंति अप्पेग० सुतीओ य दंभणाणि य हत्थंगुलियासु य पायंगुलियासु य कोल्लिएहिं आउडावेति २ भूमिं कंड्यावेति अप्पेग० सत्थेहि य जाव नहच्छेदणेहि य अंगं पच्छावेह दम्भेहि य कुसेहि य उल्लवद्वेहि य वेढावेति आयवंसि दलयति सुक्के समाणे चडचडस्स उप्पाडेंति । तते णं से दुज्जोहणे चारगपालए एकम्मे सुबहु पावकम्मं समज्जिणित्ता एगतीसं १ 'उरे सिलं दलावे' इत्यादि, उरसि पाषाणं दापयति तदुपरि लगुडं दापयति ततस्तं पुरुषाभ्यां लगुडोभयप्रान्तनिविष्टाभ्यां लगुडमुत्कम्पयति--अतीव चलयति यथाऽपराधिनोऽस्थीनि दल्यन्त इति | 'संतीहि य' इत्यत्र यावत्करणादिदं दृश्यं - 'वरताहि य वागरज्जूहिं' इत्यादि, 'अगढसित्ति कूपे 'उचूलयालगं ति अधः शिरस उपरि पादस्य कूपजले बोलणाकर्षणं 'पज्जेइ'ति पाययति खादयतीत्यादिलौकिकीभाषा कारयतीति तु भावार्थ:, 'अवद्सु यति कृकाटिकासु 'खलुएसु'ति पादमणिबन्धेषु 'अलिए | भंजावेइ'त्ति वृधिककण्टकान् शरीरे प्रवेशयतीत्यर्थः 'सूईओ'ति सूची: 'डंभणाणि यत्ति सूचीप्रायाणि डम्भकानि हस्तागुल्यादिषु 'कोट्टिल्लएहिं 'ति मुद्गरकैः 'आओडावे 'ति आखोटयति प्रवेशयतीत्यर्थः 'भूमिं कंडुयावे 'ति अङ्गुलीप्रवेशितसूचीकैः हस्तैः भूमिं कण्डूयते, महादुःखमुत्पद्यते इतिकृत्वा भूमिकण्डूयनं कारयतीति । 'दम्भेहि य'ति दर्भाः समूला: 'कुसेहि यत्ति कुशाः-निर्मूलाः । Education International For Pale Only ~83~ ६ नन्दिव धना. कु मारलोभः । सू० २६ ।। ७२ ।। www.landbrary.org Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) (११) श्रतस्कंध: [१], .....................-- अध्य यनं [६] ------ -- -- मूल [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६] दीप अनुक्रम वाससयाई परमाउयं पालहत्ता कालमासे कालं किच्चा छट्ठीए पुढवीए चकोसेणं यावीससागरोवमठितीएसु णेरइत्ताए उबवन्ने (सू०२६) से णं ततो अणंतरं उब्वद्वित्ता इहेव महुराए णगरीए सिरीदामस्स रण्णो बंधुसिरीए देवीए कुच्छिसि पुत्तत्ताए. उचवन्ने, तते णं बंधुसिरी णवण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं जाव दारगं पपाया, तते णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो निव्वत्तबारसाहे इमं एयाणुरूवं नामजं करेंति होऊ णं अम्हं| दारगाणं नंदिसेणे नामेणं, तते णं से नंदिसेणे कुमारे पंचधातीपरिचुडे जाव परिवुडइ, तते णं से नंदिसेणे द्र कुमारे उम्मुकवालभावे जाव विहरति जोव्व० जुवराया जाते यावि होत्या, तते णं से गंविसेणे कुमारे भारजे य जाव अंतेउरे य मुच्छिते इच्छति सिरिदामं रायं जीवियातो ववरोवित्तए सपमेव रज्जसिरिं कारे-1 3माणे पालेमाणे विहरित्सए, तते णं से गंदिसेणे क्रमारे सिरीदामस्स रनो बहणि अंतराणि य छिदाणि यx दाविवराणि य पडिजागरमाणे विहरति, तते णं से नंदिसेणे कुमारे सिरीदामस्स रन्नो अंतरं अलभमाणे अ नया कयाई चित्तं अलंकारियं सहावेति २एवं वयासी-तुम्हे णं देवाणुप्पिया। सिरीदामस्स रनो सब्ब-I हाणेसु य सब्वभूमीसु य अंतेउरे दिण्णवियारे सिरीदामस्स रनो अभिक्खणं २ अलंकारियं कर्म करेमाणे द बिहरसि, तण्णं तुम्हं देवाणुपिया! सिरीदामस्स रन्नो अलंकारियं कम्मं करेमाणे गीवाए खुरं निषेसेहि तो णं अहं तुम्हं अद्धरज्जयं करेस्सामि तुम्हं अम्हेहिं सद्धिं उरालाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरिस्ससि, १ 'कुमारे'ति कुमारः। २ 'अंतराणि यति अवसराम् 'छिड्डाणि यत्ति अल्पपरिवारत्वानि, 'विरहाणि यत्ति विजनलानि । [२९] नन्दिवर्धनस्य आगामि-भवा: ~84~ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रतस्कंध: [१] ............------ अध्ययनं [६] .... .- मूलं [२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत * सूत्रांक [२७] दीप अनुक्रम विपाके तते णं से चित्ते अलंकारिए नंदिसेणस्स कुमारस्स वयणं एयमझु पडिसुणेति, तए णे तस्स चित्तस्स अलं- नन्दिषेश्रुत०१ 18कारियस्स इमेयारूवे जाच समुप्पजित्था-जहणं मम सिरीदामे राया एपमई भागमेति सते मे मम मण- णा-पुरतो हैाति केणति असुभेणं कुमरणेण मारिस्सतित्सिकह भीए जेणेव सिरीदामे राया लेणेव जयागकति सिरी- भवाः ॥७३॥ का दाम राय रहस्सियर्ग करयल० एवं क्यासी-धं खलु सामी! मंदिसेणे कुमारे रजेय जाव मुग्छिते इच्छति सू०२७ तुम्भे जीवियाती ववरोवित्ता सयमेव रज्वसिरिं कारेमाणे पालेमाणे विहरिसए, तते से सिरिदामे राया दचित्तस्स अलं० अंतिए एयमटुं सोचा निसम्म आसुरुसेजाव साहहु णंदिसेणं कुमारं पुरिसेहिं सदि गिण्हा वेति, एएणं विहाणेणं बझं आणवेति, तं एवं खलु गोयमा! दिसणे पुत्ते जाव विहरति, मन्दिसणे कुमारे इभी चुए कालमासे कालं किचा कहिं गरिहिइ कहिं उवजिहिइ ?, गोयमा ! दिसेणे कुमारे सहि वा साई परमाउयं पालहत्ता कालमासे कालं किचा हमीसे रयणप्पभाए पुढवीए संसारो तहेव ततो हस्थिणाठाउरे णगरे मच्छत्ताए उववजिहिति, से णं तस्थ मच्छीएहि वधिए समाणे तत्येव सेडिकुले चोहि सोहम्मे हकप्पे महाविदेहे वासे सिज्झिहिति बुज्झिहिति मुचिहिति परिनिविहिति सम्वदुक्खाणमत करेहिति, पर्व खलु जंबू। निक्खेयो छट्ठस्स अज्झयणस्स अयमढे पन्नोसिबेमि (सू०२७) ण्डमग्झयणे सम्म ॥३॥ | १'पूर्व खलु जंबू!' इत्यादि निक्षेपो' निगमनम् षष्टाध्ययनस्य यावत् 'अयमहेत्यादि 'बेमिति प्रवीच्यह भगवतः समापे vil७३। ट्र अमुं व्यतिकर विदित्वेत्यर्थः ।। षष्ठाभ्ययनविवरणं, नन्दिवर्द्धनवाधिकारो हि समाप्तः॥५॥. . [३०] अत्र षष्ठं अध्ययनं परिसमाप्तं ~854 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रतस्कंध: [१] ... .....------ अध्ययनं [७] ........ .... .- मूलं [२८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अथ सप्तममुम्बरदत्ताख्यमध्ययनम् । प्रत सूत्रांक [२८] दीप अनुक्रम मथ सप्तमे किञ्चिल्लिख्यते जति भंते। उक्लेवो सत्तमस्स एवं खलु जंडू तेणं कालेषां तेणं समएर्ण पावलसंडे णगरे वणवे बाम उजाणे बरवत्तो जक्खो, तत्थ णं पाहलसंडे णगरे सिद्धत्थे राया तत्थ णं पाडलसंडे णगरे सागर-18 है दत्ते सत्यवाहे होत्था अढ० गंगदत्ता भारिया, तस्स णं सागरदत्तस्स पुत्ते गंगदत्ताए भारियाए अत्तए घरदत्ते नामं दारए होत्था अहीण जाव पंचिंदियसरीरे, तेणं कालेणं तेणं स० समोसरणं जाच परिसा पूपचिगया, तेणं कालेणं तेणं सम० भगवं गोपमे तहेव जेणेव पावलसंडे पागरे तेणेव उचागच्चति पाबळाडू नगरं पुरथिमिल्लेणं दुवारेणं अणुप्पविसति तत्थ णं पासति एगं पुरिसं कैच्छलं कोढियं दोउयरियं भगंदरियं अरिसिलं कासिलं सासिलं सोगिलं मुयमुहसुयहत्थं सुयपायं सुयहत्थंगुलियं सडियपायंगुलियं सडियक-12 'जइ णं भंते !' इत्याविरुक्षेपः सप्तमस्याध्ययनस्य वाच्य इति । २ 'कच्छाईति फहमन्तं 'दोउ, यारयति अलोदरिक भगंदलिय'ति भगन्दरवन्तं 'सोगिल'न्ति शोफवन्तं, एतदेव सविकोषमाह-'मुयमुहसुयहस्थति शूनगुखशूनहस । [३१] NAGAR अथ सप्तमं अध्ययनं "उम्बरदत्त" आरभ्यते उम्बरदत्तस्य पूर्वभव: ~ 86~ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) (११) श्रतस्कंध: [१] ... .....------ अध्ययनं [७] ........ .... .- मूलं [२८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: विपाके प्रत श्रुत०१ सूत्रांक ॥७४॥ [२८] ननासियं रसीयाए वा पूईएण य थिविधिवितवणमुहकिमिउत्तयंतपगलंतपूयरुहिर लालापगलंतकन्ननासं अ-18|७ उम्बरभिक्खणं २ पूयकवले य रुहिरकवले य किमियकवले य वममाणं कट्ठाई कलुणाई विसराई कुवमाणं मच्छि-पटू दत्ता-धन्वयाचडगरपहकरेणं अण्णिज्वमाणमग्गं फुटहडाहडसीसं दंडिखंडवसणं खंडमल्लगखंडघडहत्थगयं गेहे देह- न्तरीभवः पलियाए वित्तिं कप्पेमाणं पासति, तदा भगवं गोयम उच्चनीय जाव अडति अहापजतं गिण्हति सू० २८ पाड पडिनिक्खमति जेणेव समणे भगवं० भत्तपाणं आलोएति भत्तपाणं पडिदंसेति समणेणं अन्भणु १'थिविधिविंत'त्ति अनुकरणशब्दोऽयं 'वणमुहकिमिउत्तयंतपगलंतपूयरुहिर'ति व्रणमुखानि कृमिभिरुत्तुद्यमानानि-ऊर्द्धव्यध्यमानानि प्रगलत्पूवरुधिराणि च यस्य स तथा तम् । २'लालापगलंतकन्ननासंति लालामिः-केदतन्तुभिः प्रगलन्तौ कौँ | नासा च यस्य स तथा तम्, 'अभिक्खणं ति पुनः पुनः 'कट्ठाई'ति केशहेतुकानि 'कलुणाई'ति करुणोत्पादकानि 'बीसराईति विरूपध्वनीनीति गम्यते, 'कूयमाण ति कूजन्तम्-अव्यक्त भणन्त, शेषं सर्व प्रथमाध्ययनवत् नवरं 'देहबलियाए' देहबलिमित्यस्माभिधानं प्राकृतशैल्या देहबलिया तीए देहंबलियाए 'पाड'चि पाडलिसंडाओ नगराओ 'पडिणि'त्ति पडिनिक्खमइति दृश्य, 31 M ७४॥ 'जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणामेव उवागच्छति २ गमणागमणाए पडिकमई र्यापथिकी प्रतिकामतीत्यर्थः भिसपाणं आलोएड २ भत्तपाणं पडिदंसेइ २ समणेणं भगवया अन्भणुनाए' यावत्करणात् 'समाणे' इत्यादि दृश्य, -SC-CG दीप अनुक्रम [३१] ~87~ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [२८] दीप अनुक्रम [३१] “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ ( मूलं + वृत्तिः) श्रुतस्कंधः [१], अध्ययनं [७] मूलं [२८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ११ ], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः नाए समाणे जाव बिलमिव पन्नगभूते (अप्पाणेणं) संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति । तते णं. से भगवं गोधमे दोबंपि छट्ठक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरसीए सज्झाए जाव पाडलिसंड नगरं दाहि जिल्लेणं दुवारेणं अणुष्पविसति तंचैव पुरिसं पासति कच्छुलं तदेव जाव संजमेणं तवसा विहरति, तते णं से गोयमे तथ० छ० तब जाव पञ्चस्थिमिल्लेणं दुवारेणं अणुपविसमाणे तंचेव पुरिसं कच्छुद्धं पासति चोत्थछट्ट० उत्तरेण० इमीसे अज्झत्थिए समुपपन्ने अहो णं इमे पुरिसे पुरापोराणाणं जाव एवं वयासीएवं खलु अहं भंते! छट्टस्स पारण० जाव रीयंते जेणेव पाडलसंडे नगरे तेणेव उवागच्छर २ ता पाडलि० | पुरच्छिमिल्लेणं दुवारेणं पविद्वे, तत्थ णं एवं पुरिसं पासामि कच्छुल्लं जाव कप्पेमाणं तं अहं दोचछट्टपारणगंसि दाहिणिल्लेणं दुवारेणं तच्छदुक्खमण० पचस्थिमेणं तहेब तं अहं चोत्थछट्ट० उत्तरदुवारेण अणुष्पविसामि तं चैव पुरिस पासामि कच्छुलं जाव वित्तिं कप्पेमाणे विहरति चिंता मम पुत्र्वभवपुच्छा वागरेति । एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं सम० इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे विजयपुरे नाम नगरे होत्था रिद्ध०, तस्थ णं विजयपुरे नगरे कणगरहे नामं राया हो०, तस्स णं कणगरहस्स रन्नो धनंतरी नामं विज्जे १ 'बिलमिव पन्नगभूए अप्पानेणं आहारमाहारेइति आत्मना आहारयति, किंभूतः सन् ? इत्याह-' पन्नगभूतः' नागकल्पो भगवान् आहारस्य रखोपलम्भार्थमचर्वणात् कथम्भूतमाहारम् १- बिलमिव असंस्पर्शनात्, नागो हि बिलमसंस्पृशन् आत्मानं तत्र प्रवेशयति, एवं भगवानप्याहारम संस्पृशन् रसोपलम्भानपेक्षः सन्नाहारयतीति । २ 'दोच्चंपित्त द्विरपि द्वितीयां वाराम् । Eucation International For Parts Only ~88~ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [७] ----------------- मूलं [२८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: विपाके श्रुत०१ प्रत सूत्रांक ॥७५॥ [२८] दीप अनुक्रम हो, अडंगाउब्वेयपाढए, तंजहा-कुमारभिर्च १सालागे २ सल्लकहते ३ कायतिगिच्छा ४ अंगोले ५ भूयविजे७ उम्बररसायणे७ वाजीकरणे ८सिवहत्थे सुहहत्थे लहुहत्थे, ततेणं से धन्नतरी विजे विजयपुर णगरे कणगरहस्स रन्नो दत्ता.धन्व न्तरीभवः १'अटुंगाउव्वेयपाढए'त्ति आयुर्वेदो-वैद्यकशास्त्रं 'कुमारभिचंति कुमाराणां-बालकानां भृतौ-पोषणे साधु कुमारभृत्य, तद्धि सू० २८ शास्त्रं कुमारभरणस्य-क्षीरस्य दोषाणां संशोधनार्थ दुष्टस्तन्यनिमित्तानो व्याधीनामुपशमनार्थ चेति १ 'सलाग'त्ति शलाकायाः कर्म शालाक्यं तत्प्रतिपादक तनमपि शालाक्यं, तद्धि ऊर्द्धजन्तुगतानां रोगाणां श्रवणवदनादिसंश्रितानामुपशमनार्थमिति २ 'सल्लहत्तेति | शल्यस्य हत्या हननमुद्धार इत्यर्थः शल्यहत्या तत्प्रतिपादकं शास्त्रं शल्यहत्यमिति ३ 'कायतिगिच्छिति कायस्व-स्वरादिरोगग्रस्तशरी-15 रस्य चिकित्सा-रोगप्रतिक्रिया यत्राभिधीयते तत्कायचिकित्सैव, तत्तव हि मध्याह्नसमाश्रितानां ज्वरातीसारादीनां शमनार्थमिति ४ |'जंगोले'त्ति विषघातक्रियाऽभिधायक जङ्गोलं-अगदं तत्तत्रं तद्धि सर्पकीटलूवादृष्टविनाशार्थ विविधविषसंयोगोपशमनार्थ चेति ५ 'भूयवेज'त्ति भूतानां निग्रहार्था विद्या-शास्त्रं भूतविद्या, सा हि देवासुरगन्धर्वयक्षराक्षसाधुपसृष्टचैतसा शान्तिकर्मवलिकरणादिमि-18 ग्रहोपशमनार्थी ६ 'रसायणे'त्ति रसः-अमृतरसस्तस्वायन-प्राप्तिः रसायनं तद्विधयः-स्थापनमायुर्मेधाकर रोगोपहरणसमर्थं च तद[भिधायक तनमपि रसायनम् ७ 'वाईकरणे'त्ति अवाजिनो वाजिनः करणं वाजीकरण-शुक्रवर्द्धनेनाश्वस्षेव करणमित्यर्थः तदभिधा-1 ॥७५॥ | यकं शास्त्रम् , अल्पक्षीणविशुष्करेतसामाप्यायनप्रसादोपजनननिमित्तं प्रहर्षजननार्थ चेति ८ । 'सिवहत्थेचि आरोग्यकरहस्तः 'सुहहहास्य'त्ति शुभहस्त:-प्रशस्तकरः सुखहेतुहस्तो वा 'लहुहत्थेति दक्षहस्तः । [३१] For P OW ~89~ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [७] ----------------- मूलं [२८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८] दीप अनुक्रम ASACROSROCESCENSECONDON अंतेउरेय अन्नेसिंच बहूर्ण राईसर जाव सत्थवाहाणं अन्नेसिंच बडणं दुबलाण य १ गिलाणाण य२ वाहियाण य रोगियाण य अणाहाण य सणाहाण य समणाण यमाहणाण य भिक्खागाण य करोडियाण य कप्पडियाण य आउराण य अपेगतियाणं मच्छमंसाइंउवदंसेति अप्पे कच्छपमसाई अप्पे गाहाम अप्पे० मगरम० अ० सुंसुमारमं० अप्पे० अयमंसाई एवं एलारोज्झसुपरमिगससयगोमंसमहिसमसाई अप्पे० तित्तरमसाई अप्पे० चट्ट० कलाव० कपोत कुकुड०मयूर० अन्नेसिं च बहुणं जलयरथलपरखयरमादीणं मसाई ख्वदंसेति अप्पणाविय णं से धनंतरीविजे तेहिं बहूहिं मच्छमंसेहि य जाव मयूरमंसेहि य अन्नेहि य बहूर्हि जलयरथलयर-12 १ 'राईसर' इत्यत्र यावत्करणात् 'तलबरमाईवियकोबुंबियसेट्ठी ति दृश्य, 'दुब्बलाण यत्ति कृशानां हीनवलानां वा 'गिला-1 णाण य'त्ति क्षीणहर्षाणां शोकजनितपीडानामित्यर्थः 'वाहियाण यत्ति च्याधिः-चिरस्थायी कुष्ठादिरूपः स संजातो येषां ते व्याधिता व्यथिता वा-उष्णादिभिरभिभूता अतस्तेषां 'रोगिया'ति संजासाचिरस्थाथिज्वरादिदोषाणां, केषामेवंविधानाम् ? इत्याह-'सणाहाण* यत्ति सस्वामिनाम् 'अणाहाण यत्ति निःस्वामिना 'समणाण यति गैरिकादीनां 'भिक्खगाण यत्ति तदन्येषां 'करोडियाण बत्ति कापालिकानाम् 'आउराण ति चिकित्साया अविषयभूतानाम् 'अप्पेगइयाणं मच्छमंसाई उवइसति' इत्येतस्य वाक्यस्यानुसारेणानेतनानि वाक्यानि ऊहानि, मत्स्याः कच्छपा पाहाः मकराः सुंसुमाराः अजाः एलकाः रोझाः शूकरा: मृगाः शशकाः गावः महिषाः | तित्तिराः वर्त्तकाः लावकाः कपोताः कुर्बुदाः मयूरान प्रतीताः । [३१] ~90~ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [२८] दीप अनुक्रम [३१] “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ ( मूलं + वृत्तिः) श्रुतस्कंधः [१], अध्ययनं [७] मूलं [२८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः विपाके श्रुत० १ ।। ७६ ।। ४४ । खहयरमंसेहि य सोल्लेहि य तलेहि य भिजेहिं सुरं च ६ आसाएमाणे विसाएमाणे विहरति । तते णं से ५ धन्नंतरी बिजे एयकम्मे सुबहुं पार्थ कम्मं समजिणित्ता बत्तीसं वाससयाई परमाज्यं पालता कालमासे कालं किचा छुट्टीए पुढवीए उक्कोसेणं बावीससागरोवमा० उबवण्णे । तते णं गंगदत्ता भारिया जायणिंदुया यावि होत्था जाया जाया दारगा विनिधाय मावजंति, तते णं तीसे गंगदत्ताए सत्थवाहीए अन्नया कयाई पुब्वरतावर सकालसमयंसि कुटुंबजागरियं जागरमा० अयं अम्भस्थिए० समुप्पन्ने एवं खलु अहं सागरदत्तेणं सत्थवाहेणं सद्धिं बहूई वासाई उरालाई मणुस्सगाई भोग भोगाई भुंजमाणी विहरामि, णो चेव णं अहं दारगं वा दारियं वा पयामि, तं घण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ सपुन्नाओ कयत्थाओं कयलक्खणाओ सुद्धे णं तासिं अम्मयाणं माणुस्सए जम्मजीवियफले जासि मन्ने नियमकुच्छिसंभूगाई थणदुद्धलुद्धगाई महरसमुल्लावगाई मम्मणं पर्यपियाई धणमूलकक्खदेसभागं अतिसरमाणगातिं मुद्धगाई पुणो य कोमलकमलोवमेहि य हत्थेहिं गिण्हेऊण उच्छंगं निवेसियातिं दिति समुल्लाबए सुमहुरे पुणो २ मंजुलप्पभ १ ‘मन्ने’त्ति अहमेवं मन्ये 'नियगकुच्छिसंभूताई'ति निजापत्यानीत्यर्थः, वनदुग्धे लुब्धकानि यानि तानि तथा, मधुरसमुहा पकानि- मन्मनप्रजल्पितानि स्तनमूलात् कक्षादेशभागमभिसरन्ति मुग्धकानीति, पुनश्च कोमलं यत्कमलं तेनोपमा ययोस्ती तथा ताभ्यां हस्ताभ्यां गृहीत्वा उत्सङ्गनिवेशितानि ददति समुझापकान् सुमधुरान् शब्दतः पुनः पुनर्म कुलप्रभणितान्म कुलानि - कोमलानि प्रभणितानि भणनारम्भा येषु ते तथा तान् For Park Lise Only ~91~ ७ उम्बर दत्ता. धन्य न्तरीभवः सू० २८ ।। ७६ ।। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [७] ----------------------- मूलं [२८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत -9444 सूत्रांक K [२८] 4-4 R- दीप अनुक्रम |णिते, अहंणं अधन्ना अपुन्ना अकयपुन्ना एत्तो एगमपि न पत्ता, तं सेयं खलु मम कल्ले जाय जलंते सागरदत्तं सत्यवाहं आपुच्छित्ता सुबहुं पुष्फवत्वगंधमल्लालंकारं गहाय बहुमित्तणाइणियगसयणसंबंधिपरिजनमहिलाहिं सद्धिं पाडलसंडाओ जगराओ पडिनिक्खमित्ता बहिया जेणेव उंघरदत्तस्स जक्खस्स जक्खायतणे तेणेच उवागच्छह उवागच्छित्ता तत्थ णं उंघरदत्तस्स जक्खस्स महारिहं पुष्पवणं करेइत्ता जाणुपायवडियाए ओयाचित्तए-जति णं अहं देवाणुप्पिया 1 दारगंवा दारियं वा पयामि तो णं अहं तुम्भं जायं च वायं च भायं च अक्खयणिहिं च अणुवडइस्सामित्तिकहु ओवाइयं ओवाइणिसए, एवं संपेहेइ २त्ता कल्लं जाव जलते जेणेव सागरवसे सस्थवाहे तेणेव उवागच्छति २त्ता सागरदत्तं सत्यवाहं एवं वयासी-एवं खलु अहं देवाणु १ 'अपुन्न'त्ति अविद्यमानपुण्या यतः 'अकयपुन्नत्ति अविहितपुण्या अथवा 'अपुन्नति अपूर्णमनोरथत्वात् 'एत्तोति एतेषां बालकचेष्टितानाम् 'एगयरमवि' एकवरमपि-अन्यतरदपीति, 'कहं' इत्यत्र यावत्करणात् 'पाउप्पभायाए रयणीए कुलप्पलकमलकोमलुम्मिलिए अहपंडुरे पभाए' इत्यादि दृश्यम् 'उहिए सहस्सरस्सिमि दिणयरे तेयसा जलते' इत्येतदन्तं, पत्र प्रादुः प्रभातायां-प्रकाशेन प्रभातायो| फुलं-विकसिवं यदुत्पलं-पयं तस्य कमलख च-हरिणस्व कोमलं-अकठोरम् उन्मीलितं--पलानां भयनयोश्वोन्मेषो यत्र तत्तथा तत्र, शेवं व्यक्तम् । २ 'जायं च'ति याग पूजां यात्रां वा 'दायं च' दानं 'भायं च' लाभस्यांशम् 'अक्खयणिहि चति देवभाण्डागारम् 'अणुवहिस्सामिति वृद्धि नेष्यामि, 'इतिक' एवं कृत्वा 'ओवाइय'ति उपयाचित्तम् । RS-MH -NCRe-RRC- [३१] अनु.६५ ~92~ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [२८] दीप अनुक्रम [३१] “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ ( मूलं + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१], अध्ययनं [७] मूलं [२८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः विपाके ७उम्र श्रुत० १ ॥ ७७ ॥ भवाः प्पिया तुम्भेहिं सद्धिं जाय न पत्ता, तं इच्छामि णं देवाणुपिया! तुन्भेहिं अग्भणुष्णाया जाब उबाइणि१ तप, तप णं से सागरदन्ते गंगदत्तं भारियं एवं वयासी-ममंपिणं देवाणु० एस चैव मणोरहे, कहं णं ॐ दत्ताध्य. * तुमं दारगं या दारियं वा पयाएज्जसि ?, गंगदत्ताए भारियाए एयमहं अणुजाणति, तते णं सा गंगदत्ता उम्बरदत्तॐ भारिया सागरदससत्थवाहेणं एवमहं अन्भणुन्नाया समाणी सुबद्धं पुष्क जाब महिलाहिं सद्धिं सपाओ प्रागुत्तरगिहाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमइत्ता पाउलसंड नगरं मज्मणं निग्गच्छति २ जेणेव पुक्खरिणी ४ तेणेव उवागच्छति २ पुक्खरिणीए तीरे सुबहं पुष्कवत्थगंधमलालंकारं उवणेति २ पुक्खरिणीं ओगाहेति २ जलमज्जाणं करेति २ जलक्रीडं करेमाणी पहाया कयकोउयमंगलपायच्छित्ता उल्लगपडसाडिया पुक्खरिणीओ पचुत्तरति २ तं पुष्क० गिण्हति २ जेणेव जंबरदत्तस्स जक्खस्स जक्वाययणे तेणेव उवागच्छति २ वरदत्तस्स जखस्स आलोए पणामं करेति २ लोमहत्थं परामुसति २ उंबरदत्तं जक्खं लोमहत्थेणं पमज्जति २ दगधाराए अभोक्खेति २ पम्हल० गायलट्ठी ओलूहेति २ सेपातिं वत्थाई परिहेति महरिहं पुष्फारुहणं वत्थारुहणं मल्लारुहणं गंधारुहणं चुन्नारुहणं करेति २ धूवं डहति जाणुपायवडिया एवं वयति- जइ णं अहं देवाणु सू० २८ १ 'वाइणित्त'च उपयाचितुमिति, 'कयको जयमंगल 'त्ति कौतुकानि मषी पुण्ड्रकादीनि मङ्गलानि दध्यक्षतादीनि 'उपडसाडिय'त्ति पट:- प्रावरणं साटको निवसनं 'पम्हल'ति 'पम्हलसुकुमालगंध का साइयाए गायबड़ी ओलूदइति द्रष्टव्यम् एवं वत्ति एवं वयासीत्यर्थः । Education International For Penal Use On ~93~ ॥ ७७ ॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [७] ----------------------- मूलं [२८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: FAC प्रत सूत्रांक [२८] दीप अनुक्रम पिया! दारगं वा दारियं वा पयामि ते णं जाव उवातिणति २त्ता जामेव दिसिं पाउन्भूया तामेव दिसं पडिगया । तते णं से धनंतरी विजे ताओ नरयाओ अणंतरं उव्वहित्ता इहेव जंबुद्दीवे २ पाडलसंडे नगरे गंग-IP दत्ताए भारियाए कुञ्छिसि पुत्तत्ताए उचवन्ने, तते णं तीसे गंगदत्ताए भारियाए तिण्हं मासाणं बहुपडि|पुन्नाणं अयमेयारूवे दोहले पाउम्भूते-धन्नाओ णं वाओ जाब फले जाओ णं विलं असणं पाणं खाइम साइमं उवक्खडाति २ बरहिं जाव परिवुडाओ तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं सुरं च ६ पुरफ जाव गहाय पाडलसंड नगरं मज्झंमज्झेणं पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता जेणेव पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छति तेणेव उवागच्छित्ता पुक्खरणी ओगाहिंति पहाता जाव पायच्छित्ताओ तं विपुलं असणं पाणं खाइम साइमं बहूहि मित्तणाइ जाच सद्धिं आसादेति दोहलं विणयेति, एवं संपेहेइ २ कल्लं जाव जलंते जेणेव सागरदत्ते सत्यवाहे तेणेव उवागच्छति र सागरदत्तं सत्थवाहं एवं धयासी-वन्नाओ णं ताओ जाब विणेंति हातं इच्छामि णं जाव विणित्तए, तते णं से सागरदत्ते सत्यवाहे गंगदत्साए भारियाए एयमहूँ अणुजाणति तते णं सा गंगदत्ता सागरदत्तेणं सत्यवाहेणं अम्भणुन्नाया समाणी विपुलं असणं पार्ण खाइमं साइमं उब-IN क्खडावेति तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं सुरं च ६ सुबहुं पुप्फ० परिगिण्हावेइ बहहिं जाव हाया कयबलिकम्मा जेणेव उंबरदत्तस्स जक्खाययणे जाव घुवं डह जेणेव पुक्खरणी लेणेव उवागच्छति, तते णं तातो मित्त जाव महिलाओ गंगदत्तं सत्यवाहं सवालंकारविभूसियं करेंति, तते णं सा गंगदत्ता भा y [३१] - - - ~94~ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [७] ----------------------- मूलं [२८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत विपाके श्रुत०१ सूत्रांक ॥७८॥ [२८] दीप अनुक्रम RABASANSARS रिया ताहि मित्तनाईहिं अन्नाहिं बहहिं णगरमहिलाहिं सद्धिं तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं सुरं च ६ ७ उम्बरदोहलं विणेति २ जामेव दिसि पाउन्भूता तामेव दिसि पडिगया, सा गंगदत्ता सत्यवाही पसत्थदोहला तं दत्ताध्य. गन्भं सुहंसुहेणं परिवहति, लते णं सा गंगदत्ता भारिया णवण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं जाव पयाया ठिइ० उम्बरदत्तया जाव जम्हा णं इमे दारए उंबरदत्तस्स जक्खस्स उववातियलद्धते तं होऊ णं दारए उंबरदत्ते नामेणं, प्रागुत्तरतते णं से उबरदत्ते दारए पंचधातिपरिग्गहिए परिवहुइ, तते णं से सागरदत्ते सत्यवाहे जहा विजयमित्ते भवाः जाव कालमासे कालं किच्चा, गंगदत्तावि, उंबरदत्ते निच्छुढे जहा उजिमयते, तते णं तस्स उंबरदत्तस्स दार-15 सू०२८ यस्स अन्नया कयावि सरीरगंसि जमगसमगमेव सोलस रोगायंका पाउन्भूपा, तंजहा-सासे खासे जाव कोडे, तते णं से उबरदत्ते दारए सोलसहिं रोगार्यकहिं अभिभूए समाणे सढियहत्थं जाव विहरति. एवं खलु गोयमा! उंबरदसे पुरा पोराणाणं जाच पचणुभवमाणे विहरति, तते णं से उबरदत्ते दारए कालमासे कालं किया कहिं गच्छिहिति कहिं उववजिहिति?, गोयमा! उंचरदत्ते दारए बावत्तरि वासाई परमाउयं पालइत्ता कालमासे कालं किया इमीसे रयणप्पभाए पुढधीए णेरइयत्साए उववन्ने संसारो तहेब जाव पुढवी, ततो हस्थिणाउरे णगरे कुकुडत्ताए पञ्चायायाहिति गोटिवहिए तहेव हत्थिणारे णगरे सेहिकुलंसि उववजिहिति बोर्हि सोहम्मे कप्पे महाविदेहे चासे सिज्झिहिति निक्खेवो॥(सू०२८) संत्तम अज्झयणं सम्मत्तं ॥७॥ १ सप्तमाध्ययनस्य विवरणं चंबरदचाख्यस्य ॥ ७॥ [३१] ORK ||॥ ७८॥ For P OW अत्र सप्तमं अध्ययनं परिसमाप्तं ~ 95~ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [२९] दीप अनुक्रम [३२] “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ ( मूलं + वृत्तिः) श्रुतस्कंधः [१], अध्ययनं [C] मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ११ ], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ॥ अथ नन्दिवर्धनाख्यं अष्टममध्ययनम् ॥ अथाष्टमे विस्यिते जणं भंते! अट्टमस्स उक्खेवो, एवं खलु जंबू । तेणं कालेणं तेणं सम० सोरियपुरं नगरं सोरियवडेंसगं उज्जाणं सोरियो जक्खो सोरियदत्तो राया, तस्स णं सोरिषपुरस्स नगरस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभागे एत्थ णं एगे मच्छंधवाडए होत्था, तत्थ णं समुद्ददन्ते नामं मच्छंधे परिवसति अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे, तस्स णं समुद्ददतस्स समुद्ददत्ता नाम भारिया होत्था अहीण० पंचदियसरीरे, तस्स णं समुददत्तस्स पुत्ते समुद्ददत्ताभारियाए अन्तर सोरिषदत्ते नामं दार होत्था, अहीण०, तेणं कालेणं तेणं सम० सामी समोसढे जाव परिसा पडिगया, तेणं कालेणं तेणं सम० जेट्टे सीसे जाव सोरियपुरे नगरे उच्चनीयमज्झिमकुलाई अहापात्तं समुदाणं गहाय सोरियपुराओ नगराओ पडिनिक्खमति, तस्स मधपाडस अदूरसामंतेणं वीईवयमाणे महतिमहालियाए मणुस्स परिसाए मज्झगयं पासति एवं पुरिसं सुकं मुक्खं निम्मंसं अद्विषम्मावणद्धं किडिकिडीभूयं णीलसागणियच्छं मच्छकंद एणं गलए अणुलग्गेणं कट्ठाई कलुणाई १ 'मच्छंधे 'ति मत्स्यबन्धः । Eucation Internationa For Parts Only अथ अष्टमं अध्ययनं "सौर्यदत्त" आरभ्यते ***अत्र शीर्षकस्थाने अध्ययनस्य नाम्नः विषये कश्चित् स्खलना संभाव्यते यत् "सौर्यदत्त" स्थाने 'नन्दिवर्धन' इति मुद्रितं ~96~ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [८] ----------------- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक विपाके विसराई कुवेमाणं अभिक्खणं अभिक्खणं पूयकवले य रुहिरकवले य किमिकवले य चम्ममाणं पासति, श्रुत०१/इमे अज्झथिए ५ पुरा पोराणाणं जाव विहरति, एवं संपेहेति जेणेव समणे भगवं जाव पुब्वभवपुच्छा जाव वागरणं, एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेब जंबुद्दीचे दीवे भारहे वासे नंदिपुरे नाम णगरे ॥७९॥ होत्था मित्ते राया, तस्स णं मित्तस्स रन्नो सिरीए नाम महाणसिए होत्था अहम्मिए जाब दुष्पडियाणंदे, तस्स णं सिरीयस्स महाणसियस्स बहवे मच्छिया य वागुरिया य साउणिया य दिनभति कल्लाकल्लं बहवे दिसण्हमच्छा य जाव पडागातिपडागे य अए य जाव महिसे य तित्तिरे य जाव मयूरे य जीवियाओ ववदरोति सिरीयस्स महाणसियस्स उवणेति, अन्ने य से वहवे तित्तिरा य जाव मयूरा य पंजरंसि संनिरुद्धा चिट्ठति, अन्ने य बहवे पुरिसे दिनभति० ते बहवे तित्तिरे य जाव मयूरे य जीवियाओ चेव निप्पक्छेति |सिरीयस्स महाणसियस्स उवणेति, तते णं से सिरीए महाणसिए बहूणं जलयरथलयरखहयराणं मंसाई| नन्दिवर्धनाध्य. नन्दिवध नप्रागुत्तरभवाः सू०२९ [२९] दीप अनुक्रम [३२] १ 'सोहमच्छा' इत्यत्र यावत्करणात् 'खवल्लमच्छा विझिडिमच्छा हलिमच्छा' इत्यादि संभणमाछा पडागा' इत्येतदन्तं दृश्य, मत्स्यभेदाश्चैते रूडिगम्याः । 'अए य अह' यावत्करणात् 'एलए य रोझे य सूयरे य मिगे य इति दृश्यम् । तित्तिरे य' इत्यत्र याव- करणात् 'बट्टए य लावए य कुकुडे य' इति दृश्यम् ।। . . ७९ ~97~ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [८] ----------------------- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९] दीप अनुक्रम कप्पणीयकप्पियाई करेंति, तंजहा सण्हखंडियाणि य वह दीह रहस्स० हिमपक्काणि य जम्मघम्म(वेग). मारुयपकाणि य कालाणि य हेरंगाणि य महिहाणिय आमलरसियाणि य मुदिया० कविट्ठ० दालिमरसिया मच्छरसितलियाणि य भजिय० सोल्लिय० उवक्खडावेंति अन्ने य बहवे मच्छरसे य एणेजरसे य तित्ति-18 ररसे य जाच मयूररसे य अन्नं विउलं हरियसागं उवक्खडाचेति २त्ता मित्तस्स रन्नो भोयणमंडवंसि भोयजाणवेलाए उवणेति अप्पणावि यणं से सिरिए महाणसिते तेसिं च बहहिं जाव ज. थ० ख० सेहिं च रसतेहि य हरियसागेहि य सोल्लेहि य सलेहि य भिजेहि य सुरं च ६ आसाएमाणे ४ विहरति, तते णं से सिरिए है महाणसिते एयकम्मे सुबहुं पावकम्र्म समन्जिणित्ता तेत्तीसं वाससयाई परमाउयं पालइत्ता कालमासे कालं १'सण्हखंडियाणि य' सूक्ष्मखण्डीकृतानि 'बट्टत्ति वृत्तखण्डितानि च 'दीहति दीर्घखण्डितानि च 'रहस्स'त्ति इवख|ण्डितानि च । 'हिमपक्काणि यत्ति शीतपकानि 'जम्मपक्कानि वेगपकाणि यति रूढिगम्यं, 'मारुयपकाणि यत्ति वायुपकानि 'कालाणि यत्ति हेरंगाणि यति रूढिगम्ब, “महिवाणि यत्ति तकसंसृष्टानि 'आमलरसियाणि य' आमलकरससंसृष्टानि 'मुद्दियारसियाणि यत्ति मुहीकारससंसृष्टानि एवं कपित्थरसिकानि दाडिमरसिकानि मच्छरसिकानि तलितानि-सैलादिनाऽनी संस्कृतानि 'भ जियाणि यत्ति अमिना भ्रष्टानि 'सोल्लियाणि यत्ति शुले पक्कानि 'मच्छरसए'त्ति मत्स्यमांसरसस्य सम्बन्धिनो रसान 'एणिजरसटीए यत्ति मृगमांसरसान् 'तित्सिर'त्ति तित्तरसत्करसान् यावत्करणान् 'बट्टयरसए य लाववरसए य' इत्यादि दृश्यं, 'हरियसागं'ति| पत्रशाकं 'ज'इत्यस्यायमर्थः-जलयरमंसेहिं थलयरमंसेहिं खयरमंसेहि तलि भजि च' अयमर्थ:--'तालिएदि भजिएहिं । [३२] -- ~98~ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [८] ----------------------- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९] दीप अनुक्रम विपाके किया छट्ठीए पुढवीए उववन्नो।तते णं सा समुद्ददत्ता भारिया निंदू यावि होत्था जाया २ दारगा विणिहाय-31८ नन्दिश्रुत०१४मावज्जति जह गंगदत्ताए चिंता आपुच्छणा उवातियं दोहला जाव दारगं पयाता, जाव जम्हा गं अम्हंट वर्धनाध्य. इमे दारए सोरियस्स जक्खस्स उवाइयलद्धे तम्हा णं होउ अम्हं दारए सोरियदत्ते नामेणं, तए णं से सोरि- नन्दिवर्धयदत्ते दारए पंचधाइ जाव उम्मुक्यालभावे विष्णयपरिणयमित्ते जोवण होत्था, तते णं से समुदत्ते 8 नमागुत्तअन्नया कयाई कालधम्मुणा संजुत्ते, तते णं से सोरियदत्ते बहहिं मित्तणाइ० रोयमाणे समुद्ददत्तस्स णीह- रभवा: - रणं करति लोइयमयाई किचाई करेंति, अन्नया कयाई सयमेव मच्छंधमहत्तरगत्तं उवसंपत्तिाणं विहरति, | सू० २९ तए णं से सोरियए दारए मच्छंधे जाते अहम्मिए जाव दुप्पड़ियाणंदे, तते णं तस्स सोरियमच्छंधस्स ब-18 है हवे पुरिसा दिनभति. कल्लाकलं एगट्ठियाहिं जउणामहानदी ओगाहिंति यहूहिं दहगालणाहि य दहम चिंत'त्ति मनोरथोत्पत्सिर्वाच्या, 'धण्णाओ णं ताभो अम्मयाओ कयत्थाओं' इत्याविरूपा यथा गङ्गादत्तायाः सप्तमाध्यय-12 नोकायाः, 'आपुच्छण'त्ति भर्नुरापुच्छा 'तं इच्छामि णं तुम्भेहिं अब्भणुन्नाया' इत्यादिका, 'ओवाइय'ति उपयापितं वाच्यं, दोहदादोऽपि गणदत्ताया इव वाच्य इति । 'एगडियाहिति नौभिः 'दहगलणेहि येत्यादि एगहियं भरतीत्येतदन्तं रूदिगम्यं, तथाऽपि किचिलिख्यते-हदगलनं-हदस्य मध्ये मत्स्याविग्रहणार्थ भ्रमणं जलनिःसारणं वा हदमलनं-इदस्य मध्ये पौनःपुन्येन परिश्रमणं ॥८ ॥ 8 जले वा निःसारिते पकमईनं थोहरादिप्रक्षेपेण इदजलस्य विक्रियाकरणं इदमथनं-जबजलस्प तरुशाखामिविलोडनं इदवहनं-खत एवं इदाजलनिर्गमः इदप्रवहणं-जदजलप प्रकृष्टं वहन प्रपञ्चपुलादयो मत्स्यबन्धनविशेषाः गलानि-पदिशानि +SANKA [३२] ~994 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [२९] दीप अनुक्रम [३२] “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ ( मूलं + वृत्तिः) - श्रुतस्कंध [१], अध्ययनं [C] मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः लोहि य दहमहणेहिं दहवहणेहिं दहपवहणेहि य अयंपुलेहि य पंचपुलेहि य मच्छंधलेहि य मच्छपुच्छेहि य जंभाहि य तिसिराहि य भिसिराहि य विसराहि य विसिराहि य हिल्लीरिहि य झिल्लिरीहि य जालेहि य गलेहि य कूडपासेहि य वैकबंधेहि य सुत्तबंधणेहि य वालबंधणेहि य महवे सण्हमच्छे य जाव पडागातिपडागे य गिण्हति एगट्टियाओ नावा भरति कूलं गार्हति मच्छखलए करेंति आयवंसि दलयंति, अन्ने य से बहवे पुरिसा दिन्नभइ भत्तवेयणा आयवतत्तपहिं सोलेहि य तलेहि य भजेहि प रायमग्गंसि वित्ति कप्पेमाणा विहरंति, अध्पणाविय णं से सोरियदत्ते बहूहिं सहमच्छेहि य जाव पडाग० सोल्लेहि य भज्जेहि य सुरं च ६ आसाएमाणे ४ विहरति, तते तस्स सोरियदत्तस्स मच्छंधस्स अन्नया कयाई ते मच्छसोल्ले तले भजे आहारेमाणस्स मच्छकंटए गलए लग्गे आदि होत्था, तए णं से सोरियमच्छंधे महयाए वेयणाए अभिभूते समाणे कोटुंबियपुरिसे सहावेति २ एवं वयासी- गच्छह णं तुम्हे देवाणुप्पिया! सोरियपुरे नगरे संघाडग जाव पहेसु य महया २ सदेणं उग्घोसेमाणा २ एवं वयह-एवं खलु देवाणुप्पिया! सोरियस्स मच्छकंटए गले लग्गे तं जो णं इच्छति विजो वा ६ सोरियमच्छियस्स मच्छकंदयं गलाओ निहरितते तस्स णं सोरिय० विउलं अत्थसंपयाणं दलयति, तते णं ते कोडुंबियपुरिसा जाब उग्घोसंति, तए णं ते बहवे विज्जा य ६ इमेयारूवं उग्घोसणं उग्घोसिनमाणं निसार्मेति २ जे० सोरिय० गेहे जे० सोरियमच्छंघे तेणेव उवाग१ 'वहि य'त्ति वल्कबन्धनैः सूत्रबन्धनैर्वालबन्धनैश्चेति व्यक्तं, 'मच्छखलए करेंति 'ति स्थण्डिलेषु मत्स्यपुञ्जान् कुर्व्वन्ति । Ja Eucation Internation For Parts On ~ 100~ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [८] ----------------- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९] CAKACCOS दीप अनुक्रम [३२] विपाके च्छंति बहहिं उप्पत्तियाहिं ४ बुद्धीहि य परिणममाणा वमणेहि य छडणेहि य उवीलणेहि य कवलग्गाहेहि य| जानन्दिश्रुत०१सद्धरणेहि य विसल्लकरणेहि य इच्छंति सोरियमच्छंधे मच्छकंटयं गलाओ नीहरित्तए, नो चेव णं संचाएंतिवर्धनाध्य. नीहरिसए वा विसोहित्तए चा, तते णं बहवे विजा य ६ जाहे नो संचाएंति सोरियस्स मच्छकंटगं गलाओ | नन्दिवर्ध. पानीहरित्तए ताहे संता जाव जामेव दिसिं पाउन्भूया तामेव दिसं पडिगया,तते णं से सोरिय० मच्छ० विज नप्रागुत्तपडियारनिविणे तेणं दुक्खेणं महया अभिभूते सुक्के जाच विहरति, एवं खलु गोयमा! सोरियदत्ते पुरा रभवाः |पोराणाणं जाब विहरति, सोरिए णे भंते ! मच्छंघे इओ य कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छिहिति? कहिं सू. २९ उवव०१, गोयमा सत्तरि वासाई परमाउयं पालइत्ता कालमासे कालं किचा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए संसारो तहेव पुढवीओ हथिणाउरे णगरे मच्छत्ताए उबवन्ने, से णं ततो मच्छिएहिं जीवियाओ ववरोविए तत्धेय सेट्टिकुलंसि बोहिं सोहम्मे कप्पे महाविदेहे चासे सिज्झिहिति । निक्खेवो ॥ (सू. २९) अट्ठमं अज्झयणं सोरियदत्तस्स सम्मत्तं ॥८॥ १ 'बमणेहि यत्ति वमनं स्वतः संभूतं 'छडणेहि यत्ति छर्दनं च वातादिद्रव्यप्रयोगकृतम्, 'उबीलणेहि यत्ति अवपीडनं, कबल- ८१॥ ग्राहः-गलकण्टकापनोदाय स्थूलकबलमहणं मुखविमर्दनार्थ वा दंष्ट्राधः काष्ठखण्डदानं, शल्योद्धरणं-यबप्रयोगकः कण्टकोद्धारः विशल्यकरणं औषधसामादिति 'नीहरित्तए'त्ति निष्काशयितुं विसोहितपत्ति पूयाद्यपनेतुम् । अष्टमाध्ययनस्य विवरण शौरिकमात्स्यिकस्य समाप्तम्।।८॥ अत्र अष्टमं अध्ययनं परिसमाप्तं ~101~ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) (११) श्रतस्कंध: [१], .....................-- अध्य यनं [१] ------ -- -- मूल [३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अथ बृहस्पतिदत्ताख्यं नवममध्ययनम् । Recom प्रत सूत्रांक [३१] ANSAR दीप अनुक्रम अथ नवमे किञ्चिल्लिख्यते जइ णं भंते ! उक्खेवो णवमस्स, एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रोहीडए नाम नगरे होत्या, रिद्ध०, पुढवीवडेंसए उज्जाणे धरणो जक्खो वेसमणदत्तो राया सिरी देवी पूसनंदी कुमारे जुवराया, तत्थ 8 णं रोहीडए नगरे दत्ते णामं गाहावती परिवसति अढ० कण्हसिरी भारिया, तस्स णं दत्तस्स धूया कन्न-1 सिरीए अत्तया देवदत्ता नाम दारिया होत्या अहीण जाव उकिट्ठा उफिटसरीरा, तेणं काले० तेणं समर सामी समोसढे जाव परिसा निग्गया, लेणं का० तेणं समएणं जेतु अंतेवासी छटुक्खमण तहेव जाव राय-14 मग्गं ओगाडे हस्थी आसे पुरिसे पासति,तेसिं पुरिसाणं मज्झगयं पासति एर्ग इत्थियं अवउडगवंधणं उक्खित्तकानासं जाच सूले भिजमाणं पासति, इमे अन्भथिए तहेव निग्गए जाच एवं बयासी-एसा णं भंते ! इस्थिया पुब्वभवे का आसी?, एवं खलु गोयमा! तेणं का० तेणं साइहेब जंबुद्दीवे दीये भारहे वासे सुपहाइडे नाम नगरे होत्था रिद्ध०, महसेणे राया, तस्स णं महासेणस्स रखो धारणीपामोक्खाणं देवीसहस्सं ओ रोहे यावि होत्था, तस्स णं महासेणस्स रन्नो पुत्ते धारणीए देवीए अत्तए सीहसेणे नामं कुमारे होत्था अ [३३] अथ नवमं अध्ययनं "देवदत्ता" आरभ्यते ...अत्र शीर्षकस्थाने अध्ययनस्य नाम्न: विषये कश्चित् स्खलना संभाव्यते- यत् "देवदत्ता" स्थाने 'बृहस्पतिदत्त' इति मुद्रितं ... अब मूल संपादने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते- यत् सू० ३० स्थाने सू० ३१ इति क्रम मुद्रितं, [मूल संपादनमें भूलसे सूत्र का क्रम ३० के बजाय ३१ छप गया है| इसिलिए हमे भी सूत्रक्रम- ३१ लिखना पड़ा है। ~102~ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) (११) श्रतस्कंध: [१], ...................---- अध्य यनं [९] ------.. -...---- मूलं [३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: A विपाके श्रुत०१ प्रत सूत्रांक [३१] A दीप अनुक्रम %%ACEBCACAS हीण. जुवराया, तते णं तस्स सीहसेणस्स कुमारस्स अम्मापियरो अन्नया कयाइं पंच पासायवडिंसयस- ९ बृहस याति काति, अन्भुग्गत,तए णं तस्स सीहसेणस्स कुमारस्स अन्नया कयावि सामापामोक्खाणं पंचण्हं राय-तिदत्ताध्य. वरकन्नगसयाणं एगदिवसे पाणिं गिण्हावेंस पंचसयओ दाओ, तते णं से सीहसेणे कुमारे सामापामो- बृहस्पतिक्खाहिं पंचहि सयाहिं देवीहिं सद्धिं उप्पि जाव विहरति, तते णं से महसेणे राया अन्नया कयाइ कालध-|| दत्तभवतम्मुणा संजुत्ते नीहरणं राया जाए महता, तए णं से सीहसेणे राया सामाए देवीए मुच्छिते ४ अय- यागुत्तरसेसाओ देवीओ नो आढाति नो परिजाणाति अणादाइजमाणे अप० विहरति, तते णं तासिं एगूणगाणं भवाः पंचण्हं देवीसयाण एगूणाई पंचमा [धाई]सयाई इमीसे कहाए लट्टाई समाणाई एवं खलु सामी! सीहसेणे हु सू०१० राया सामाए देवीए मुछिए ४ अम्हें धूयाओ नो आढायति नो परिजाणंति अणा० अप० विहरति, तं सेयं खल्लु अम्हं सामं देवीं अग्गिपओगेण वा विसप्पओगेण वा सत्यप्पओगेण वा जीवियातो घबरोवित्तए, १'अन्भुग्गय'त्ति इदमेवम् –'अम्भुग्णयमूसिवपहसिए व अभ्युदतोच्छ्रितानि-अत्यन्तोचानि प्रहसितानि च-इसितुमारधानि चेत्यर्थः, 'मणिकणगरयणचित्ते' इत्यादि, 'एगं च णं महं भवणं करिति अणेगखंभसयसमिविह' मित्यादि भवमवर्णकसूत्रं दृश्यम् । २ 'पंचसयो दाओ'त्ति हिरण्यकोटिसुवर्णकोटिप्रभृतीनां प्रेषणकारिकान्तानां पदार्थानां पञ्चपञ्चशतानि सिंहसेनकुमाराय| पितरौ दत्तवन्तावित्यर्थः, स च प्रत्येक खजायाभ्यो दत्तवानिति । ३ 'महया' इत्यनेन 'मयाहिमवंतमहंतमलयमंदरमहिंदसारे इत्यादि | ८२॥ राजवर्णको दृश्यः। [३३] ... अत्र मूल संपादने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते- यत् सू० ३० स्थाने सू० ३१ इति क्रम मुद्रितं, मूल संपादनमें भूलसे सूत्र का क्रम ३० के बजाय ३१ छप गया है| इसिलिए हमे भी सूत्रक्रम- ३१ लिखना पड़ा है। ~ 103~ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [३१] दीप अनुक्रम [३३] अनु. १६ “विपाकश्रुत” अंगसूत्र - ११ ( मूलं + वृत्तिः ) अध्ययनं [९] श्रुतस्कंध [१] मूलं [३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... ..... आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः - एवं संपेहेन्ति सामाए देवीए अंतराणि य छिद्दाणि य विवराणि य पडिजागरमाणीओ २ विहरंति, तते णं सा सामा देवी इमीसे कहाए लद्धट्ठा समाणी एवं वयासी एवं खलु सामी ! मम पंचण्हं सबत्तीसवाणं पंच माइसपाई इमी से कहाए लद्ध० समा० अन्नमन्नं एवं बयासी एवं खलु सीहसेणे जाव पडिजागरमाणीओ विहरंति, तं न नज्जति णं मम केणवि कुमरणेणं मारिस्सतित्तिकहु भीया जेणेव को घरे तेणेव उधागच्छति २ सा ओहय जाव झियाति, तते णं से सीहसेणे राया इमीसे कहाए लडट्ठे समाणे जेणेव कोवघरए जेणेव सामा देवी तेणेव उवागच्छति २ सा सामं देविं ओह० जाव पासति २ त्ता एवं वयासी-कि देवाणुपिया ! जाव ओह० शियासि ?, तते णं सा सामा देवी सीहसेणेण रण्णा एवं वृत्ता समाणा उष्णओफेणीयं सीहसेणं रायं एवं वयासी एवं खलु सामी । मम एगूणपंचसवत्तीसयाणं एगूणपंच [धाई] माइ Education Internationa १ 'भीया जेण'त्ति 'भीया तत्था जेणेवेत्यर्थः । २ 'ओहयजाव' इह यावत्करणादिदं दृश्यम् - ओहयमणसंकप्पा भूमीगयदिट्ठिया करतलपल्हत्यमुही अट्टज्झाणोवगय'ति । ३ 'उप्फेणउप्फेणियं' ति सकोपोष्मवचनं यथा भवतीत्यर्थः । ४ इतोऽनन्तरवाक्यस्यैकैकमक्षरं पुस्तकेषूपलभ्यते तचैवमवगन्तव्यम् —' एवं खलु सामी ! ममं एगुणगाणं पंचपं सबत्तीसयाणं एगूणपंचमाइसयाई इमीसे कहाए लडहाई सवणयाए अन्नमनं सहावेंति अन्नमन्नं सहावेता एवं वयासी एवं खलु सीइसेणे राया सामाए देवीए मुच्छिए अम्हं धूयाओ नो आढाइ नो परियाणाइ अणाढाएमाणे अपरियाणमाणे बिहरइ।' 'जा' इति यावत्करणात् तवेदं दृश्यं तं सेयं खलु अम्ह सामं देवीं अग्गिपओगेण वा विसप्पओगेण वा सत्यप्पओगेण वा जीवियाओ वबरोवित्तए, एवं संपेदेइ संपेहित्ता ममं अंतराणि छिद्दाणि पढिजागरमाणी ओचिह्नति, तं न नव्बइ सामी ! भ्रमं केणइ कुमरणेणं मारिस्संतित्तिकट्टु भीया' यावत्करणात् 'तत्था तसिया उब्बिग्गा ओहह्यमणसंकप्पा भूमीगयदिट्ठीया' इत्यादि दृश्यं, For Pal Use Only www.landsbrary org *** अत्र मूल संपादने सूत्र क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते यत् सू० ३० स्थाने सू० ३१ इति क्रम मुद्रितं, [ मूल संपादनमें भूलसे सूत्र का क्रम ३० के बजाय ३१ छप गया है| इसिलिए हमे भी सूत्रक्रम- ३१ लिखना पड़ा है। ~ 104~ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) (११) श्रतस्कंध: [१], ...................---- अध्य यनं [९] ------.. -...---- मूलं [३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१] दीप अनुक्रम [३३] सयाणं इमीसे कहाए लद्ध० समा० अन्नमन्ने सद्दावेंति २एवं वयासी-एवं खलु सीहसेणे राया सामाएदेवदत्ता. श्रुत०१ देवीए उथरि मुच्छिए अम्हा णं धूआ णो आढाति जाव अंतराणि अछिद्दाणि. पडिजागरमाणीओ विह-श्यामायाः प्रारति तं न नजति भीया जाव झियामि, तते णं से सीहसेणे राया सामं देवि एवं वयासी-मा णं तमसपलीनां ॥८३॥ देवाणुप्पिया! ओह जाच झियाइसि, अहन्नं तह पत्तिहामि जहा णं तव णस्थि कत्तोवि सरीरस्स आवाहे मृतिः श्ववा पवाहे वा भविस्सतित्तिका ताहिं इहाहिं ६ समासेति, ततो पडिनिक्खमति २त्ता कोडुंबियपुरिसे श्वामारण है सहावेइ २त्सा एवं वयासी-गच्छह णं तुन्भे देवाणुप्पिया! सुपइट्ठस्स गरस्स बहिया एगं महं कृडागार सालं करेह अणेगक्खंभसयसन्निविटुं० पासा०४ करेह २ मम एयमाणत्तियं पचपिपणह, तते ण ते कोडुबि-| रायपुरिसा करयल जाव पडिसुणेति २ सुपइट्टनगरस्स बहिया पचत्थिमे दिसीविभाए एग महं कूडागार सालं जाव करेंति अणेगक्खंभस० पासा.४ जेणेव सीहसेणे राया तेणेव उवागच्छति २त्ता तमाणत्तियं पचप्पिणंति, तते णं से सीहसेणे राया अन्नया कयाति एगूणगाणं पंचण्हं देवीसयाणं एगूणाई पंचमाइसयाई आमतेति, तते णं तासिं एगणापंचदेवीसयाणं एगणपंचमाइसयाई सीहसेणेणं रन्ना आम १ 'घत्तिहामिति यतिष्ये 'नस्थित्ति न भवत्ययं पक्षो यदुत 'कत्तोइ'त्ति कुतश्चिदपि शरीरकप आबाधा का भविष्यति, तत्र आवाधः-ईषत्पीडा प्रबाध:-प्रकृष्टा पीदैव 'इतिकट्टत्ति एवमभिधाय । २'अणेगक्खंभिय'ति अनेकस्तम्भशतसन्निविष्ठामित्यर्थः, 'पासा' इत्यनेन 'पासाईयं दरिसणिज्जं अभिरूवं पडिरूष मिति तश्यम् । ... अत्र मूल संपादने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते- यत् सू० ३० स्थाने सू० ३१ इति क्रम मुद्रितं, मूल संपादनमें भूलसे सूत्र का क्रम ३० के बजाय ३१ छप गया है| इसिलिए हमे भी सूत्रक्रम- ३१ लिखना पड़ा है। ~ 105~ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) (११) श्रतस्कंध: [१], ...................---- अध्य यनं [९] ------.. -...---- मूलं [३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१] दीप अनुक्रम दतियाई समाणाति सव्वालंकारविभूसियाई जहाविभवेणं जेणेव सुपाढे णगरे जेणेव सीहसेणे राया तेणेव Pउवागच्छंति, तते णं से सीहसेणे राया एगणपंचदेवीसयाणं एगूणगाणं पंचण्ह माइसयाणं कूडागारसालं आ वासे दलयति, तते णं से सीहोणे राया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेतिरत्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुम्हे देवाणुदापिया! विउलं असणं ४ उवणेह सुबहुं पुष्फवत्थगंधमल्लालंकारं च कूडागारसालं साहरह य, तते णं ते को इंबियपुरिसा तहेब जाव साहरेंति, तते णं तासिं एगूणगाणं पंचहं देवीसयाणं एगणपंचमाइसयाई सव्वालंकारविभूसियाई करति १२ विउलं असणं ४ सुरं च ६ आसाएमाणाई ४ गंधव्वेहि प नाइएहि य उवः । गीयमाणाई २ विहरंति, त० से सीह राया अद्धरत्तकालसमयंसि बहूहिं पुरिसेहिं सद्धिं संपरिबुडे जेणेव कूडागारसाला तेणेव उपागच्छति २त्ता कूडागारसालाए दुवाराई पिहेति कूडागारसालाए सवओ समंता अगणिकार्य दलयति, तते णं तासि एगणगाणं पंचण्हं देवीसयाणं एगूणगाई पंच [धाई]माइसयाई सीह-18 दारण्णा आलीवियाई समाणाई रोयमाणाई ३ अत्ताणाई असरणाई कालधम्मुणा संजुत्ताई, तते णं से सी हसेणे राया एयकम्मे ४ सुबहुं पावकम्मं समजिणित्ता चोत्तीसं वाससयाई परमाउयं पालइत्ता' कालमासे 18 कालं किच्चा छट्ठीए पुढवीए उक्कोसेणं बावीससागरोवमाई ठितिएसु उववन्ने, से णं तओ अणंतरं उबहित्ता इहेव रोहीडए नगरे दत्तस्स सत्यवाहस्स कन्नसिरिए भारियाए कुञ्छिसि दारियत्ताए उववन्ने, तते णं सा कन्नसिरी नवण्हं मासाणं जाव दारियं पयाया सुकुमाल सुरूवं, तते णं तीसे दारियाए अम्मापियरो नि GESAKCARKAR [३३] 1%25% ... अत्र मूल संपादने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते- यत् सू० ३० स्थाने सू० ३१ इति क्रम मुद्रितं, मूल संपादनमें भूलसे सूत्र का क्रम ३० के बजाय ३१ छप गया है| इसिलिए हमे भी सूत्रक्रम- ३१ लिखना पड़ा है। ~ 106~ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [३१] दीप अनुक्रम [३३] विपाके श्रुत० १ ॥ ८४ ॥ “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ ( मूलं + वृत्तिः) श्रुतस्कंधः [१], अध्ययनं [९] मूलं [३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः वित्तवारसाहियाए विउलं असणं ४ जाव मित्तणाति णामधे करेंति तं होऊ णं दारिया देवदत्ता णा- ७९ देवदत्ता. मेणं, तए णं सा देवदत्ता पंचधातीपरिगहिया जाव परिवहृति, तते णं सा देवदत्ता दारिया उम्मुकबाल - | भावा जोव्वणेण रूवेण लावण्णेण य जाब अतीव उक्किट्ठा उक्किहसरीरा जाया याचि होत्था, तते णं सा देवदत्ता दारिया अन्नया कयाह पहाया जाव विभूसिया बहूहिं खुजाहिं जाव परिक्खित्ता उपिं आगासतलगंसि कणगतिंदूसेणं कीलमाणी विहरइ, इमं च णं वेसमणदत्ते राया पहाए जात्र विभूसिए आसं दुरूहित्ता बहूहिं पुरिसेहिं सद्धिं संपरिवुडे आसवाहिणीयाए णिज्जायमाणे दत्तस्स गाहावइस्स गिहस्स अदूरसामंतेणं विश्वयति, तते णं से वेसमणे राया जाव विश्वयमाणे देवदत्तं दारियं उप्पिं आगासतलगंसि कणगतिंदूसेण य कीलमाणीं पासति, देवदत्ताए दारियाए जुवणेण य लावण्णेण य जाव बिम्हिए कोडुंबियपुरिसे सहावेति सावेत्ता एवं वयासी—कस्स णं देवाणुप्पिया! एसा दारिया किं वा नामघेज्जेणं?, तते णं ते कोइंबियपुरिसा वेसमणरायं करयल० एवं क्यासी –एस णं सामी! दत्तस्स सत्यवाहस्स धूआ कन्नसिरीए भारियाए अत्तया देवदत्ता नामं दारिया रुवेण य जुग्वणेण य लावण्णेण य उक्किट्ठा उक्किहसरीरा, तते णं से वेसमणे राया आसवाहणियाओ पडिनियत्ते समाणे अभितरहाणिज्जे पुरिसे सहावे अभितरट्ठाणिजे पुरिसे सहावेत्ता एवं बयासी - गच्छह णं तुन्भे देवाणुप्पिया ! दत्तस्स धूयं कन्नसिरीए भारियाए असयं For Parta Use Only श्यामायाः सपलीना ~ 107~ मृतिः - श्वामारणं सू० ३१ ॥ ८४ ॥ waryra *** अत्र मूल संपादने सूत्र क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते यत् सू० ३० स्थाने सू० ३१ इति क्रम मुद्रितं, [ मूल संपादनमें भूलसे सूत्र का क्रम ३० के बजाय ३१ छप गया है| इसिलिए हमे भी सूत्रक्रम- ३१ लिखना पड़ा है। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [९] ----------------------- मूलं [३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१] दीप अनुक्रम देवदत्तं दारियं पूसणंदस्स जुबरनो भारियत्ताए वरेह, जतिवि सा सयंरजमुक्का, तते णं ते अभितरहाणिज्जा पुरिसा वेसमणेणं रन्ना एवं वुत्ता समाणा हहतुट्ठा करयल जाव पडिसुणेति २ पहाया जाव सुद्धप्पावेसाई संपरिखुडा जेणेव दत्तस्स गिहे तेणेव उवागच्छित्था, तते णं से दत्ते सत्थवाहे ते पुरिसे एबमाणे पासति ते पु-14 VIरिसे एजमाणे पासित्ता हतुव० आसणाओ अन्भुढेइ आसणाओ अम्भुद्वित्ता सत्तट्ठपयाई पचुग्गते आ-IK सणेणं उवनिमंतेति २ ते पुरिसे आसत्थे वीसत्थे सुहासणवरगए एवं वयासी-संदिसंतु णं देवाणुप्पिया! लाकिं आगमणप्पओषणं, तते णं से रायपुरिसा दत्तं सत्यवाहं एवं वयासी-अम्हे णं देवाणु० तव धूयं कण्ह-19 |सिरीए अत्तयं देवदत्तं दारियं पूसनंदिस्स जुवरणो भारियत्ताते वरेमो, तं जाणं जाणासि देवा० जुत्तं वा पत्तं वा सलाहणिज्जं वा सरिसो वा संजोगो दिजउ णं देवदत्ता भारिया पूसणंदिस्स जुवरपणो, भण देवा-17 टूणुप्पिया! किं दलयामो मुफी, तते णं से दत्ते अभितरद्वाणिज्जे परिसे एवं बयासी-एवं चेव णं देवाणु पिया! मम सुकं जन्नं वेसमणे राया मम दारियानिमित्तेणं अणुगिण्हति, ते ठाणेजपुरिसे विपुलेणं पुष्फव स्थगंधमल्लालंकारेणं सकारेति २ पडिविसजेति, तते णं ते ठाणिज्जपुरिसा जेणेव वेसमणे राया तेणेव उवागभा १ 'जइवि [य] सा सयं रजसुकति यद्यपि सा खकीयराज्यशुल्का-स्वकीयराज्यलभ्येत्यर्थः। २ 'जुत्तं वत्ति सङ्गवं 'पत्तं | द्रवत्ति पात्रं वा 'सलाहणिजं वत्ति माध्यमिदं 'सरिसो वत्ति उचितसंयोगो वधूवरयोः । [३३] ... अत्र मूल संपादने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते- यत् सू० ३० स्थाने सू० ३१ इति क्रम मुद्रितं, मूल संपादनमें भूलसे सूत्र का क्रम ३० के बजाय ३१ छप गया है। इसिलिए हमे भी सूत्रक्रम- ३१ लिखना पड़ा है। ~108~ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [३१] दीप अनुक्रम [३३] “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ ( मूलं + वृत्तिः) श्रुतस्कंधः [१], अध्ययनं [९] मूलं [३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः विपाके च्छति २ सा बेसमणस्स रनो एयमहं निवेदेति, तते णं से दत्ते गाहावती अन्नया कयावि सोभणंसि तिहिकरण- १९ देवदत्ता. श्रुत० १ ४ दिवस नक्खन्तमुहुत्तंसि विपुलं असणं ४ उवक्खडावेह २ त्ता मित्तनाति० आमंतेति हाते जाब पायच्छिते ७ श्यामायाः ॥ ८५ ॥ सपलीनां मृतिः श्वश्वामारणं सू० ३१ सुहासणवरगते तेणं मित्त० सद्धिं संपरिवुडे तं विउलं असणं ४ आसाएमाणा ४ विहरति जिमियभुत्तु तरागया० आयंते ३ तं मित्तनाइनियग० विलगंधपुष्पजाव अलंकारेणं सकारेति स० २ देवदत्तं दारियं पहायं विभूसियसरीरं पुरिससहस्सवाहिणीयं सीयं दुरूहति २ सुबहमित्त जाव सद्धिं संपरिवुडा सव्वइ- १ डीए जाब नाइयरवेणं रोहीडं नगरं मज्झमज्झेणं जेणेव वेसमणरण्णो गिहे जेणेव बेसमणे राया तेणेव उवागच्छति २त्ता करयल जाव बद्धावेति २ न्ता वेसमणस्स रन्नो देवदत्तं भारियं उवर्णेति, तते णं से वेसमणे राया देवदत्तं दारियं उवणियं पासति उवणियं पासित्ता हतुङ० विजलं असणं ४ उवक्खडावेति २ मित्त नाति० आमंतेति जाव सकारेति २ पुसणंदिक्कुमारं देवदत्तं च दारियं पहयं दुरुहेति २ ता सियापीतेहिं कलसेहिं मज्जावेति २ त्ता वरनेवत्थाई करेति २ ता अग्गिहोमं करेति पूसणंदीकुमारिं देवदत्ताए दारियाते १ 'आयंते'त्ति आचान्तो जलग्रहणात् 'चोक्खे'त्ति चोक्षः सिक्थलेपायपनयनात्, किमुक्तं भवति ? - 'परमसुईभूए'त्ति अत्यन्तं शुचीभूत इति । २ 'व्हाय' यावत्करणादिदं दृश्यं - 'कयबलिकम्मं कयकोउय मंगलपायच्छित्तं सव्यालंकारेति । ३ 'सुबुहुमित्त' इत्यत्र यावत्करणात् 'णियगसयणसंबंधिपरिजणेण त्ति दृश्यम् । Education Intention For Pasta Use Only ।। ८५ ।। *** अत्र मूल संपादने सूत्र क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते यत् सू० ३० स्थाने सू० ३१ इति क्रम मुद्रितं, [ मूल संपादनमें भूलसे सूत्र का क्रम ३० के बजाय ३१ छप गया है| इसिलिए हमे भी सूत्रक्रम- ३१ लिखना पड़ा है। ~ 109~ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) (११) श्रतस्कंध: [१], .....................-- अध्य यनं [१] ------ -- -- मूल [३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: H प्रत सूत्रांक [३१] 54505645-1550-15015 दीप अनुक्रम है पाणिं गिण्हावेंति, तते णं से वेसमणे राया पूसनंदिकुमारस्स देवदत्तं दारियं सब्वइडीए जाव रवेणं महया इडीसकारसमुदएणं पाणिग्गहणं कारेति देवदत्ताए दारियाए अम्मापियरो मित्त जाव परियणं च विउलेण अ- सण ४ वत्थगंधमल्लालंकारेण य सकारेति सम्माणेति जाव पडिविसनेति, तए णं से पूसनंदीकुमारे देवदत्ताए सद्धिं उप्पि पासाय० फुद्देहिं मुइंगमत्थेहिं बत्तीसं० उवगिज जाब विहरति, तते णं से वेसमणे राया अन्नया कयाई कालधम्मुणा संजुत्ते नीहरणं जाव राया जाते, तए णं से पूसनंदी राया सिरी देवीए मायभत्तिते १'सब्विहिए' इत्यत्र यावत्करणादियं दृश्य'सबजुईए' सर्वात्या-आभरणादिसम्बन्धिन्या सर्वयुक्त्या वा उचितेषु वस्तुघटना| लक्षणया सर्वचलेन--सर्वसैन्येन सर्वसमुदायेन-पौरादिमीलनेन सर्वादरेण-सर्वोचितकृत्यकरणरूपेण 'सबविभूईए' सर्वसम्पदा 'सव्वविभूसाए' समस्तशोभया 'सव्वसंभमेण प्रमोदकृतौत्सुक्येन 'सबपुष्फगंधमलालंकारेण सन्चतूरसहसंनिनाएणं' सर्वतूर्यशब्दानां मीलने यः संगतो नितरी नादो-महान घोषस्तेनेत्यर्थः, अल्पेष्वपि ख्यादिषु सर्वशब्दप्रवृत्तिष्टा मत आह-'महता इड्डीए। | महता जुईए महता चलेणं महता समुदएणं महता वरतुरियजमगसमगपवाइएणं' 'जमगसमग'त्ति युगपत् , एतदेव विशेषेणाह--- खपणयपाहभेरिझलरिखरमुहिहुडुकमुरखमुइंगदुंदुहिनिम्मोसनाइयरवेणं तत्र शङ्खादीनां नितरां घोषो निघोंषो-महाप्रयत्नोत्पादितः शब्दः नादितं-वनिमात्र एतद्वयलक्षणो यो रवः स तथा तेनेति । २ 'सेयापीएहिं ति रजतसुवर्णमयैरित्यर्थः । ३ 'सिरीए देवीए मायाभत्ते यावि हुत्थति श्रिया देव्या मातेतिबहुमानबुवा भक्तो मातृभक्तश्चाप्यभून , ARSANSKRICS [३३] For P OW ... अत्र मूल संपादने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते- यत् सू० ३० स्थाने सू० ३१ इति क्रम मुद्रितं, मूल संपादनमें भूलसे सूत्र का क्रम ३० के बजाय ३१ छप गया है| इसिलिए हमे भी सूत्रक्रम- ३१ लिखना पड़ा है। ~ 110~ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [३१] दीप अनुक्रम [३३] विपाके श्रुत० १ ॥ ८६ ॥ “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ ( मूलं + वृत्तिः) श्रुतस्कंधः [१], अध्ययनं [९] मूलं [३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Jan Eucatur यांवि होत्था, कल्लोकल्लिं जेणेव सिरी देवी तेणेव उवागच्छति २त्ता सिरीए देवीए पायवडणं करेति सयपागसहस्सपागेहिं तेल्लेर्हि अभिगावेति अट्टमुहाते मंस० तया० चम्मसुहाए रोमसुहाए चोब्बिहाए संवाहणाए संवाहावेति सुरभिणा गंधवणं उवहावेति तिहिं उदयहिं मज्जावेति तंजा-उसिणोदपणं सीओदरणं गंधोदरणं, विउलं असणं ४ भोयावेति सिरीए देवीए पहाताए जाब पायच्छित्ताए जिमियतुसरागयाए तते णं पच्छा व्हाति वा भुंजति वा उरालाई माणुस्सगाई भोग भोगाई भुंजमाणे विहरति । तते णं तीसे देवदत्ताए देवीए अन्नया कयाइ पुग्वरत्तावरतकालसमयंसि कुटुंबजागरिपं जागरमाणीइ इमेयारूवे अन्भत्थिए ५ समुत्पन्ने-- एवं खलु पूसनंदी राया सिरीए देवीए माइभत्ते जाव विहरति तं एपूर्ण भू वक्त्रेवेणं नो संचाएमि अहं पूसनंदीणा रण्णा सद्धिं उरालाई ० भुंजमाणीए विहरितए तं सेयं खलु मम सिरीदेवीं अग्गिपओगेण सत्य० विस० मंतप्पओगेण वा जीवियाओ बबरोवेत्तए २ प्रसनंदिरन्ना सद्धिं उरालाई भोग भोगाई भुंजमाणीए विहरिस्तए, एवं संपेहेह २ सा सिरीए देवीए अंतराणि य ३ पडिजागरमाणी १ ‘कल्ला कल्लि'ति प्रातः प्रातः । २ 'गंधवट्टएणं' ति गन्धचूर्णेन । ३ 'जिमियभुत्तुत्तरागयाए 'ति जेमिवायां- कृतभोजनाय तथा भुक्त्त्वोत्तरमागतायां स्वस्थानमिति भावार्थ:, उदारान् मनोज्ञान् भोगान् मुखानो विहरति । ४ 'पुब्वर सावरते 'ति पूर्वरात्रापर रात्रकालसमये, रात्रेः पूर्वभागे पञ्चाद्भागे वेत्यर्थः । For Parts Only ९ देवदचा. श्यामायाः सपत्नीनां | मृतिः श्वश्वामारणं सू० ३१ ~ 111~ ॥ ८६ ॥ war *** अत्र मूल संपादने सूत्र क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते - यत् सू० ३० स्थाने सू० ३१ इति क्रम मुद्रितं, [ मूल संपादनमें भूलसे सूत्र का क्रम ३० के बजाय ३१ छप गया है| इसिलिए हमे भी सूत्रक्रम- ३१ लिखना पड़ा है। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) (११) श्रतस्कंध: [१], ...................---- अध्य यनं [९] ------.. -...---- मूलं [३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१] दीप अनुक्रम विहरति, तते णं सा सिरीदेवी अन्नया कयावि मज्जाइया विरहियसयणिजंसि सुहपसत्ता जाया यावि होत्था, इमं च णं देवदत्ता देवी जेणेव सिरीदेवी तेणेव उवागच्छति २त्ता सिरीदेवीं मज्जाइयं विरहितसथणिज्जंसि सुहपसुत्तं पासति २ दिसालोयं करेति २ जेणेव भत्तघरे तेणेव उवागच्छति २ त्ता लोहदंड परामुसति २ लोहदंड तावेति तत्तं समजोहभूयं फुल्लकिसुयसमाणं संडासरण गहाय जेणेच सिरीदेवी तेणेव उपागच्छति २त्ता सिरीए देवीए अवाणंसि पक्खिवेति, तते णं सा सिरीदेवी महया २ सद्देणं दाआरसित्ता कालधम्मुणा संजुत्ता, तते णं तीसे सिरीए देवीए दासचेडीओ आरसियसद्दे सोचा नि-12 सम्म जेणेव सिरीदेवी तेणेव उवागच्छंति देवदत्तं देवीं ततो अवक्कममाणिं पासंति २ जेणेव सिरीदेवी तेणेव उवागच्छंति सिरीदेवीं निप्पाणं निचिट्ठ जीवियविप्पजढं पासंति २ हा हा अहो अकज्जमितिकडु रोयमा० कंदमा० विलव. जेणेव पूसनंदी राया तेणेव उवागच्छंति २त्ता पूसनंदी राय एवं वयासी-एवं खलु सामी! सिरीदेवी देवदत्ताए देवीए अकाले चेव जीवियाओ ववरोविया, तते णं से पूसनंदी राया है तासिं दासचेडीणं अंतिए एयमढं सोचा निसम्म मया मातिसोएणं अप्फुपणे समाणे परसुनियत्तेविव 'मज्जाइय'त्ति पीतमद्या, 'विरहियसयणिजसि'त्ति विरहिते विजनस्थाने शयनीयं तत्र । २ 'परामुसईत्ति गृहाति । |३ 'समजोइभूय'ति समः-तुल्यो ज्योतिषा-अग्निना भूतो-जातो यः स तथा तम्। ४ 'रोयमाणीओ'त्ति अनुविमोचनात् , हान्यदपि पदयमध्येयं, तद्यथा-कंदमाणीओं' आक्रन्दशब्दं कुर्वयः 'विलवमाणीओ'ति विलापान कुर्वत्यः । [३३] SAREauraton international ... अत्र मूल संपादने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते- यत् सू० ३० स्थाने सू० ३१ इति क्रम मुद्रितं, मूल संपादनमें भूलसे सूत्र का क्रम ३० के बजाय ३१ छप गया है| इसिलिए हमे भी सूत्रक्रम- ३१ लिखना पड़ा है। ~112~ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) (११) श्रतस्कंध: [१], ...................---- अध्य यनं [९] ------.. -...---- मूलं [३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत. प्रत सूत्रांक [३१] विपाके चंपगवरपायवे धसत्ति धरणीतलंसि सव्वंगेर्हि सन्निपडिते, तते णं से पूसनंदी राया मुहुतंतरेण आसत्थे 18वीसत्थे समाणे बहुहिं राईसर जाव सत्यवाहेहिं मित्तजाव परियणेण य सर्द्धि रोयमाणे ३ सिरीए देवीए म-1 ॥ ८७॥ हया इडीए नीहरणं करेति २त्ता आसुरुत्ते ४ देवदत्तं देविं पुरिसेहिं गिण्हावेति तेणं विहाणेणं वज्झं आणवेति, तं एवं खलु गोयमा! देवदत्ता देवी पुरापुराणाणं विहरति । देवदत्ता णं भंते! देवी इओ कालमासे कालं किच्चा कहिं गमिहिति? कहिं उववजिहिति?, गोयमा! असीइं वासाइं परमाउयं पालइत्ता कालमासे है|कालं किच्चा इमीसे रपणप्पभाए पुढवीए रइयत्ताए उववन्ने संसारो वणस्सति, ततो अणंतरं उव्वहित्ता गंगपुरे नगरे हंसत्ताए पञ्चायाहिति, से णं तत्थ साउणितेहिं वधिए समाणे तस्येव गंगपुरे णगरे सेट्टिकुल. घोहि सोहम्मे महाविदेहे वासे सिज्झिहिति, णिक्खेवो (सू०३१) दुहविवागस्स नवमं अज्झयण-1 तिमि ॥९॥ देवदत्ता. श्यामायाः सपत्नीनां मृतिः श्वश्वामारणं सू० ३१ दीप अनुक्रम [३३] १ 'आसुरुत्ते'त्ति आशु-शीघ्रं रुप्तः-कोपेन विमोहितः, इहान्यदपि पदचतुष्कं दृश्य, तद्यथा-'रुडे'त्ति उदितरोषः 'कुविए'त्ति प्रवृद्धकोपोदवः 'चंडकिए'त्ति प्रकटितरौद्ररूपः, 'मिसिमिसिमाणे'त्ति कोपामिना दीप्यमान इव ॥ देवदत्तायाः |नवमाध्ययनस्य विवरणं ॥ ९॥ ॥८७॥ ... अत्र मूल संपादने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते- यत् सू० ३० स्थाने सू० ३१ इति क्रम मुद्रितं, मूल संपादनमें भूलसे सूत्र का क्रम ३० के बजाय ३१ छप गया है| इसिलिए हमे भी सूत्रक्रम- ३१ लिखना पड़ा है। अत्र नवमं अध्ययनं परिसमाप्त ~113~ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [१०] ----------------------- मूलं [३२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अथ दशममुम्बरदत्ताख्यमध्ययनम् । प्रत सूत्रांक [३२] G दीप अनुक्रम अथ दशमे किञ्चिलिख्यतेजति णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं दसमस्स उक्खेवो, एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं वद्धमाणपुरे णाम णगरे होत्था, विजयवद्धमाणे उजाणे माणिभद्दे जक्खे विजयमित्ते राया, तत्थ णं धणदेवे नाम सत्यवाहे होत्था अढ०, पियंगुनामभारिया अंजू दारिया जाव सरीरा, समोसरणं परिसा जाच पडि गया, तेणं कालेणं तेणं समएणं जेडे जाव अडमाणे जाब विजयमित्तस्स रन्नो गिहस्स असोगवणियाए अदूदूरसामंतेणं वितिवयमाणे पासति एग इस्थियं सुकं भुक्खं निम्मंसं किडकिडीभूयं अहिचम्मावण नीलसाडगनियत्थं कट्ठाई कलुणाई विसराई कूवमाणं पासति २ चिंता लहेव जाव एवं वयासी-सा गं भंते! इत्थिया पुन्वभवे के आसि?, वागरणं, एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे इंदपुरे णाम णगरे होस्था, तत्व णं इंददत्ते राया पुढवीसिरी नामं गणिया होत्था व-& पणओ, तते णं सा पुढवीसिरी गणिया इंदपुरे णगरे बहवे राईसर जावप्पभियओ बहूहि चुन्नप्पओगेहि |य जाव आभिओगेत्ता उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाई मुंजमाणा विहरति, सते णं सा पुढबीसिरी [३४] अथ दशमं अध्ययनं “अंजू" आरभ्यते .. अत्र शीर्षकस्थाने अध्ययनस्य नाम्न: विषये कश्चित् स्खलना संभाव्यते- यत् "अंजू स्थाने 'उम्बरदत्त' इति मुद्रितं ~114~ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [१०] ------- ---------- मूलं [३२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३२] दीप अनुक्रम विपाके गणिया एयकम्मा ४ सुबहुं समजिणित्ता पणतीसं वाससयाई परमाउयं पालइत्ता कालमासे कालं किचा|१० अनुश्रुत०१६ छट्ठीए पुढवीए उक्कोसेणं णेरइयत्ताए उववन्ना, साणं तओ अणंतरं उव्वहित्ता इहेव वद्धमाणपुरे णगरे धण- देव्य. देवस्स सत्थवाहस्स पियंगुभारियाते कुञ्छिसि दारियत्ताए उववन्ना, तते णं सा पियंगुभारिया णवण्हं मा- पूर्वपश्चा॥८८॥ साणं दारियं पयाया, नाम अंजूसिरी, सेसं जहा देवदत्ताए । तते णं से विजए राया आसवाह जहा द्भवाः बेसमणदत्से तहा अंजू पासह णवरं अप्पणो अट्ठाए वरेति जहा तेतली जाव अंजूए दारियाते सद्धिं उप्पि81 जाव विहरति, तते णं तीसे अंजूते देवीते अन्नया कयावि जोणिसूले पाउन्भूते यावि होत्था, तते णं विजये। राया कोइंबियपुरिसे सहावेति २ एवं वयासी-गच्छह णं देवाणुप्पिया! वद्धमाणे पुरे णगरे सिंघाडग जाव। एवं वदह-एवं खलु देवाणुप्पिया! विजय० अंजूए देवीए जोणिसूले पाउन्भूते जो णं इत्थ विजो था ६ जाच द उग्धोसेंति, तते णं ते बहवे विज्जा वा ६इम एपारूवं सोचा निसम्म जेणेव विजए राया तेणेव उवागच्छंतित रत्ता अंजूते बहवे उप्पत्तियाहिं ४ परिणामेमाणा इच्छंति अंजूते देवीए जोणिसूलं उचसामित्तते, नो संचाएंति उवसामित्तए, तते णं ते यहवे विजा य ६ जाहे नो संचाएंति अंजूदेवि० जोणिसूल उवसामित्तते १'जहा तेयलि'त्ति ज्ञाताधर्मकथायां यथा तेतलिसुतनामा अमात्यः पोट्टिलामिधानां कलादमूषिकारश्रेष्ठिसुतामात्मार्थ याच-13 यित्वा आत्मनैव परिणीतवान् एवमयमपीति । [३४] ~115~ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) (११) श्रुतस्कंध: [१], ....... ....---- अध्ययनं [१०] ... ..... ..- मूलं [३२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३२] ताहे संता तंता परितंता जामेव दिसि पाउन्भूया तामेव दिसि पडिगया, तते णं सा अंजूदेवी ताए धेयणाए अभिभूता समाणा सुक्का भुक्खा निम्मंसा कट्ठाई कलुणाई विसराई विलवति, एवं खलु गोयमा! अंजूदेवी पुरापोराणाणं जाब विहरति । अंजू णं भंते! देवी इओ कालमासे कालं किचा कहिं गच्छि. &ाहिति? कहिं उचवजिहिति?, गोयमा। अंजू णं देवी नउई वासाई परमाउयं पालिसा कालमासे कालं किचा कादमीसे रयणप्पभाए पुढबीए नेरइयत्ताए उववजिहिद, एवं संसारो जहा पढमे तहा नेयब्वं जाव वणस्सति० साणं ततो अणंतरं उच्चहिता सव्वतोभद्दे नगरे मयूरत्ताए पचायाहिति, से णं तत्थ साउणिएहिं वधिए समाणे तत्थेव सव्वतोभहे नगरे सेहिकुलंसि पुत्तत्ताए पचायाहिति, से णं तत्थ उम्मुक्कबालभावे तहारूवाणं राणं केवलं बोहिं बुझिहिति पव्वजा सोहम्मे, से णं ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं कहिं गच्छिहिति? कहिं उवजिहिति?, गोयमा महाविदेहे जहा पढमे जाव सिज्झिहिइ जाव अंतं काहिति । एवं खलु जंबू! समणेणं जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं दसमस्स अज्झयणस्स अयमढे पन्नत्ते, सेवं भंते २। (सू०३२) दुहविवागो दससु अज्झयणेसु ॥ पदमो सुयक्खंधो सम्मत्तो ॥१॥ ॥ अजूसार्थवाहसुतायाः यशमाध्ययनस विवरणम् ॥ १० ॥ तत्समाप्तौ च समाप्त प्रथमचतस्कन्धविवरण मिति ॥ १॥ 1-3-25645%AE % 9 5 दीप अनुक्रम [३४] -45-45-45 5% अनु.१७ wwwsaneirary.org अत्र दशमं अध्ययनं परिसमाप्तं तत् परिसमाप्ते प्रथम-श्रुतस्कन्ध: अपि परिसमाप्त: ~ 116~ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [33] दीप अनुक्रम [३५-३७] विपाके श्रुत० २ ॥ ८९ ॥ “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कंधः [२], अध्ययनं [१] मूलं [३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अथ द्वितीय स्कन्धस्य प्रथमाध्ययने किञ्चिह्निस्यते ते कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नगरे गुणसिले चेइए सोहम्मे समोसढे जंबू जाव पज्जूवासमाणे एवं क्यासी-जति णं भंते! समणेणं जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं अयमट्टे पण्णत्ते सुहविवागाणं भंते! समणेणं जाव संपत्तेर्ण के अट्ठे पन्नन्ते, तते णं से सोहम्मे अणगारे जंबू अणगारं एवं वयासी - एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं सुहविवागाणं दस अज्झयणा पन्नन्ता, तंजहा- सुबाहू १ भद्दनंदी २ य, सुजाए य ३ सुवासवे ४ । तहेव जिणंदासे ५, धणपती य ६ महम्बले ७ ॥ १ ॥ भहनंदी ८ महचंदे ९ वरदत्ते १० । जति णं भंते! समणेणं जाव संपत्तेणं सुहविवागाणं दस अज्झयणा पन्नत्ता पढमस्स णं भंते! अज्झयणस्स सुहविवागाणं जाव संपत्तेर्ण के अट्ठे पण्णत्ते, तते गं से मुहम्मे अणगारे जंं अणगारं एवं वयासी – एवं खलु जंबू लेणं कालेणं तेणं सम० हत्थीसीसे नामं णगरे होत्था रिद्ध०, तस्स णं हरिथसीसस्स नग| रस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए एत्थ णं पुप्फकरंडए णामं उज्जाणे होत्था सव्बोउय०, तत्थ णं कयवणमालपियस्स जक्खस्स जक्खाययणे होत्था दिग्वे०, तत्थ णं हस्थिसीसे नगरे अदीणसत्तू णामं राया होत्था १ 'सब्वोउय'त्ति इदमेवं दृश्यं - 'सम्बोउयपुष्पफलसमिद्धे रम्मे नंदणवणप्पगासे पासाईए ४' । Eucation Internation अथ बीसुधी । अथ प्रथमं अध्ययनं "सुबाहु" आरभ्यते For Penal Use On अत्र द्वितीय- श्रुतस्कंध: आरब्धः ~ 117 ~ सुबाह ध्ययनं सू० ३३. ॥ ८९ ॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) (११) श्रुतस्कंध: [२], ------------------------ अध्य यनं [१] ---------------------------- मूलं [३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३] दीप अनुक्रम [३५-३७] महता०, तस्स अदीणसत्तुस्स रनो धारणीपामोक्खा देवीसहस्सं ओरोहे यावि होत्या, तते णं सा धारणी देवी अन्नया कयाइ तसिं तारिसगंसि वासघरंसि सीहं सुमिणे पासति जहा मेहस्स जम्मणं तहा भाणियब्व जाव सुबाहुकुमारे अलं भोगसमत्धं चा जाणंति, अम्मापियरो पंच पासायवर्डिसगसयाई करावेति अम्भुग्गय भवणं एवं जहा महाबलस्स रनो गवरं पुष्फचूलापामोक्खाणं पंचण्डं रायवरकन्नयसपाणं एगदि १'तंसि तारिसगंसि वासभवणंसी ति तस्मिन् तादृशे-राजलोकोचिते वासगृहे इत्यर्थः। २'जहा मेघस्स जम्मणं' ति ज्ञाताधर्मकथायां प्रथमाध्ययने यथा मेघकुमारस्य जन्मवक्तव्यतोक्ता एवमत्रापि सा वाच्येति, नवरमकालमेघदोहदवक्तव्यता नासीह । 'सुबाहुकुमार' इह यावत्करणादिदं दृश्यं-बावत्तरीकलापंडिए नवंगसुत्तपडिबोहिए' नवाजानि-श्रोत्र २ चक्षु ४ र्माण ६ रसना - स्वर ८ मनो ९ लक्षणानि सन्ति सुप्तानि प्रतिबोधितानि यौवनेन यस्य स तथा, 'अट्ठारसदेसीभासाविसारए' इत्यादि जाव अलं भोगसमस्ये जाए यावि हुत्या, तए णं तस्स सुबाहुस्स अम्मामियरो सुबाई कुमारं वायत्तरीकलापंडियं जाव अलं भोगसमत्थं साहसियं वियालचारिं जाणति जाणित्ता पश्च प्रासादावतंसकशतानि कारयन्ति, किंभूतानि ? इत्याह-अभुग्गय'त्ति 'अन्भुग्गयमूसियपहसिए' इत्यादि, 'भवर्णति एकं च भवनं कारयंति, अथ प्रासादभवनयोः कः प्रतिविशेषः १, उच्यते, प्रासादः स्वगतायामापेक्षया द्विगुणोच्ट्रयः भवनं त्वायामापेक्षया पादौनसमुच्छ्रयमेवेति, इह च प्रासादा वधूनि मिचं भवनं च कुमाराय, 'एवं जहा महाबलस्सति भवनवर्णको विवाहवक्तव्यता च यथा भगवत्यां महाबलस्योक्ता एवमस्यापि वाच्या. केवलं तन्न कमलश्रीप्रमुखानामित्युक्तं इह पुष्पचूडाप्रमुखानामिति वाच्यम् , एतदेव दर्शयन्नाह-'नवर मित्यादि । ~ 118~ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [33] दीप अनुक्रम [३५-३७] “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [२], अध्ययनं [१] मूलं [३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः विपाके वसेणं पाणि गिण्हावेति, तहेव पंचसतिओ जाव उपिं पासायवरगते फुट्ट जाव विहरति, तेणं कालेणं श्रुत० २४ तेणं समएणं समणे भगवं महाबीरे समोसढे परिसा निग्गया अदीणससू जहा कोणिओ निग्गतो सुबाहुवि जहा जमाली तहा रहेणं निग्गते जाव धम्मो कहिओ रायपरिसा गया, तते णं से सुबाहुकुमारे ॥ ९० ॥ १ 'तहेब'त्ति यथा महाबलस्येत्यर्थः, 'पंचसइओ दाओ'चि 'पंचसयाई हिरन्नकोडीणं पंचसयाई सुवण्णकोडीणं' इत्यादि दानं वाच्यम्, इह यावत्करणादेवं दृश्यं— 'तए णं सुबाहुकुमारे एगमेगाए भारियाए एगमेगं हिरण्णकोडिं दलवई' इत्यादि वाच्यं यावत् 'अन्नं च विपुलं धणकणगरयणमणिमोत्तिय संख सिलप्पवालमाइयं दलयति, तए णं से सुबाहुकुमारेत्ति, 'उपि पासायवरगए प्रासादवरस्य उपरिस्थित इत्यर्थः, 'फुट्ट' इह यावत्करणादिदं दृश्यं - 'कुट्टमाणेहिं मुइंगमत्थए हिं' स्फुटद्भिर्मृदङ्गमुखपुटै रतिर भसास्फालनादित्यर्थः, 'वरतरुणी संप उत्तेहिं' बरतरुणीसंप्रयुक्तः 'बत्तीसइबद्धेहिं नाडएहिं द्वात्रिंशद्भिर्मतिनिबद्वैः द्वात्रिंशत्पात्रनिवद्धैरियन्ये 'उबगजमाणे उवलालिमाणे माणुस्सर कामभोगे पञ्चशुरभवमाणे'त्ति, 'जहा कूणिए 'चि यथा औपपातिके कोणिकराज भगवद्वन्दनाय निर्गच्छन् वर्णित एवमयमपि वर्णयितव्य इति भावः । 'सुबाहूवि जहा जमालि तहा रहेण निग्गउ'त्ति, अयमर्थ:-येन भगवतीवर्णितप्रकारेण जमाली भगवद्भागिनेयो भगवद्वन्दनाय रथेन निर्गतोऽयमपि तेनैव प्रकारेण निर्गत इति इह यावत्करणादिदं दृश्यं-'समणस्स भगवओ महावीरस्स छत्ताइच्छचं पडागाइपडागं विज्ञाचारणे जंभए य देवे ओवयमाणे उप्पयमाणे य पासति पासिता रहाभो पचोरुहइ २ ता समणं भगवं महावीरं बंदइ नमसइ वंदित्ता नर्मसित्ता' Education International For Park Use Only ~ 119~ १ सुबाहू ध्ययनं सू० ३३ ॥ ९० ॥ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [33] दीप अनुक्रम [३५-३७] “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कंधः [२], अध्ययनं [१] मूलं [३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः समणस्स भगवओ० अंतिए धम्मं सोचा निसम्म तुट्टे उट्ठाए उद्वेति जाव एवं वयासी सद्दहामि णं भंते! निग्गंधं पावयणं जहा णं देवाणुपियाणं अंतिए बहवे राईसर जाव नो खलु अहरणं देवापियाणं अंतिए० पंचअणुब्वइयं सत्तसिक्खावइयं गिरिधम्मं परिवज्जामि, अहासुहं मा पडिबंधं करेह, तते णं से सुबाह समणस्स पंचाणुब्वयं सत्तसिक्खावइयं गिहिधम्मं पडिवजति २ तमेव० दुरूहति जामेव० तेणं कालेणं तेणं स० जेट्ठे अंतेवासी इंदभूई जाव एवं वयासी - अहो णं भंते! सुबाहुकुमारे रहे इरूवे कंते कंतरूवे पिए २ ''ति तुट्टे अतीव दृष्टः 'उट्टाए'त्ति उठाए उट्ठेइ, दह यावत्करणात् इदं दृश्यं - 'उट्टित्ता समणं भगवं महावीरं बंदइ नर्मसद वंदित्ता नर्मसित्ता 'सहामि णं भंते! निर्मार्थ इत्यादि यत्सूत्रपुस्तके दृश्यते तद्वक्ष्यमाणवाक्यानुसारेणावगन्तव्यं, तथाहि 'सदहामि णं भंते! निम्मांथं पावयणं पत्तियामि णं भंते! निग्गंथं पावयणं देवाणुप्पियाणं अंतिए बहवे राईसरतलवरमार्ड बियकोटुंबिय से डिसत्यबाहपहियओ मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पव्जयंति नो खलु अहं तहा संचारमि पञ्ञइत्तए, अहन्नं देवाणुप्पियाणं अंतिए पंचाणुइयं सत्तसिक्स्वावयं गिहिधम्मं पडिवज्जामि, अहामुहं देवालिया ! मा पडिबंध करेह'ति भगवद्वचनं, 'तमेव' इदमेवं दृश्यं - 'तमेव चाउरघंटं आसरहं', 'जामेव' इत्यादि त्वेवं दृश्यं 'जामेव दिसं पाउन्भूते तामेव दिसिं पडिगए'ति । 'इंदभूई' इत्यत्र यावत्करणात् 'नामं अणगारे गोयमगोत्तेण मित्यादि दृश्यं, 'इट्ठे'त्ति इष्यते इतीष्टः स च तत्कृतविवक्षितकृत्यापेक्षयाऽपि स्यादित्याह - इष्टरूपः इष्टस्वरूप इत्यर्थः इष्टः इष्टरूपो वा कारणवशादपि स्यात् इत्याद-कान्तः- कमनीयः कान्तरूपः - कमनीयस्वरूपः, शोभनः शोभनखभावश्चेत्यर्थः एवंविधः कश्चित् कर्मदोषात्परेषां प्रीतिं नोत्पादयेदित्यत आह- प्रिय:- प्रेमोत्पादकः प्रियरूपः- श्रीतका रिस्वरूपः एवंविधव लोकरूढितोऽपि स्यादित्यत आह-मनोज्ञः मनसा - अन्तः संवेदनेन शोभनतया ज्ञायत इति मनोज्ञः एवं मनोज्ञरूपः एवंविधश्चैकदाऽपि स्वादित्यत आह Education International For Park Use Only ~ 120~ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [33] दीप अनुक्रम [३५-३७] “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ ( मूलं + वृत्तिः) श्रुतस्कंधः [२], अध्ययनं [१] मूलं [३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः विपाके श्रुत० २ ॥ ९१ ॥ ४ मणुने २ मैणामे २ सोमे २ सुभगे २ पियदंसणे सुरूवे, बहुजणस्सवि य णं भंते! सुबाहुकुमारे इट्ठे ५ सोमे - ४ साहुजणस्सवि य णं भंते! सुबाहुकुमारे इट्ठे इहरूवे ५ जाव सुरूवे सुबाहुणा भंते! कुमारेणं ईमा एयारूवा | उराला माणुस्सरिद्धी किन्ना लद्धा किण्णा पत्ता किण्णा अभिसमन्नागया के वा एस आसि पुच्बभवे १, एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं सम० इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे हत्थणाउरे णामं नगरे होत्था रिद्ध० तस्थ णं हत्थिणाउरे नगरे सुमुहे नामं गाहाबई परिवसह अहे, तेणं कालेणं तेणं समएणं धम्मघोसा Eucation International १ 'मणामेति मनसा अम्यते--गम्यते पुनः पुनः संस्मरणतो यः स मनोऽमः, एवं मनोऽमरूपः, एतदेव प्रपञ्चयन्नाह - 'सोमे 'ति अरौद्रः सुभगो-बलभः 'पियदंसणे 'ति प्रेमजनकाकारः, किमुक्तं भवति ? - 'सुरूवे 'ति शोभनाकार: सुखभावश्चेति, एवंविधचैकजनापेक्षयाऽपि स्वादिसत आह— 'बहुजणस्सवी त्यादि, एवंविधश्च प्राकृतजनापेक्षयाऽपि स्यादित्यत आह- 'साहुजणसवीत्यादि । २ 'इमा एयारूवत्ति इयं प्रत्यक्षा एतद्रूपा-उपलभ्यमानस्वरूपैव, अकृत्रिमेत्यर्थः 'किण्णा लद्धति केन हेतुनोपार्जिता, 'किन्ना पत्त'त्ति केन हेतुना प्राप्ता उपार्जिता सती प्राप्तिमुपगता, 'किण्णा अभिसमन्नागय'त्ति प्राप्ताऽपि सती केन हेतुना आभिमुख्येन साङ्गयेन च उपार्जनस्य च पश्चाद्धोग्यतामुपगतेति । 'को वा एस आसि पुब्वभवे' इह यावत्करणादिदं दृश्यं - 'किंनामए वा किंवा गोपणं कयरंसि वा गामंसि वा सन्निवेसंसि वा किंवा दवा किंवा भोचा किं वा समायरिता कस्स वा तहारूवस्स समणस्स वा माद्दणस्स ॥ ९१ ॥ वा अंतिते एगमचि आयरियं सुवयणं सोचा निसम्म सुबाहुणा कुमारेण इमा एयारुवा उराला माणुस्सिडी लद्धा पत्ता अभिसमन्नागय चि । सुबाहुकुमारस्य पूर्वभव: -- "सुमुख" एवं सुमुखस्य धर्म-आराधना For Pasta Use Only सुवाह ~ 121 ~ ध्ययनं सू० ३३ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [२], ------------------------ अध्ययनं [१] ----------------- मूलं [३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३] दीप अनुक्रम [३५-३७] RECAKACE Mणाम थेरा जातिसंपन्ना जाव पंचहि समणसएहिं सद्धिं संपरिवुडा पुब्वाणुपुचि चरमाणा गामाणुगामं दहजमाणा जेणेव हस्थिणाउरे णगरे जेणेव सहसंबवणे उजाणे तेणेव उवागच्छह २सा अहापडिरूवं उग्गह। उरिगण्डिताणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरन्ति, तेणं कालेणं तेणं समएणं धम्मघोसाणं थे राणं अंतेवासी सुदत्ते णाम अणगारे उराले जाव लस्से मासंमासेणं खममाणे विहरति, तसे सुदत्ते अणजगारे मासक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेतिजहा गोयमसामी तहेव धम्मघोसे (सुधम्मे) धेरे |आपुच्छति जाव अडमाणे सुमुहस्स गाहावतिस्स गेहे अणुप्पविटे, तए णं से सुमुहे गाहावती सुदत्तं अणगारं एजमाणं पासति २त्ता हहतुट्टे आसणातो अब्भुट्टेति २ पायपीढाओ पञ्चोकहति २ पाउयातो ओमु. यति २ एगसाडियं उत्तरासंगं करेति २ सुदत्तं अणगारं सत्तट्ठ पयाई अणुगच्छति २त्ता तिक्खुत्तो आया-16 हिणपयाहिणं करेइ २त्ता बंदति णमंसति २ जेणेव भत्तघरे तेणेव उवागच्छति २त्ता सयहत्थेणं विउलेणं १ 'जाइसंपन्ना' इद यावत्करणादिदं दृश्य-'कुलसंपन्ना वलसंपन्ना, एवं विणयणाणदसणचरित्तलजालाघवसंपन्ना ओवंसी है तेयसी वच्चंसी जसंसी'त्यादि । 'दुइजति गामाणुगाम दूइज्जमाणा' इति दृश्य, द्रवन्तो-च्छन्त इत्यर्थः । २ 'जहा गोयमसामी'ति द्वितीयाध्ययचे दर्शितगौतमस्वामिमिक्षाचर्यान्यायेनायमपि मिक्षाटनसामाचारी प्रयुझे इत्यर्थः । ३ 'सुहम्मे थेरेति धर्मघोषस्थविरानित्यर्थः, धर्मशब्दसाम्याच्छब्दद्वयस्वाप्येकार्थत्वात् , ~ 122 ~ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [33] दीप अनुक्रम [३५-३७] विपाके श्रुत० ॥ ९२ ॥ “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ ( मूलं + वृत्तिः) श्रुतस्कंधः [२], अध्ययनं [१] मूलं [३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ११ ], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः असणपाणेणं ४ पंडिला भेस्सामीति तुट्ठे, तते णं तस्स सुमुहस्स गाहावइस्स तेणं दृष्वसुद्वेणं [दायगसुद्वेणं [पडिगाहगसुद्धेणं] तिविहेणं तिकरणसुद्धेणं सुदत्ते अणगारे पडिलाभिए समाणे संसारे परिन्तीकते मणुस्सा उते निबद्धे गेहंसि य से इमाई पंच दिव्वाई पाउन्भूयाई तं वसुहारा बुट्ठा दसद्धवन्ने कुसुमे निवातिते चेलक्खेवे कए आहयाओ देवदुदुहीओ अंतरावि य णं आकासे अहो दानमहो दानं पुढे यहत्थिणाउरे सिंघाडग | जाव पहेसु बहुजणो अन्नमन्नस्स एवं आइक्खति ४-घेणे णं देवाणुप्पिए। सुमुहे गाहावई ५ [ सुकयपुन्ने १ 'पडिलाभिस्सामीति तुट्टे' इदं द्रष्टव्यं 'पडिला मेमाणेवि तुट्ठे पडिला मिवि तुट्ठे 'ति । 'तस्स सुहम्म (मुह ) स्स'त्ति विभतिपरिणामात् 'तेन सुहुमे (मुद्दे) ने 'ति द्रष्टव्यं तेनेति अशनादिदानेन, 'दच्य सुद्धेणं' वि द्रव्यतः शुद्धेन प्राशुकादिनेत्यर्थः इहान्यदपि 'गाहगसुद्वेणं दायगसुद्वेणं'ति दृश्यं तत्र ग्राहकशुद्धं यत्र ग्रहीता चारित्रगुणयुक्तः दावकशुद्धं तु यत्र दाता औदार्यादिगुणान्वितः अत एवाह-- 'तिविहेणं'ति उक्तलक्षणप्रकारत्रययुक्तेनेति 'तिकरणसुद्धेणं'ति मनोवाक्काय लक्षणकरणत्रयस्य दायकसम्बन्धिनो विशुद्धयेत्यर्थः, 'एवं आइक्खइति सामान्येनाचष्टे, इह चान्यदपि पदत्रयं द्रष्टव्यम् 'एवं भासइ'त्ति विशेषत आचष्टे 'एवं पन्नवेति एवं परूबेति' एतच पूर्वोकरूपपदद्वयस्यैव क्रमेण व्याख्यापनार्थ पदद्वयमवगन्तव्यम्, अथवा आख्यातीति तथैव भाषते तु व्यक्तवचनैः प्रज्ञापयतीति युक्तिनिर्बोधयति प्ररूपयति तु भेदतः कथयतीति । २ 'धन्ने णं देवाणुपिया ! सुहुमे (मुद्दे) गाहावई' इत्यत्र यावत्करणादिदं दृश्यं "पुने णं देवाणुपिया ! सुमुहे गाहावई एवं कयत्थे णं कयलक्खणे णं सुद्धे णं सुहुमरस (मुहस्स) गाहावइस्स जम्मजीबियफले जस्स णं इमा एयारूबा उराला माणुस्सद्धी उद्धा पत्ता अभिसमन्नागय'त्ति 'तं घन्ने णं देवाणुप्पिया! सुहुने गाहावई एवं कयत्थे णं' इत्यादि पूर्वप्रदर्शि तमेवेह पदपञ्चकं निगमनतयाऽवसेयम् । Education Internation For Parts Only ~ 123~ ११ सुबाहुध्ययनं सू० ३३ ॥ ९२ ॥ waryru Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [33] दीप अनुक्रम [३५-३७] “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ ( मूलं + वृत्तिः) श्रुतस्कंधः [२], अध्ययनं [१] मूलं [३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ११ ], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः कलक्खणे मुलद्वे णं मणुस्सजम्मे सुकयत्थ ] जाव तं धन्ने णं देवाणुप्पिया! सुमुहे गाहावई । तते गं से | सुमुहे गाहाबई पहुई बाससताई आउयं पालइत्ता कालमासे कालं किया इहेव हत्थिसीसे नगरे अदीणसतुस्स रन्नो धारणीए देवीए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उबवन्ने, तते णं सा धारणी देवी सयणिज्वंसि सुत्तजागरा २ ओहीरमाणी २ तहेव सीहं पासति सेसं तं चैव जाव उपिं पासाए विहरति, तं एवं खलु गोयमा ! सुबाहुणा इमा एयावा माणुस्सरिद्धी लद्धा पत्ता अभिसमन्नागया, पभू णं भंते! सुबाहुकुमारे देवाणुपियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वतए ?, हंता पनू, तते णं से भगवं गोयमे समणं भगवं० वंदति नम॑सति २ संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति, तते णं से समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ हूत्थिसीसाओ णगराओ पुष्फगउज्जाणाओ कथवणमालजक्खाययणाओ पडिणिक्खमति २ता बहिया जणवयविहारं विहरति, तते णं से सुबाहुकुमारे समणोवासए जाते अभिगयजीवाजीवे जाव पडिला भेमाणे विहरति । तते णं से सुबाहुकुमारे अन्नया कयाई चाउदसमुद्दिपुण्णमासिणीसु जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छति २ ता पोसहसालं पमजति २ सा उच्चारपासवणभूमिं पडिलेहति २त्ता दम्भसंधारगं संघरति २ दम्भसंधारं दुरूहइ दुरुहित्ता अट्टमभत्तं परिण्हइ पगिण्हेत्ता पोसहसालाए पोसहिते अट्टमभत्तिए पोसहं १ 'अभिगयजीवाजी' se aartणात् 'sarayaपावे' इत्यादिकम् 'अहापडिगाहिपहिं तंबोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे विहरह' एतदुक्तं दृश्यम् । २ ' चा उद्दसमुद्दिपुण्णमासिणीसु'ति अनोद्दिष्टा- अमावास्या । Education International For Pernal Use Only ~ 124~ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [२], ------------------------ अध्ययनं [१] ----------------- मूलं [३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३] विपाके ४|पडिजागरमाणे विहरति, तए णं तस्स मुवाहुस्स कुमारस्स पुब्बरतावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरिया। श्रुत०२ जागरमाणस्स इमेयारूचे अभस्थिए ५ घण्णा णं ते गामागरणगरजाव सन्निसा जत्थ णं समणे भगवं| ध्ययन महावीरे जाव विहरति, धन्ना णं ते राईसरतलवर जे णं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए मुंडा जाय सू० ३३ ॥१३॥ पब्वयंति, धना णं ते राईसरतलवर जे णं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए पंचाणुब्वइयं जाव गिहिदधम्म पडिवजंति, धन्ना गं ते राईसर जाव जे णं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म सुणेति, तर जति णं समणे भगवं महावीरे पुवाणुपुचि चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे इहमागच्छिना जाव विहरिजा तते णं अहं समणस्स भगवतो अंतिए मुंडे भवित्ता जाव पब्वएजा, तते णं समणे भगवं महावीरे। है सुबाहुस्स कुमारस्स इमं एयारूवं अज्झस्थिर्य जाव वियाणित्ता (ब्बाणुपुर्दिब जाव दूइजमाणे जेणेव हस्थि-12 सीसे णगरे जेणेव पुप्फगउजाणे जेणेव कयवणमालपियस्स जक्खस्स जक्खाययणे तेणेव उवागच्छह उवाग/च्छित्ता अहापडिरूवं उग्गहं गिणिहत्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरति परिसा राया निग्गया। | १'गामागर' इह यावत्करणात् 'नगरकब्बडमडंबखेडदोणमुहपट्टणनिगमआसमसंवाहसन्निवेसा' इति दृश्यम् । २ 'राईसर' इहैवं दृश्य-राईसरतलवरमाडंबियकोढुंबियसेडिसत्यवाहपभियओत्ति। ३ 'मुंडा' इह यावत्करणादिदं दृश्य-भवित्ता अगाराओ ॥९ अणगारिय'ति । ४'पुवाणुपुचि' इह यावत्करणादिदं दृश्य-परमाणे गामाणुगामति । +BACCASTACTREAK दीप अनुक्रम [३५-३७] ला ~ 125~ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) (११) श्रुतस्कंध: [२], ------------------------ अध्य यनं [१] ---------------------------- मूलं [३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३] दीप अनुक्रम [३५-३७] तते णं तस्स सुवाहुयस्स कुमार०तं महया जहा पढमं तहा निग्गओ धम्मो कहिओ परिसा राया पडिगया. तते णं से सुबाहुकुमारे समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतिए धम्म सोचा निसम्म हतुट्ट जहा मेहे तहा अम्मापियरो आपुच्छति णिक्खमणाभिसेयो तहेव जाव अणगारे जाते ईरियोसमिए जाव बंभयारी, तते गं से सुबाहु अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाझ्याई एक्कारस अं-12 गाई अहिज्वति २बहूहिं चउत्थछट्ठहम० तवोविहाणेहिं अप्पाणं भाविता बहूई वासाई सामनपरियागं पाउ|णित्ता मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झूसित्ता सहि भत्ताई अणसणाए छेदित्ता आलोइयपडिकंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किचा सोहम्मे कप्पे देवत्ताए उववन्ने, से गं ततो देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं| ठिइक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता माणुस्सं विग्गहं लभिहिद २ केवलं बोहिं बुज्झिहिति २ तहारूवाणं घेराणं| १'जहा पढमति यहवाध्ययने प्रथमं जमालीनिदर्शनेन निर्गतोऽयमुक्तस्तथा द्वितीयनिर्गमेऽयं नगराद्विनिर्गत इति वाच्यम् , | उभवत्र समानो वर्णकग्रन्थ इति भावः। २ 'ईरियासमिए' इत्यत्र यावत्करणाविदं दृश्य-भासासमिए ४ एवं मणगुत्ते ३ गुत्तिदिए | गुत्तत्ति-गुतवंभयारी । ३ 'आउक्खएणति आयुःकर्मद्रव्यनिर्जरणेन 'भवक्खएण'ति देवगतिवन्धनदेवगत्यादिकर्मद्रव्यनिर्जरणेन | 'ठिइक्खएण'ति आयुष्कादिकमथितिविगमेन 'अणंतरं चयं चाइस'चि देवसम्बन्धिनं देहं त्वक्वेत्यर्थः, अथवाऽनन्तरं-आयुःक्षयाधनन्तरं च्यवनं 'चइत्त'त्ति व्युत्वा । C40GADE ~ 126~ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [33] दीप अनुक्रम [३५-३७] “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कंधः [२], अध्ययनं [१] मूलं [३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः विपाके अंतिए मुंडे जाव पत्रवइस्सति, से णं तस्थ बहई वासाई सामण्णं पाणिहिद आलोहयपडिते समाहि० श्रुत० २७ कालगते सणकुमारे कप्पे देवताए उबवन्ने, से णं ताओ देवलोयाओ ततो माणुस्सं पव्वज्जा वंभलोए माणुस्सं ततो महासुक्के ततो माणुस्सं आणते देवे ततो माणुस्सं ततो आरणे देवे ततो माणुस्सं सञ्चट्टसिद्धे, से णं ततो अनंतरं उष्वहित्ता महाविदेहे वासे जाव अड्डाई जहा दडपन्ने सिज्झिहिति, एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं सुविवागाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते ( सू० ३३) ॥ इति पढमं अज्झयणं सम्मत्तं ॥ १ ॥ ॥ ९४ ॥ ferrea णं उक्खेबो--एवं खलु जंबू । तेणं कालेणं तेणं समएणं उसभपुरे णगरे थूभकरंडउज्जाणे धन्नो जक्खो घणावहो राया सरस्सई देवी सुमिणदंसणं कहणं जम्मणं वालत्तणं कलाओ य जुब्बणे पाणिग्गणं दाओ पासाद० भोगा य जहा सुबाहुयस्स नवरं भद्दनंदी कुमारे सिरिदेवीपामोक्खाणं पंचसया सामीसमोसरणं सावगधम्मं पुब्बभवपुच्छा महाविदेहे वासे पुंडरीकिणी नगरी विजयते कुमारे जुगवाह तिस्थयरे पडिलाभिए माणुस्साए निबद्धे इहं उप्पन्ने सेसं जहा सुबाहुयस्स जाव महाविदेहे वासे सिज्झिहिति बुज्झिहिति मुविहिति परिनिव्याहिति सव्वदुक्खाणमंतं करेहिति ॥ वितियं अज्झयणं सम्मत्तं ॥ २ ॥ तचस्स १ 'महाविदेहे' इह यावत्करणात् 'वासे जाई इमाई कुलाई भवंति - अढाई दित्ताई अपरिभूयाई' इत्यादि दृश्यमिति ॥ द्वितीयश्रुतस्कन्धप्रथमाध्ययनस्य विवरण सुबाहोः राजर्षेः ॥ १ ॥ ucation अत्र प्रथमं अध्ययनं परिसमाप्तं अथ द्वितियम् अध्ययनं "भद्रनन्दी" आरब्धः एवं परिसमाप्तः For Penal Use Only ~ 127 ~ २ भद्रन न्द्याद्यध्य. सू० ३४ ॥ ९४ ॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [२], ----------------------- अध्ययन [२-१०] ---------------------- मूल [३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र - [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४] ॐॐॐरॐनामा उक्खेवो, वीरपुरं णगरं मणोरम उजाणं वीरकण्हमित्ते राया सिरी देवी सुजाए कुमारे वलसिरीपामोक्खा पंच-1 सयकन्ना सामीसमोसरणं पुब्बभवपुच्छा उसुयारे नयरे उसभदत्ते गाहावई पुष्फदत्ते अणगारे पडिलाभेमगुस्साउए निबद्धे इह उप्पन्ने जाच महाविदेहे वासे सिज्झिहिति ॥ सुहविवागे तइयं अज्झयणं सम्मत्तं ॥३॥ चोत्थस्स उक्खेवो-विजयपुरं णगरं गंदणवणं [मणोरमं] उजाणं असोगो जक्खो वासवदत्ते राया कण्हा देवी सुवासवे कुमारे भद्दापामोक्खाणं पंचसया जाव पुन्वभवे कोसंबी णगरी धणपाले राया बेसमणभद्दे अणगारे पडिलाभिते इह जाव सिद्धे ॥ चोत्थं अज्झयणं सम्मत्तं ॥ ४॥ पंचमस्स उक्खेवओ-सोगंधिया माणगरी नीलासोए उजाणे सुकालो जक्खो अप्पडिहओ राया सुकन्ना देवी महचंदे कुमारे तस्स अरहदत्ता भारिया जिणदासो पुत्तो तित्थयरागमणं जिणदासपुब्वभवो मज्झमिया णगरी मेहरहो राया सुधम्मे अणगारे पडिलाभिए जाव सिद्धे ।। पंचमं अज्झयणं सम्मत्तं ॥५॥ छट्ठस्स उक्खेवओ-कणगपुरं णगर सेयासोयं उज्जाणं वीरभदो जक्खो पियचंदो राया सुभदा देवी बेसमणे कुमारे जुवराया सिरीदेवीपा-12 मोक्खा पंचसया कन्ना पाणिग्गहणं तित्थयरागमणं धनवती जुवरायापुत्ते जाव पुब्वभवो मणिवया नगरी |मित्तो राया संभूतिविजए अणगारे पडिलाभिते जाव सिद्धे ॥ छठं अज्झयणं सम्मत्तं ॥६॥ सत्तमस्स उक्खेवो, महापुरं णगरं रत्तासोगं उजाणं रत्तपाओ जक्खो बले राया सुभद्दा देवी महब्बले कुमारे रत्तवईपामोक्खाओ पंचसया कक्षा पाणिग्गहणं तिस्थयरागमणं जाव पुब्वभवो मणिपुरं णगरं णागदत्ते गाहावती || 55555 दीप अनुक्रम [३८-४७] अनु.१८ Heluneurary.orm अथ तृतीयं अध्ययनात् आरभ्य दशमं अध्ययनं पर्यन्तानि अष्ट-अध्ययनानि अत्र परिकथयतानि ~ 128~ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [३४] दीप अनुक्रम [३८-४७] “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कंध : [२], अध्ययनं [२-१०] मूलं [३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः विपाके श्रुत० २ ।। ९५ ।। इंदपुरे अणगारे पडिलाभिते जाव सिद्धे । सत्तमं अज्झयणं सम्मन्तं ||७|| अट्टमस्स उक्खेवो-सुघोसं नगरं देवरमणं उज्जाणं वीरसेणो जक्खो अक्षुण्णो राया तत्तवती देवी भद्दनंदी कुमारे सिरीदेवीपामोक्खा पंचसया जाव पुष्वभवे महाघोसे नगरे धम्मघोसे गाहावती धम्मसीहे अणगारे पडिलाभिए जाब सिद्धे ॥ अट्टमं अज्झयणं सम्मन्तं ॥ ८ ॥ णवमस्स उक्लेवो-चंपा णगरी पुन्नभद्दे उज्जाणे पुन्नभद्दो जक्खो दत्ते राया रतवई देवी महचंदे कुमारे जबराया सिरिकंतापायोक्खाणं पंचसया कन्ना जाव पुब्बभवो तिगिन्छी नगरी जियसत्तू राया धम्मवीरिये अणगारे पडिलाभिए जाव सिद्धे ॥ नवमं अज्झयणं सम्मत्तं ॥ ९ ॥ जति णं दसमस्स उक्खेवो, एवं खलु जंबू । तेणं कालेणं तेणं समएणं सायेयं णामे नगरे होत्था उत्तरकुरुउज्जाणे पासमिओ जक्खो मिसनंदी राया सिरिकंता देवी वरदत्ते कुमारे वरसेणपामोक्खा णं पंच देवीसया तित्थयरागमणं सावगधम्मं पुष्वभवो पुच्छा मनुस्साउए निबद्धे सतदुवारे नगरे विमलवाहणे राया धम्मरुचिनामं अणगारं एजमाणं पासति २ पडिलाभिते समाणे मणुस्साउने निबद्धे इहं उप्पन्ने सेसं जहा सुधायरस कुमारस्स चिंता जाव पव्वज्जा कप्पंतरिओ जाव सव्वहसिद्धे ततो महाविदेहे जहा दढपन्नो जाब सिज्झहिति बुज्झिहिति० सव्वदुक्खाणमंतं करेति ॥ एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सुह| विवागाणं दसमस्स अज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, सेवं भंते! सेवं भंते! । सुहविवागा (सू० ३४) एक्कारसमं अंगं सम्मत्तं ॥ १० ॥ नमो सुयदेवयाए- विवागसुयस्स दो सुयक्खंधा दुहविवागो य सुहविवागो य, तत्थ Education Internation For Park Use Only अथ तृतीयं अध्ययनात् आरभ्य दशमं अध्ययनं पर्यन्तानि अष्ट- अध्ययनानि अत्र परिकथयतानि अत्र द्वितिय्-श्रुतस्कन्धः परिसमाप्तः ~ 129~ २ श्रुत स्कंधः सू० ३४ ॥ ९५ ॥ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [३४] दीप अनुक्रम [३८-४७] “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [२-१०] श्रुतस्कंध : [२], मूलं [३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [११], अंग सूत्र [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः दुहविवागे दस अज्झयणा एकसरगा दससु चेष दिवसेसु उद्दिसिज्जंति, एवं सुहविवागोवि, सेसं जहा आयारस्स || इति एकारसमं अंगं सम्मत्तं ॥ ११ ॥ ग्रन्थानं १२५० ॥ १ एवमुत्तराणि नवाप्यनुगन्तव्यानीति ॥ समाप्तं विपाकश्रुताख्यैकादशाङ्गप्रदेशविवरणं ॥ इहानुयोगे यवयुक्तमुक्तं, तद्धीधना द्राक् परिशोधयन्तु। नोपेक्षणं युतिमदत्र येन, जिनागमे भक्तिपरायणानाम् ॥ १ ॥ कृतिरियं संविप्रमुनिजनप्रधान श्रीजिनेश्वराचार्यचरणकमलच भ्वरीककल्पस्य श्रीमदभयदेवाचार्यस्येति ॥ प्रन्थानं ९०० ॥ श्रीरस्तु ॥ San Educational ॥ इति श्रीमदभयदेवाचार्यविहितविवरणयुता विपाकदशा गताः समाप्तिम् ॥ Fit Pessoal & Private Use मुनिश्री दीपरत्नसागरेण पुनः संपादित: (आगमसूत्र ११) “विपाकश्रुत” परिसमाप्तः ~ 130~ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरूभ्यो नमः पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च। 'विपाक(श्रुताङ्ग)सूत्र” |मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः] | (किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: "विपाकश्रुत” मूलं एवं वृत्ति:” नामेण परिसमाप्त: Remember it's a Net Publications of 'jain_e_library's! ~131~