Book Title: $JES 921H Karuna me Srot Acharan me Ahimsa Reference Book
Author(s): Pramoda Chitrabhanu, Pravin K Shah
Publisher: JAINA Education Committee
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा (सचे अहिंसक बनने के लेखों का संग्रह) संकलनः प्रमोदा चित्रभानु Jain Meditation International Center P.O. Box 230244 Ansonia New York, NY 10023-0244 Tel. : (212) 362-6483 E-mail: pramodac@hotmail.com Website : www.jainmeditation.org प्रवीण के शाह Jain Study Center of North Caorlina 509, Carriage, Woods Circle Releigh, NC 27607-3969 U.S.A. Tel. : (919) 859-4994 E-mail : pkshah1@attgloble.net Website : www.jainism.org 1 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा सचे अहिंसक बनने के लेखों का संग्रह संपादकः प्रमोदाबेन चित्रभानु प्रवीण के शाह मुद्रण संस्करणः प्रकाशकः डिवाइन नोलेज सोसायटी ई-१, क्विन्स व्यू, वालकेश्वर रोड, मुम्बई- ४००००६ फोनः ३६८६८८७ प्रथमावृत्ति मूल्य - २५/- रू. मात्र प्राप्ति स्थानः 2 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा मुद्रकः अमृत प्रिन्टर्स, अहमदाबाद. फोनः २२१६९८५२ समर्पण पूर्वं वीर जिनेश्वरे भगवति प्रख्याति धर्मं स्वयं प्रज्ञावत्यभयेडपि मंत्रिणि न यां कर्तुं क्षमः श्रेणिकः अकलेशेन कुमारपालनृपतिस्तां जीवरक्षा व्यघात् यस्यास्वाद्य वचः सुधां सः परमः श्री हेमचन्द्रो गुरुः ।। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा आज से २५२८ वर्ष पूर्व श्रमण भगवान महावीर स्वामी स्वयं जीवदया / अहिंसा का उपदेश दे रहे थे, और श्रेणिक महाराजा तथा चतुर्बुद्धि के ज्ञाता मंत्री अभयकुमार उनके श्रावक भक्त थे। जिस जीवदया का वे पालन नहीं करा सके थे, वह जीवदया जिनके वचनामृत का पान करके श्री कुमारपाल महाराजा ने उसका पालन करवाया वे कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य परम गुरू जयवंत वर्तो । उन कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य जी तथा परमार्हत् श्री कुमारपाल महाराजा को यह लघु पुस्तिका समर्पण करते हैं। 4 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा परस्परोपग्रोह जीवानाम् ॥ परस्पर उपकार करना यही जीव का लक्ष्य है। (तत्त्वार्थसूत्र अध्याय -5, सूत्र-21) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृ.नं. करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा अनुक्रम अ.नं.विषय यत्किंचित् १. मेरी डेयरी मुलाकात अमरीका की डेयरी की मुलाकात भारतीय डेयरी ओरगेनिक दूध अमरीकन कत्लखाने का गणितशास्त्र आरोग्य कैल्सियम एवं प्रोटीन कॉलेस्टेरोल (संतृप्त चर्बी) संतृप्त एवं असंतृप्त चर्बी विटामिन क-१२ दूध और प्रोस्टेट कैंसर मेरी तंदुरस्ती का विवरण जैन धार्मिक दृष्टिकोण डेयरी उत्पादनों का जैन मंदिर में होता उपयोग २. डेयरी फार्म की गाय-भैंसः जीवन, उपयोग और उनकी पीडाएं भूमिका लेख अमरीकन कत्लखानों का अंकशास्त्र कत्लखाने की प्रक्रिया कत्लखानों के उपउत्पादन गाय-भैंस के शरीर के अंग और उनका उपयोग ३. कत्लखानों के कचरे का पुनः उपयोग माँस का रूपान्तरित करने वाले कारखाने अनावश्यक जहरी पदार्थों की कच्चे माल में मिलावट उत्तर केरोलीना का उदाहरण ४. दूधः आरोग्य, निर्दयता एवं प्रदूषण की दृष्टि से स्वास्थ्य की दृष्टि से गाय-भैंस के प्रति निर्दयता Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा दूध में प्रदूषण ५. भारत के पवित्र प्राणियों (गायों) के प्रति निर्दयता ६. शाकाहारः करुणासभर जीवन पथ चाँदी का वरख ८. अंडा विषयक वास्तविक्ता ९. रेशम १०. मोती ११. दूध के विषय में काल्पनिक बातें १२. प्राणिज पदार्थों के दुरुपयोग की वास्तविक्ता एवं उसके विकल्प हिंसा की वास्तविक्ता गाय-भैंस मुर्गी भेड़ मधुमक्खी रोयेंदार प्राणी सौंदर्य प्रसाधनों के हेतु प्राणियों पर किए जाने वाले प्रयोग मनोरंजन हेतु प्राणियों का उपयोग आरोग्य पर प्रभाव आर्थिक एवं पर्यावरण पर प्रभाव विकल्पः आहार के विकल्प, गृह उपयोगी वस्तुएँ दवा, विटामिन्स एवं मनोरंजक के विकल्प १३. पाठकों की दृष्टि में “मेरी डेयरी मुलाकात" लेख १४. हमारा आहार और पर्यावरण परिशिष्ट-१ शाकाहार संबंधी व्याख्यायें Appendix-2 Recommended Reading Material Appendix-3 List of Organizations of Animal Case Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा यत्किंचित मनुष्य के मन में अपने मनोभाव अन्य व्यक्तियों के समक्ष प्रस्तुत करने की तीव्र भावना होती है। उसी से प्रेरित होकर उसका मन सहज रूप से आलेखन करने को तत्पर होता है। इसी पुस्तक के आलेखन में भी इन्हीं भावनाओं का प्रतिबिंब है । हमारी एवं अन्य लेखकों की अहिंसा, दया एवं विश्व के सर्व प्राणियों के प्रति सन्मान की भावना इस पुस्तक में प्रतिबिंबित हैं। अहिंसा भारतीय धर्मो का सर्वोत्कृष्ट सिद्धांत है । भारतीय प्रजा अत्यंत दयावान एवं परंपरा से प्राणियों के प्रति गहरी सहानुभूति रखती है। अनेक भारतीय माँस, मच्छी, अंडा एवं शराब का सेवन नहीं करते । शाकाहारी होने के साथ ही वे समस्त प्राणियों के हित की कामना करते हैं। भारतीय धर्मों में प्राणियों के प्रति सदैव आदर भाव रहा है। उनके शास्त्रों में उनके प्रति अपार करुणा प्रदर्शित है। प्राणियों के चिन्ह / प्रतीक एवं कथायें व्यापक प्रमाण में हैं। सदियों से भारतीय प्रजाने उन प्राणियों का रक्षण किया है एवं उनकी देखभाल की है। उन्होंने गाँव-गाँव में पशु-पक्षियों के आश्रय स्थान (पांजरापोल-गौशाला) एवं औषधालयों का निर्माण किया है। इसके बावजूद, वर्तमान औद्योगिक विकास के आर्थिक लाभ के कारण हिंसा का एक नया पर्यावरण उत्पन्न हुआ है जो सामान्य जन की दृष्टि से परे है। प्राणियों के प्रति पनप रही निर्दयता डेयरी उद्योग एवं कत्लखानों की चार दीवारों के अंदर भयानक स्वरूप धारण किया है। पशु-पक्षियों का उनके मालिक अब दैनिक व्यापार के रूप में उपयोग कर रहे हैं। कृत्रिम गर्भाधान एवं फलिनीकरण एवं अन्य साधनों का उपयोग करके वे विपुल संख्या में पशुपक्षियों का उत्पादन करते या कराते हैं। एसे लोग पशु-पक्षियों के अस्तित्व के प्रति यत्किंचित् दया या सन्मान प्रदर्शित किए बिना पशु-पक्षियों की बाल्यावस्था से ही स्वार्थ हेतु उनका दुरूपयोग, शोषण करके उन्हें घोर यातनायें देकर उन पर क्रूरता पूर्वक जुल्म करते हैं। परिणाम स्वरूप एसे प्राणी अपनी कुदरती आयु से पूर्व ही मृत्यु की शरण चले जाते हैं या उनका कत्ल कर दिया जाता है। वैसे अधिकांश भारतीय शाकाहारी हैं फिर भी डेयरी उत्पादनों का प्रयोग अवश्य करते हैं। कई रेशमी एवं ऊनी वस्त्रों का प्रयोग करते हैं। इसके अलावा अन्य प्राणिज पदार्थों का उपयोग भोजन, केन्डी, वस्त्र, चरण पादुका, Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा घर की आवश्यक वस्तुयें, सफाई के साधन, सौंदर्य प्रसाधन, दवा एवं धार्मिक पूजा विधि में करते हैं। इस पुस्तक का ध्येय ही यह है कि समस्त प्राणियों के प्रति आचरित उच्च तकनीकी यांत्रिकी निर्दयता के प्रति पाठकों में दया के भाव (भावुक्ता) जागृत हों । इस पुस्तक के लेख पढ़ कर आपको निश्चित रूप से ज्ञात होगा कि प्राणियों के प्रति क्रूरता अमरीका, भारत एवं उसके छोटे-बड़े शहरों में एवं समग्र विश्व में समान रूप से विद्यमान हैं। हम सब डेयरी पदार्थों (दूध, दहीं, खाँ, घी, पनीर मक्खन, आइस्क्रीम आदि) ऊन तथा रेशमी वस्त्रों का उपयोग करके प्राणियों के प्रति की जाने वाली निर्दयता के सीधे समर्थक बनते हैं । भारतीय प्रजा दयालू और शिक्षित हैं । उन्हें चाहिए कि प्राणियों के प्रति मात्र भावनात्मक रूप से नहीं अपितु प्राणियों को उनके ढंग से जीने की स्वतंत्रता प्रदान कर उन्हें स्वयं की भाग्यदशा (प्राकृतिक) के अनुरूप प्रथय देकर मदद करनी चाहिए। पाठकों से हमारा विनम्र अनुरोध है उन्हें डेयरी उत्पादन ( पूजा हेतु दूध, मिठाई, दीपक के लिए घी) रेशन, ऊन, बरख का जैन मंदिरों एवं धार्मिक विधि-विधानों के कार्यक्रमों में उपयोग नहीं करना चाहिए। संपूर्ण वनस्पतिजन्य खाद्य पदार्थों का ही उपयोग करना चाहिए। विविध लेखों में प्रस्तुत जानकारी अनेक वर्षों में विविध स्रोतों द्वारा एकत्र की गई है। सविशेष हमने महत्वपूर्ण जानकारी PETA (Inrid Newkrik), ब्यूटी विधाउट क्रुएल्टी (भारत), डॉ. नील दी बर्नार्ड की पुस्तकें कैसेट होन रोबिन्स के लेख एवं साहित्य, डॉ. डीन ऑरनीस, डॉ. नरेन्द्र सेठ, संगीताकुमार एवं डॉ. क्रिष्टोफर चेपल से प्राप्त की है । अहिंसा, वातावरण के संदर्भ में जीवन पद्धति, पर्यावरण एवं करुणा के क्षेत्र में अनेक एवं अन्य महानुभावों के प्रदान हेतु हम सबके आभारी है। इय योजना में निरंतर प्रोत्साहित करनेवाले गुरुदेव श्री चित्रभानुजी के हम विशेष ऋणी है। हमें आशा है कि इस पुस्तक का भारत एवं अन्य देशों में विपुल प्रमाण में प्रचार होगा एवं विशाल जनसमूह को प्रशिक्षित एवं जागृत करने का हमारा मूल ध्येय सिद्ध होगा। यदि आपके पास सविशेष जानकारी हो या कोई सूचन हो या आपको हमारे लेखों में कहीं त्रुटियाँ दिखाई दें तो हमारा ध्यान आकर्षित करने की प्रार्थना है । इस लेखों का निरंतर परिमार्जन करते रहेंगे । इस पुस्तक के समस्त लेखों का संकल जून 2000 में अंग्रेजी में प्रकाशित 9 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा किया था। थोडे समय में ही उसका द्वितीय संस्करण अक्टूबर-2000 में प्रकाशित किया एवं लोकभावना का सन्मान करते हुए उस का गुजराती अनुवाद एवं प्रकाशन का कार्य अनेक सहयोगियों के सहयोग से पूर्ण कर प्रकाशित किया, और अब हिन्दी अनुवाद को भी प्रकाशित करने का कार्य सम्पन्न हो रहा है। इस पुस्तक की छपाई करने में अमृत प्रिन्टर्स के श्री हेमंतभाई परीख के विशेष सहयोग के लिए हम अत्यंत आभारी हैं। प्रमोदा चित्रभानु Jain Meditation International Centre, New York, U.S.A. प्रविण के. शाह Jain Study Centre of North Cerolina, Raleigh, U.S.A., Chairman, Education Committee, Federation of JAINA, U.S.A. Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा १. मेरी डेयरी मुलाकात - प्रवीण के. शाह अमरीका की डेयरी मुलाकातः मैंने १९९५ में रूट-२ उत्तर बर्लिंगटन, वरमोन्ट (यू.एस.ए.) स्थित एक डेयरी की मुलाकात ली। इस डेयरी में करीबन १५० गाय-भैंस थीं। जिनका पूरा दूध आईस्क्रीम बनाने के उपयोग में लिया जाता था। • गाय भैंस दुहने का समय शाम ५-०० बजे का था। गाय-भैंस के कष्ट कठिनाई का विचार किए बिना ही उनके आँचल से दुध दोहन की मशीन (यंत्र) प्रत्येक गाय-भैंस के थन से साढे तीन मिनिट तक लगाई जाती थी। ऐसी गाय-भैंस का दोहन करते समय उनकी पीडा-कष्ट को देखना भी अत्यंत कठिन पीडाजनक था। मशीन में किसी प्रकार की भावना या स्पर्श का अनुभव नहीं होता। अरे ! अंतिम बूँद तक दूध दोहने की लालच में कभी-कभी तो थन से दूध में रक्त भी टपकने लगता। • गाय-भैंस की दूध उत्पादन की क्षमता में वृद्धि हेतु गाय-भैंस को प्रतिदिन प्रातः काल होर्मोन्स एवं दवा के इन्जेक्शन भी दिए जाते हैं। • बछड़ो को जन्म देने के पश्चात् गाय-भैंस अधिक दूध देती हैं इससे उनकी फलद्रुपता की समयावधि में कृत्रिम गर्भाधान द्वारा उन्हें निरंतर सगर्भावस्था में रखा जाता है। • सगर्भा गाय-भैंस भी स्त्री की भाँति नौ महिना पश्चात् बछड़े को जन्म देती है। यदि बछड़ा पैदा होता है तो उसे डेयरी उद्योग में निरूपयोगी मानकर उसे 2-3 दिनों में ही माँस-उद्योग अर्थात् कत्लखाने में भेज दिया जाता है। जिस शाम मैं वहाँ था उस दिन मेरी उपस्थिति में ही तीन बछड़ो को कत्लखाने भेजने के लिए ट्रक में चढाया गया। माता, गाय-भैंस से जब उन बछड़ो को अलग किया जा रहा था उस समय वे गाय-भैंस मातायें करूण क्रंदन कर रही थीं। उस द्रश्य को मैं कभी भी भूल नहीं सकता-अभी भी उन गाय-भैंसो का क्रन्दन मेरे कानों में गूंज रहा है। • समस्त विश्व में कोमल माँस (Veal) उत्पन्न करने का उद्योग अति क्रूर है। वह स्वादिष्ट माँस भोजन में परोसा जाता है। छोटे बछड़ों को अंधेरी कोठरी में बंद रखा जाता है जहाँ वे थोडा भी हिलल नहीं सकते। उनके माँस को अधिक कोमल और स्वादिष्ट बनाने के लिए उन्हें लोहतत्वरहित Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा भोजन दिया जाता है । इससे उनका माँस अधिक कोमल एवं विशिष्ट प्रकार का बनता है । लगभग ६-७ महिनों के पश्चात माँस हेतु बछड़े की कत्ल की जाती है। इस मॉस उद्योग में प्रयुक्त ऐसी क्रूरता निर्दयता संबंधी विपुल साहित्य उपलब्ध है । बच्चे को जन्म देने के पश्चात सिर्फ दो महिने में ही गाय-भैंस को पुनः सगर्भा किया जाता है । डेयरी फार्म में इस प्रकार की जाने वाली गर्भाधान की प्रक्रिया के निरीक्षण की भी शक्ति मेरे अंदर नहीं थी । परे वर्ष में इन गाय-भैंसो को चार या पाँच बार ही फार्म के बाहर घूमने को छोड़ा जाता है । इसके अलाला उन्हें दिन-रात एक ही स्थान पर बाँध के रखते हैं । इस स्थान पर भयंकर दुर्गंध आ रही थी । इस डेयरी को दिन में एक या दो बार ही साफ किया जाता था। शेष समय गाय-भैंस उसी गंदगी में पड़ी रहती थी। • . गाय-भैंस की औसतन आयु १५ वर्ष की होती है। इस प्रकार गाय-भैंसों की दूध देने की क्षमता चार-पाँच वर्षों में ही कम हो जाती हैं, अतः उन्हें कत्लखाने भेज दिया जाता है । वहाँ उन गाय भैसों को फास्ट फूट रेस्टोरेन्ट में विविध व्यंजन हेतु कुत्ते-बिल्ली आदि के भोजन हेतु सस्ते माँस के लिए उनकी कल्ल की जाती है। उनके शेष अवयव हड्डी, चमडा, रक्त, चरवी आदि को फ्लोर वेक्स, पालतु प्राणियों के भोजन, दवा, इन्स्युलीन, जिलेटीन, पाँव की मोजडी, गद्दे तकिये, बिछौने, सोफा, सौन्दर्य प्रसाधन, मोमबत्ती एवं साबुन आदि के उपयोग हेतु भेजा जाता है । गाय-भैंस अपने जीवन में कुल चार बछडे - बछडी को जन्म देती हैं । अंकशास्त्र की दृष्टि से एक गाय-भैंस के बदले में एक ही गाय-भैंस की आवश्यक्ता होती है अर्थात् तीन बजे चाहे नर हो या माँदा उन्हें माँस उद्योग हेतु कत्लखाने भेज दिया जाता है । वहाँ सिर्फ छ-सात महिनों में ही स्वादिष्ट व्यंजन रसोई हेतु उन्हें कत्ल कर दिया जाता है। जो क्रूरता-निर्दयता मैंने डेयरी उद्योग में सुनी और देखी उस पर प्रथमबार तो विश्वास करना ही कठिन है । अपनी वैयक्तिक मान्यताओं के संदर्भ में मुझे भय सा लगा कि डेयरी उत्पादन का सर्वथा त्याग मेरे लिए असम्भव है । मुझे पूर्ण रूपसे शाकाहारी (Vegan) बनना असंभव ही लगा । मनमें प्रश्न हुआ कि अपने भोजन में से दूध, दहीं, छाँछ, मक्खन थी एवं चीझ को कैसे दूर करूँ ? संपूर्ण शाकाहारी (Vegan) बनने के लिए मुझे दूधयुक्त चाय, भारतीय मिठाईयाँ, पीत्झा, दूध की चॉकलेट, आइस्क्रिम, अंडारहित 12 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा डेयरी में बनी हुई केक, बिस्कीट एवं अन्य अनेक वस्तुओं का त्याग करना पडेगा। इस समय मुझे अपनी पुत्री शिल्पा जो कुछ दिन पूर्व ही पूर्ण शाकाहारी (Vege.) बनी थी उसके शब्दों का स्मरण होने लगाः “पापा ! गाय-भैंस का दूध उसके बछड़ों के लिए ही होता है- वह मनुष्यों के लिए नहीं है। अन्य कोई भी प्राणि अन्य प्राणियों के दूध का उपयोग नहीं करता। अन्य प्राणियों को कष्ट देकर या उनका शोषण करके उनके दूध का उपयोग करने का हमें कोई अधिकार नहीं है। तदुपरांत दूध और उससे बने पदार्थ हमारे जीवन की तंदुरूस्ती के लिए आवश्यक नहीं है।" अब यह कहना आवश्यक नहीं कि डेयरी फार्म की मुलाकात ने मुझे तात्कालिक संपूर्ण शाकाहारी बना दिया। भारतीय डेयरी: नवम्बर १९९५ में भारत में मुम्बई के पास एक डेयरी फार्म की मैंने मुलाकात ली । वहाँ एव वास्तविक्ता यह देखी कि औसतन सभी बातें अमरीकन डेयरी से भी अधिक खराब थीं। क्योंकि यहाँ नियंत्रण कानून बहुत ही कममात्रा में है। मैंने १९९७ तथा १९९८ में भारत की मुलाकात के दौरान भारतीय डेयरी प्रक्रिया की अधिक जानकारी प्राप्त की। भारत में अधिकांश डेयरियों के पास अपनी गाय-भैंस नहीं है। स्थानिक गोपालक, जिनके पास निजी गाय-भैंस हैं वे ही डेयरी को दूध की आपूर्ति करते हैं। स्थानिक गोपालकों के पास १० से ५० तक गाय-भैंस होती हैं। यद्यपि वे गाय-भैंस को दुहने में भी मशीन का उपयोग नहीं करते । परंतु ये स्थानिक गोपालक डेयरी को निरंतर दूध की आपूर्ति करते रहें- अतः गायभैंस को निरंतर सगर्भा रखते है। इससे गाय-भैंस प्रति वर्ष संतति को जन्म देती है। ये स्थानिक गोपालक भी प्रति वर्ष जन्म लेने वाले बछड़ो या पाड़ो का पालन नहीं करते है। वे ७० से ८० प्रतिशत इन शिशु पशुओं को माँस उद्योग वाले (कसाइयों) को बेच देते हैं। जहाँ तीन या चार वर्ष में ही उनको कत्ल कर दिया जाता है । गैरकानूनी चलने वाले कत्लखानों में तो छह महिनों में ही उनकी कत्ल कर दी जाती है। चार-पाँच प्रसूति के पश्चात गायभैंसो के स्थान पर नई गाय-भैंस ले आते हैं और इनको कसाईखाने में बेच देते है जहाँ सस्ते माँस हेतु उनका कत्ल कर दिया जाता है। मात्र पांच प्रतिशत गाय-भैंस ही पांजरापोल (पशुरक्षण केन्द्र) में भेजी जाती हैं। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा दूध उत्पादन की प्रक्रिया में निम्नलिखित प्रक्रिया सर्वाधिक निर्दय है जो भारत, अमरीका एवं समग्र विश्व में समान ही है। • अधिक दूध के उत्पादन की लालच में उन्हें निरंतर सगर्भावस्था में रखा जाता है ऐसी ही सगर्भावस्था में उनका दोहन किया जाता है। • पाँच-छ महिनों में ही कोमल माँस उद्योग में अथवा पाँच वर्ष में ही माँस उद्योग में ७० से ८० प्रतिशत बछड़े या पाड़ो का कत्ल कर दिया जाता है। • दूधारु गाय-भैंस को सिर्फ चार प्रसूति के पश्चात् ही अर्थात् पाँच वर्षों के पश्चात् ही कत्लखाने भेज दिया जाता है, जबकि इन पशुओं की औसतन आयु १५ वर्ष की होती है। ओरगेनिक दूधः सामान्यतः ओरगेनिक दूध की गौशालायें बडी फेक्टरी स्वरूप डेयरी फार्म से छोटी होती हैं। ऐसे दूध उत्पादक दूध उत्पादन में एन्टीबायोटिक्स दवायें, पेस्टीसाइड्स एवं होर्मोन्स का उपयोग नहीं करते । वे गाय-भैंस के दूध में अन्य पदार्थ भी नहीं मिलाते । यद्यपि गोपालकों या किसानो द्वारा दूध में तदनुरूप पदार्थों को मिलाने से रोकने, प्राणियों का शोषन या दुरुपयोग रोकने के लिए कोई कानूनी व्यवस्था नहीं है। बहुत ही कम ऐसी गौशालायें हैं जहाँ गाय-भैंस को उसकी दूध देने की क्षमता के लिए पाँच-छ वर्षों तक योग्य रीति से रखने की व्यवस्था है। दूध की मात्रा निरंतर एक सी बनी रहे इस हेतु ओरगेनिक गौशालाओ में• कृत्रिम गर्भाधान या अन्य साधनों की सहायता से गाय-भैंस को निरंतर सगर्भावस्था में रखा जाता है। • छोटे-छोटे शिशु बछड़ो को कोमल माँस (Veal) उद्योग में बेच दिया जाता है जहां छह महिनों में ही उनका कत्ल कर दिया जाता है। • पाँच वर्ष के पश्चात् ही पुख्तवय की गाय-भैंस को कत्लखाने में बेच दिया जाता है। • इस परिप्रेक्ष्य में विचार करें तो ओरगेनिक दूध ही गौशालायें भी निर्दयता से मुक्त नहीं है। अमरीकन कत्लखाने का गणितशास्त्रः १२ मई १९९६ के न्यूयोर्क टाइम्स के अनुसार अमरिका के कत्लखानों में निम्न अनुसार प्राणियों की कत्ल होती है। प्राणी-पक्षी प्रतिदिन कत्ल कि जाने वाले प्राणियों की संख्या गाय-भैंस वगैरह १,३०,००० 14 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा बछड़े ७,००० सूअर मुरगी २,४०,००,००० यदि आपके पास भारत के कत्लखानों के संबंध में जानकारी हो तो अवश्य ज्ञात करायें। आरोग्यः सम्पूर्ण शाकाहारी (Vegan) होने के बाद आरोग्य संबंधी बाबत का पूर्ण अभ्यास किया और उसकी जानकारी नीचे प्रस्तुत है। कैल्सियम और प्रोटीनः अधिकांश अमेरीकन प्रतिदिन अपनी आवश्यक्ता से दो-तीन गुना अधिक प्रोटीन प्राणिज द्रव्य अर्थात्- दूध, चीझ और माँस में से प्राप्त करते हैं। बहुत से वैज्ञानिक संशोधनों से पता चला है कि जो लोग प्राणिज द्रव्यों से प्रोटीनयुक्त भोजन करते है उनके पेशाब में कैल्सियम की मात्रा अधिक होती है लेकिन जो शाकाहारी है उनके पेशाब में कैल्सियम नहीं होता। वनस्पति जन्य प्रोटीन की तुलना में दुध, चीझ, माँस आदि में जो प्राणिज प्रोटीन होता है वह अधिक तेजाबीय अम्लतायुक्त (Acidic) होता है । इस अम्लता को शरीर अपनी हड्डियों में कैल्सियम द्वारा न्यूट्रल (Neutral) तटस्थ करता है। परिणाम स्वरूप जो लोग डेयरी उत्पादन तथा माँस का उपयोग करते हैं उनकी हड्डियों में कैल्सियम कम होता है और उन्हें ओस्टीयो पोरोसिस (Osteoporosis) नामक रोग होता है और रक्त के कैल्सियम को दूर करने के लिए किडनी को अधिक काम करना पडता है। इस कारण ऐसे लोगों की किडनी को बंद हो जाने की संभावनायें अधिक रहती हैं और मूत्राशय में पथरी जैसे रोग हो जाते हैं। शाकाहारियों को अपने भोजन द्वारा आवश्यक प्रोटीन मिलता है (अधिक नहीं मिल सकता) साथ ही यह वनस्पतिजन्य प्रोटीन प्राणिजन्य प्रोटीन की तुलना में कम तेजाबीय होता है जिससे वह हड्डियों के कैल्सियम का अधिक उपयोग नहीं करता । हरी और ताजी शाकसब्जी एवं अन्य शाकाहारी पदार्थ से प्राप्त कैल्सियम उत्कृष्ट प्रकार का होने से हड्डियों को अधिक मजबूत बनाता है। एसे लोगों की पेशाब में कैल्सियम नहीं होता। अनेक विज्ञानिकों के संशोधनों ने यह प्रस्तुत किया है कि मजबूत हड्डियों के लिए दूध आवश्यक नहीं है। एक तथ्य प्रत्येक व्यक्ति को याद रखना चाहिए कि व्यक्ति चाहें दूध 15 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा का उपयोग करें या न करें फिर भी बूढापे में उसकी हड्डियां पतली और कमजोर हो ही जाती हैं। वे वृद्ध लोग जो प्राणिज्य (डेयरी की) उत्पादन एवं माँस का उपयोग करते हैं उनमें यह रोग अधिक प्रमाण में होता है इसका कारण जैसा कि ऊपर बताया गया है तदानुसार अधिक प्राणिज्य प्रोटीन के कारण हड्डियों में घटते हुए कैल्सियम के कारण हैं । स्त्रीयों में मेनोपोज की पूर्वावस्था में ओस्टीयो पोरोसीस नामक रोग होने की संभावना अधिक होती है। वृद्धावस्था में दूध घी हड्डियों के रक्षण करने में समर्थ नहीं होता। संक्षिप्त में शाकाहारी हरी सब्जियों एवं अन्य शाकाहारी पदार्थों में से आवश्यक प्रमाण में कैल्सियम और प्रोटीन प्राप्त करते हैं। जिससे प्राकृतिक रूप से उनका वजन बना रहता है। ऐसे लोगों को प्रोटीन और कैल्सियम के कारण उत्पन्न ओस्टीयो पोरोसीसस नामक रोग तथा किडनी का काम बंद करने संबंधी रोगों की सम्भावना अत्यंत कम मात्रा में होती है। कॉलेस्टेरोल (संतृप्त चर्बी) प्राणी और मनुष्य के यकृत (Liver) ही कॉलेस्टेरोल उत्पन्न कर सकते हैं अर्थात् कॉलेस्टेरोल मात्र प्राणिज्य पदार्थ जैसे कि माँस, दूध, पनीर और अन्य डेयरी उत्पादनों में ही प्राप्त होते हैं । शुद्ध शाकाहारी फल, शाकभाजी, अनाज और दलहन में कॉलेस्टेरोल बिलकुल नहीं होते। कॉलेस्टेरोल मोम जैसा पदार्थ है जो हमारे शरीर में होर्मोन्स एवं अन्य तत्व तैयार करता है सामान्यतः अपना यकृत (Liver) ही आवश्यक्तानुसार स्वयं कॉलेस्टेरोल उत्पन्न कर लेता है लेकिन मनुष्य जब डेयरी के उत्पादन और माँसाहार का उपयोग करता है तब उसमें कॉलेस्टेरोल भी शरीर में आते हैं इससे शरीर में अधिक रूप में कॉलेस्टेरोल प्रवेश करते हैं जो नुकसानकारक हैं क्यों कि वे हमारी रक्तवाहिनी (धमनी और शिरा) में इकट्टे होते हैं, अंत में धमनी में गांठी के रूप में फैल जाते हैं परिणामतः हृदयरोग का आक्रमण होता है। जो सम्पूर्ण शुद्ध शाकाहारी (Vegan) हैं उनका यकृत (Liver) आवश्यक्ता से अधिक कॉलेस्टेरोल उत्पन्न नहीं करता है। इससे उनमें कॉलेस्टेरोल का प्रमाण ऊँचा नहीं रहता। संतृप्त और असंतृप्त चर्बीः संतृप्त चर्बी शरीर की सामान्य आवश्यक्ता से अधिक कॉलेस्टेरोल उत्पन्न करने के लिए हमारे यकृत (Liver) को प्रेरित करती है। इससे हमारा यकृत आवश्यक्ता से अधिक कॉलेस्टेरोल उत्पन्न करता है और वह हमारी Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा रक्तवाहिनियों में इकट्ठा होता है। यह संतृप्त चर्बी समस्त प्राणिज चर्बी, घी और कुछ वनस्पतियों, तेल उदारणार्थ नारियल का तेल पामोलिन आदि में होती है। कुछ शाकाहारियों में भी कॉलेस्टेरोल का प्रमाण अधिक होता है क्योंकि वे अपने भोजन में संतृप्त चर्बीयुक्त पदार्थों का उपयोग अधिक करते हैं यदि कॉलेस्टेरोल का प्रमाण कम करना हो तो संतृप्त चर्बीयुक्त आहार पूर्ण रूप से बंद करना चाहिए। अन्य वनस्पति तेलों में अधिकांशतः असंतृप्त चर्बी होती है। वास्तव में संतप्त और असंतृप्त दोनों प्रकार की चर्बी कैलोरी संग्रह करने के माध्यम हैं। अतः सभी को अपने भोजन में असंतृप्त चर्बी वाले भोजन का भी सर्वाधिक कम उपयोग करना चाहिए। बिना तला हुआ और किसी भी प्रकार का, तेल रहित शुद्ध शाकाहार ही स्वस्थ आहार है। ऐसा आहार करने वाले को कॉलेस्टेरोल का कोई कष्ट नहीं होता। विटामिन B12 उत्तम रक्त और चेतातंत्र (ज्ञानतंतु) के लिए विटामिन B12 आवश्यक हैं वैसे प्रत्येक व्यक्ति को पूरे दिन में मात्र दो माइक्रोग्राम विटामिन B12 की आवश्यक्ता होती है। विटामिन B12 कोई वनस्पति या अन्य कोई प्राणी नहीं बनाते हैं लेकिन हमारे पाचनतंत्र में विद्यमान बेक्टेरिया (जीवाणु) ही उसे उत्पन्न करते हैं। मनुष्य के पाचनतंत्र में स्थित बैक्टेरिया विटामिन B12 उत्पन्न करते हैं। लेकिन किन्हीं कारणों से मनुष्य उसका उपयोग नहीं कर पाता है। गाय-भैंस के पाचन तंत्र में उसके बैक्टेरीया विटामिन B12 बनाते हैं और उसका अपने शरीर में पोषण करते हैं। इस कारण से डेयरी पदार्थों में विटामिन B12 होते हैं। यदि तुम संपूर्ण शाकाहारी (Vegan) अर्थात् दूध, दही, घी सहित किसी भी प्राणिज पदार्थ का उपयोग नहीं करते हो तो तुम्हें विटामिन B12 योग्य प्रमाण में प्राप्त नहीं होत सकता है। यदि तुम विटामिन B12 के लिए प्राणिज्य पदार्थ दूध, दही, घी के उपयोग का निश्चय करो तो इस भोजन के साथ विपुर प्रमाण में कॉलेस्टेरोल और चर्बी भी तुम्हारे शरीर में बढेगी साथ ही शाकाहारी खुराक कम लोगे तो कार्बोदित पदार्थ और फाईबर भी कम प्राप्त होंगे इस कारण डेयरी उत्पादन और प्राणिज्य पदार्थों के अलावा अन्य पदार्थों में से शाकाहारी मनुष्यों को विटामिन B12 प्राप्त करना चाहिए। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा (उदा. हलदन, अन्य औषधिय स्रोत एवं उनके शाकाहारी विटामिन की गोलियां जिनमें विटामिन B12 हों) दूध और प्रोस्टेट कैंसरः ई. सन् १९९९ में विश्व कैंसर संशोदन फण्ड एवं कैंसर संशोधन संस्थान अमरीका की संस्था ने यह सार प्रस्तुत किया है कि प्रोस्टेट कैंसर में एक कारण संभवतः डेयरी उत्पादन खाद्य सामग्री है और अप्रैल-२००० के एक अन्य संशोधन में डेयरी उत्पादन और प्रोस्टेट कैंसर के बीच संबंध होना दर्शाया है। हारवर्ड के डॉक्टरों ने ११ वर्ष में २०८८५ मनुष्यों का आरोग्य संबंधी अभ्यास किया और उसमें उन्हें पता चला कि प्रतिदिन ढाई कप जितना दूध के पदार्थों का सेवन करने वाले लोगों में रोज का आधा कप जितना पदार्थों का सेवन करने वालों की तुलना में प्रोस्टेट कैंसर का भय ३४% अधिक होता हैं। दूध, चीझ, आइस्क्रीम आदि डेयरी उत्पादन, अंडा, माँस और अन्य प्राणिज्य पदार्थों अन्य प्रकारके कैंसर के साथ संबंध है। डेयरी उत्पादनो में प्रचुर मात्रा में चर्बी होती हैं जो हमारे शरीर में कैंसर उत्पन्न करने वाले एवं कैंसर की वृद्धि करने वाले होर्मोन्स के लिए प्रवेश द्वार के समान है। तदुपरान्त डेयरी उत्पादनों में कैंसर प्रति रोधक द्रव्य अति अल्प प्रमाण में होते हैं और फाइबर तो बिलकुल ही नहीं होते । रेशा (फाइबर) सिर्फ वनस्पतिजन्य भोजन में ही होते हैं जो सामान्य रूप से हमारे पाचनतंत्र में से कारोसिनोजन्स (Carcinogens) को दूर करते हैं। धान्य (Whole Grains), वाल और अन्य दलहन, शाकभाजी और फलों में कैंसर से लड़ने की शक्ति होती है। वनस्पतिजन्य आहार में चर्बी कम होती है और रेसा अधिक होते हैं। जो कैंसर प्रतिरोधक तत्वों से भरपूर होते हैं। माँस, डेयरी उत्पादित पदार्थों, अंडा और तले पदार्थ रहित आहार को तंदुरस्ति के लिए श्रेष्ठ हैं। नीचे दर्शायें हुए पदार्थ कैढसर रोकने में उपयोगी हैं शाकभाजीः शक्करिया, गाजर, फूलगोभी, पालक की भाजी, हरा धनिया। फलः स्ट्रोबेरी, तरबूज, खरबूजा, केला, सेब फल । धान्यः गेंहू की रोटी, चावल, ओट का आटा आदि। दलहनः वाल, मटर, मसूर की दाल । मेरी तंदुरस्ती का विवरणः Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा जब मैं पूर्ण शाकाहारी बना तब मेरी उम्र ५५ वर्ष की थी। उस समय मुझे ऐसा वहम था कि यदि में दूध, घी आदि का त्याग कर दूंगा तो मेरी तंदुरस्ती खतरे में पड जायेगी (कम हो जायेगी)। मैं संपूर्ण शाकाहारी (Vegan) बना उससे पूर्व का एवं उसके पश्चात् का विवरण निम्नानुसार है संपूर्ण शाकाहारी (Vegan) संपूर्ण शाकाहारी (Vegan) होने से पूर्व १९९५ होने के बाद १९९७ कॉलेस्टेरोल एच.डी.एल. (HDL) ३४ ट्रायिग्लस राइड १७५ शाकाहारी बनने के पश्चात् मेरे शरीर को विशेष शक्ति प्राप्त हुई है। शरीर में कैल्सियम की कमी महसूस नहीं होती । मेरी हड्डियों में मजबूती यथायोग्य हैं। यद्यपि सभी को शाकाहारी बनने के बाद अपने शरीर की रासायणिक जांय निरंतर करवानी चाहिए । मेरे डॉक्टर मेरे (स्वास्थ्य) परिणामों से अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने मुझे अन्य किसी विटामिन्य या कैल्शियम लेने की भी सलाह नहीं दी। १९९८ में भी मेरा आरोग्य विवरण (Report) उतना ही उत्तम था। जैन धार्मिक द्रष्टिकोणः अहिंसा जैनधर्म का उच्चतम आदर्श है। यद्यपि जीवन निर्वाह हेतु गृहस्थ श्रावक-श्राविकाओं को किन्हीं अंशों में मर्यादित हिंसा की छट भी है। जैनधर्म ग्रंथों में स्पष्ट रूप से कथन है• स्वयं के जीवन निर्वाह हेतु, साधु/साध्वियों के जीवन निर्वाह हेत, शास्त्र, धर्मग्रंथ एवं ग्रंथालय, जिनालय, उपाश्रय आदि के संरक्षण हेतु अत्यंत आवश्यक परंतु मर्यादित प्रामाण में मिट्टी, रेती, चूना, पत्थर, पानी, अग्नि (दीपक) आदि वायु और वनस्पति कायिक एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा करने की गृहस्थ श्रावक/श्राविकाओं को प्रायश्चित के साथ अनुमति दी गई है। • द्वि इन्द्रियों से पंचेन्द्रिय तक के किसी भी त्रस जीव उदा. पशु-पक्षी, जीवजन्तु एवं मनुष्यादि की किसी भी परिस्थिति में उन्हें किसी भी प्रकार का त्रास देना या उनही हिंसा करने की छूट श्रावक-श्राविकाओं को नहीं दी गई • साधुओं का पूर्ण रूपसे अहिंसक होना आवश्यक है । साधु पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु या वनस्पति सहित किसी भी स्थावन या त्रस जीवन की हिंसा नहीं करते हैं। 19 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा गाय-भैंस आदि दूध देनेवाले प्राणी पंचेन्द्रिय हैं। वे संज्ञी होने से मस्तिष्क वाले होते हैं । जैन धर्मग्रंथों में ऐसे प्राणियों के प्रति निर्दयी व उनकी हिंसा करना सबसे बडा पाप माना गया है। वर्तमान आधुनिक उच्च यांत्रिकी पर्यावरण के माहौल में मॉस प्राप्ति हेतु आचरित निर्दयता एवं दूध प्राप्ति हेतु आचरित निर्दयता में कोई फर्क नहीं आता । माँस प्राप्ति में गाय-भैंस को तुरंत कत्ल किया जाता है जबकि दूध प्राप्ति हेतु उन्हें मारा तो नहीं जाता परंतु उनके प्रारंभिक जीवन में कष्ट दिवा जाता है। उसकी एक बछड़ी के अलावा सभी बछड़ों को छ महिने तक पीडाजन्य परिस्थिति में रखकर अंत में मार डाला जाता है एवं दुधारु गायभैंस को भी आखिर ५-६ वर्ष के बाद यदि दूध देना कम हो जाये या बंध हो जाये तो मार डाला जाता है, जबकि उनकी कुदरती आयु १५ वर्ष होती है। डेयरी उद्योग हेतु पाली जाने वाली गाय-भैंस या उनके बछड़े इस निर्दयता एवं मृत्यु से कभी भी बच नहीं सकते। संक्षेप में, दूध प्राप्ति हेतु आचरित निर्दयता, माँस प्राप्ति हेतु आचरित निर्दयता अत्यंत बुरी होती है। हम डेयरी उत्पादनों का उपयोग करके जानेअनजाने ऐसी निर्दयता को प्रेरणा देकर प्रोत्साहित करते हैं। डेयरी उत्पादनों का जैन मंदिर में होता उपयोगः श्वेतांबर, दिगंबर दोनों सम्प्रदायों में मंदिरों में होनेवाले धार्मिक विधि-विधानों (क्रियाओं) में दूध एवं उसकी बनावट का उपयोग किया जाता है। प्राचीनकाल में (जब वर्तमानकालीन उच्च यांत्रिकीय जिनमें गाय-भैंस को अत्यंक पीडा देकर अंत में मारा डाला जाता है ऐसे डेयरी उद्योगों से पूर्व ) भारत में गाय-भैंस का कुटुंब के सदस्य की भाँति ध्यान रखा जाता था । गायभैंस का शिशु बछड़ा जब स्तनपान कर लेता था तभी गाय-भैंस का दोहन किया जाता था। उस दूध का ही मनुष्य उपयोग करता था। इसी कारण से दूध और दूध से बने पदार्थों को जैन या अन्य धर्मग्रंथों में हिंसक नहीं माना गया है । हमें नये यांत्रिक पर्यावरण के परिप्रेक्ष्य में जैन मंदिरों में होनेवाले विधि विधानों में उपयोग में लिए जाने वाले दूध और उसकी बनावट (उदा. पूजा के लिए दूध, आरती के लिए थी, नैवेद्य के लिए मिठाई आदि) के विषय में पुनः विचार करना चाहिए। किन्हीं भी परिस्थितियों में हमें जैनधर्म के उच्चतम सिद्धांत अहिंसा में किसी भी प्रकार की रियायत नहीं देनी चाहिए, किसी भी प्रकार का समाधान नहीं करना चाहिए। 20 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा जहाँ तक श्वेतांबर परंपरा का प्रश्न है, मैं निश्चित रूप से कह सकता है कि किसी भी धर्मग्रंथ (आगम) में मंदिर या पूजा में दूध के उपयोग का विधान नहीं है। दिगंबर परंपरा के संदर्भ में श्री अतुल खारा (जैन केन्द्र, डलास, टेक्सास के भू.पू. प्रमुख) ने बताया कि अधिकांश दिगंबर पूजाविधि में दूध का उपयोग नहीं करते हैं । किसी भी धर्मग्रंथ में दूध या तजन्य बनावटों का पूजा में उपयोग या निर्देश प्राप्त नहीं है। (दिगंबर सम्प्रदाय में २० पंथ में पर्व के दिनों में पंचामृताभिषेक होता है उसमें दूध, दहीं, घी का उपयोग होता है। दूध का उपयोग प्रतिदिन होता है) हिन्दू मंदिरों की पूजा विधि का सीधा प्रभाव होने से दक्षिण भारत में दिगंबर मंदिरों में दूध का उपयोग होता है । यदि हम निजी व्यवहार में डेयरी उत्पादनों का उपयोग करते हैं तो इस कार्य हेतु और उसके परिणाम स्वरूप पापकर्म के लिए हम स्वयं व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार हैं परंतु यदि हम अपने मंदिरों में दूध आदि का उपयोग करें तो यही माना जायेगा के संपूर्ण जैन समाज सबसे बडा पाप कर रहा है। जैन पूजाविधि में दूध एवं उसकी बनावट विशेष निश्चित धार्मिक प्रतीकों का प्रतिनिधित्व करता है। पूजाविधि में हम जिन उत्पादनों (दूध की बनावट) का उपयोग करते हैं उसका स्रोत हिंसामुक्त/निर्दयता रहित होना चाहिए। हमारी धार्मिक पूजाविधि का मुख्य ध्येय आध्यात्मिक उन्नति करना है । इन विधि विधानों के परिणाम स्वरूप हमारा अहंकार, लोभ, क्रोध, विषय वासना एवं परिग्रह में कमी आनी चाहिए। हमें अपनी पूजाविधि में दूध के स्थान पर शुद्ध जल या सोयाबीन का दूध, घी के स्थान पर वनस्पति जन्य तेल, मिठाई के स्थान पर विविध प्रकार के सूखे मेवे का उपयोग करना चाहिए। पूजाविधि में इस प्रकार के परिवर्तन की युवा पीढी अवश्य आदर करेगी । विशेषः यह लेख सर्वप्रथम अगस्त १९९७ में इन्टरनेट पर प्रकाशित हुआ था। तबसे समग्र विश्व के वाचकों ने हमारे विचारों को अत्यंत पुष्टि प्रदान की है । इसमें से कुछ महानुभावों के प्रतिभाव अभिप्राय पुस्तक के अंत में दिए हैं। इन्हें अवश्य पढ़ें ऐसी भावना है। 21 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा २. डेयरी फार्म की गाय-भैंसः जीवन, उपयोग एवं पीडा (यही गाय-भैंस मात्र दूध और माँस के लिए नहीं है, लोशन के लिए भी है) Newyrk Times Article By J. Peder Zane May 12-1996 भूमिकाः सामान्य लोगों के लिए वह गाय-भैंस है परंतु जिस प्रकार उनका इस लेख में उल्लेख किया गया है उस रीति से तो वे माँस उद्योग हेतु सिर्फ बछड़ेबड़ी ही हैं। (सिर्फ मादा गाय-भैंस कि जो बच्चों को जन्म देती है उन्हें ही गाय-भैंस कहते हैं।) कत्लखानों मे कत्ल होने वाले पशुओं का औसतन वजन ११५० रतल होता है । उसमें से उसका (पशुका) शिर, खुर, आँतें एवं चमडा दूर करने के पश्चात् उसका वजन ७१४ रतल होता है। इस बचे हुए मृतक शरीर में ५६८ रतल मॉस एवं ४९ रतल विविध अंग एवं ग्रंथियों का होता है। इसमें से यकृत (Liver) जैसे अंगों का भोजन में सीधा ही उपयोग किया जाता है । शेष चरबी और हड्डियाँ होती है जिसका उपयोग मोम, कोस्मेटिक (सौन्दर्य प्रसाधन) केन्डी से लेकर पालतू प्राणियों के भोजन के रूप में होता है । कृषि विभाग की जानकारी के अनुसार एक सप्ताह में पशुपालकों ने प्रति पशु ६३२ डॉलर एवं अन्य अंगों के १०१ डॉलर कुल मिलाकर ७४५ डॉलर प्राप्त किए थे । - कुछ अत्यंत किमती अंगों की सूची उनका उपयोग एवं उनके मूल्य की सूची इस लेख के अंत में प्रस्तुत हैं । लेखः विषय प्रवेशः विज्ञानिओं का मानना है कि रोगिष्ट भेड़ के मस्तिष्क के माँस को ब्रिटेन की गाय-भैंसो को खिलाने से उसके (भेडके) रोग के कारण ब्रिटेन की गाय-भैंस पागर हो गई थीं और उन गाय-भैंसों का माँस-दूध का प्रयोग करने वाले अंग्रेजों की मौत हो गई थी। अमरीकन किसान एवं पशुपालक आम जनता को यह विश्वास दिलाते हैं कि रोगिष्ट भेट्टों का मॉस वे अपनी गायों को नहीं खिलाते हैं। प्रश्न यह होता है कि फिर अमरीका की गायें, पशु, सुअर एवं मुर्गियों को क्या खिलाकर हृष्ट-पुष्ट बनाया जाता है ? इसका आश्चर्य तो अमरीकन प्रजा को 22 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा भी है। सामान्यतः अमरीका की गायों की दैनिक खुराक में अनाज, सोयाबीन एवं अन्य धान्यों के अलावा सूखा रक्त, पिसे हुए पंख, हड्डियों का चूरा, तली हुई चर्बी एवं माँसयुक्त पदार्थ होते हैं। अमेरीका की गायें, सुअर एवं मुर्गियों वास्तव में तो स्वजाति भक्षण अर्थात् वे स्वयं अपनी ही जाति का माँस भक्षण कर रहे हैं। टोपेकामा केन्सास डिपार्टमेन्ट ऑफ एग्रीकल्चर के वैकल्पिक उपयोग के कार्यक्रम के को-ओर्डीनेटर डॉ. रेमन्ड एल. बर्न्स का कथन हैः “मुर्गियों का क्रंदन, चीखें, करूण गुहार के अलावा प्रत्येक वस्तुओं का हम उपभोग कर रहे हैं।" "हम वही हैं जिसका हम भक्षण कर रहे हैं।” इस कथन का नवीन अर्थ यह उद्योग (माँस उद्योग) प्रदान कर रहा है। कत्लखाने में तैयार माँस का, मनुष्य के लिए उपयोग करने के पश्चात् शेष वस्तुएँ (कत्लखाने का कचरा या जूठन) रक्त, चरबी, सींग, पाँव की खुरी, नाखून, खोपडी, आंते एवं होजरी में अपचित वस्तुओं का क्या उपयोग है ? उत्तरः- इनके उपयोग की तो हम कल्पना भी नहीं कर सकते ऐसा इनका उपयोग होता है। चित्रशलाखा (पींछी), फ्लोरमोम, जन न जाये ऐसी दिया सलाई, सेलोफेन, लिनोलियम, सिमेन्ट, फोटो हेतु उपयोग में लिया जाने वाला कागज, पौंधो को नष्ट करने की दवा, जीवनरक्षक औषधि, सौंदर्य प्रसाधन, साबुन, केन्डी, वस्त्र, गद्दी-तकिये, जूते एवं खेल-कूद के साधनों का जिसमें समावेश होता है साथ ही घबराहट उत्पन्न करें ऐसी अनेक वस्तुएँ इस कत्लखाने के कचरे में से बनती हैं। ब्रिटेन में नवम्बर में जब पागर गायों का रोग फैल गया था तब भयानक भय पैदा हो गया था । वास्तव में कयामत के दिन की कल्पना ही अत्यंत भयानक है। अमरीकन मीट इन्स्टीट्युट हेतु संयोजित उत्पादकों के व्यापारी मंडल के उपप्रमुख डॉ. जेरी ब्रीटर हँसते-हँसते कहते हैं कि गायों और सूअरों को जीवन व्यवहार में से पृथक कर दो तो जीवन ही बदल जाये। यद्यपि अमरीका में पागल गायों का रोग नहीं हुआ है पहरन्तु अन्य विषय चिंताजनक है । जेक-इन धी बोक्ष नामक रेस्टोरन्ट में कच्चे-पक्के तले हुए हेम्बर्गर्स (सेन्डवीच की तरह तला हुआ पदार्थ) खाने से १९९३ में तीन बच्चे मर गए थे। वे इ-कोली बेक्टेरिया एवं सालमोलियानो, छूत, जो प्रति वर्ष हजारों अमरीकनों को लगती है, ये दो स्थाई समस्यायें हैं - जिस खतरे को माँस उद्योग के मालिक दबा रहे हैं। उसके प्रभाव को नष्ट करने के लिए Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा उन्होंने उपाय किये हैं। विशाल माँस के कारखानों में अब बेक्टिरिया को नष्ट करने के लिए पशुओं के मुर्दे पर पानी की बाष्प का छिडकाव किया जाता है। वे लोग नियमित रूप से बेक्टेरिया का पता लगाने के लिए माँस का निरीक्षण करते हैं। जिसके लिए चेकपोस्ट स्थापित किये हैं। साथ ही माँस भक्षी लोग माँस को बराबर पकाकर खाते हैं और स्वयं का रक्षण करते हैं। अलबत्त जो लोग माँस के उत्पादन को कत्ल या हिंसा नहीं मानते ऐसे लोगों की भी कुछ समस्यायें हैं। सर्वाधिक शोषित करने की वस्तु प्राणी ही है ऐसा यह उद्योगपतियों का निर्दय विचार अनेक लोगों में अशांति उत्पन्न करने वाला है। यह याद रखें कि फ्लोर वेक्ष या लिपस्टिक के निर्माण हेतु प्राणियों का वध नहीं किया जाता। ८० से ९० प्रतिशत गाय सा सुअर का माँस तो लोग ही खा जाते हैं। पिछले एक दशक में पशुओं के मूल्य इतने नीचे स्तर पर पहुँच गये हैं कि गत सप्ताह प्रमुख क्लिन्टन को माँस की मूल्यवृद्धि के प्रयत्न भी करने पड़े। माँस उत्पादकों को अधिकाधिक नफा कैसे प्राप्त हो उसके लिए प्रयत्नशील थे। ब्रीटर का कथन है- “गौण उत्पादन का विक्रय ही उद्योगकारों के लिए नफा और नुकशान के बीच का अंतर है अंतर है एवं ग्राहक को माँस खाना चाहे अनुकूल या प्रतिकूल कुछ भी हो।” डॉ. बर्न्स आगे कहते हैं- “यदि हम गौण उत्पादन के बाजार का विकास नहीं करेंगे तो हमें उसका निपटारा (निकास) करना ही पडेगा जिससे अन्य समस्यायें उत्पन्न होगी।" यदि मनुष्य अपने प्रिय रेस्टोरां के रसोईघर में एकबार झाँक कर देखें तो अधिकांश लोग घर ही रसोई बनाना पसंद करेंगे और यदि माँस पेकिंग करने के स्थान को देखें तो उन्हें शाकाहारी बनने की प्रेरणा अवश्य प्राप्त होगी। अमरीकन कत्लखानों की सांख्यकी (अंकशास्त्र) अमरीका में प्रतिदिन औसतन निम्नलिखित प्रमाण में पशुओं का वध किया जाता है। प्राणी-पक्षी प्रतिदिन कत्ल कि जाने वाले प्राणियों की संख्या गाय-भैंस वगैरह १,३०,००० ७,००० सूअर ३,६०,००० मुरगी २,४०,००,००० बछड़े 24 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा कत्लखाने की प्रक्रियाः आधुनिक कत्लखाने आंशिक रूप में फैक्ट्री और अधिकांश रूप में (माँस के) छोटे-छोटे टुकडे करने की दुकान जैसे हैं । बडे कत्लखाने प्रति घंटे २५० गाय-भैंसों की कत्ल करते हैं और वे प्रतिदिन १६ घंटे कार्यरत रहते हैं। यहाँ गाय-भैंस के मृत शरीर को लोहे के हूक के आधार से ज्यों-ज्यों आगे धकेला जाता है त्यों-त्यों उसके अनेक छोटे टुकडे होते जाते हैं। सर्वप्रथम जीवित गाय-भैंस को ढलान वाले ऊपर के हिस्से में ले जाया जाता है- वहाँ उसका सिर एक पकड (औजार) में जकड दिया जाता है और इस तरह उसे बेहोश किया जाता है। उसके पश्चात् 'स्टीकर' नामक कर्मचारी द्वारा तेज छुरी से उस गाय-भैंस के गले की मुख्य नस काटी जाती है जिससे गाय-भैंस मर जाती हैं। नस में से प्रवाहित रक्त हो एक बड़े बर्तन में इकट्ठा किया जाता है। बाद में इस रक्त को सुखाकर उसका पावडर बनाया जाता है और वही प्रोटीनयुक्त पशु आहार के रूप में पशुओं को खिलाया जाता पश्चात् पाँव के खुर अलग किये जाते हैं एवं विक्रय हेतु चमडा उतार लिया जाता है। यदि गाय-भैंस गर्भवती होती है तो उसके अजन्मे गर्भस्थ बछडों के चमडे को उच्चकोटि के नरम चमडे (Slunk) के रूप में विक्रय किया जाता है। इसके बाद इसके मस्तक के टुकड़े किये जाते हैं एवं उस गाय-भैंस की छाती को चीरकर अंदर के अंगों को अलग किया जाता है। कूड़ा-कचरा कहलाने वाले अंगों को (Waste) कूटा खंड में भेज दिया जाता है। वहाँ उस पट्टे पर रख दिया जाता है जहाँ कारीगर चीमटे (औजार) से उनके अंगों को अलग-अलग करते हैं। कारीगरों का एक समूह होजरी के अंग भागों को पृथक करता है तो दूसरा फेफडे अलग करता है। अन्य कारीगर उनके हृदय, पेन्क्रियास अथवा थाइरोइड ग्रंथियों को अलक करते हैं। विशेष रूप से हड्डियों और खुरों का उपयोग आहार, खाद एवं उच्चकोटि के प्रोटीनयुक्त पशुआहार एवं खाद बनाने में किया जाता है। अन्य बचा हुआ कचरा व हड्डियाँ कोलन, जिलेटीन एवं खिलौने बनानेवालों को बेच दिया जाता है। कत्लखानों के उपउत्पादनः गाय-भैंस के शरीर के अंग एवं उनका उपयोग 25 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा कत्लखानो में माँस तैयार करने की प्रक्रिया समानान्तर रूप से दूसरे कमरे में चलती रहती है। वहाँ कारीगर माँस के विविध प्रकार जैसे ऊपर से गोलाकार हो ऐसा, कटिप्रदेश का माँस, लंबे टुकड़ों के आकार वाला माँस, लंबे-चपटे टुकडे के आकार वाला माँस, पसलियाँ, ठोडी आदि को छाँटकर पृथक करते हैं। जैसे मोटर के विविध भागों का विविध मूल्य होता है उसी प्रकार प्राणियों के विविध अंगों का विशिष्ट मूल्य होता है- वैसा ही उसका बाजार होता है। गाय-भैंस के जीभ के प्रति रतल ५८ सेन्ट अर्थात् २७/- रू. प्राप्त होते हैं। यह अधिकांशतः मैक्सिको भेजा जाता है। जहाँ उसके छोटे-बडे टुकटे करके स्वादिष्ट मसालेदार चूर्ण बनाकर उसका प्रयोग 'टाको' में पूरण के रूप में किया जाता है। गाय-भैंस के हृदय (प्रति रतल २७ सेन्ट अर्थात् १५/-रू. के भाव से) को गरम मसाले डालकर उसका पूरण बनाकर रशिया में उसका निर्यात किया जाता है। गाय-भैंस के गाल के माँस को अमरीका के माँस उत्पादकों को बलोनी (Baloney) बनाने हेतु विक्रय किया जाता है। वैसे अनेक विशिष्ट अंगों के विशिष्ट माँस को पालतू प्राणियों के भोजन बनाने वाली कैंपनियों को बेचा जाता है, जो इन विशिष्ट अंगों को खरीदने का ही आग्रह रखते हैं। कारगिल, ६-मिनीयापोलीस बेज्ड मीट पेकिंग कंपनी के प्रवक्ता मार्क क्लेइन (Mark Klein) का कथन हैः सुन्दर स्वादिष्ट एवं पोषक द्रव्ययुक्त वानगी (भोजन) बनाने के लिये विशिष्ट प्रकार के माँस का निश्चित प्रमाण में उपयोग किया जाता है। इस हेतु पालतु प्राणियों का भोजन बनाने वाले रसोइया विविध प्रमाण में हृदय, कलेजा एवं वैसे ही अन्य अंगो का माँस मँगवाते हैं। बायोटेक्नोलोजी, कि जिसमें दवा बनाने वाली कंपनी DNA का पुनः जोड के रूप में उपयोग करके प्रयोगशाला में जो औषधि बनाती हैं, वे कंपनी जब बायोटेक्नोलोजी की उत्पत्ति या विकास नहीं हुआ था तब तक वे उपयोगी सभी पदार्थ ये कंपनियाँ प्राणियों में से ही प्राप्त करती थीं। आज भी गाय-भैंस का गाढा रक्त (लगभग प्रतिलीटर रु. १९०० से २३६० के भाव से) दवाओं के निर्माण कथा गवेषणात्मक (संशोधक) कार्यो के लिए एक विशिष्ट माध्यम बना हुआ है। गाय-भैंस की विविध ग्रंथियों में से होर्मोन्स (जातीयरस) एवं अन्य द्रव्य प्राप्त करके औषधियों का उत्पादन किया जाता है । गाय-भैंस की पिच्युटरि ग्रंथि (१ रतल के १९.५० डॉलर अर्थात् ९२५ रू.) को इकट्ठी कर, 26 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा उसमें से रक्तचाप को काबू में लाने की एवं हृदय की धडकनों को नियमित करने की दवा बनाने में उपयोग किया जाता है। गाय-भैंस की (१ रतल का ३ डॉलर अर्थात् १३५ रू. के भावसे) अन्तःस्रावि (एड्रिनल) ग्रंथियों का इकट्ठी करके उसमें से प्राप्त प्रवाही रसों में से अलग-अलग २० प्रकार के स्टीरोइड्स बनाये जाते हैं। गाय-भैंस के फेंफडे (एक रतल के ६ सेन्ट के भाव से) रक्त में होने वाली घट्टता को रोकने की औषधि हिपेरिन (Heparin) में भेजे जाते हैं, एवं (एक रतल का ६.३ सेन्ट के भाव से) गाय-भैंस के पेन्क्रियास से निर्मित इन्सयुलिन डायाबिटिश (मीठी पेशाब) के रोगियों को दिया जाता है। डायाबिटिश का एक रोगी एक वर्ष में २६ गायों से प्राप्त पेन्क्रियास में से प्राप्त इन्स्युलिन का उपयोग करता है । सर्वाधिक मूल्य दिलाने वाला अनिश्चित अंग उनके पित्ताशय की पथरी है (Gall Stone) उसको सिर्फ एक औंस के ६०० डॉलर के भाव से सुदूर पूर्व के व्यापारी जो स्वयं को वैद्य कहते हैं- वे ले जाते हैं। यह कोई छोटा सा विरोधाभास नहीं है कि गाय की चरबी ऐसी कंपनियों को बेची जाती है जो लोगों को सुन्दर दिखाई देने के लिए लिपस्टिक आदि मेकअप के द्रव्य, सौन्दर्य प्रसाधन आइ लाइनर, भौहे रंगने की पेन्सिल, बाल दूर करने का मलम एवं स्नान का सामान, जीभ में जलन न हो (छाले न पडें) ऐसे बटाइल स्टीयरेट, ग्लाईकोल स्टीयरेट एवं PEG 150 डाइस्टीयरेट बनाते हैं। Collagen नामक प्रोटिन जो चमडे, खुर एवं हड्डियों में से प्राप्त किया जाता है वह सौन्दर्य प्रसाधन में उपयुक्त लोशन में आद्रता शोषक तत्व के रूप में महत्वपूर्ण होता है। त्वचा के तजज्ञ आँखों के कोनो की ओर पडी झुर्रियों एवं चेहरे की झुर्रियों को दूर करने के लिए चेहरे पर जो इन्जेक्शन देते हैं एवं कृत्रिम स्तन आरोपण में भी इसका उपयोग करते हैं। इससे कोषों में अतिवृद्धि होती है। साबुन में मुख्य अंश के रूप में कोको बटर या वनस्पति तेल का उपयोग हो सकता है, फिर भी अधिकांश साबुन में पशुओं की चरबी का उपयोग होता है। वास्तव में सोप (Soap) शब्द सोपा (Sopa) नामक पर्वत से संबद्ध है। प्राचीन रोम में यह वह स्थान है जहाँ एक ही स्थान पर पशुओं की बलि दी जाती थी। वहाँ पास ही प्रवाहित एक झरने में लोग अपने कपडे धोते थे, (उसा पानी में) प्राणिज चरबी और राख के कारण वे वस्त्र अधिक 27 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा सफेद होते थे (धुलते थे)। अतः बखों को धो कर सफेद करने वाले पदार्थ साबुन को सोप (Soap) कहने लगा। पिछले ३० वर्षों से कुछ अमरीकनों को गाय-भैंस के मस्तिष्क, सूअर के पाँव एवं बैल के शुक्रकोषों को भोजन करने की तीव्र इच्छा होती है । परंतु प्राणियों के खुरों को खाने की इच्छा की संतुष्टि नहीं हो पाती । इन खुरों से जिलेटिन बनाया जाता है। गंध और स्वाद विहीन इस जिलेटीन का प्रोटीन के रूप में सैकडों पदार्थों में प्रयोग होता है । इनमें गौंदयुक्त पट्टियों, आइस्क्रिम, कडक केन्डी, जेलो (Jelo) का समावेश होता है । अनेक चरबीयुक्त पदार्थों में यह जिलेटिन होता है। अर्थात् कथित चरबीयुक्त वस्तुओं में यह जिलेटिन होता है । नाबिस्को (Nabisco) के मार्केटिंग कोम्युनिकेशन के मेनेजर जोनबेरोज (Johon Barrows) कहतें हैं जो लोग शक्ति, कैलरी रहित वस्तुओं से अपने मुँह को भरा हुआ रखते हैं उनके लिए जो क्रीमयुक्त पदार्थ बनते हैं उनमें जिलेटिन होता है। पालतु प्राणियों के चाहकों में कुछ एक ही कुदरत को लौटाने के आंदोलन ने प्राणिज उपउत्पादनों के लिए एक विस्तृत बाजार खडा किया है । तीखी आवाज करने वाले प्लास्टिक के खिलौने जो ऊँगली के जोड़ और स्नायुओं की मदद करते हैं । वे बैल की पूंछ, पांव के अंगूठे के नाखून, जबडा, खोर और दश रतल के मेमथ हड़ियों को निकाल लिया जाता है। एक प्रश्न यह है कि प्राणियों का अवचित भोजन का वे क्या करेंगे ? अभी तक इसका कोई उत्तर नहीं मिला है। केन्शास एग्रीकल्चरल डिपार्टमेन्ट के डॉ. बर्नस कहते हैं इस संदर्भ में प्रेरक विकास हो रहा है यद्यपि मैं गुप्त माहिती प्रस्तुत नहीं कह सकता। लेकिन निकट भविष्य में ही हम उसे प्राणियों के योग्य भोजन में परिवर्तन करने की नई पद्धति प्रस्तुत करेंगे । 28 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा ३. कत्लखानों के कचरे का पुनः उपयोग (माँस को रूपान्तरित करने वाले कारखाने) - प्रवीण के. शाह इस लेख को पढ कर आपको पता चलेगा कि डेयरी फार्म की गाय भैंसे अब वनस्पत्याहारी या शाकाहारी नहीं रही हैं । डेयरी फार्म की गायभैंसों को उनके नियमित आहार के साथ कत्लखाने के कचरे में से तैयार किये हुए रिसाइकल्ड माँस को मिलाकर दिया जाता है। यह रिसाइकल्ड माँस मृतप्राणियों (सहज रूप से मृत्यु को प्राप्त कुत्ते बिल्ली आदि) कत्लखाने में बिन उपयोगी प्राणियों के अंग एवं सुपर मार्केट में दूषित माँस कचरे में से बनाया जाता है। माँस को रूपान्तरित करने वाले कारखानेः रूपान्तरकारी माँस के कारखानें इस पृथ्वी पर अनेक महत्वपूर्ण कार्यों में से एक कार्य करते हैं। वे मृत प्राणी, कत्लखाने के विविध उत्पादित बहिष्कृत पदार्थ हड्डियों में से बनाये गये पशु आहार, एवं पशुओं की चर्बी आदि को रूपान्तरित करने का कार्य करते हैं इन सब पदार्थों का प्रोटीन एवं अन्य पौष्टिक आहार के रूप में डेयरी के प्राणी (गाय) पॉलट्री फार्म की मुर्गियां, सुअर, गाय-भैंस, भेड़ एवं अन्य पालतु पशुओं के भोजन में मिलाये जाते हैं। एक अनुमान के अनुसार प्रतिवर्ष ४०० करोड रतल कारखाने का कचरा जैसे कि रक्त, हड्डी, आंतें आदि एवं प्रतिवर्ष लाखों की संख्या में मरने वाले कुत्ते, बिल्लियों का पशु आहार में उपयोग किया जाता है यही कारण है कि डेयरी फार्म के गाय, भैंस, सुअर अन्य पशु जो प्राकृतिक रूप से शाकाहारी होते हैं उन्हें अनावश्यक रूप से मांसाहारी बना दिया जाता है। यदि इस कचरे को रुपान्तरिक करने वाले कारखाने न होते तो हमारे शहर रोग एवं सडे हुए मृत शरीरों से नरकागार बन जाते और रोगो में विनाशक वाइरस और बैक्टीरिया बेहद संख्या में फैल जाते । डॉ. विलियम ह्युस्टन (अमरिका की कॉलेज पार्क, एम.डी., वरजिनिया-मेरी लैण्ड की पशु औषधिय विज्ञान कॉलेज के डीन) कहते हैं यदि तुम सभी मृत अंगों को जला दो तो हवा में भयंकर प्रदूषण फैल जायें। और यदि सभी मृत अंगों को जमीन में दफना दो तो आम आरोग्य के लिए भयानक प्रश्न उत्पन्न हो जायें जिसमें बदबू और दुर्गन्ध का उल्लेख भी न हो । बेक्टीरिया की उत्पत्ति के लिए मृत 29 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा देह के अंग श्रेष्ठ माध्यम है । यह अरबी डॉलर का उद्योग है जिसके कारखाने अमरिका, यूरोप और विश्व के अन्य देशों में चौबीस घंटे चलते हैं । यह उद्योग वर्षों से चल रहा है फिर भी हम में से बहुत कम लोगोंने इसके विषय में सुना है । कच्चे माल की सामग्री: मृत प्राणियों और कत्लखाने के कचरे को अन्य पदार्थों में रूपान्तरित कारखानें में रिसाइक्लिन की प्रक्रिया में नीचे के पदार्थों का समावेश होता है। (१) कत्लखाने का कचरा जैसे की पशु, भेड़, सुअर, घोडा आदि की हड्डियां, खोपडी, पाँव की खुरी, रक्त, होजरी, आंतें, रीढ की हड्डी, पूंछ और पंख । (२) शाकाहारियों द्वारा पालित तथा पशु रक्षण केन्द्र में मृत कुत्ते, बिल्ली और अन्य पालतू प्राणी । (३) चूहे, नेवले जैसे मृत प्राणी । (४) पॉल्ट्री फार्म का कचरा जिसमें पालतु प्राणी और अन्य मृत पशु । (५) सुपर मार्केट और रेस्टोरेंट में खराब हुआ माँस । अमरिका में यह रूपान्तरकार प्रतिदिन १० करोड़ टन कचरे का निकाल करते हैं जिसमें ५०% कसाईयों द्वारा कत्ल किये गये गाय, भैंस का ३०% सुअर का समावेश होता है जिसका उपयोग मनुष्यों द्वारा नहीं किया गया होता है अर्थात् ५०% गाय भैंस और ३५% सुअर के शरीर के अंगों का उपयोग मनुष्य के भोजन के लिए नहीं होता है। न्यूयोर्क शहर के अमेरिकन समाज द्वारा प्राणियों के प्रति की जाने वाली क्रूरता की विरोधी संस्था के प्रवक्ता जेफ फ्रेस कहते हैं "प्रतिवर्ष पशु आधितों में ६० से ७० लाख कुत्तेबिल्ली मर जाते हैं।" उपरोक्त प्रस्तुत पदार्थों के साथ रूपान्तरित करने वाले कारखानों की प्रक्रिया में अनावश्यक पदार्थों की मिलावट की जाती है जो निम्नानुसार है अनावश्यक जहरी पदार्थों की कच्चे माल में मिलावटः मृत पशु एवं कच्चे माल के साथ-साथ नीचे दर्शायें गये अनावश्यक जहरी द्रव्य भी उसमें मिल जाते हैं (१) जहरी पदार्थों का उपयोग करके मृत पशुओं में रह जाने वाले पेस्टीसाइड्स (२) सहज मृत्यु के लिए दी जाने वाली वे जहरीली दवायें जो पालतु प्राणियों को दी जाती हैं। 30 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा (३) कुछ मृत प्राणियों में पिस्सु युक्त पट्टा होता है उसमें से ऑरगेनोफॉस्फेट इन्सेक्टिसाइड नामक जहरीला जन्तुनाशक द्रव्य पैदा होता है। (४) अनधिकृत डी.डी.टी. द्वारा विकृत मछली का तेल (५) जन्तुनाशक पशु मलम के स्वरूप में जन्तुनाशक द्रव्य (Dursban) (६) पशुओं को दिये जाने वाले एन्टीबायोटिक में से उत्पन्न जहरीले रसायन । (७) जूते के पीते, सर्जिकल पिन, सुई आदि के रूप में वजनदार धातुऐं। (८) स्टीरोफॉम ट्रे में पेकिंग एवं सुपर मार्केट में विक्रय नहीं हए माँस, मच्छी, मुर्गी, पशुओं के बांधने वाली रस्सियां, प्लास्टिक में पैक की हुई जन्तु नाशक मलम, मरे हुए पशुओं को प्लास्टिक की जिन थैलीयों मेर रखा जाता है वे थैलियां और उनका प्लास्टिक। महंगी मजदूरी के कारण कत्लखाने के व्यापारी ऊपर बताये गये पदार्थों को मृत प्राणियों के अंगों से अलग नहीं करते और अनावश्यक कारण से वह पशु आहार में घुलमिल जाते हैं। रूपान्तर करने की प्रक्रियाः रूपान्तर करने वाले कारखानों में प्रक्रिया की राह में विपुल मात्रा में कच्चा माल बडे-बडे गंज के रूप में पड़ा रहता है। इस कच्चे माल पर ९० डिग्री गर्मी में मृत प्राणियों के ढेर पर लाखों की संख्या में कीडे-मकोडे रेंगते हुए नजर आते हैं। सर्वप्रथम कच्चे माल को छोटे-छोटे टुकड़ों में काटा जाता है पश्चात दूसरे विभाग में सूक्ष्म टुकडों के लिए भेजा जाता है। इसके बाद उन टुकडों को २८० डिग्री गरम पानी में एक घंटे तक उबाला जाता है। इस निरन्तर उबलने की प्रक्रिया से हड्डियों में से माँस अलग होता है। यह प्रक्रिया २४ घंटे और सप्ताह के सातों दिन निरन्तर चलती ही रहती है। इस गर्म सूप को उबालने की प्रक्रिया में पीले रंग का ग्रीस या चर्बी जो ऊपर तैरने लगते हैं उन्हें उपर से अलग निकाल लिया जाता है। गर्म किये हुए माँस और हड्डियों को हैमर मील में भेजा जाता है जहाँ उसमें से शेष आर्दता को सुखा दिया जाता है और रेती की तरह बारीक पाउडर जैसा चूर्ण बनाया जाता है। इस चूर्ण को घने तार वाली चलनी से चाल कर उसमें से बाल और हड्डीयों के बडे टुकडे दूर किये जाते हैं। इसमें से तीन वस्तुएँ बनाई जाती है (१) पुनरूत्पादित माँस (२) प्राणिज चर्बी (पीला ग्रीस) 31 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा (३) हड्डियों का पाउडर। यह आहार मात्र पशुओं को खिलाया जाता है जिससे सरकारी कर्मचारी उसके नियमों पर विशेष ध्यान नहीं देते। मात्र उस पर घटक द्रव्यों का लेबल बराबर है या नहीं उसकी जांस करते हैं। इस पशु आहार में जन्तुनाशक पेस्टीसाइड्स और अन्य जहरी पदार्थों की पूरी जांस नहीं होती या बिलकुल नहीं होती। रूपान्तरित पदार्थ और उनका उपयोगः रूपान्तरकर्ता कारखानों में से ये रूपान्तरित पदार्थ समग्र अमरिका में डेयरी उद्योग, पॉलट्री फार्म, पशु आहार उत्पादक, सुअरकेन्द्र, मत्स्य पालन केन्द्र एवं पालतु पशुओं के आहार उत्पादकों को बेचा जाता है। ये रूपान्तरकर्ता कारखाने अलग-२ प्रकार के होते हैं। कुछ कारखाने पशु आहार के लिए रिसाइकल्ड माँस उत्पन्न करते हैं तो कुछ माँस के उप उत्पादन बनाते हैं। कुछ पॉल्ट्री आहार बनाते हैं, तदुपरान्त कुछ मत्स्याहार, मछली का तेल, पीला ग्रीस, पशु चर्बी, गाय की चर्बी और मुरगी की चर्बी बनाते है । सन् १९९१ USDA क रिपोर्ट में बताया गया है कि १९८३ में इन कारखानों में लगभग ७९ करोड रतल रुपान्तरित माँस, हड्डी का पाउडर, रक्त का पाउडर एवं पंखों का भोजन उत्पादित किया था जिसमें - • १२% डेयरी के गाय, भैंस और पशुचर्बी के आहार के रूप में • ३४% पालतु प्राणियों के आहार के रूप में • ३४% पॉलट्री आहार के रूप में • २०% सुअर के आहार के रूप में उपयोग में लिया गया था। Scientific American में उल्लेख है कि १९८७ से व्यापारिक डेयरी आहार में प्राणिज प्रोटीन के उपयोग की वृद्धि अधिक मात्रा में हुई है। पूरे अमरिका में कम से कम २२५० ऐसे रूपान्तरकारी कारखाने चल रहे हैं। अनेक आधुनिक कारखाने अति विशाल और स्वयं संचालित होते हैं, नेशनल रेंडर्स एसोसियेशन इन एलेक्झांड्रिया, वर्जिनिया के व्यवस्था नियामक, ब्रश ब्लेन्टन कहते हैं कि इस उद्योग में प्रति वर्ष २.४ बिलियन डॉलर का व्यापार होता है। विज्ञानिक मातने हैं कि जब पशुओं को रोगी Scrapie स्क्रेप भेड़ों की रीढ़ की हड्डी या मस्तिष्क में से निर्मित आहार दिया जाता है तब उस पशु को Mad Cow Disease नामक रोग हो जाता है। विज्ञानिक मानते हैं कि ऐसे पागलपन से पिडित गाय-भैंस या पशुओं द्वारा प्राप्त डेयरी उत्पातन दूध, 32 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा घी आदि या माँस जो खाते हैं उन्हें भी उसकी छूत लग जाती है और मृत्यु हो जाती है। उत्तर केरोलीना का उदाहरणः ___Green County Animal Mortality Collection Ramp नामक लेख में कहा गया है कि अमरीका के उत्तर केरोलीना राज्य में मुर्गी, सुअर, ब्रोइलर मुर्गी के बच्चे (चूजे) लेयर मुर्गियों के उत्पादन में अग्रताक्रम में सात राज्यों में उसका स्थान है। इस राज्य में प्रतिवर्ष ८५००० टन पॉल्ट्रीफार्म की मुर्गियों और सुअरों का कत्ल (विनाश) किया जाता है। इस विनाश करने की आवश्यक्ता के संदर्भ में १९८९ में Green County Livestock Producers Association द्वारा पशुओं के मृतकों को एकत्र करने के स्थानों का प्रारंभ किया है। पशुरक्षक केन्द्र (पांजरापोल) या ढोरवाडे वाले अपने मृत पशुओं को और पक्षियों को ऊँचे ढलानवाली जगह पर ले जाकर पानी चुस्त डब्बों या पॉल्ट्री के लिए बने अलग डिब्बों में फेंक देते हैं एवं अन्य मृत पशुओं को रिटेइनींग दीवाल के पीछे धकेल देते हैं। मृत पशु एसोसीएशन द्वारा कोन्ट्राक्ट (अनुबंध) किए गये स्थानिक किसान मृत पशुओं एवं पक्षियों को प्रतिदिन रूपांतर करने वाले कारखानों में ले जाते रूपांतर कर्ता कारखाने लाइवस्टोक एसोसीएशन को प्रति सप्ताह माँस, हड्डी, पंख एवं चरबी का तत्कालीन बजार भाव चुकाते हैं। १९८९ के प्रथम १६ सप्ताहों में १० लाख रतल अर्थात् प्रति सप्ताह ६५००० रतल मृत पशु-पक्षी एकत्र करके रूपांतर कारी कारखानों में भेजे गये थे। इस सफल योजना के परिणाम से ग्रीन काउन्टी लाइव स्टोक एवं पॉल्ट्री उत्पादकों को मृत पशु-पक्षियों के सरल, सलामत एवं आर्थिक रूप से कम खर्चे (पुसाना) में निकाल करने का उपाय प्राप्त किया है। 33 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा ४. दूधः आरोग्य, निर्दयता एवं प्रदूषण की दृष्टि से The Times of India Tuesday 11 April 2000 By Pritish Nandi आयुर्वेद वास्तव में दूध को पांच प्रकार के श्वेत विषों में से एक विष मानता है। दूध के विरोध में जंग का ऐलान करके श्रीमती मेनका गांधी ने मधुमक्खी के छत्ते को ही छेड़ा है । चुस्त परंपरागत शाकाहारियों (Hardcore Veggies) ने भी श्रीमती मेनका गाँधी पर शाब्दिक आक्रमण किया है एवं धार्मिक नेताओं ने उन पर खुले रूप से उनका विरोध किया है। श्रीमती गाँधी के पक्ष में वैश्विक संशोधन एवं आधुनिक विज्ञान है जिसका उन्होंने लंबे समय तक समीक्षात्मक अध्ययन किया है वही उनके पक्ष में है। प्रश्रः आप दूध का निरंतर विरोध करते हैं। आपको दूध के प्रति इतनी दुश्मनी क्यों है ? उत्तरः उसके तीन कारण हैं १. दूध के कारण लोगों कीतन्दुरूस्ती को खतरा होता है। २. गाय-भैंस के प्रति निर्दयता का व्यवहार होता है। ३. दूध में प्रदूषित पदार्थ आते हैं। स्वास्थ्य की दृष्टि सेः प्रश्नः दूध स्वास्थ्य के लिए हानिकर्ता किस प्रकार है ? वह आप समझा सकेंगे? उत्तरः एक ऐसी मान्यता है कि दूध पूर्ण आहार है एवं उसमें से विशेष प्रमाण में प्रोटीन, लोहतत्त्व एवं केल्सियम प्राप्त होता है परंतु• दूध में लोहतत्त्व है ही नहीं, तदुपरांत वह लोहतत्त्व को खून में मिलने ही नहीं देता। • दूध में से हमारा शरीर मात्र ३२% प्रोटीन ही प्राप्त कर पाता है जबकि पत्ता गोबी से वह ६५% एवं फूलगोभी द्वारा ६९% केल्शियम प्राप्त कर सकता है। • किसी भी सब्जी की तुलना में दूध में कम प्रोटीन होता है। यदि यह मान भी लिया जाये कि दूध में प्रोटीन की मात्रा अधिक होती है पर वह मानव शरीर के लिए अनुपयोगी है क्योंकि मनुष्य पूरे दिन में लिए जाने वाले कुल भोजन द्वारा ४.५% शक्ति ही प्रोटीन द्वारा प्राप्त करता है। यह आवश्यक प्रोटीन उसे भारतीय दैनिक भोजन रोटी, दाल-शाक से Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा प्राप्त हो जाता है । अतः विश्व में दूध ही श्रेष्ठ आहार है ऐसी बात लोगों के दिमाग में ठसा देना अच्छी बात नहीं । विशेष रूप से ऐशियन और आफ्रिकन लोगों के लिए दूध का पचाना कठिन है। हम प्लास्टिक क्यों नहीं खाते हैं ? क्योंकि हमारे शरीर में प्लास्टिक पचाने हेतु पाचक रस (Enzymes ) नहीं हैं । हमारे शरीर में लेक्टोझ नहीं होता इसीलिए हम लेक्टोझ को नहीं पचा सकते । यदि दूध पचाना ही कठिन हो तो उसके घटक तत्वों की प्राप्ति कैसे हो ? इससे विपरीत दूध में IGF-1 नामक तत्व है । केन्सर के समस्त अनुसंधानों से पता चला है कि यदि IGF की हमारे शरीर में वृद्धि हो जाये तो केन्सर हो सकता है। दूध में निहित IGF तत्त्व शरीर में केन्सर का निमित्त बन सकता है । यह अस्थमा का भी प्रबल कारण है । वास्तव में अस्थमा के रोगियों को डॉक्टर भी दूध और उससे बने पदार्थों के त्याग की सलाह देते हैं । भारत में जहाँ तक डॉक्टरों के संदर्भ में परिस्थिति है वह यह है कि चिकित्सा महाविद्यालयों में पोषण के संदर्भ में कुछ भी नहीं सिखाया जाता । परिणाम स्वरूप भोजन और उसकी पोषण क्षमता का ज्ञान अत्यंत मर्यादित होता है । हम सबका पोषण संबंधी ज्ञान समान स्रोत से ही प्राप्त होता है और वह हैं हमारे दादा-दादी और अध्यापक । इस ज्ञान में उलझन या दुविधा सर्वाधिक उत्पन्न करते हैं हमारे स्थानिक धार्मिक नेतागण जो सविशेष शाकाहार के पक्षपाती है। प्रश्नः दूध में सविशेष गलत क्या है ? और नुकशान देव क्या है ? उत्तरः दूध में जो केल्शियम है वह स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है क्योंकि उसका बिना पचा हुआ केल्शियम मूत्र में इकट्ठा होता है और वहाँ जम कर किडनी में पथरी बनाता है । दूसरे दूध ओष्टोपोरोसीस अर्थात् हड्डीयों के कड़कपन को कम करने के स्थान पर उसमें वृद्धि करता है विकृत करता है। इस संदर्भ में किए गये अनुसंधान से पता चला है कि इस ओप्टोपोरोसीस का मूल कारण केल्शियम की कमी से अधिक बेकार या अतिरिक्त प्रोटीन है, जो दूध से प्राप्त होता है । अतः यदि आप अधिक दूध का उपयोग करेंगे तो आपको ओष्टोपोरोसीस होने की संभावनायें बढ़ जायेंगी। स्वीडन जैसे देश में जहाँ दूध का सर्वाधिक प्रयोग होता है वहाँ ओष्टोपोरोसीस के रोग के केस भी सर्वाधिक हैं। एक यह भी मान्यता है कि अलसर में दूध सहायक होता है । अल्सर अर्थात् होजरी के आंतरिक हिस्सो में सडन उनका जलना, छाले पड़ना है । 35 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा जब दूध पिया जाता है तो तात्कालिक संतोष मिलता है, परंतु यह राहत (संतोष) क्षणिक होती है । वास्तव में दूध-अम्लता पैदा करता है । जो अन्ततोगत्वा होजरी की आंतरिक भाग को नष्ट करता है। दूध की डेयरी के उत्पादन द्वारा जिनकी अल्सर की चिकित्सा की जाती है उनकी हृदयरोग के आक्रमण की संभावना दो से छ गुनी बढ़ जाती है । यह बात तर्क संगत है क्योंकि दूध बछड़े के लिए उत्पन्न भोजन है जिससे बछड़े का वजन एक ही महिने में चारगुना बढ़ जाता है। दूध में चरबी का प्रमाण सर्वाधिक होता है, जिससे मेदवृद्धि एवं स्थूलता बढती है और यह मेदवृद्धि ही वर्तमान रोगों का सर्वाधिक कारणभूत है । इसी दृष्टि से आयुर्वेद में दूध को पाँच प्रकार के श्वेत विषों में से एक विष माना है। प्रश्नः भारतीय सदियों से दूध का उपयोग करते है। उनमें से कोई ऐसी बीमारियों में नहीं फँसे। उत्तरः इसका आधार बीमारी की व्याख्या पर है । सामान्यतः अधिकांश लोग जोड के दर्द, ओष्टोपोरोसीस, अस्थमा, दम, शिरदर्द, कुपच की उपेक्षा ही करते हैं। इनको एक सामान्य स्थिति के रूप में स्वीकार कर लेते हैं एवं केन्सर जैसे रोग को भगवान की इच्छा मान लेते हैं। प्रश्नः दूध को दैत्य के स्वरूप में मानने से क्या हमारी प्राचीन संस्कृति और परंपराओं का विध्वंस नहीं होगा ? उत्तरः हजारों वर्षों से लोगों की यह मान्यता थी कि सूर्य पृथ्वी के इर्द-गिर्द परिभ्रमण करता है। कोपरनिक्स ही वह पहला व्यक्ति था जिसने कहा था कि सूर्य पृथ्वी के इर्द-गिर्द नहीं घूमता है परंतु पृथ्वी सूर्य के इर्द-गिर्द घूमती है । उस समय उसका भयंकर विरोध हुआ था । भूतकाल में भारत में भी सतीप्रथा (मृत पति के साथ पत्नी का जीवित जलकर मरना) का एवं चरसगांजा पीने का, अफीण खाने की प्रथा थी। क्या आज ये कानूनी हैं ? मैंने हिन्दू संज्ञा पर एक पुस्तक लिखी है, जिस कारण से मुझे हिन्दु धर्म के अनेक शास्त्रों का पठन करना पड़ा है उसमें कहीं भी दूध पीने का उल्लेख नहीं है। हाँ ! घी के हवन का विधान है। दुर्भाग्य से हमारी स्मरण शक्ति अत्यंत अल्प होती है, और वस्तुओं के प्रति हम दृढ होते हैं और तत्संबंधी ज्ञान अत्यल्प होता है। डॉ. स्पोक जो बालपोषण के तजज्ञ थे, जो अपने दूध के प्रति किए गये अपने सकारात्मक विचारों के प्रति क्षमा याचना करते हुए कहते हैं कि बालकों को दूध नहीं पिलाना चाहिए। गाय-भैंस के प्रति निर्दयताः 36 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा प्रश्नः डॉ. कुरियन डेयरी उद्यो को उत्तम उद्योग मानते हैं जबकि आप उससे विपरीत आक्षेप कर रहे हैं। उत्तरः डेयरी उद्योग उत्तम है ही नहीं । वास्तविक्ता यह है कि खाने-पीने की माँग अंततोगत्वा गाय-भैंस का ही बलिदान लेती है। उनकी ही बलि चढाई जाती है। हा ! यह कभी ठीक भी था जबकि प्रत्येक गृहस्थ के पास अपनी गाय-भैंस होती थी और उसकी देखभाल कुटुंब के एक सदस्य के रूप में की जाती थी पर आज वह महद् अंश में सत्य नहीं है। प्रश्नः वर्तमानकाल में भारत में दूध की प्राप्ति कैसे होती है ? उत्तरः इस समय गाय-भैंस को प्रतिवर्ष सगर्भा बनाया जाता है। बछड़े को जन्म देने के पश्चात दस माह तक वह दूध देती हैं, परंतु बछड़े के जन्म के तीन महिने बाद ही उन्हें पुनः कृत्रिम गर्भाधान द्वारा सगर्भा बनाया जाता है। जिससे वे सगर्भा होने के बावजूद दूध देती रहती हैं। ये गाय-भैंस जितना दूध देती हैं उसकी तुलना में माँग अधिक होती है जिससे उनके कोष टूटते हैं या नष्ट होते हैं- जिसके फलस्वरूप उन्हें कीटोसीस (Ketosis) नामक रोग होता है। गाय-भैंस को दिन-रात एक तंग कोठरी में उसीके मूत्र-मल की गंदगी में बाँध कर रखा जाता है जिससे इन पशुओं को मेस्टिट्स (Mastitis) नामक रोग हो जाता है। दूसरा कारण यह भी है कि जिन हाथों से इनको दूहा जाता है वे कर्कश-कठोर-गंदे होते हैं। खराब भोजन एवं अशक्ति के कारण गाय-भैंस को रयुमेनासीडोसिस (Rumenacidosis) नामक रोग हो जाता है। गायभैंसों को अत्यधिक मात्रा में एन्टिबायोटिक्स दवायें एवं होर्मोन्स देकर उनकी कार्यक्षमता समान रखी जाती है। प्रतिवर्ष डेयरी उद्योग से २०% गाय-भैंस ट्रकों या रेल्वे द्वारा अनधिकृत कत्लखानों में भेजी जाती हैं या फिर उन्हें गाँव व शहर की गलियों-सडकों पर बेमौत भूखे मरने के लिए छोड दिया जाती है । यद्यपि भारत के लोगों को दयालु होने के कारण गाय-भैंसों को रोटी के टुकडे खिलाते हैं या फिर उन्हें पांजरापोल (पशुरक्षण केन्द्र) में भेज देते हैं। यह अब प्रसिद्ध एवं जाहिर तथ्य है कि अमुल डेयरी द्वारा गाँवों में कत्लखाना प्रारंभ किया गया है। इस प्रकार किसी भी गाय-भैंस को उसका प्राकृतिक जीवन नहीं जीने दिया जाता । गाय-भैंस को प्रारंभ में अधिक दूध प्राप्ति की लालसा में बीमार बना दिया जाता है और बाद में मार डाला जाता है। इन मृत गाय-भैंस के बछड़े-बछड़ी, पाड़े-पाडी के प्रति जो निर्दयतापूर्ण व्यवहार किया जाता है वह तो उससे भी बदतर है। इन्हें निरंतर बाँधकर रखा जाता है एवं भूख से तडपा कर मार डाला जाता है या कत्लखाने भेज Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा दिया जाता है। अब तो इस देश में गाय-भैंस के बछड़ो या पाड़ों को बछड़ा या पाड़ा भी नहीं कहा जाता परंतु उन्हें 'कत्रा' कहते हैं जिसका अर्थ होता हैं निश्चित रूप से कत्ल कर देना । डॉ. कुरियन स्वंय स्वीकार करते हैं कि एक मात्र मुंबई में ही ८० हजार बछड़े-बछड़ी, पाड़ा-पाड़ी को जबरदस्ती कत्लखानों में ले जाकर मार दिया जाता है। प्रश्नः परंतु दूधवाले गाय-भैंस को चाहते हैं क्योंकि वे ही उन्हें जीवित रखते हैं। उत्तरः गाँवों मे गाय-भैंस को कैसे दूहा जाता है ? वह आपने देखा है ? कभी-कभी गाय-भैंस को फूकन पद्धति से दूहा जाता है। गाय-भैंस को अति पीडा देने हेतु उसके गर्भाशय में डंडा डालकर हलाया जाता है। गाँव के लोग मानते हैं कि ऐसा करने से अधिक दूध प्राप्त होता है। शहरों में अधिक एवं शीघ्र दूध प्राप्ति हेतु गाय-भैंस को प्रतिदिन ओक्सीटोसीन (Oxytocin) इन्जेक्शन दिन में दो बार दिए जाते हैं। इस प्रकार गाय-भैंस को दिन में दो बार अत्यंत पीडा दी जाती है। इससे उनके गर्भाशय में सूजन आ जाती है। जिससे समय से पूर्व ही वे बाँझ हो जाती हैं अर्थात् उनका दूध सूख जाता है। ओक्सीटोसीन का उत्पादन प्राणियों के लिए ही होता है, परंतु डेरी के आसपास स्थित हर सिगरेट की दुकान में वह उपलब्ध होता है। इस शब्द से निरक्षर दुधवाला भी पूर्ण परिचित होता है। इस ओक्सीटोसीन के कारण मनुष्य के होर्मोन्स की समतुला खतरे में पडती है । अभी कुछ दिन पूर्व गुजरात में इस ओक्सीटोसीन का पता चलाने को डेयरियों पर छापे मारे गये और एक मात्र अहमदाबाद में ही साढे तीन लाख इन्जेक्शन पकड़े गये। दूध में प्रदूषणः प्रश्नः दूध में प्रदूषण होता हैं ऐसा कहने का क्या अर्थ है ? उत्तरः ICMR ने सात वर्षों तक संशोधन कार्य किया है। भारत भर में हजारों दूध के नमूने प्राप्त किए हैं। प्रश्रः उसमें उन्होंने क्या देखा ? उत्तरः दूध में DDT का अधिकतम प्रमाण, HCH नामक जहरीला पेष्टीसाइड्स, जिसका खाद्य अधिनियम की धारा के अन्दर्गत मात्र ०.०१ Mg/Kg ही होना चाहिए उसके स्थान पर यह प्रमस्य ५.७ Mg/Kg दिखाई दिया। 38 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा उन्हें दूध में आर्सेनिक, रांगा (कलई की धातु), शीशा (रांगा) के तत्त्व मिले । इससे किडनी में दूषण, हृदयरोग, मस्तिष्क की कोशिकाओं का नाश एवं कैंसर भी हो सकता है। उन्होंने इस संशोधन हेतु ५० हजार दूध के नमूने लिए थे एवं उसका विवरण पत्रकार परिषद में प्रस्तुत किया था । प्रश्नः इस संदर्भ में डॉ. कुरियन एवं श्वेत क्रांति के समर्थक क्या कहते हैं ? उत्तरः अधिक नमने लेकर परीक्षण करना चाहिए। नमूनों में दूध में गटर के पानी, वनस्पति तेल एवं प्रवाही साबून के अंश भी दिखाई दिए। कुछ नमूनों में केंचुए भी देखने को मिले क्योंकि दूध में वे लोग चूना, सफेद मिट्टी भी मिलाते हैं जिससे कि दूधकी घनता में वृद्धि होती है। प्रश्नः आपने कहा कि दूध पीना अर्थात् गाय-भैंस का रक्त पीना है, वह कैसे ? उत्तर: दूध और रक्त के स्रोत एक ही हैं और वे हैं गाय-भैंसों के शरीर के कोष । स्मरण रहे कि दूध का प्रत्येक कप जिसे आप पी रहे हैं उसमें खिन्नता, उदासी एवं पूर्ण रूप से पीडा प्राप्त करती माता स्वरूप गाय-भैंस से ही आता है। अरे। जिसका बछड़ा उसी की आँखों के सामने मार डाला गया हो, और उसे स्वयं जब वह दूध देना बंध कर देती हो तब उसे भी मार डाला जाता हो। एसे निरासावाली गाय-भैंस का दूध रक्त के बराबर ही है। प्रश्नः यदि दूध एवं डेयरी का उद्योग बंद कर दिया जाये तो हजारों लोग बेकार नहीं हो जायेंगे ? उत्तरः अनेक लोग जो तस्करी, भीख, चोरी, नशीले पदार्थ का व्यापार, बंदूक चलाने वाले एवं आतंकवाद पर ही जी रहे हैं, क्या हम उन्हें मदद करने हेतु उनसे ये वस्तुयें खरीदेंगे ? दूध का विकल्प क्या ? प्रश्नः उत्तरः प्लासीबो (Placebo ) अर्थात् गलत वस्तुओं का विकल्प क्या ? दूध के विकल्प में सोयाबीन का दूध, अन्य हरीशाक सब्जियाँ, दाल, दलहन आदि का उपयोग कर सकते हैं । मेरे पुत्र ने कभी भी दूध नहीं पिया फिर भी वह ६ फूट लंबा स्वस्थ युवक है- वह कभी एक दिन भी बीमार नहीं हुआ । 39 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा ५. भारत के पवित्र प्राणियों (गायों) के प्रति निर्दयता The Asia New Article By Maseeh Rahnan, New Delhi- India. _____May 29, 2000 Vol. 156 No. 21 आन्तर्राष्ट्रीय प्राणिय अधिकार हमारे पवित्र प्राणियों के जंगलीपन से भरे स्थलान्तर एवं कत्ल को उजागर करने का कार्य करते हैं। (ये) भारत पर उसके पवित्र प्राणियों पर आचरित अतिनिंद्य, निर्दयता का इलजाम (दोष) लगाते हैं। महात्मा गांधीजी मानते थे कि कोई भी देश अपने प्राणियों के प्रति कैसा व्यवहार करता है उस पर से देश के विषय में अनुमान लगाया जाता है । यदि यह मापदंड उनके ही देश भारत पर लागू किया जाये तो वह पशु घर के योग्य माना जायेगा। हिन्दु, प्रभु के सृजन पशु-पक्षियों के प्रति पूज्य भाव रखते हैं एवं गाय-भैंस को विशेष श्रद्धा से पूजते हैं । अन्तर्राष्ट्रीय प्राणि अधिकार संस्था People for the Ethical Treatment of Animals (PETA) के सदस्यों के एक विभाग ने अपने अभ्यास में- भारतीय गाय-भैंस का जिस प्रकार स्थनान्तरण किया जाता है,... गैर कानूनी ढंग से कत्लखाने भेजा जाता है उसमें जो भयंकर पीड़ाजनक रोंगटे खड़े कर दें ऐसी निर्दयता की पोल खोली है। रेल्वे या ट्रकों में ठसमठस भरकर पूरे मार्ग पर खडी रखकर लंबे सफर के बाद गाय-भैंस या तो मर जाती हैं या बुरी तरह घायल होकर निर्दिष्ट स्थान पर पहुंचती हैं । PETA के अध्यक्ष इन्ग्रीड न्यूकीर्क (Ingrid New Krik) का कथन है- “यह सब उन गाय-भैंसों के लिए दान्तें का नरक है।" भारत का पशुधन विश्व का सर्वाधिक विशाल लगभग ५० करोड से भी अधिक है। उसमें आधे से अधिक संख्या गाय-भैंस व बैलों की है। यदि ये पशु आय कराना बंद कर देते हैं तो अधिकांशतः उसके मालिक, या इन पशुओं पर ही जीवन निर्वाह करने वाले किसान उन्हें कत्लखाने भेज देते हैं। गायभैंस की कत्ल को भारत में मात्र दो राज्यों में कानूनन मानी गई है वे राज्य है- (१) मार्क्सवादी शासित राज्य पूर्व में पश्चिम बंगाल और (२) दक्षिण में केराला । वास्तव में पशुओं को राज्य के बाहर कत्लखाने के लिए भेजना गैरकानूनी अपराध हैं, फिर भी व्यापारी रिश्वत देकर किसी भी मार्ग से गायभैंसो को रेल्वे या ट्रकों द्वारा बंगाल-केरल में भेजते हैं। ये प्राणी साथ के अन्य प्राणियों को (स्थानाभाव के कारण) सींग मार-मारकर घायल कर देते हैं। 40 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा यदि वे रेल के डिब्बे या ट्रकों से कूदते हैं तो उनके गप्तांगो को चोड पहुँचती है। कुछ तो रेल के डिब्बो या ट्रको में श्वास सैंधने से मर जाते हैं। हजारों गाय-भैंसो को अन्न-जल रहित अवैध जमीन पर छोड़ दिया जाता है। यदि कभी गाय-भैंस थकावट के कारण बैठ जाये या गिर पडे तो मालिक उसकी पूँछ मरोड-मरोड कर या उसकी आँखों में तम्बाकु या मिर्च का पावडर डालकर उसे आगे चलने को मजबूर करते हैं । ऐसे क्रूर व्यवहार के विरोध में आंदोलन करने हेतु अनेक विशिष्ट व्यक्तियों का समर्थन प्राप्त होता है। दो सप्ताह पूर्व ही सन् २००० के दूसरे सप्ताह में ही अन्तर्राष्ट्रीय विरोध दिन के कार्यक्रम में मैंने एवं पाउल मेकोर्टनी (Paul MCartney), ब्राईट बार्डो (Brigitee Bardot), स्टीवन सेगल (Steven Seagal) एवं नीना हेगेन (Nina Hegen) ने अपनी वेदना व्यक्त करते हुए जाहिर किया था कि आज भारत में गाय माता और उसके बच्चों का जिस प्रकार से बहिष्कार हो रहा है, उन्हें मार्ग पर भटकने को छोड़ा जा रहा है, उसकी पीडा देखकर मेरा अंतर तिलमिला उठता है। भारतीय चर्म निकास उद्योग १६ करोड डोलर के चमड़े की आपूर्ति करता है। गेप (Gap) एवं उसके उपकारक बनाना रिपब्लिक (Banana Republic) एवं ओल्ड नेवी (Old Navy) अपने वस्त्रों में भारतीय चमड़े का उपयोग करते हैं। ब्रिटिश कंपनी क्लार्कस (Clarks) ने गत सप्ताह ही घोषणा की थी कि वह भारतीय चर्म निर्मित वस्तुओं को खरीदने पर विचार करेगा। PETA की हिटलिस्ट (सर्वोच्च प्राथमिक्ता प्राप्त) में फ्लोरशेइम (Flor Sheim), नोर्ड स्ट्रोम (Nord Strom), केज्युअल कोर्नर (Casual Corner) एवं अन्य ग्राहकों की श्रृंखला है । PETA के भारतीय आंदोलन के संयोजक जासन बेकर कहते हैं- “भारतीय चर्म उद्योग को उत्तेजन देने हेतु - यह कहा जाता है कि यदि गाय-भैंस आदि पशुओं के प्रति आचरित निर्दयता को रोकने के लिए कोई तात्कालिक उपया नहीं किये गये तो चर्मउद्योग रहित एक भी स्थान शेष नहीं बचेगा ।" भारतीय चर्म उद्योग के आगेवानों को यह चिंता है कि यह विरोध पश्चिमी देशों में हो रही चर्म निकास को ध्वस्त कर देगा । लगभग ४००० चमड़े कमाने (उपयोग योग्य बनाने) के कारखाने एवं चमड़े से निर्मित वस्तुओं के कारखानों के निकास पर निर्भर हैं । इस उद्योग से लगभग १७ लागख लोग रोजी-रोटी पाते हैं। इनमें तीसरे भाग की तो मात्र महिलायें ही 41 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा हैं। चर्मनिकास परिषद के अध्यक्ष मोहम्मद हासीम कहते हैं- "इस आंदोलन से हम प्रभावित होते हैं इसमें कोई शंका नहीं है ।" उनका मानना है कि उनकी जाति - कौम को गलत रूप में लक्ष्य बनाया जाता है। उनका कथन हैं कि हम तो सिर्फ मृत प्राणियों पर निर्भर कारीगर है। हम तो कल्लखानों द्वारा बेचे जानेवाले चमड़े को ही खरीदते हैं। ९०% चमड़ा भैंस, पाड़ा, बकरी, भेड़ का ही उपयोग में लेते है । उनके संगठन ने अपील की है कि चर्म निकास कर्ता सिर्फ ऐसे प्राणियों का चमड़ा खरीदें जिनका मानवीय रूप से वध किया गया हो । इसके बावजूद भी प्राणियों के अवैध रूप से स्थलान्तर एवं कत्लखानों के विरूद्ध सरकार की किसी भी कार्यवाही के चिन्ह दिखाई नहीं देते । PETA के आंदोलन से पूर्व भारतीय प्राणि अधिकार के समूह ने वर्षों से प्राणियों के प्रति आचरित क्रूरता एवं क्रूरतापूर्वक किए जाने वाले स्थलान्तर को रोकने के प्रयत्न किये हैं । यह अरबों डॉलर का व्यापार है जिसे राजनीतिज्ञों का जबरदस्त समर्थन प्राप्त है। राज्यों की रेलगाडियों मानों गाय-भैंसो के कत्लखाने में भेजने की मृत्यु गाड़ियों ही चलाते हैं। पश्चिम बंगाल एवं केरल में हो रही विनाशक पशु हत्या का विरोध इसमें कुछ भी सहायता नहीं कर पायेगा क्योंकि वहाँ गलियों में चलने वाले कत्लखानें की संख्या अत्यधिक है । मात्र गाय-भैंस की रक्षा हेतु राष्ट्रीय समिति की स्थापना एवं प्राणियों के प्रति आचरित क्रूरता के प्रति तगड़ा जुर्माना करने की एवं प्राणिय चाहकों की अन्य माँगों को संतुष्ट करना नई दिल्ली के केन्द्र सरकार को सरल लगता है । ( वर्तमान विद्यमान कानून के अनुसार मात्र १ डॉलर या ४८ रु. ही दंड हो सकता है) इसका सरल उपाय यही है कि समग्र भारत के उन सभी हत्यारों को कैद करके सरहद के पार गैर कानूनी ढंग से भेजे जाने वाली गाय-भैंसों को रोका जाये । वैंगलोर प्राणिय कल्याण विभाग की कार्यकर्ता सुपर्णा बक्षीगांगुली कहती हैं- “गाँव के किसान भी अनुपयोगी गाय-भैंसों को नहीं रखते, वे कोई संत महात्मा नहीं हैं ।" प्राणिओं के कत्ल को अधिक सुगम एवं निजी बनाना वह तो प्राणियों के प्रति निर्दयता एवं दुख में वृद्धि कर्ता ही हैं। इसके अलावा ऐसे कदम उठाना गाय-भैंस के चाहक - जीवदया प्रेमियों को उत्तेजित करने के लिए काफी है। कोई भी राजनीतिक पक्ष यह जोखिम उठाने को 42 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा तैयार नहीं । जहाँ प्राणियों के प्रति आदर भाव है उसी भूमि में गाय-भैंस को अपनी पवित्रता का उच्च मूल्य चुकाना पड़ेगा । ६. शाकाहारः करुणासभर जीवन पथ अनदेखे होते हैं पीडित, अनसुने आक्रंद करते हैं तीव्र वेदना से कराहते वे बिना आवाज ही मृत्यु पाते हैं। देखकर इनकी मौत ऐसी क्या तुम्हारा हृदय कसमसाता नहीं ? - प्रमोदा चित्रभानु ये पंक्तियाँ अभिव्यक्त करती हैं उन प्राणियों के दुःख और पीड़ा को जो मनुष्य के लोभ के कारण उनका शोषण करते हैं, उन्हें पीड़ा देते हैं। अज्ञानी, गूंगे, निःसहाय एवं लाचार प्राणि जिन्हें हमारी नजरों से दूर निर्दय पीड़ा सहन करने के लिए छोड़ दिया जाता है, यह उन प्राणियों का निराशाजनक चित्र हैं। यह विचार मात्र ही किसी के भी हृदय को वेदना और पश्चाताप से भर देता है। जब अपने ही छोटे भाई-बहिन भयंकर परिस्थिति में हों तब हम शांत कैसे बैठ सकते हैं ? क्या उनकी मदद करना या उनकी रक्षा करना हमारी नैतिक जिम्मेदारी नहीं है ? पर, मनुष्य को समझना कितना दुष्कर हैं ! विलियम सेरोयन (William Saroyan) कहते है- "मनुष्य एक अभिनेता है, वह मनुष्य की समस्त क्रियाओं / चेष्टाओं का अभिनय कर सकता है कि जो प्रत्येक क्रिया झूठी होती है ।" संभवतः वे सत्य कहते हैं कि जिस दुनियाँ में हम सब निवास कर रहे हैं उस दुनिया को मनुष्य में निहित पशुताने हैवानियत से हिंसक एवं विघातक बना दी है। इस धरती पर परोक्ष (परदे के पीछे) रूप से अत्यंत हिंसा एवं पीड़ा चल रही है जिसे रहस्यमय ढंग से अत्यंत गुप्त रखा जाता है। हमें लंबे समय से छला जा रहा है कि प्राणियों में आत्मा नहीं होती, उसे कोई दुःख नहीं होता क्या अज्ञानी एवं मूक प्राणियों पर आचरित निर्दयता को रोकने के लिए, प्राणियों की हिंसा रोकने के लिए हमें निद्रावस्था से जागृत होकर सत्य को उजागर करने का समय नहीं आया है। हिंसा में से हिंसा व प्रेम से प्रेम जन्म लेता है। हिंसा को समाप्त करने के लिए प्रत्येक प्राणी को मात्र मनुष्य के उपोग हेतु निर्मित वस्तु के रूप में न देखकर उन्हें सजीव प्राणि के रूप में देखना चाहिए । जैसे हम सुख-दुःख आनंद का अनुभव करते हैं उसी प्रकार भावों से प्राणियों का जीवन भावनाओं से भरा रहता है। A Place of Revelation नामक पुस्तक में उनके लेखक नोबेल पुरस्कार विजेता डॉ. आल्बर्ट स्वाइत्झर कहते हैं कि “तुम जहाँ भी जीवन ( जीवंत प्राणी) देखो वहाँ 43 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा स्वयं को देखो ।" ज्ञानी, विद्वान एवं बालक सम निर्दोष लोगों द्वारा प्रदत्त यह पहिचान क्या है ? यह जीव मात्र के प्रति आदर भाव है । हमें इस विश्व में प्राप्त गूढ ज्ञान, गुप्त विद्याओं के प्रति पूज्य भाव हैं, जो बाह्य दृष्टि से हम से भिन्न भाषित होते हुए भी हमारे चरित्र के अन्तर्गत ही हैं। वह अतिशय समान एवं दारूण रूप से सम्बद्ध है । हमारे और अन्य प्राणियों के बीच यह असमानता, अज्ञानता । अजीवपना यहाँ दूर हो जाता है । “अनंत जीवों के प्रति पूज्यभाव ही अनजानपने को दूर करना, दया, करूणा एवं अन्य जीवों के समान ही अनुभव की पुनःस्थापना करना है।" यदि हम समस्त प्राणियों को अपने समान समझेंगे तो हमारी उनके प्रति स्थापित मान्यतायें बदलेंगी और हम उनके प्रति दयालु बनेंगे । जब सचमुच हमारे अंदर यह समझदारी की भावना उत्पन्न होगी तब सर्वप्रथम उसका प्रभाव हमारी आहार पद्धति पर होगा । इससे हम कोई भी वस्तु इस शरीर में जो कि आत्मा का घर है उसमें डालने (भक्षण करने से पूर्व विचार एवं निरीक्षण करेंगे । हम अपने भोजन के विषय में जानेंगे । हम जो भी आहार करते हैं उसका सीधा प्रभाव हमारे विचारों पर पड़ता है और हमारे विचारों का प्रभाव हमारे व्यवहार-आचरण पर पड़ता है । यदि हम स्वस्थ शरीर व स्वस्थ मन चाहते हैं तो हमें रक्तरंजित भावतरंगे उत्पन्न करने वाले भोजन का त्याग करके शुद्ध, सात्त्विक एवं पवित्र स्वास्थ्यप्रद आहार करना चाहिए। अनेक लोगों को यह पता ही नहीं है कि जब वे मांसाहार करते हैं। तब प्रोटीन के साथ अनेक रसायनिक द्रव्य जो प्राणियों को मोटा करने के लिए होते हैं वे तथा उनके अनेक रोग और उनके शरीर के जीवाणुओं को नष्ट करने के लिए दी गई दवा और इन्जेक्शन भी शरीर में प्रवेश करते हैं। वे यह भी भूल जाते हैं कि माँस में दुःख, भय और अस्वीकार की नकारात्मक तरंगे भी होती हैं जो हमारे शरीर के प्रत्येक कोष में दुःख भय एवं नकारात्मक भावनाओं को जन्म देते हैं। जब शरीर में दुःख से परिपूर्ण, रसायणयुक्त नकारात्मक तरंगे कार्यरत होती हैं तब स्वास्थ्य, सुख एवं स्वस्थ मन-मस्तिष्क की सुन्दर भावनायुक्त जीवन की आशा कैसे रख सकते हैं ? मन मस्तिष्क एवं शरीर में जान लेवा रोग होने के यही कारण हैं । हम अनेक लोगों को भावनात्मक, मानसिक एवं शारीरिक रोगों से पीड़ित होते हुए देखते हैं उसके मूल में यही कारण है । सांख्यकी के अनुसार प्रतिवर्ष २० लाख अमरिकन मृत्यु प्राप्त करते हैं 44 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा उनमें ६८% लोग उन तीन व्याप्त रोगों के कारण, जिनमें आहार की मुख्यता है, कारण भूत होते हैं- वे हैं हृदय रोग, केन्सर एवं आघात / मस्तिष्क का हेमरेज। इन रोगों से विशिष्ट संबद्ध आहार में अंडे, मॉस, पॉल्ट्रीफार्म का भोजन, समुद्री प्राणियोंका आहार, प्राणिज चरबी एवं अन्य मांसाहारी पदार्थ होते हैं । हम ऐसा आहार ग्रहण करें जिसमें अल्पतम हिंसा होती हो, पर्यावरण का कम नुकशान होता हो एवं प्रकृति का असमतोलन सबसे कम होता हो- तो ऐसा आहार हमारे अंदर आंतरिक एवं बाह्य संवादिता उत्पन्न करने में मदद करेगा | सांख्यकी के अनुसार ४५० ग्राम गेहूँ उत्पन्न करने के लिए २७२ लीटर पानी, ४५० ग्राम धान उत्पन्न करने के लिए ११३६.५ लीटर पानी की आवश्यकता होती हैं जबकि ४५० ग्राम माँस उत्पन्न करने हेतु ९०९२ से २७२७६ लीटर पानी की आवश्यकता पड़ती है। मुर्गी पालन केन्द्र प्रतिदिन ४५४० लाख लीटर पानी का उपयोग करते हैं जो २५००० मनुष्यों की आवश्यकता की पूर्ति कर सकता है। विश्व में उपयोग में लिए जाने वाले पानी के कुल प्रमाण में से ८०% का उपयोग मात्र पशुपालन के ही उपयोग में खर्च होता है। एक लीटर पानी अर्थात् साढे चार कप पानी । पशुओं द्वारा उत्सर्जित पदार्थों में से उत्पन्न मिथेन वायु समग्र विश्व के वातावरण की उर्जा में वृद्धि करता है एवं ओझोन वायु के स्तर को मोटा बनाता है | PETA के शोधर्थियों ने स्पष्ट किया है कि मात्र अमरीका में ही प्रति वर्ष २६० कोरड प्राणियों को (९० करोड़ धरती के एवं १७० करोड़ समुद्र के) सिर्फ मनुष्य 'के भोजन हेतु मार डाला जाता है । उस प्रकार जब मनुष्य अधिकांशरूप से हिंसायुक्त जीवन जीता हो तब उससे पूरी पृथ्वी भयभीत बनती है। यदि एक व्यक्ति भी शाकाहारी बनती है तो वह अपने जीवन में २४०० पशुओं को अभयदान प्रदान करता हैं एवं इस प्रकार स्वयं आशीर्वाद प्राप्त करता है एवं समग्र पृथ्वी के लिए आशीर्वाद स्वरूप बनता है । आज विश्व-मानव प्राणियों के प्रति हो रहे दुर्व्यवहार, उन पर हो रहे अत्याचार के प्रति धीरे-धीरे जागृत हो रहा है और शाकाहारी बन रहा है । कुछ धार्मिक दृष्टि से, कुछ नैतिक दृष्टि से तो कुछ प्रकृति के कारण, कुछ आरोग्य एवं पर्यावरण की दृष्टि से जागृत बहन रहे हैं। दिन-प्रतिदिन इस जागरूकता में वृद्धि हो रही है । यदि कोई भी व्यक्ति यदि कुछ महिनों के लिए भी इस 45 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा प्रकार भोजन में तब्दीली करने का प्रयत्न करेगा तो उसके शरीर व मन की परिस्थिति में परिवर्तन का अनुभव करेगा। वर्तमान विश्व में शाकाहार क्या है उसे समझें 'Vegetarian' शब्द लेटिन भाषा में Vegetus शब्द से अवतरित है जिसका अर्थ है- संपूर्ण, चैतन्ययुक्त, स्वस्थ, ताजा । शाकाहारी मनुष्य किसी भी प्रकार का माँ, मछली, मुर्गी, या पक्षी के अंडे नहीं खाते । इसके बावजूद अमरीका में कुछ ऐसे लोग है जो अंडा खाकर भी स्वयं को शाकाहारी कहलाते हैं । इस दृष्टि से वर्तमान में शाकाहारियों को तीन विभागो में विभाजित किया है। Ovo-lacto Vegetarians : ऐसे लोग पक्षी, प्राणी, गाय-भैंस, मुर्गी, सुअर आदि के माँस मछली एवं समुद्री जलचरों का आहार नहीं करते है परंतु अंडा, दूध, दहीं, मक्खन आदि दूध के उत्पादनों का सेवन करते हैं । (कुछ अमरीकन स्वयं को शाकाहारी कहलाते हैं परंतु मुर्गी एवं मछली खाते हैं, वे इस व्याख्या के अनुसार शाकाहारी नहीं है।) Lacto-Vegetarian : ऐसे लोग पशु-पक्षी का माँस, अंडा या उनसे बने पदार्थ, मछली एवं समुद्री जलचरों का आहार नहीं करते हैं परंतु दूध और उससे बने पदार्थों का उपयोग करते हैं। Vegen: ये लोग संपूर्ण शाकाहारी होते हैं जो संपूर्ण प्रकार के प्राणिज पदार्थों का त्याग करते हैं । ये माँस, मछली, समुद्री, जलचर, अंडा, अंडे से बने पदार्थ, दूध, दही, घी, मक्खन एवं डेरी उत्पादनों, शहद आदि वस्तुओं का त्याग करते हैं। उपरांत चमडा, ऊन, रेशम एवं अन्य प्राणिज वस्तुओं का उपयोग नहीं करते। हमने शाकाहार के संदर्भ में नैतिक, प्राकृतिक, पर्यावरण एवं आरोग्य संबंधी दृष्टिकोण समझे। अब हम शाकाहार के संदर्भ में आध्यात्मिक, धार्मिक दृष्टिकोण को समझेंगे। प्राचीनकाल से किए गये शास्त्रों के अध्ययन एवं अनुसंधान से एक ही बात प्रकट हुई है कि सभी प्राणी जीने की इच्छा रखते हैं, सभी सुखी होना चाहते है। किसी को भी मृत्यु पसंद नहीं, कोई भी दुःखी नहीं होना चाहता। परंतु मनुष्य अपने आनंद और सुख के लिए, अपने लोभ और उसकी संतुष्टि के लिए प्राणियों का शिकार करके हिंसा करके, उन्हें पिंजरे में कैद करके या फिर 46 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा मुक्त अनजाने प्राणियों के प्राण हरण करके हिंसक कार्यों द्वारा बेरहमी से उनका उपयोग करता है। इस प्रकार वह सिर्फ जीवित प्राणियों का ही दुरुपयोग नहीं करता अपितु वह अपना ही दुरुपयोग करता है कारण कि वह स्वयं एक जीवित प्राणी है। वह जीवित प्राणियों द्वारा मुक्त की जाने वाली तरंगो, आंदोलनो संबंधी वैश्विक सिद्धांत- “जैसा तुम दोगे वैसा ही प्राप्त करोगे" से स्वयं को मुक्त या अलिप्त नहीं रख सकता है। किसी भी प्राणी का वध करने के पूर्व तुम्हें निर्दयी बनना होगा, तभी तुम उसे मार सकोगे। जब व्यक्ति अज्ञानतावश कोई पाप कर्म करता है तब वह अपने ही सद्गुणों का नाश करता है। एवं स्वयं को धिक्कारने की सीमा तक पहुँच जाता है। यदि मनुष्य को स्वयं के प्रति ही आदर भाव न हो तो उसे अन्य जीवित प्राणियों के प्रति आदर भाव कहाँ से होगा ? इस तरह निरंतर हिंसा होती रहती है और हिंसा तथा तिरस्कार का विषचक्र निरंतर चलता रहता है। सिर्फ अपनी जीभ के स्वाद के लिए मांसाहार कराके यह स्वयं के जीवन के प्रति पीड़ा / दुःख एवं संत्रास है ऐसा विचार भी कोई नहीं करता है । जीवन किसी प्रयोगशाला में उत्पन्न करने की वस्तु नहीं है । प्रबल जिजीविषा युक्त जीवन बहुमूल्य है। पृथ्वी के प्रत्येक जीव को अपनी नियति / दिव्यता प्रकट करने के लिए योग्य समय चाहिए। अकाल मृत्यु जीवन के प्राकृतिक आविर्भाव के चक्र को खंडित करती है। तत्वचिंतक प्लेटो का कथन है- "हम सिर्फ अपनी जीभ के स्वाद हेतु इस विश्व में आनंद प्राप्ति हेतु जन्मी आत्माओं का जीवन और समय ही ले लेते हैं।" अनेक बार लोग प्रश्न करते हैं कि यदि तुम प्राणियों का वध नहीं करते हो तो वनस्पति की विदारणा क्यों करते हो ? जैन विचारधारा इस प्रश्न का स्पष्ट उत्तर देती है। मूलतः यह समग्र ब्रह्मांड दो प्रकार के पदार्थों में विभक्त है- (१) सजीव (२) निर्जीव सजीव उदाहरणार्थ मनुष्य, प्राणी, पक्षी, जीव-जन्तु, सूक्ष्म हलनचलन करने वाले जीव, वनस्पति वृक्ष आदि, हवा, अग्नि, पानी, पृथ्वी । जबकि निर्जीव पदार्थ उदाहरणार्थ टेबल, कुर्सी, मकान, गाडी, मोटर, मशीन आदि । जहाँ जीवन है वहाँ दुःख की अनुभूति है और उसे निरंतर दूर करने की प्रेरणा की प्रतिक्रिया भी है। जैनदर्शनानुसार समस्त प्राणियों का वर्गीकरण उन्हें प्राप्त इन्द्रियों के आधार पर पांच विभागों में किया गया है । (१) एकेन्द्रिय (२) द्वि इन्द्रिय (३) Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा तेइन्द्रिय (४) चउरिन्द्रिय एवं (५) पंचेन्द्रिय । पाँच इन्द्रियों का क्रम निम्नानुसार है । (१) स्पर्शनेन्द्रिय- त्वचा (२) रसेन्द्रिय- जीभ (३) घ्राणेन्द्रियनाक (४) चक्षुरिन्द्रिय-आंख एवं (५) श्रोत्रेन्द्रिय-कान । जितनी इन्द्रियों की अधिकता, उतनी जीव की उच्च स्थिति (कक्षा) । वनस्पति एकेन्द्रिय हैं अतः उसके एकमात्र स्पर्शनेन्द्रिय ही है। जबकि अनेक प्राणी, पशु-पक्षी पंचेन्द्रिय हैं उनकी पाँचों इन्द्रियों हैं। किसी भी जिबको एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय की अवस्था प्राप्त करने में अत्यंत पुरुषार्थ करना पड़ता है। किसी भी पशु-पक्षी को मार डालना अर्थात् उसके द्वारा अत्यंत पीड़ा और दुःखपूर्वक प्राप्त की गई उच्च कक्षा का संपूर्ण विनाश करना | वनस्पति में, मनुष्य या प्राणियों जैसा रक्त युक्त चैतन्य नहीं होता । इससे उन्हें दुःख भी कम होता है यह अव्यक्त एवं अस्पष्ट होता है । जहाँ रक्त होता है वहाँ अधिक भावुक्ता, अधिक भावनायें एवं दुःख की गहरी अनुभूति भी होती है। अतः जब किन्ही अंशों में हिंसा अनिवार्य हो तब भी न्यूनतम हिंसा करनी चाहिए। २६०० साल पूर्व अहिंसा एवं करुणा के पुरस्कर्ता महावीर स्वामी ने बताया था कि हमारे विचार जो कि हमारे कर्म में अभिव्यक्त होते हैं वे हमारे आचरण में से ही निष्पन्न होते हैं। "जैसा अन्न वैसा मन" जैसा आहार ग्रहण करते हैं उसका प्रभाव मनुष्य के व्यक्तित्व पर शारीरिक रूप से एवं भावात्मक, मानसिक एवं आध्यात्मिक स्वरूप में निश्चित रूप से पडता है । स्वस्थ, पवित्र एवं नुकसानदेय न हो ऐसा भोजन स्वास्थ्य, पवित्रता एवं उत्तम विचारों में उत्क्रांति लाता है। यदि एक बार विचार स्वस्थ, पवित्र एवं उन्नत बनें तो हमारे आचरण में भी पवित्रता आती है। जिनका मानसिक या शारीरिक स्वास्थ्य ठीक नहीं होता है उनके चारित्र में भी निर्बलता आती है। पिछले पाँव साल में विज्ञान ने यह खोजकर बताया है कि हमारी जिन्दगी में सुख और सफलता का आधार चरित्र व व्यक्तित्व का निर्माण हमारे शरीर की आंतरिक कार्यपद्धति पर आधारित है। व्यक्तित्व का आविर्भाव एवं अभिव्यक्ति भौतिक शरीर द्वारा ही होती है। चेहरे पर हास्य आदि आनंद के भाव, सुख एवं करुणा दया की अभिव्यक्ति करते हैं जिसका समावेश 'मनुष्य के व्यक्तित्व में होता है । स्वस्थ शरीर के बिना ये भाव संभव ही नहीं। इस प्रकार शाकाहार सूक्ष्म जीवों से लेकर विशालकाय जीवों के प्रति, निम्न कक्षा के जीवों से लेकर उच्च कक्षा के चैतन्य युक्त जीवों की ओर, 48 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा संपूर्ण सजीव सृष्टि की ओर अहोभाव, पूज्यभाव अभिव्यक्ति करने के अनेक मार्गों में से एक मार्ग है। ७. चाँदी का बरख - प्रमोदा चित्रभानु क्या आपको पता है कि चाँदी का जो बरख अनेक मंदिरों एवं मूर्तियों पर धार्मिक महोत्सवों में उपयोग में लिया जाता है वह शाकाहारी है या नहीं ? क्या तुम्हें पता है कि तुम्हारी मिठाइयों पर लगाया जानेवाला चाँदी का बरख कैसे बनता है ? मुझे स्मरण है कि बचपन में मैं ए ेसी ही मिठाई माँगती जिस पर चाँदी का बरख लगा हो। आज भी अनेक बाल-वृद्ध भी मिठाई पर चाँदी के बरख को चाहते हैं । उसकी लोकप्रियता ने मनुष्य के मन पर ऐसी पकड़ जमा ली है कि वह माँग दिन-प्रतिदिन वृद्धिंगत हो रही है। यदि लोगों को यह पता चले कि चाँदी का यह बरख किस प्रकार तैयार किया जाता है तो मुझे विश्वास है कि वे कभी भी चाँदी का बरख लगी मिठाई का प्रयोग नहीं करेंगे । “ब्युटी विधाउट क्रुअल्टी" भारत शाखा द्वारा प्रकाशित लेख में चाँदी का बरख कैसे बनाया जाता है उसकी प्रक्रिया को हमें समझना चाहिए। ऐसी बहुमूल्य जानकारी प्रदान करने के लिए हम उनका आभार मानते हैं । चाँदी के बरख के चमकीलेपने के उस पार इसके निर्माण स्थल पर जिन प्राणियों के बलिदान से ये बनती है- उसे यदि तुम जानोंगे तो चाँदी की बरख लगी मिठाई को खरीदने से पूर्व दो बार विचार अवश्य करोगे । भारत वर्ष में भारतीय मिठाइयों, सुपारी, पान, फलों की शोभा बढाने के लिए चाँदी के बरख का उपयोग किया जाता है । तदुपरांत आयुर्वेदिक औषधि, एवं अनेक जैनमंदिरों में दैव-देवियों की प्रतिमा के ऊपर भी उसे लगाया जाता है। धार्मिक एवं पवित्र, शुभ अवसरों पर हिन्दु मंदिरों में भी चाँदी की वरख लगी मिठाई प्रसाद के रूप में लोगों में बाँटी जाती है। चाँदी का बरख केसर आदि प्रवाही औषधियों में भी लगाया जाता है। "ब्युटी विधाउट क्रुअल्टी” के कथनानुसार वर्षों पूर्व इन्डियन एर लाइन्स ने अपने रसोइयों को विमान सेवा के दौरान दिए जाने वाले भोजन में मिठाइयों पर बरख नहीं लगाने की सूचना दी थी। चाँदी के बरख तैयार करने में जिस प्रकार की हिंसा की जाती है उसे जानने के पश्चात् अनेक लोग बरख रहित मिठाई का ही आग्रह करते हैं। 49 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा बिजनेश इन्डिया (Business India) में प्रकाशित एक विशिष्ट आलेख में आश्चर्यपूर्ण रूप से प्रस्तुति है कि भारत में प्रतिवर्ष मिठाई एवं च्यवनप्राश आदि औषधियों में चाँदी के बरख के रूप में २७५ टन अर्थात् २७५००० किलोग्राम चाँदी खाई जाती है। आजके बाजार भाव से उसका मूल्य १६५ करोड रूपये अथवा ४० करोड डॉलर है। चाँदी का बरख कैसे बनता है ? किन कारणों से उसे बनाने की प्रक्रिया एवं उसका उपयोग पापस्वरूप है ? यद्यपि बरख स्वयं प्राणिज द्रव्य नहीं है-परंतु बरख बनाने में जिन पदार्थो का उपयोग होता है वह गाय-बैल की आंतों को काटकर बनाया जाने वाला प्राणिज द्रव्य है। ये द्रव्य गाय-बैल की उन आंतों से जो कत्ल-कारखाने से प्राप्त की जाती हैं। अहमदाबाद एवं उसके आसपास के शहरों व गाँवों में गंदी गलियों में गाय-बैल की आंतके टुकडो में चाँदी के छोटे-छोटे टुकडे रखकर चांदी का बरख बनाने के लिए कारीगर उसे दिन रात कूटते रहते हैं। कत्लखानों में ही कसाई द्वारा किए गये गाय-बैल की ये आंते रक्त और माँस के साथ ही खींच लेते हैं। और इस प्रकार के उपयोग हेतु बेच देते हैं । यह एक उल्लेखनीय बात है कि ये आंते कत्लखाने की उपपैदावार नहीं हैं, परंतु जिस प्रकार माँस-चमड़ा एवं हड्डियाँ वजन करके बेची जाती हैं, उसी तरह ये आंते भी बेची जाती हैं। इन्हें ही काटकर, साफ करके बरख बनाने में प्रयुक्त किया जाता है। एक गाय-बैल की यह आंत तकरीबन ५४० ईंच लंबी और ३ ईंच गोलाई वाली होती है। उसे काटने पर ५४०" x १०” का चमड़ा बनता है। उसके ९" x १०” के कुल ६० टुकडे बनते हैं। ऐसे १७१ टुकड़ों की एक किताब (बरख रखने के पट) बनाई जाती है। पुनश्च इन आंतों की चमडी के बीच चांदी के छोटे-छोटे टुकड़े रखकर उस पुस्तिका को चमड़े से बाँधी जाती है। यहाँ पुनः उसे बाँधने में गाय-बैल के चमड़े का ही उपयोग होता है। इसके बाद कारीगर इस पुस्तिका को पूरे दिन निरंतर बडे-छोटे हथोडों से पीटते रहते है तब ३" x ५” के एकदम पतले बरख तैयार होते हैं। चमड़ा एवं गाय-बैल की आंतों की चमडी अत्यंत नरम होने से निरंतर पूरे दिन ८ घंटों तक हथोडों से जब तक वह अपेक्षित प्रमाण में बरख में रूपांतरित नहीं हो जाती तब तक पीटते रहते हैं और जब बरख तैयार हो 50 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा जाता है तब उसे बडी सावधानी से पतले कागज के टुकड़ों में रखकर मिठाईवालों को बेच दिया जाता है । १६० बरख का वजन लगभग १० ग्राम होता है जिसका मूल्य लगभग २०० /- रु. होता है। १७१ टुकड़ों की पुस्तिका बनाने में तीन गाय-बैल की आंतों का उपयोग होता है और एक पुस्तक में १६० बरख तैयार होते हैं । अन्य बरख बराबर न होने से वे उपयोग में नहीं लिए जाते । इस प्रकार पूरे वर्ष में लगभग ३०० दिनों में एक पुस्तिका से ४८००० बरख तैयार होते हैं अर्थात् एक गाय-बैल की आंत से प्रतिवर्ष १६००० बरख तैयार होते हैं। गाय-बैल की आंत की पुस्तिका पर जो चमड़ा लगाया जाता है वह गाय-बैल का या फिर बछड़े का होता है जिसमें तकरीबन २३२ चो. ईंच चमड़ों का उपयोग होता है। एक गाय-बैल का चमड़ा लगभग १८ चौ. फुट या २६०० चोईस होता है। अर्थात् एक गाय-बैल के चमड़े में से ऐसे १० पाउच तैयार होते हैं। सामान्यतौर पर एक किलो मिठाई पर चाँदी के ४ बरख का उपयोग होता है एवं एक गाय-बैल की आंत से लगभग ४०० किलोग्राम मिठाई हेतु चाँदी के बरख तैयार होते हैं। सामान्य गणना से विदित हुआ है कि भारत के एक मध्यमवर्गीय ४ व्यक्ति के परिवार में एक वर्ष में अंदाज से १०० किलोग्राम मिठाई का उपयोग होता है। इसप्रकार यदि औसतन ४ व्यक्तियों को मध्यमवर्गीय परिवार प्रतिवर्ष १०० किलोग्राम मिठाई का उपयोग ४० वर्षों तक करे तो बरख को बनाने में तीन गाय-बैल की आंतें एवं एक गाय-बैल के चमड़े का दसवों हिस्सा उपयोग में लिया जाता है । मात्र भारत में ही इस प्रकार से बरख बनाया जाता है ऐसा नहीं है । जर्मनी में छोटे-छोटे उद्योगकर्ता ऐसे ही सोने के बरख बनाते हैं जिसकी मोटाई १/१००० मिलि मीटर होती है जिसका उपयोग शोभा के लिए एवं यंत्रों में उपयुक्त इलेक्ट्रिक सरकीट के लेमीनेशन में होता है। यहूदी लोग भी सविशेष आहार में भारत की तरह ही सोने के बरख का उपयोग करते हैं । भारत में प्रतिवर्ष जो २७५ टन चाँदी के बरख का उपयोग होता है उसे तैयार करने हेतु प्रतिवर्ष ५१६०० गाय-बैलों की आंतों एवं १७२०० बछड़ों के चमड़े का उपयोग होता है। हमें ऐसी वैकल्पिक पद्धति ढूँढनी चाहिए कि जिसमें गाय-बैल की आंतों जैसे हिंसक पदार्थ का उपयोग न करना पड़े और चाँदी का बरख भी 51 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा तैयार किया जा सके । विशेषः जापान में निर्मित कृत्रिम कागज कि जिसके टुकड़े कैची के प्रयोग बिन संभव नहीं उसका उपयोग करके चाँदी का बरख बनाने का प्रयोग किया जा सकता है । यद्यपि यह जान लेना भी आवश्यक है कि वह कागज कैसे बनता है । 52 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा ८. अंडा विषयक वास्तविकता - प्रमोदा चित्रभानु तुम्हें याद है कि तुम्हारी बाल्यावस्था में तुम्हारी माता तुम्हें बिस्कुट खाने को मना करती थी क्योंकि उनमें अंडों का प्रयोग होता है और हम शाकाहारी हैं। मैने अनेक लोगों को यह कहते सुना है कि अंडा शाकाहारी भोजन है जो स्वास्थ्य के लिए उत्तम हैं, अतः अंडे खाने चाहिए। शाकाहारी अंडों की बात काल्पनिक है और उससे स्वास्थ्य सुधरता है यह बात भी विपरीत दिशा में ले जाने वाली है। अनेक शाकाहारी लोग भी अंडा खाते हैं यह बडी दुःखद बात है। अंडे के विषय में गलत मान्यतायें इस हद तक फैलाई गई है कि अंडे में सुषुप्त जीवन होता है, उसके अंदर चूजा होता है- यह बात भी मानने को कोई तैयार नहीं होता। मनुष्य की भोजन और स्वाद की प्रबल आकांक्षाने उसे हिंसक एवं क्रूरता पूर्वक तैयार की गई भोजन सामग्री (वानगी) के लिए प्रेरित किया। प्रकृति ने अंडों को मुर्गी और पक्षियों की वंशवृद्धि हेतु सर्जित किया हैं न कि मनुष्य के भोजन के लिए। हिंसक भोजन की तलप/लालसा वास्तव में तो मनुष्य की विचारशक्ति एवं भावनात्मक लगाव को नष्ट करते हैं, और मनुष्य को जड़ बनाते हैं जिससे वह किसी भी विषय की गहराई में जाने से और सत्य के प्रति कतराता है। परंतु यह अज्ञान-अंधकार कब तक रहेगा ? वास्तविकता तो वास्तविकता ही है वह कभी भी परिवर्तित नहीं होती चाहे कोई उसका स्वीकार करे या न करे। अब हमें अंडे के विषय में कुछ वास्तविकताओं, सत्य हकीकतों को जानना चाहिए एवं हमारे मस्तिष्क में जो अज्ञानता, गलत मान्यतायें घर कर चुकी हैं उन्हें दूर करना होगा। अंडे के संदर्भ में यहाँ जो प्रस्तुतिकरण है वह इन्दौर निवासी डॉ. नेमीचंदजी द्वारा लिखित पुस्तक "अंडे के संदर्भ में १०० वास्तविकतायें" पुस्तक से उद्धृत हैं। प्रत्येक पक्षीके अंडे की रचना अलग-अलग होती है। (देखें: Mc Donald Encyclopedia of Birds of the world) अंडे की आंतरिक रचना भी प्रजोत्पत्ति हेतु ही होती हैं- मनुष्य के उपयोग के लिए नहीं। मनुष्य ने अंडे का प्रयोग करके स्वयं को शिकारी की भूमिका में रख दिया है। अंडे का आहार के रूप में उपयोग करके उसने प्रकृति और पक्षियों के प्रजनन के कार्य में टाँग अडाई है। जो अहिंसा और जीवदया में विश्वास रखते हैं उनके लिए अंडा पूर्ण 53 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा प्रतिबंधित है। जहाँ अंडों के उत्पादन के लिए ही मुर्गी पालन होता है वहाँ सर्वत्र संपूर्ण हिंसा ही है। किसी भी पॉल्ट्री फार्म की मुलाकात से यह स्पष्ट हो जाता है। पॉल्ट्रीफार्म (मुर्गी पालन केन्द्र) में मुर्गियों को अंडा देनेवाली मशीन से अधिक कुछ नहीं समझा जाता । उन्हें अत्यंत तंग व कठिन परिस्थिति वाली १५" x १९” की जगह से टूंसकर रखा जाता है जिसका प्रभाव अंडा खाने वाले के रक्त एवं शरीर की कार्यपद्धति पर होता ही है। जिससे व्यक्ति के व्यक्तित्व में असमतुन आ जाता है। मुर्गी के चू| (Chiken) को छोटे-छोटे सँकरे पिंजरों में रखा जाता है जिन्हें चिकन हेवन्स (Chiken Heavens) कहा जाता है। अति तंग स्थान होने से प्राकृतिक रूप से ही बे चूजे (मुर्गी के बच्चे) स्वभावगत झगड़ालु हो जाते हैं। दो चूजें परस्पर जंगली तौर से घात-प्रतिघात करते रहते हैं अतः उनकी चोंच ही तोड़ दी जाती है। जिससे वे पानी भी नहीं पी सकते । क्या हमें यह अनुभव नहीं होता कि हमारी वर्तमान कठिनाइयों, आक्रमक वृत्तियों एवं पीड़ाओं के मूल कारणों में मुर्गी के बच्चों (चूजों) के ये आश्रय स्थान हैं ? जैसा कि अभी कहा कि मुर्गियों को परस्पर लड़ने से बचाने, परस्पर लहू-लुहान न करें अतः उनकी चोंच तोड़ डाली जाती है। यह चोंच तोड़कर बोथरी बनाने का कार्य विशेष तौर पर रात्रि के बदामी रंग के कम उजाले में किया जाता है जबकि मुर्गियों को कुछ भी दिखाई नहीं देता। मुर्गी के चोंच का नीचे का हिस्सा तोड़ दिया जाता है। यदि इसमें कोई गलती हो जाये तो फिर वह मुर्गी आजीवन कुछ भी नहीं खा सकती। जब मुर्गी की चोंच तोड़ी जाती है तब उसके आघात एवं घाव के कारण वह कम से कम तीन दिन कुछ भी नहीं खा सकने के कारण भूखी रहती है। क्या ऐसी क्रूरता का प्रभाव उस मुर्गी को खाने वाले पर पडेगा या नहीं? मुर्गी में से हिंसक प्रवृत्ति के जनक पांच प्रकार के खुराक का निर्माण किया जाता है (१) हड्डीयों का भोजन (२) रक्त का भोजन (३) मुर्गी के उत्सर्जित पदार्थ, अंडा विष्टा आदि (४) मांस का भोजन (५) विशिष्ट भोजन (Fish Meal) । क्या इतना जानने-समझने के बाद भी हम कहेंगे कि अंडा शाकाहारी हैं। प्रथम तो अंडे को शाकाहारी कहना या उसे शाकाहारी नाम देना ही गलत है। फलिनीकरण हुए अंडे में से बच्चा ही पैदा होगा, जो उसका मूल हेतु ही है। फलिनीकरण बिना के अंडे में से इस प्रकार बच्चे पैदा नहीं होते और वह संपूर्ण अखाद्य है । मुर्गी को निरंतर कष्ट देकर प्राप्त किए जानेवाले, मानो 54 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा कारखाने में उत्पन्न किए जा रहे हों ऐसे अंडे वास्तव में आरोग्य के लिए अहितकर हैं अतः सर्वश्रेष्ठ बात तो यह है कि अंडे खाने ही नहीं चाहिए । मुर्गे के समागम के बिना जो अंडे प्राप्त किए जाते हैं वे फलिनीकरण रहित माने जाते हैं, परंतु उमनें भी जीव तो होता ही है। अर्थात् वे भी सजीव ही हैं क्योंकि अंडे की उत्पत्ति तो मुर्गी से ही हुई है जो मुर्गी के ही रक्त व कोषों से निर्मित होता है। अतः उसका भोजन में उपयोग १००% ( शत प्रतिशत) मांसाहार ही है । मि. फिलीप जे. स्केम्बल (Mr. Philip J. Scambla) नामके प्रसिद्ध अमरीकन वैज्ञानिक के कथनानुसार कोई भी अंडा कभी भी शाकाहारी नहीं होता । अमरीका की मिशिगन (Michigen) युनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध किया है कि इसमें कोई शंका नहीं है कि अंडा चाहे फलित हो, चाहे फलित न हो परंतु वह कभी भी निर्जीव नहीं होता । मादापक्षी नरपक्षी की अनुपस्थिति में फलित हुए बिना के अंडे देती हैं परंतु अवलोकन से यह स्पष्ट पता चला है कि मुर्गे-मुर्गी के समागम से पूर्व दिन वह अफलित अंडे देती है परंतु समागम के पश्चात् दूसरे दिन भी अंडा देती है । दूसरे शब्दों में कहें तो वह मुर्गे के समागम के अलावा भी फलित अंडा दे सकती है । इसका यह अर्थ हुआ कि मुर्गे के शुक्राणु मुर्गी में लंबे काल तक रहते हैं। कुछ परिस्थितियों में यह समय छ महिनों तक के अन्तराल तक रहता है। फलित अंडा वह चूजे के जन्म की पूर्व भूमिका है। फलित अंडा मुर्गी के प्रजनन चक्र का ही परिणाम है और वह अत्यंत अप्राकृतिक है । दोनों प्रकार के अंडे मांसाहार ही है । 'Campassion ! The Ultimate Ethics' पुस्तक के लेखक विक्टोरिया मोरन (Victoria Moran) का कथन है कि फलित अंडा खाना अर्थात् बच्चे के जन्म से पूर्व उसका भक्षण करना है जो अनैतिक है । मैंने कहा है कि फलित हुए बिना अंडा मुर्गी के प्रजनन चक्र की पैदाइश है जो शायद ही मनुष्य का प्राकृतिक आहार है ही नहीं। अंडा चाहे फलित हो या अफलित उसमें जीवन होता है और उसमें जीवन के सभी लक्षण जैसे कि श्वासोच्छवास, मस्तिष्क, आहार प्राप्ति की शक्ति आदि होते हैं । अंडे के छिलके में श्वासोच्छवास के लिए १५००० छिद्र होते हैं । ८ डिग्री सेल्सियस उष्णतामान में अंडा सड़ने लगता है। यह सड़ने की प्रक्रिया का प्रारंभ होते ही तुरंत स्वयमेव उसके अंदर के पानी के बाष्पीभवन द्वारा इस सडने की क्रिया को स्पष्ट करता है । अंडे पर सूक्ष्म जीवाणु आक्रमण करते हैं 55 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा जिससे उसमें रोग के कीटाणु भी फैलते हैं। यह सड़न शीघ्र ही अंडे के बाह्य कवच तक पहुँच जाती है । अंडे में लोलेस्ट्रोल (Cholesterol) अत्यधिक प्रमाण में होता है। उसका पीला भाग कोलेस्ट्रोल से परिपूर्ण होता है । कोलेस्ट्रोल धमनी / रक्तवाहिनी को सैंकड़ा करता है जिसके परिणाम स्वरूप हृदयरोग का आक्रमण, पक्षाघात ( पेरेलेसिस) होता है । अंडे का आहार करने से वायु के रोग एवं गठिया संबंधी रोग उत्पन्न होते हैं। परिणाम स्वरूप वृद्धावस्था में जोड़ों में भयानक दर्द होता है। उपरोक्त हकीकत यह बात सिद्ध करती हैं कि अंडा शाकाहारी नहीं है अतः अंडे के विषय में आप पुनः पुनः विचार करें एवं अंडा रहित समतोल आहार लेने का प्रारंभ करें जिसमें तंदुरस्ती की रक्षा हेतु अनेक पोषक द्रव्य एवं रेषाओं की विपुलता होती है। 56 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा ९. अंडा विषयक वास्तविकता - प्रमोदा चित्रभानु कितने लोगों को पता है कि रेशमी वस्त्र पहिनने या उसका उपयोग करने में तथा गौरव के साथ धार्मिक स्थानों पर ऐसे रेशमी वस्त्र पहनने में हिंसा का दोष लगता है ? दुर्भाग्यपूर्ण या विचारणीय बात तो यह है कि रेशम की उत्पत्ति उसके निर्माण की प्रक्रिया के विषय में किसी भी प्रकार का प्रश्न किए बिना ही हम परंपरा का अंधानुकरण करते हैं। ई.स. ११३३ में जब महाराज कुमारपाल गुजरात के राजा थे तब से धार्मिक पूजाविधि में रेशमी वस्त्रों के प्रयोग का प्रारंभ हुआ। महाराज कुमारपाल के शासन काल में वे तत्कालीन जैनाचार्य कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्रसूरिजी से अति प्रभावित थे। श्री हेमचंद्रसूरिजी जैन तीर्थंकर श्रमण भगवान महावीर स्वामी की उस परंपरा में हुए महान जैनाचार्य थे। उनके अहिंसा व जीवदया के प्रवचनों से प्रभावित होकर उसने अपने संपूर्ण राज्य में आहार, खेलकूद, एवं मनोरंजन हेतु की जानेवाली हिंसा पर संपूर्ण प्रतिबंध लगा दिया था । ऐसा कथन है कि श्री हेमचंद्राचार्य जी की प्रेरणा से महाराज कुमारपाल ने अपने धर्मनिष्ठ जीवन का प्रारंभ किया था एवं भगवान महावीर स्वामी के प्रति अपना भक्तिभाव प्रकट करने हेतु वह प्रतिदिन मूर्ति की चंदन आदि द्रव्यों से पूजन करता था । महाराज कुमारपाल से यह कहा गया था कि वह पूजन में कीमती वस्त्र परिधान करें अतः उन वस्त्रों को प्राप्त करने की उसने आज्ञा दी । महाराजा के सेवकों ने सर्वाधिक मूल्यवान, सुन्दर, कोमल चीन से आये वस्त्रों का चयन किया । उस समय महाराज कुमारपाल को यह ज्ञात नहीं था कि उनके लिए चुने गये एवं परदेश से आयातित वस्त्रों के निर्माण में कीड़ों को मार डाला जाता हैं एवं ये वस्त्र पूर्ण हिंसक हैं । यदि उन्हें इस तथ्य का पता होता तो वे कभी पूजा में इन वस्त्रों का उपयोग न करते । परंतु ऐसी मान्यता है कि उसी समय से धार्मिक प्रभू पूजा जैसे प्रसंगों में, धार्मिक स्थानों पर रेशमी वस्त्रों का उपयोग प्रारंभ हुआ है। यह दुर्भाग्य ही है कि आज भी लोग धार्मिक विधि विधानों में रेशमी वस्त्र पहिनते हैं एवं उन्हें सही बतलाते हुए गौरव से कहते हैं कि महाराज कुमारपाल ने भी ऐसे वस्त्र पहने थे । अब यह समय आ गया है कि लोगों को वह सत्य समझाकर जागृत किया जाये कि रेशम की उत्पत्ति कैसे होती है, उसके निर्माण में क्या प्रक्रिया होती है। भारत में 'ब्युटी बिधाउट क्रुअल्टी' नामक संस्थाने इस क्षेत्र में कार्य 57 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा किया है एवं रेशम के उत्पादन में कितनी हिंसा होती है उस पर प्रकाश डाला है। सुकोमल, नरम एवं चमकते रेशमी वस्त्र सदैव आकर्षक लगते हैं। वास्तव में २००० वर्ष पूर्व यह सुन्दर वस्त्र चीनसे आयात किए जाते थे और इसीलिए संस्कृत भाषा में इन्हें “चिनांशुक” कहा जाता था । उनके बनाने की प्रक्रिया उत्पत्ति को अति गोपनीय रखा जाता था क्योंकि उस प्रक्रिया में लाखों जीवों की हिंसा होती थी । रेशम के तार वास्तव में रेशम के कीडे द्वारा कोशेटो बनाने के लिए उत्पन्न एक प्रकार के पतले तार हैं। कोशेटो वास्तव में तो उसके स्वयं के रक्षणार्थ बनाया गया इल्ली एक प्रकार का मजबूत कबच है जो उसके जीवन (इयब्व) में से कोशेटा एवं तितली तक की विविध अवस्थाओं में रक्षण करते हैं । मादा तितली ४०० से ६०० अंडे देती है । दस दिन के सेवन के पश्चात् अंडों में से १/१२* लंबी इल्ली निकलती है जिसे लावां कहा जाता है। शहतूत के पत्ते उसका भोजन होता है । २५-२७ दिन तक उन शहतूत के पत्तों को खाकर वह लगभग ३ - ३.१/२" लंबी हो जाती है । पूर्ण रूप से पुख्त इल्ली अपने मुंह में से गौंद जैसा पदार्थ बाहर निकालती है एवं तार के स्वरूप में अपने इर्द-गिर्द लपेटती है और दो से चार दिन में कोशेटो बनाती है और बाद में १५ दिनमें उसी कोशेटा में इल्ली में से तितली का रूपांतरण होता है। वह तितली उस कोशेटो को काटकर बाहर आती है जिससे रेशम के तार के टुकड़े हो जाते हैं । कोशेटो के रेशम का टुकड़े न हो जायें इसलिए कोशेटो को उबलते पानी में डाला जाता है या फिर गरम हवा में से निकाला जाता है या फिर सूर्य की तेज किरणों मे सुखाया जाता है। । जिससे अंदर की इल्ली मर जाती है। पश्चात् कोशेटों के रेशम के तार को लकड़े की फिरकनी में लपेट कर रोल बनाया जाता है। I लगभग १०० ग्राम शुद्ध रेशम की प्राप्ति हेतु १५०० कोशेटों की इल्लियों को मार जाला जाता है । कुछ कोशेटों को नर-मादा तितलियाँ प्राप्त करने के लिए अलग रखा जाता है। मादा तितली के अंडे देने के पश्चात् रोगों की जाँच करने हेतु उसको नष्ट कर दिया जाता है। यदि उस मादा तितली को कोई रोग हो तो उसके अंडों का भी नाश कर दिया जाता है। इस प्रकार पीढी दर पीढी प्रजोत्पत्ति होने से बाद की तितलियों उड़ने की क्षमता खो देती हैं। नर तितली का उपयोग प्रजनन हेतु करने के पश्चात उसे एक टोकरी में रखकर बाहर फेंक देते हैं । 58 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा भारत में चार प्रकार की तितलियों द्वारा विविध प्रकार का रेशम प्राप्त किया जाता है। उनके नाम इस प्रकार हैः मलबेरी, तुस्सार, एरि एवं मुंगा । रेशम उत्पादक अन्य देश चीन, जापान, रशिया, इटली, दक्षिण कोरिया आदि में मलबेरी रेशम बनाया जाता है परंतु एरि और मुँगा रेशम सिर्फ भारत में ही बनता है। अन्य कुछ वस्त्र भी रेशमी वस्त्रों से दिखाई देते हैं परंतु वे मान सर्जित कृत्रिम रेषों से बनाये जाते हैं जो कृत्रिम रेशम के नाम से प्रसिद्ध है। उसमें से रेयोन (चीकने-चिर्पाचम्येतार) वनस्पति में से बनते हैं जबकि नायलोन एवं पोलिस्टर (टेरीन) पेट्रोलियम का उप उत्पादन (Byproduct) हैं। एक बार बुना गया रेशम, उसकी बुनने की रीति (डिजाइन) एवं वह वस्त्र देश या प्रदेश के नाम से अलग-अलग नामों से पहिचाना जाता है। बोस्की (Boski), शुद्ध क्रेप (काला रेशमी वस्त्र- Pure Crepe), शुद्ध पारदर्शी रेशम, शुद्ध सिफोन (Pure Chiffon), शुद्ध गजी (Pure Gaji), शुद्ध पतला रेशमी वस्त्र, शुद्ध जार्जेट (Pure Georgette), खादी सिल्क, ओरगेन्जो (Organza), शुद्ध साटिन (Pure Satin), मटका सिल्क आदि १००% रेशमी वस्त्र हैं । कलकत्ता, गढवाल, मदुराई एवं शांति निकेतन में से तैयार होने वाली साड़ियाँ या तो १००% रेशमी या १००% सूती होती हैं। नारायण पेठ (आंध्रप्रदेश) की साड़ियाँ भी १००% रेशमी या सूती हो सकती हैं । वेंकटगिरि साड़ियाँ संपूर्ण सूती या कुछ अंशों में रेशमी हो सकती हैं । चंदेरी, टिश्यु, पूना, वेंकटगिरि एवं मध्यप्रदेश की महेश्वरी साड़ियों में खडे तार रेशम के एवं आडे तार सूती होते हैं। मणिपुरी कोटा एवं मुंगा कोटा में रेशम व सूत दोनों होते हैं। मटका सिल्क १००% रेशम है। इस मटका सिल्क में खड़े तार परंपरानुसार रेशम के होते हैं जब कि आडे तार तितलियों द्वारा अपने मुख से कोशेटों को काटकर जीवित बाहर निकल गये हों ऐसे कोशेटो के होते है। इन तितलियों के अंडे रखते ही उन्हें मार डाला जाता है। शुद्धक्रेप, चिनोन, सिफोन, गजी, जोर्जेट, साटिन आदि जैसे वस्त्र मानव निर्मित कृत्रिम रेषा में से बनाये जाते हैं उसे कृत्रिम रेशम (Art Silk) कहा जाता है। तानछोई नामक सस्ते रेशमी वस्त्र में खड़े तार रेशम के एवं आडे तार कृत्रिम रेशम के होते है। चाइनीज नहिं परंतु चाइनासिल्क नामक जापानीज एवं भारतीय रेशमी वस्त्र में शुद्ध रेशम नहीं होता है परंतु पोलिस्टर होता है। 59 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा जो रेशम की परीक्षा करना चाहें वे निम्न प्रकार से कर सकते हैं । रेशमी वस्त्र के रेशम की परीक्षा करने हेतु आप खडे व आडे धागों को ( तारों को) अलग करके जलावें । शुद्ध रेशम के तार मनुष्य के बालों की तरह जलते हैं। थोड़े से बाल चीमटी से पकड़कर जलाओ और वे कैसे जलते हैं यह देखो । जब उनका जलना बंद हो जायेगा तब वे आलपीन के शिरोभाग की तरह राख के छोटे गोले बन जायेंगे । उन्हें ऊँगली में लेकर चूरा करो और उस पावडर को सूंघो । जले हुए बाल, रेशम, ऊन एवं चमड़े की दुर्गंध एक सी होती है एवं जलने की प्रक्रिया भी एक सी होती है। यदि सूत या कृत्रिम रेशम होगा तो वह ज्योति के रूप में जलेगा उसका पिंड नहीं बनेगा । और उसकी रेशम की तरह दुर्गंध भी नहीं आयेगी । यदि नायलोन या पोलिस्टर होगो तो सख्त कांच की तरह पिंड बन जायेगा । बोस्की, शुद्ध क्रेप, शुद्ध सिफोन, गजी, शुद्ध जोर्जेट, खादी सिल्क, ओर्गेन्झा, शुद्ध शाटीन, कच्चा रेशम, मटका सिल्क एवं जिनके नाम हम नहीं जानते ऐसे रेशमी वस्त्रों में १००% शुद्ध रेशम का समावेश होता है । 60 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा १०. मोती - प्रमोदा चित्रभानु प्राचीन काल में चमकदार एवं सुन्दर प्राकृतिक मोती धनिक मालिकों की सम्पत्ति एवं गौरव की निशानी हुआ करते थे। हम जबकि अतीत के महाराजा और महारानियों के तैलचित्र देखते हैं तो उनमें उनके गले में लंबे मोतियों के हार (Neck less) तथा कलाई में मोतीजेड कंकण (Bracelets) दिखाई देते हैं- जो पुनः पुनः उनकी अमरी के परिचायक हैं । , आज अलग बात है, हम देखते हैं कि विश्व का कोई एक कौना भी बाकी नहीं है जहाँ बेर विरोध या हिंसा का वातावरण न हो। यदि हम मोती की समस्त बातों को जान लें तो हम शायद ही उसे अपनी सम्पत्ति का गौरवशाली हिस्सा मानेंगे। इतना ही नहीं जिन्हें जीवन बहुमूल्य लगता है उनके लिए तो यह दुःख और पीड़ा की निशानी हैं। दंतकथायें और परीकथाओं में मोती संबंधी कडवी वास्तविकताओं को छिपाया जाता है । वस्तुतः गहरे समुद्र में स्थित छीपों के जीवों की पीड़ा में से मोती की प्राप्ति होती है । मोती जीवित छीपों का प्राकृतिक अंश नहीं है परंतु खीप के लिए नापसंद पीड़ा व नापसंदगी में तैयार की गयी वस्तु है। जब कोई रेती का कण, किसी कवच का छोटा टुकड़ा या किसी अप्रिय परोपजीवी जन्तु अचानक खुली छीप के कवच में आ जाते हैं तब उसमें से मोती तैयार होता है । जैसे किसी मनुष्य की आँख में रजकण गिर जाये और जब तक वह निकल न जाये तब तब पीड़ा देता है वैसी ही पीड़ा छीप को मोती तैयार करने में होती है। विशेष रूप से छीप इस नवागंतुक बाह्यकण को बाहर नहीं निकाल पाती । अतः वह इस नये कण द्वारा होने वाली वेदना को कम करने के लिए उसके आसपास चाँदी जैसा चमकता केल्शयम कार्बोनेट का प्रवाही फैला देती है । सामान्यतः छीप अपने अंदर के कवच की तह बनाने में इसका उपयोग करती है। कुछ वर्षों के पश्चात् पीड़ा दायक उस कण के आसपास का वह प्रवाही (Nacre) के स्तर द्वारा मोती बन जाता है जो छीप में निहित जीव को कम पीड़ा देता है। इस प्रकार काली छपी मेघधनुष के रंगों की झिलमिलाहट वाला सप्तरंगी मोती उत्पन्न करती है। ऐसी प्राकृतिक प्रक्रिया होने से मोती अत्यंत कम संख्या में प्राप्त होते हैं। पश्चात् मनुष्य की लोभवृत्तिने मोती प्राप्त करने के लिए अनेक कृत्रिम मार्ग और पद्धतियों का 61 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा अनुसंधान कर लिया। ऐसा ही एक मानव कोकीची मीकी मोटो (Kokichi Miki Moto) ने छीपमें मोती उत्पन्न करने के प्रयोग वर्षों तक किए । ई.ल, १९०० के प्रारंभ में उसे इसका समाधान प्राप्त हुआ और उसने जापान में व्यावसायिक ढंग से कल्चर मोती बनाने की एक पद्धति का संशोधन किया और इसतरह द्वीप के दर्दनाक जीवन का प्रारंभ हुआ। मीकी मोटो ने कालु प्रकार की छोटी छीपो द्वारा मोती उत्पन्न करने की पद्धति का पेटन्ट प्राप्त कर लिया। इस प्रक्रिया में प्रारंभ में गोताखोरों द्वारा समुद्र तल में कालु प्रकार की छीपों को खोजा जाता है। फिर कारीगर ताजे जल की छोटी छीप में से निर्मित गोल गरेय लेता है ये गोल गुरिये मोती हेतु केन्द्रक (Nucleus) कहलाते हैं जिन्हें कालु प्रकार की छीप में आगत बाह्य कण के रूप में स्थापित किया जाता है। बाद में उस जीवित द्वीप का टुकड़ा काटकर दूसरी खीप में आरोपित या स्थापित किया जाता है। यह पूरी प्रक्रिया जीवित द्वीप को बेहोश किए बिना ही किया जाता है । यह टुकड़ा कण वर्षो तक छीप को चुभता है और पीडित करता है। यह पीड़ा कण पर आवरण चढाने हेतु प्रवाही उत्पन्न (Nacre ) करता है जो कण के आस-पास लिपट कर अनेक परतें बनाकर मोती बनाता है। ऐसे बीजवाले कल्चर मोती संपूर्ण गोल एवं अधिक चमकीले होते हैं । विशेष बात तो यह है कि मनुष्य की गलत आदतें (लत) एवं लोभ के कारण ऐसे मोती विपुल प्रमाण में उत्पादित किए जाते हैं । वर्षों तक, जब तक उस छीप को खोलकर उसमें से मोती न निकाल लिया जाये तब तक उसे चोट व पीड़ा का दुःख सहन करना पड़ता है। कभी कभी में से कुछ भी प्राप्त नहीं होता और उसके जीवन का अंत हो जाता है। सच्चे और कल्चर मोती की दर्दनाक प्रक्रिया को जानने के बात यह बात गलत सिद्ध होती है कि मोती की प्राप्ति में कोई हिंसा नहीं होती । बहुत से लोगों की मान्यता है कि कल्चर मोती मनुष्य द्वारा बनाये जाते हैं वे बनावटी या खोटे होते हैं या मशीन द्वारा बनाये जाते हैं। पर वास्तविकता अलग ही है । कल्चर मोती भी छीप में ही तैयार किए जाते हैं जो प्रतिवर्ष लाखों छीपों को मारकर दयाहीन होकर प्राप्त किए जाते हैं । तो 62 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा ११. दूध के विषय में काल्पनिक बातें बचपन से ही हमारे दिमाग में यह बात ठसा पोषण होता है और हड़ियों के लिए वह उत्तम है। हाँ श्रेष्ठ आहार है । परंतु कौन कहता है कि शेष जीवन के के - प्रमोदा चित्रभानु दी गई है कि दूध के दूध 'की आवश्यक्ता है ? अरे ! प्राणी भी अपनी माता का स्तनपान छोड़ने पर अन्य प्राणियों का दूध नहीं पीते, तो फिर हमें क्यों दूसरे प्राणियों का दूध पीना चाहिए ? क्या दूध आवश्यक है ? क्या हम इन परिस्थितियाँ और आदतों से बाहर नहीं आ सकते ? तुम्हें पता है कि तुम्हारे टेबल पर जो दूध का ग्लास रखा है वह किसी अनजाने बछड़े के लिए है । यदि तुम्हारे की बालक को उसकी माँ का दूध न दिया जाये तो तुम्हें कैसा लगेगा ? हमने ऐसे प्रश्नों को प्राणिजगत के संदर्भ से जोड़ने का प्रयत्न ही नहीं किया हो। प्राणी मानव शोषण के साधन हैं ऐसा मानकर हमने उनका दुरुपयोग ही किया हैं । हम जो दूध पीते हैं वह गाय-भैंस का ही होता है जिसे हर प्रकार की शारीरिक व मानसिक पीड़ा दी जाती है और उनका शोषण किया जाता है । यदि हमारे जीवन व्यवहार में ही हिंसा हो तो फिर हम अहिंसा की बात कैसे कर सकेंगे ? 63 माता का दूध अवश्य लिए हमें अन्य प्राणियों नोबेल प्राईज विजेता आइझेक सिंगर (Isaac Singer) ने एकबार कहा था “यदि हम दूसरों के प्रति दया भाव नहीं रखेंगे तो हम ईश्वर के पास से दया की भीख कैसे माँग सकते हैं ? हम जो दूसरों को देते हैं वहीं हमें प्राप्त होता है। यदि हम दूसरों को आनंद-सुख देंगे तो हमें भी आनंद सुख प्राप्त होगा। यदि हम दूसरों को दुःख देंगे तो हमे भी बदले में दुःख ही मिलेगा।" हम दूध उद्योग की वास्तविकता की कथा (तथ्य) की जाँच करें एवं कैसी त्रासदायक परिस्थिति में गाय-भैंस से दूध प्राप्त करते हैं उसे जाने-समझें । नीचे का अवतरण श्रीमती मेनका गाँधी लिखि Heads & Tails पुस्तक से उद्धृत हैं। इसमें उन्होंने गाय-भैंस के भाग्य और विनाश को प्रस्तुत किया है । यह सब भारत एवं विश्व के अन्य देशों में जहाँ गाय-भैंस का शोषण होता है एवं अत्यंत क्रूप रूप से उनका दुरूपयोग होता है, वहाँ घटिक होता है । । डेयरी उद्योग की गाय-भैंस से निरंतर एक सा दूध प्राप्त करने के लिए जब वे २ वर्ष की होती हैं तब से ही उन्हें सगर्भा बनाया जाता है। बच्चे को जन्म देने के पश्चात वे १० महिनों तक दूध देती हैं परंतु तीसरे महिने ही उन्हें कृत्रिम गर्भाधान द्वारा पुनः सगर्भा बनाया जाता है और शेष ७ महिने Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा तक सगर्भावस्था में ही उससे दूध प्राप्त किया जाता है। बच्चे के जन्म एवं पुनः गर्भाधान के बीच मात्र ६ से ८ सप्ताह का ही अन्तर रखते हैं। इन गाय-भैंसो को दिन में दो बार दुहा जाता है। भारतीय दूध उद्योग की औसतन गाय-भैंस की लगभग ५ बार प्रसुति कराई जाती है या फिर आनुवंशिक रूपसे सगर्भावस्था में बड़े कोमल थन रहते हैं तब तक सगर्भा बनाया जाता है । अधिक दूध प्राप्त करने हेतु गाय-भैंस को जो अनेक मनुष्यों का भोजन है उस सोयाबीन की रोटियाँ खिलाई जाती है। इसके बावजूद दूध का उत्पादन उनकी भूख को पूरी नहीं कर पाता अर्थात् गाय-भैंस को जितना खिलाया जाता है उससे भी अधिक दूध की माँग होती है। अधिक दूध प्राप्ति हेतु उसके कोषों को ही नष्ट करने लगते हैं परिणाम स्वरूप उस गाय-भैंस को कीटोसीस (Kitosis) नामक रोग हो जाता है । रूमेन एसीडोसीस (Rumen Acidosis) नामक अन्य रोग गाय-भैंस को उम्र से पूर्व संकुचित (कमजोर) बना देता है। यह रोग जल्दबाजी में किए जाने वाले कार्बोहाइड्रेटस के कारण जल्दी पनपता है । यह रोग गाय-भैंस को पंगु बना देता है । गाय-भैंस को अधिकांश समय सँकरे स्थान में उसी के मल-मूत्र में बाँधकर रखा जाता है जिससे उसके थनों में असह्य वेदना होती है। इस लंबी बिमारी के दौरान गाय-भैंस को एन्टिबायोटिक्स दवायें हॉर्मोन्स एवं अन्य दवायें देकर जीवित रखा जाता है । इन सभी दवाओं का अंश हमारे उस दूध में भी होता है जिसका हम उपयोग करते हैं । 9 प्रति वर्ष डेयरी की गाय-भैंसो में से २०% गाय-भैंसो को रोग या दूध नहीं देने के कारण दूर किया जाता है । फिर उनको भूखा मारा जाता है या फिर कत्लखाने भेज दिया जाता है । वहाँ उनकी कत्ल उन लोगों की माँसपूर्ति के लिए किया जाता है जो माँस खाने में कोई बुराई नहीं मानते । इस प्रकार दूध उत्पादन एवं माँस के व्यापार का अत्यंत घनिष्ट संबंध है । कोई भी गाय-भैंस इसी कारण अपनी प्राकृतिक आयु को पूर्ण नहीं कर पाती । गाय-भैंस को तब तक पालते पोषते हैं जब तक वह दूध देती है- पश्चात् वह बीमार हो जाती है और अंत में उसे मार डाला जाता है । उस गाय के बछड़ेबछड़ी, पाड़े-पाड़ी का क्या होता हैं ? तुम्हें खबर है ? अधिकांश बछड़ेबछडी, पाड़ा-पाड़ी को उनकी माता गाय-भैंस से सिर्फ ३ दिनों में ही अलग कर दिया जाता है। यदि बछड़ी या पाड़ी तन्दुरुस्त हो तो डेयरी के गाय-भैंस के स्थान पर उसे रखने हेतु दूध के वैकल्पिक खुराक पर उसे रखा जाता है । पर यदि प्रसूत बछड़ा या पाड़ा हो तो उसे बांधकर रखते हैं और भूखों मार 64 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा डाला जाता है । ऐसे ये बछड़े-पाड़े सामान्यतः अत्यंत दारूण दुःख भोगते हुए एक सप्ताह में मृत्यु पाते हैं । कुछ बछड़ो-बछड़ी, पाड़ा-पाड़ी को ट्रको में ठूंसठूंसकर भरकर अनधिकृत कत्लखाने भेज दिया जाता है जहाँ उनकी रेस्टोरन्ट / होटलों के हेतु कोमल मॉस हेतु कत्ल कर दी जाती है। होटलों में भी यह सब गैरकानूनी चलता रहता है । कुछ बछड़े - बछड़ी, पाड़ा-पाड़ी को पनीर का उद्योग चलाने वालों को बेच दिया जाता है। जब ये जीवित होते है तब उनकी होजरी में चित्र करके उसमें से रेनेट (Rennet) नामक प्रवाही पाचर रस, जो बट्टा एसिड होता है, उसे निकाल लिया जाता है । जिसका पनीर बनाने में उपयोग होता है। कुठ स्वस्थ बछड़ो या पाड़ो को पसंद करके उनका उपयोग कृत्रिम गर्भाधान कराने के लिए उन्हें अंधेरे एकांत अहाते में रखा जाता है । कितनी ही बार ऐसे बड़े बैल और पाड़ों को गलियों में भटकने के लिए छोट दिया जाता है जहाँ वे वाहनों से टकरा कर मरते हैं। मुझे पता है कि मैने एक सप्ताह में इस प्रकार मरने वाले आठ बैलों को पकड़ा है। गाय-भैंस का मूल स्वभाव क्या है ? वे अपने बच्चों का समर्पित भाव से अपने जीव का जोखिम उठाकर भी उनका पालन करते हैं। उनका कार्य है घासचारा खोजना, खाना, जुगाली करना एवं धैर्यपूर्वक प्रकृति के साथ संवादिता स्थापित करके २० वर्ष की आयु पूर्ण करना । गाय-भैंस मात्र चार पाँव वाली दूध दोहन की मशीन नहीं हैं कि जिनको कम से कम मूल्य में दूध प्राप्त कर अनाथ बनाकर, गर्भाधान करवाकर, अनाज खिलाकर, दवायें देकर, कृत्रिम वीर्यदान कर चालाकी की जाये। क्या आपने भारतीय डेरी का वर्षो पुराना फूकन नामका रिवाज देखा है ? जो कानूनन भी अयोग्य है, फिर भी आज भी हजारों गाय-भैंसो पर उनका प्रयोग हो रहा है। गाय-भैंस जैसे ही कम दूध देने लगे तो तुरंत उसके मालिक उसके मूत्र मार्ग में एक लकड घुसेड़ते हैं एवं तीव्र वेदना देने हेतु उसे गोल गोल घुमाते हैं । इसका मूल कारण यह है कि ग्वालों की ऐसी मान्यता है कि ऐसा करने से गाय-भैंस अधिक दूध देती हैं। इससे उनके गर्भाशय में छाले पड़ जाते हैं। विचार करो यदि किसी स्त्री के साथ ऐसा व्यवहार किया जाये तो ? गाय-भैंस को तो किसी भी तरह अधिक दूध देने हेतु यह क्रूर कार्य किया जाता है और जब वह कम देने लगती है तो एक जगह बाँधकर भूखा मार डाला जाता है या फिर अन्य ४०-५० गाय-भैंसो के साथ ट्रक में भरकर कसाई के यहाँ ले जाया जाता है। 65 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा एक ऐसी भी मान्यता है कि डेयरी उत्पादन अत्यधिक प्रमाण में प्रोटीन व लौहतत्व प्रदान करते हैं। अतः जो शाकाहारी हैं वे अधिकाधिक प्रमाण में दूध एवं उससे निर्मित पदार्थो का सेवन करते हैं । उत्तर भारत में तो एसी मान्यता है कि दूध और पनीर मॉस से प्राप्त होनेवाले प्रोटीन का विकल्प है। ऐसे लोग लौहतत्त्व की कमी के कारण एनीमिया (Anemia) रोग से पीड़ित मिले हैं। वस्तुतः दूध से लौह तत्त्व तो मिलता ही नहीं है उल्टे अन्य तत्त्वों से प्राप्त लौह तत्त्व को रक्त में घुलने से रोकता है। हरी सब्जियों में से लौह तत्त्व सर्वाधिक प्रमाण में प्राप्त होता है । उदा. एक बड़े कटोरे भर सब्जी में से जितना लौहतत्त्व मिलात है उतना लौहतत्त्व प्राप्त करने के लिए ५० गैलन दूध पीना पड़ेगा । यदि आप मात्र एक गिलास ही दूध लें तो उसके कारण आपको सब्जी से प्राप्त लौह तत्त्व रक्त में घुल नहीं सकता। अर्थात् अपने भोजन में लिए समस्त शाक-सब्जी को मात्र एक गिलास दूध निरर्थक बना देता है। यदि ऐसा है तो हरी साग-सब्जी खाने का क्या अर्थ ? अपने शरीर को सम्हालें । क्या आप जानते हैं कि जब आप बीमार होते हैं तब दूध पीने के विचार से ही ग्लानि होने लगती है । तब तुम्हारे डॉक्टर भी यही कहता हैं कि जब तक ठीक न हो जाये तब तक के लिए छोड़ दो। इसका कारण यह है कि चार वर्ष की उम्र के पश्चात् अधिकांश व्यक्ति दूध में रहने वाले लेक्टोज नामक कार्बोहाइड्रेइट्स को पचाने की शक्ति खो बैठते हैं । इसके परिणाम स्वरूप उन्हें हठीला अतिसार / संग्रहणी, वायु पेट की ऐंठ जैसे रोग हो जाते है जहाँ तक प्रोटीन का संबंध है वहाँ तक दूध-शाक-सब्जी में से जितना प्रोटीन प्राप्त होता है उतना ही प्राप्त होता है और कुछ सब्जियाँ तो दूध से भी अधिक प्रोटीन देती हैं। मानवशरीर को दैनिक कैलरी की आवश्यकता के सिर्फ ४ या ५ प्रतिशत प्रोटीन की है। प्रकृति ने उसके आहार की व्यवस्था ही ऐसी की है कि यदि आप सिर्फ रोटी, दाल-शाक ही खायें तो भी आवश्यकता से अधिक प्रोटीन प्राप्त हो जाता है । डेयरी उत्पादन के विकल्प में सोयाबीन का दूध लिया जा सकता है जिसमें विटामिन्स एवं स्वाद दूध जैसा ही होता है । सोयाबीन के दूध से उत्तम प्रकार का दहीं, पनीर, आइस्क्रीम, मक्खन, चीज़, दूध की चॉकलेट, शाकाहारी मक्खन-घी भी बनाया जा सकता है जो दूध से कम लागत में बन सकता है। दूध वास्तव में अकारण चोरी हैं। क्या आप ऐसा विचार भी कर सकते हैं कि किसी बछड़े ने स्त्री का दूध पिया हो ? कभी नहीं। तो फिर आप 66 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा कैसे उसकी माता का दूध पी सकते हैं ? अग्नि एशिया एवं मध्य पूर्व के देशों में अधिकांशतः कोई किसी हल्की वस्तु का स्पर्श भी नहीं करता है जो सही है । अधिक अभ्यास करने से पता चला है कि एशियन अधिक मात्रा में लेक्टोस को पचा ही नहीं सकते। भारत में वर्षों से चल रहे विज्ञापन युद्ध ने यह बात लोगों में ऐसी दृढता से प्रचारित की है कि दूध प्राकृतिक संपूर्ण आहार है । परंतु यह नितांत असत्य है, यह मात्र गलत मान्यता के अलावा कुछ भी नहीं है और यह अति भयंकर है। एक ग्लास दूध, एक कप आइस्क्रीम या मक्खन आप खाते है उससे आपको तो नुकशान होता ही है परंतु वास्तविक रूप से आप एक अच्छे प्राणी और उसकी जिन्दी के महत्त्वपूर्ण वर्षों के साथ असह्य क्रूरतापूर्ण व्यवहार कर रहे हैं । यहाँ एक बात और स्पष्ट कह दूँ कि धार्मिक महोत्सवों में मंदिरों में भी अज्ञानता के कारण दूध एवं उसके उत्पादनों का उपयोग किया जाता है । मंदिरों में भगवान की प्रतिमा का अभिषेक करना, विधि विधानों में दूध से बनी मिठाइयाँ नैवेद्य के रूप में चढाने का रिवाज घुस गया है। इससे मंदिर की पवित्रता दूषित हो गई है। इस प्रकार ( अभिषेक के कारण) दूध गिरकर गटर में जाता है जो वहाँ चीटियाँ और बेक्टेरिया आदि जीवों की उत्पत्ति का कारण व स्थान बनता है। इस प्रकार के विधि-विधान बंद होने चाहिए । भगवान का अभिषेक मूल प्राचीन पद्धति के अनुरूप शुद्ध जल से ही हो उसका पुनः प्रचलन करना चाहिए । 67 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा १२. प्राणिज पदार्थों के दुरुपयोग की वास्तविकता एवं उसके विकल्प -प्रमोदा चित्रभानु इस आलेख में प्रस्तुत जानकारी आपको सजीव प्राणियों के प्रतिदिन होने वाले शोषण और पीड़ा को कम करने में मददगार होगी। (अमरीका की अपेक्षासे) जबकि अधिकांश लोग शाकाहार का प्रारंभ करते हैं तब अंडा और दूध के प्रमाण में वृद्धि कर देते हैं। रोमदार वस्त्र, चमड़े से बनी वस्तुएँ, उनी गरम वस्त्र एवं डेयरी उद्योगों को मददरूप होने के लिए प्राणियों का जो स्थूल शोषण होता है उसका अनेक शाकाहारी अनुभव ही नहीं करते । यहाँ पर कुछ वास्तविकताओं एवं विकल्पों की जानकारी प्रस्तुत करेंगे। यह जानकारी जैन फेडरेशन सेन्टर, न्यूयार्क की ओर से संकलित की गई है। हिंसा की वास्तविकताः वर्तमान में फेक्टरी फार्मिंग एक अत्यंत अमानवीय / निंदनीय परिस्थिति में चौपगे पशु एवं पक्षियों के एकमात्र उत्पादन की मशीन के रूप में उपयोग करके, आधुनिक मशीनों द्वारा निश्चित प्राकर के लक्ष्य की पूर्ति हेतु की जाने वाली प्रजोत्पत्ति एवं उसके पालन पोषण की प्रक्रिया है। जिसके परिणाम स्वरूप प्राणियों को खेंच, रोग, पीडा व दुःख उत्पन्न हुए बिना नहीं रहता। गाय-भैंसः गाय-भैंस प्राकृतिक रूप से गरीब (सीधे) प्राणी हैं। ये प्राणी आज होर्मोन्स एवं एन्टिबायोटिक्स दवाओं, इन्जेक्शनों एवं अन्य औषधियों द्वारा सिर्फ बछड़ा-बछड़ी, पाड़ा-पाड़ी के स्वरूप में माँस ओर दूध देने की मशीन के रूप में परिवर्तित होकर रह गये है। जब यही गाय-भैंस, बछड़े-बछड़ी, पाड़ापाड़ी माँस या दूध का योग्य उत्पादन करने में सक्षम नहीं रहते तब इनको कत्लखाने में अनेक भयानक यातनायें सहन करनी पड़ती है। सामान्य प्रमाण के दूध से ४०० गुना अधिक दूध प्राप्त करने के लिए गाय-भैंस को जबरदस्ती कृत्रिम रूप से सगर्भावस्था में रखा जाता है । विविध प्रकार के एन्टिबायोटिक्स दवायें एवं अकुदरती परिस्थितियों के कारण उनको महद् अंश में अनजाने रोग उत्पन्न हो जाते हैं। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा नवजात बछड़े-बछड़ी, पाड़े-पाड़ी को उनकी माता से एक दो दिन में ही अलग कर गिया जाता है जिससे उनके लिए उत्पन्न दूध हम पी सकें । उन बछडे-बछड़ियों, पाड़ा-पाड़ी को कत्ल करके सफेद माँस की प्राप्ति हेतु लकड़ी के अंधेरे पिंजरे में रखा जाता है जहाँ उन्हें एनीमिया हो जाये ऐसा प्रवाही भोजन के रूप में दिया जाता है । अधिकांशतः चीज़ बनाने के लिए दूध को जमाने के लिए जिस रेनेट (Rennet) प्रवाही का उपयोग किया जाता है वह बुवा और सद्य कत्ल किए गये बछड़े-बछड़ी की होजरी में से प्राप्त किया जाता है। मुर्गीः फेक्टरी फार्म (पॉल्ट्री फार्म) में अंडे उत्पादन करने वाली मुर्गियों को एक से दो चोरस फुट के तंग स्थान में तार के पिंजरों में बांध कर रखा जाता है । ९०% अंडे ऐसे ही फार्म से उपलब्ध होते हैं। ब्राइलर की मुर्गी के बच्चे (चूजे की उम्र मुश्किल से ८-१० सप्ताह की होती है और एक चूजे को मुश्किल से आधा चोरस फूट जगह ही उपलब्ध होती है । यहि अति घनता मुर्गियों में ऐसा तनाव एवं चिडचिडा स्वभाव उत्पन्न कर देती है कि वे परस्पर के पंख खींचते-नोचती है, चोंच के प्रहार करती हैं एवं पडोसी बच्चों (चूजों) को मारकर भी खा जाती हैं। इसके उपाय के रूप में सभी मुर्गियों और उनके चूजों की चोंचका उपर का एवं नीचे का आधा भाग एवं पाँव के नाखून गरम छुरी से काट कर मोंथरे (धारहीन) कर दिये जाते हैं । उन्हें निरंतर कम प्रकाश में रखा जाता है । उनके भोजन में तनाव प्रतिरोधक रसायण डालकर खिलाया जाता है। अंत में जब "फ्रीरेन्ज " मुर्गियाँ अंडा देना बंद कर देती हैं तब उन्हें तुरंत कत्लखाने भेज दिया जाता है। भेड़: भेड़ों में सामान्य रूप से अधिक ऊन नहीं होता। परंतु फेक्टरी फार्म द्वारा वैज्ञानिक प्रजोत्पादन द्वारा अत्यधिक ऊन उत्पन्न किया जाता है। भेड़ों पर से सभी ऋतुओं में ऊन काट लिया जाता है । इससे प्रतिवर्ष हजारों भेड़ें ऊन उतार लेगेने के कारण ठंडी के कारण मर जाते हैं। भेड़ों के शरीर से सूक्ष्मतम रीति से ऊन उतारने के कारण उसे नंगे मनुष्य से भी अधिक ठंडी लगती है। जिस तरह शिक्षाप्रद सिनेमाओ में हमें कुशल तंत्रज्ञों द्वारा भेद्र की ऊन उतारते बताते हैं उस पद्धति से सामान्य भेड़ों की ऊन नहीं काटी या 69 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा उतारी जाती है। वास्तविकता तो यह है कि हिंसक रूप से (क्रूरता से) बांधकर शीघ्रता से ऊन उतारी जाती है। ऐसे समय यदि भेड़ के शरीर से खून बहे, घाव हो तो वहाँ खड़ा मनुष्य तुरंत उसमें डामर भर देता है। वृद्ध भेड़ को अंत में तो दाना-पानी बिना ही अति दारूण अवस्था में कत्लखाने भेज दिया जाता है। यदि लोग मांसाहार तथा भेड़ के बच्चे का माँस खाना बंद कर दें तो फिर भेड़े सिर्फ ऊन प्राप्ति के लिए ही रखी जावें । गरम कपडे खरीदने में हम जाने-अनजाने इस निर्दयता के समर्थक बन जाते हैं। मधुमक्खीः व्यापारी स्तर पर मधुमक्खियों का प्रजोत्पादन करके उनका पालन करके उनके पास से शहद और शहद के छते प्राप्त किए जाते हैं। उन मधुमक्खियों को बदले में सस्ती शक्कर दी जाती है जो उन्हें जीवित नहीं रखवाती । हजारों मधुमक्खियाँ इससे मृत्यु प्राप्त करती हैं। शहद में भी टोक्सिस (जहरीला) पदार्थ होता है जिससे हमें हानि पहुँचती है। रोयेंदार प्राणीः अधिकांशतः रोयेंदार प्राणियों में फंदे का कारण उसकी जल्दी मौत नहीं होती। सामान्यतः उपयोग में लिया जाने वाला फंदा लोहे के तारों से गूंथा होता है। इस फंदे में फंसा प्राणी अधिकांश रूप से अनेक दिनों तक, जब तक उस फंदे की जाँच न की जाये तब तक उसमें फँसा प्राणी भूखा-प्यासा पड़ा रहता है। अनेक प्राणी इस फंदे से मुक्त होने के लिए अपने ही हाथ-पाँव चबा डालते हैं। इन प्राणियों को फँसाने के परिणाम स्वरूप सिर्फ उन्हीं प्राणियों को शारीरिक मानसिक कष्ट नहीं होता है अपित उनके बिना बच्चे भी भूखों मरते व्यापारी दृष्टि से पालित मिंक (Mink) जैसे रोयेंदार प्राणियों में चिंता और तनाव उत्पन्न हो इसलिए उन्हे अति सँकरे एवं घने डब्बे में, पिंजरे में या बेडो में रखा जाता है। रगड़न रहित कीमती कोट एवं वस्त्र उत्पादन हेतु इन प्राणियों के वध की पद्धति अति दुःखद होती है। सौंदर्य प्रसाधनों के प्राणियों पर किए जाने वाले प्रयोगः टूथपेस्ट, शेम्पू, माउथवॉश, टेल्कम पावडर, अनेक प्रकार के लोशन, लिपस्टिक, नत्र सोन्दर्य प्रसाधन, चेहरे पर इस्तेमाल किए जाने वाली विविध क्रीम, बाल रंगने की हेयर डाइज, अनेक प्रकार के सुगंधी द्रव्य एवं कोलन्स 70 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा (Colognes) का समावेश सौंदर्य प्रसाधनों में होता है। अधिकांशतः सौन्दर्य प्रसाधनों का निर्माण प्राणिजन्य द्रव्यों में से होता है एवं प्रयोगशाला में प्राणियों के ऊपर उनका परीक्षण किया जाता है। यद्यपि FDA को ऐसे परीक्षण करने की आवश्यकता नहीं लगती। फिर भी ये लोग प्राणियों पर परीक्षण करने की अपराधपूर्ण प्रवृत्तियों को मंजूर करते हैं। प्राणियों पर किए जाने वाले प्रयोगों में सर्व सामान्य LD/50 प्रयोग है जिसमें ५०% प्राणियों (चूहे, खरगोस, कुत्ते आदि) की मृत्यु हो जाती है। इस प्रयोग द्वारा यह निश्चित किया जाता है कि उत्पादित पदार्थ में प्राणघातक प्रमाण कितना है। सौन्दर्य प्रसाधन के पदार्थ एवं अन्य पदार्थ यदि आँख में लग जावें तो उनकी कितने परिमाण जलन होगी उस हेतु (Draiz-Test) खरगोस के संयम एवं उसके साथ जो पदार्थ निर्मित होता है उसे सीधे खरगोश की आँख की पुतली (Cornea) पर क्रमश थोडे से अधिक प्रमाण में डालकर परीक्षण किया जाता है। दाढी बनाने के बाद लगाये जाने वाले प्रसाधन का कैसा प्रभाव होता है इसके Acute Dermal Toxicity परीक्षण का प्रयोग प्राणियों की चमड़ी छीलकर उस पर इस पदार्थ को लगाकर, दवाये रखकर किया जाता है। इसके अलावा भी अनेक प्रयोग-परीक्षण प्राणियों पर किए जाते हैं। साबुन (नहाने या कपड़े धोने का) में सामान्य तौर पर प्राणिजन्य चरबी, स्टियरिक एसिड एवं अन्य क्षार होते हैं । शेम्पू में भी चरबी, प्राणिज ग्लिसरीन, प्राणिज प्रोटीन एवं मछलियों के यकृत (Lever) का तेल होता है। व्यापाररी स्तर पर निर्मित टूथपेस्ट में प्राणिज ग्लिसरीन होती है। बहुमूल्य सुगंधी पदार्थों में कस्तुरी मिलाई जाती है जो इथोपिया के जबादी बिल्ला की जननेन्द्रियों में से निकाला गया पदार्थ होता है। इन बिल्लों के पास से उनके जीवन में अनेक बार क्रूर दुखदायी पद्धति से यह पदार्थ निकाला जाता है। मनोरंजन हेतु प्राणियों का उपयोगः सर्कस, प्राणि संग्रहालय, घोडे की रेस एवं प्राणियों पर बैठकर खेले जानेवाले खेलों के लिए जबरदस्ती उन प्राणियों को उस योग्य बनाने के लिए उनकी प्राकृतिक जीवन पद्धति से अलग विचित्र ढंग से उन्हें अधिकतर रूप से कष्ट देकर तैयार किये जाते है। 71 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा इन प्राणियों की जीवन पद्धति | परिस्थिति भी अप्राकृतिक बन जाती है । मनोरंजन के उत्तम नमूने स्वरूप प्राणियों को अनेक प्राणीसंग्रहालयों में एवं सर्कसों में प्रवेश कराने से पूर्ण अन्य अयोग्य असंख्य प्राणियों को मौत के घाट उतार दिया जाता है। उनकी एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थलांतर के दौरान मृत्यु हो जाती है। उन प्राणियों के बच्चों को भूखा ही तिरस्कृत कर छोड दिया जाता है जिससे वे भूखे ही मर जाते हैं। सवारी के लिए कुशलता हेतु प्राणियों पर इलेक्ट्रिक आर का भी प्रयोग किया जाता है। घोड़ो को उत्साही बनाने के लिए उसके पेट के इर्द-गिर्द उसके गुह्यभाग जननेन्द्रिय के पास चमडे का गोल पट्टा कसकर बाँधा जाता है। ऐसे प्राणियों के सींग काट डाले जाते हैं। इन प्राणियों का उपयोग करते समय उसे पाँव द्वारा चुमनेवाली वस्तु (आर जैसी) से पीड़ित किया जाता है एवं रस्सी से बाँधते समय उसे अत्यंत कसकर पकडकर दबाया जाता है। जिससे उसे अत्याधिक तकलीफ (घुटन) होती है। सर्कस के प्राणी को विचित्र रूप से कार्य करने का दबाव किया जाता है। उन्हें सिखाने की पद्धति अत्यंत दयाजनक होती है । जनीन विज्ञान की सहायता से वैज्ञानिक लोग रेस / स्पर्धा में अत्यंत तीव्र गति से दौड सकें ऐसे विशिष्ट घोड़ों की सन्तति पैदा करते हैं। परंतु वे कमजोरी, टूटी हड्डियाँ, दवाओं के दुरूपयोग, सूजे हुए एवं मोच खाये घुटनों की भयंकर पीड़ा से पीडित रहते हैं और अन्त में उन्हें मार डाला जाता है। आरोग्य पर प्रभावः माँस-पनीर एवं अंडे में संतृप्त चरबी, अधिक प्रमाण में होती है जो लोगों के शरीर में कोलेस्टेरोल में वृद्धि करती है। यह कोलेस्टेरोल धमनियों पर जम जाता है जिससे हृदय रोग का आक्रमण (हार्ट एटेक) आने की संभावना बढ़ जाती है। जिन प्राणियों गाय-भैंस, सुअर, मुर्गी का माँस खाया जाता है उनकी अप्राकृतिक जीवन पद्धति एवं प्रजोत्पत्ति की परिस्थिति के कारण उनकी गर्दन आदि अंग टेढे हो जाते है एवं उनमें अनेक प्रकार के रोग हो जाते हैं। इन रोगों को काबू में लेने के लिए उन्हें विपुल प्रमाण में एन्टिबायोटिक्स दवायें एवं रसायण दिए जाते हैं। ये एन्टिबायोटिक्स दवायें व रसायण की जहरीली असर उनके माँस-दूध एवं अंडों मे भी अवतरित होती हैं। शाकाहारियों की तुलना में मांसाहारियों की किडनी को तीन गुने दबाव से कार्य करना पड़ता है। उसका कारण है कि माँस आदि में टोक्सिक 72 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा अर्थात् जहरी पदार्थ अधिक होते हैं एवं उन्हें बाहर निकालने के लिए किडनी को अधिक कार्य करने पड़ते हैं। सुअरकी परिवर्तित सफेद चर्बी लार्ड (Lard) सरलता से पचती नहीं है। व्यापारी बेकरीवाले एवं अनेक प्रसिद्ध ब्रान्ड की बनावटों (उत्पादनों) में इसका विपुल प्रमाण में उपयोग किया जाता है। शाकाहारी दूध में किरणोत्सर्ग की मात्रा कम होती है। सामान्य रूप से गाय-भैंस के दूध में स्ट्रोन्टीयम ९० तत्व के ९८ काउन्ट होते हैं जबकि शाकाहारी दूध में सिर्फ २.१ काउन्ट होते हैं। स्त्री की तुलना में गाय-भैंस के दूध के घटक द्रव्य अलग प्रकार के होते हैं। गाय-भैंस के घटक द्रव्य उसके विकास में सहायक होते हैं जबकि स्त्री का दूध शरीर के अन्य अवयवों के विकास से अधिक ज्ञानतंतुओं का द्रुतगति से विकास करते हैं। केल्सीयम का स्रोत मात्र गाय-भैंस का दूध ही नहीं है। गाय-भैंस के दूध में प्रति १०० ग्राम में मात्र १२० mg केल्शियम होता है जबकि ब्राजिल की बदाम में १७६ से १८६ mg, साधारण बदाम में २३४ mg से २४७ mg, कोबीज में १७९ से २०० mg, समुद्री कोबीज में १००० mg, बिनाकूटे तिल में ११६० mg केल्शियम होता है। इसके अलावा अन्य स्रोतों से भी केल्शियम प्राप्त होता है। आर्थिक एवं पर्यावरण पर प्रभावः माँस का पेकिंग करनेवाले कारखाने कचरा एवं निरर्थक पदार्थों, रसायणों, ग्रीस आदि को शहर की गटरों में डालते हैं। वही पानी हमारी नदियों में आता है, जिससे नदियों का पानी प्रदूषित हो जाता है। कत्लखाने एवं मांसाहार के उत्पादक जमीन, पानी एवं हवा को अत्यंत खराब तौर से प्रदूषित नाते हैं। माँ एवं डेयरी उत्पादनों में शाकाहार की तुलना में ८ गुने पानी का उपयोग होता है । शाकाहारी व्यक्ति को सिर्फ १४८ एकर जमीन चाहिए जबकि मांसाहारी व्यक्ति को २ एकर जमीन की आवश्यकता पडती विश्व की आधे से अधिक प्रजा भूख और अपूर्ण पोषण में जी रही हैं। अभी १९९६ में ८० लाख टन खाद्यान्न की कमी है जिसकी २००० के वर्ष में १००० लाख टन होने की संभावना है। यदि पूर्ण रूपेण शाकाहार अपनाया जाये तो भूखमरा का पूर्ण अंत हो सके। विकल्पः आहार के विकल्पः Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा प्रोटीन- दलहन एवं दालें, अनाज, मूंगफली, ओलिव प्रोटीन हेतु शाकाहारी वानगी, ढोकले, सेन्डवीच आदि, दलहन एवं अनाज, दलहन एवं बीज, दलहन एवं मूंगफली, चावल एवं मटर, अड़द एवं तुवर, मटर मक्का आदि में से बनी हुई वानगी (पदार्थ) से प्रोटीन प्राप्त हो सकता है। दूध- व्यापारी स्तर पर तैयार किया जानेवाला सोयाबीन का दूध, मूंगफली, काजू का दूध, फल, शाकभाजी एवं फलों के रस। अंडे-बेंकिग अर्थात् बेकरी की बनावटों में अंडे का उपयोग होता है। उसका त्याग करके अन्य वस्तुओं का उपयोग करो। हर वानगी में से अंडे को कमी करो। केल्शियम- बदाम, तिल, हरी सब्जियाँ, मक्की, सूर्यमुखी के बीज, गुड, अंजीर आदि। लोहतत्त्व - सूखे मेवे, सूखी द्राक्ष, अंजीर, हरी सब्जियां, काकवी, बदाम, उड़द, काजू। मक्खन - सोयाबीन से बना हुआ मक्खन उदा. सुपर मार्केट हेल्थ फुड स्टोर्स में (Willowrun) एवं Hains में किसी भी प्रकार का प्राणिज पदार्थ नहीं होता। पनीर - सोयाबीन से बना हुआ दही एवं पनीर का अनेक रीति से उपयोग किया जा सकता है। शहद - मेपल (Maple) नामक वृक्ष का / फल का रस Black Strap Molasses, Date Sugar. वस्त्रः उन - एक्रेलिक, रेयोन (बनावटी रेशम) ओरियान (Orian) स्वेटर, कंबल आदि में उपयोगी हो सकता है। चमड़ा - जो चमड़े से निर्मित न हों ऐसे जूते-चम्पल, कमरपटी, या कीट आदि रखना चाहिए। रेशम - एसीटेट, नायलोन, साटीन रोयेंदार वस्त्र - एक्रेलिक में से बनाये कृत्रिम रोयेंदार वस्त्र नहाने-धोने के साबुन- भेड की चरबी, प्राणीजन्य ग्लीसरीन, प्राणिज चरबी अथवा किसी भी प्रकार के प्राणिज पदार्थ का उपयोग न हुआ हो ऐसे साबुन का उपयोग करना चाहिए। सामान्य रूप से व्यापारी स्तर पर उत्पादित होने वाले सभी साबूनों में प्राणिज चरबी Tallow अथवा Fat का उपयोग होता है। यदि आप उस Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा पर लगे लेबल पर लिखे घटक द्रव्यों को नहीं समझ सकें तो उसके उपयोग को टाल दो एवं विशेष जानकारी हेतु उत्पादकों से पूछ लो। गृह उपयोगी वस्तुएँ: तकिया- एलर्जी न हो ऐसे एक्रेलिक के तकियों का उपयोग करो। कम्बल-एक्रेलिक या नायलोन का उपयोग करो। चटाई - एक्रेलिक या नायलोन का उपयोग करो। ब्रुश- घोडे या अन्य प्राणियों के बाल से निर्मित न हों ऐसे ब्रुश का उपयोग करो । प्राकृतिक बालों का उपयोग न हुआ हो ऐसे ब्रुश का उपयोग करना चाहिए क्योंकि प्राकृतिक बाल प्रायः सुअर के होते हैं। ग्रीस एवं पॉलिश- यदि लेबल में सभी घटक द्रव्यों के नाम न लिखे हों तो उसके उत्पादक को मिलकर पूछे । दवाईयाँ एवं विटामिन्स के विकल्प -टीका, सिरप, बहुत सी दवाईयाँ एवं विटामीन्स में या तो प्राणिज पदार्थ होते हैं या तो जीवन्त प्राणियों के ऊपर उसके प्रयोग किये जाते है अतः उसका त्याग करना चाहिए। ध्यान व योग और आसन के साथ साथ अच्छा संतुलित आहार, प्रदुषणमुक्त शुद्ध हवा, पाणी व उचित आराम से, दवाईयाँ की बार बार आवश्यकता नहीं रहती हैं। प्रति पक्ष एक उपवास और कुछ वनस्पतियाँ या जडीबुट्टीयाँ प्राकृतिक औषधियाँ है। क्रीडा एवं मनोरंजन के विकल्प - मनुष्य में शिकार, रेस खेलना, मच्छी मारी, प्राणी संग्रह, घुडसवारी एवं सर्कस के बदले प्राणियों के संदर्भ में शैक्षणिक माहिती दर्शक फिल्में, पुस्तकें एवं अन्य ऐसी शैक्षणिक सामग्री प्राप्त करानी चाहिए जो रूचि-रस उत्पन्न करें, जिससे शिकार के प्रति लोगों की रूचि न हो। प्राणिज द्रव्यो से निर्मित संस्करण करने की संयोगी का त्याग केल्सियम स्टियरेट्स (Calcium Steartes)- विशेष रूप से चरबी रूप पदार्थ है जो सुअर की होजरी में से खींच लिया जाता है। इसको दूध या पानी में एक स्निग्ध पदार्थ के रूप में मिलाया जाता है और वह सोडियम स्टराइल लेक्टाइलेट (Sodium Sterile Lactylate) एवं स्टिअरिक एसिड (Stearic Acid) के नाम से भी जाना जाता है। लेक्टिक एसिड (Lacit Acid)- लेक्टिक एसिड कत्लखाने का उपउत्पादन है। 15 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा लाल रंग, कोकीनियल (Red Dye Cochineal) - एक रतल इस प्रकार का लाल रंग प्राप्त करने के लिए ७०००० तिलचट्टों को मारा जाता है। रेनेट (Rennet)- रेनेट छोडे बछड़ों की होजरी में से निकाला जाने वाला पाचक रस है। जिसका उपयोग दूध में से पनीर बनाने में किया जाता है। मैत्री के घर में कोई नही- अर्थात् विश्व में मैत्री जैसा याने हमदर्दी जैसा कुछ बचा ही नहीं है। जिलेटिन (Gelatin) - जिलेटिन सूखा हुआ प्रोटीन है जो प्राणियों की हड्डियाँ, हड्डियों के उपरी रेषे, प्रतान एवं चमड़े में से बनाया जाता है। लिपेस (Lipase) - बछड़े, बकरी के बच्चे, भेड के बच्चों की होजरी के एक प्रकार के पाचक रस में से एवं जीभ की ग्रंथियों से झरने वाले रस में से यह प्राप्त होता है। ग्लिसरोल मोनोस्टियरेट्स (Glyceroal Monostearates)- ग्लिसरोल मोनोस्टियरेट्स दूध या पानी में मिलाया जाने वाला स्निग्ध पदार्थ है। वह पानी युक्त (प्रवाही) प्रोटीन है जो अधिकांशतः प्राणिजन्य होता है। पेप्सीन (Pepsin) - पेप्सीन सुअर की होजरी में से खींच लिया जाता है जिसका उपयोग पनीर या विटामिन में किया जाता है। स्पर्म मछली का तेल (Sperm oil) - पानी युक्त स्पर्म व्हेल मछली के तेल का उपयोग चरबी या मक्खन के रूप में होता है। इसका सर्वाधिक उपयोग सौन्दर्य प्रसाधन एवं नहाने के साबुन तथा चर्म उद्योग में किया जाता है। स्टिअरिक एसिड (Stearic Acid) - स्टिअरिक एसिड कत्लखाने का उपउत्पादन है जो सुअर में से प्राप्त होता है। इसका उपयोग साबुन बनाने में होता है। विटामिन डी एवं डी (Vitamin D & D3)- विटामिन डीर एवं डी३ मछली के तेल व दूध में होते हैं। जब किसी भी वस्तु में शंका हो तो उसके उत्पादक को पत्र लिखकर पूछ लेना ही श्रेष्ठ है। यदि खाने-पीने के पदार्थों की जानकारी आपके पास है तो अपने अन्य मित्रों, स्वजनों को प्राप्त कराना आपकी नैतिक जिम्मेदारी है। 76 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा १३. पाठकों की दृष्टि में मेरी डेयरी मुलाकात लेख Subject: Thank you for Opening my eyes Date : Fri. 5 Sep. 1977 12:40:23-1000 From - h20 Man वास्तव में आपके इस संदेश ने मेरी आंखों में अश्रु भर दिए। एक ऐसा समय था जब मुझे यही लगता था कि बरफी, लस्सी, हलुवा एवं घी की खुशबू वाला भात अपने भोजन से दूर करने का कोई मार्ग ही नहीं है। खूशबूदार सात्विक घी रहित भोजन क्या है ? तभी मुझे पता चला कि मैं स्वयं के प्रति असत्य वक्ता, आत्मवंचना करनेवाला कठोर था । पूर्ण रूपेण शाकाहारी (Vegan) बनने के दृढ निश्चय ने मेरी जीवन जीने की पद्धति में शांति का अनुभव कराया है। गाय-भैंस एवं अन्य प्राणी एनीमल फोर्म में जिस तरह की पीड़ा भोगते हैं उसे जानने के पश्चात् उनका और उनके द्वारा दिये जाने वाला दूध, दहीं, घी, मक्खन आदिका निर्दोष आहार के रूप में उपयोग करना संभव नहीं। अब मुझे यह भी ज्ञात हो गया है कि भारत में भी डेयरी उद्योग के कारण गाय-भैंस को पीडा दी जाती है। आप नहीं जानेंगे कि इससे पूर्व में अन्य भारतीय मक्खन, घी, दूध आदि को शाकाहार मानते हैं, ऐसा सुनने और स्वीकार करने वाले मुझे आपने कितना प्रोत्साहित किया है ? मैंने आपका पत्र/लेख अन्य लोगों को बताने के लिए संग्रह करके रखा है । जिससे उसके द्वारा मैं स्वयं को अपराध मुक्त एवं शुद्ध बनाऊँगा । Date - Thu. 20 Aug. 1998 12:11:05-0700 From – “Baid-Jyoti" Jyoti Baid@affymettrix.com अमरीका में स्थित डेयरी उद्योग के संदर्भ में यह संपूर्ण एवं माहिती प्रचुर लेख है । इस विषय में मैंने अनेक लेख पढ़े हैं परंतु आपके लेख ने हकीकत में मुझे विचलित कर दिया है। मैंने पहली बार यह खतरनाक बात सुनी तब से ही अर्थात् दो वर्ष पूर्व से मैं पूर्ण शाकाहारी (Vegan) बन गई हूँ । मेरे पति भी धीरे-धीरे पूर्ण शाकाहारी (Vegan) बन रहे हैं। मेरे पुत्र को तो जन्म से ही डेयरी उत्पादनों के प्रति एलर्जी है । - ज्योति वैद्य 77 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा Dae - Mon. 29 Sep. 1997 09:15:46 to 0500 From – Sailu आपका पत्र / लेख पड़कर मेरी प्रसन्नता ही खो गई है। वास्तवमें दो दिन पूर्व ही आपका पत्र / लेख पढ़ा। इन दो दिनोंमें मैंने जब जब चाय का घूंट पिया तब मुझे आपकी आलेखित बातों का स्मरण होता रहा । सत्यमें जो वास्तविकता है उसे पचाना बड़ा कठिन है। -शैलू Date – Tue. 23 Sep. 1997 00:32:55-500 (EDT) From - Apati@aol.com डेयरी की मुलाकात में सहभागी बनाने हेतु आपका खूब - खूब ही आभार । मेरा हृदय जैसे चौंककर जग ही गया है । मैं अल्प मात्रा में शाकाहारी है। मैंने हावर्ड लीमेन ( Haward Lyman) का भाषण सूना है। मुझे मादा प्राणियों के जीवन और अधिकार की प्रवृत्तियाँ स्वप्न में दिखाई दी । उडीसा में मेरे पति को हार्टएटैक हुआ था । वे अर्धशाकाहारी हैं और अब अपने पूर्वज से प्राप्त वंशपरंपरागत शाकाहार की ओर मुड़े हैं। मैंने आपका लेख उन्हें भेजा है। आपकी आभारी हूँ- पुनः पुनः आभार मानूँगी। - अनीता पाटी Date - 25 Aug. 9811:59:27-0700 From – RAMARNAT@us orecle.com आपका लेख अति सुंदर है। मैं जैन नहीं हूँ परंतु संपूर्ण शाकाहारी (Vegen) बनने में प्रयत्नशील तमिल शाकाहारी (Vegan) हूँ एवं हम सभी अहिंसा में विश्वास करते हैं । हमारे घर कुत्ते, बिल्ली, गाय-भैंस, बकरी... आदि पशु हैं। हम उन्हें अधिकाधिक सुख से पालेंगे। आपने जो लिखा उसके प्रत्येक शब्द का अर्थ में समझा हूँ। - अमर Date Thu. 04 Sep. 1997 12:13:139-0700 From – Janak Lalan jlalan @pacbell.net मि. प्रविण शाह यह माहिती प्रदान करने के लिए आपका खूब खूब आभार। मुझे लगता है कि थोड़े ही समय में आप महसूस करेंगे कि आपने बहुत बडा कार्य किया है। आप सही अर्थों में 'सच्चे जैन' हैं। 78 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा -बीना-लालन Date - Mon. 08 Sep.1997 16.38-50-0700 From-DeepakPatel मुझे आपका पत्र / लेख पसंद आया। मैं जानता हूँ कि इसमें पसंद या नापसंद का कोई प्रश्न ही नहीं है । (आप द्वारा प्रदत्त) यह एक खतरनाक वास्तविकता है। मैं शाकाहारी हूँ। - दीपक पटेल Date - Wed. 19 Aug 1998 08:33:28-0700 (PDT) From - Frank Riela friela.@conflictnet.org आपकी टिप्पणी ने मुझे पूर्ण विश्वस्त बनाया है। पिछले कई वर्षों से मैं शाकाहारी बन गया हूँ। यद्यपि इन सब तथ्यों को पढ़कर मैं बेचैन हो गया हूँ। पर, यह बात इतनी अच्छी है कि हमें कैसे जीना चाहिए उसका स्मरण कराती है। मेरा रक्त भी उत्तम रूप से कार्यरत हैं। कोलेस्टेरोल कम है एवं लोह तत्व भी उत्कृष्ट है। जब से मैं शाकाहारी बना हूँ तब से मेरा वजन भी सप्रमाण है एवं मैं शारीरिक तथा मानसिक शांति का अनुभव करता हूँ। - Fran Riela Date : Sun. 2 Nov. 1997 08 : 28 : 43-0500 From - lan R. Duncan आपके डेयरी उद्योग के विषयक लेख का मैं आदर करता हूँ। यह लेख अनेक लोगों के लिए अत्यंत जिज्ञासा एवं आतुरता का कारण बना है। यद्यपि अमरीका सहित पश्चिम में विशिष्ट धार्मिक सिद्धांतो को छोड़कर आरोग्य एवं नैतिक मूल्याधारित संपूर्ण शाकाहारी (Vegan) परंपरा का उद्भव हो रहा है। - lan R. Duncan, Rome. Italy Date - Thu. 20 Aug. 1998 10:48 : 15-400 From - Joanne Stepaniak joanne@vegsource.org http://www.vegsource.org/jonne ___मैंने आपका लेख “मेरी डेयरी मुलाकात” अन्य लोगों को भी भेजा है एवं जैन समाज में शाकाहार (Vegan) के प्रति संपूर्ण जागृति आये उसके लिए आप जो प्रयत्न कर रहे हैं उसके लिए आपका आभार मानना मुजे अच्छा 79 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा लगेगा। यद्यपि मैं जैन नहीं हूँ फिर भी जैन जीवन पद्धति, नीति नियमों एवं दार्शनिक विचारों का समर्थक है (The Uncheese Cook Book) एवं (Vegen Vittles) एवं अन्य संपूर्म शाकाहारी (Vegan) भोजन संबंध कुछ पुस्तकें मैंने लिखी हैं। अपनी पुस्तकों में मैंने डेयरी उद्योग की गाय-भैंसो की दुर्दशा, परेशानी के संदर्भ में एक उपेक्षित विषय एवं जीवनोपयोगी महत्वपूर्ण विषय के रूप में मैने अनेक बार लिखा है । यह भी एक आश्चर्य है कि आप प्रौढावस्था में पूर्ण शाकाहारी (Vegan) बने जैसा कि आपने स्वयं स्वीकार किया है। आप उन सबके युवाप्रौढों के लिए उत्तम उदाहरण व प्रेरणा स्रोत हैं जो यह मानते हैं कि जीवन पद्धति में परिवर्तन करना अति कठिन कार्य हैं। मैं आपके प्रयत्नों के प्रति अपनी शुभेच्छा व्यक्त करता हूँ । आप अत्यंत बहुमूल्य एवं महत्त्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं। - Joanne Stepaniak Dae: Mon., 24 Aug. 1998 09:36:19-0400 (EDT) From K. R. Shah kshah@math.uwaterloo.ca मैं इतना ही सूचित करना चाहता हूँ कि हाल ही में मैंने मुंबई (भारत) में अपने पुत्र निखिल के विवाह के स्वागत समारोह में भोजन समारंभ का आयोजन किया था । उसमें सभी वानगी संपूर्ण शाकाहारी (Vegan) अर्थात् दूध, दहीं, घी बिना की थी। मजे की बात तो यह रही कि किसी को पता भी नहीं चला। स्वादिष्ट व्यंजन हेतु हमें लोगो ने अभिनंदन दिए । - कीर्ति आर शाह टोरेन्टो (केनेडा) Date - Mon. 22 Sep. 1997 09:15:53-0500 From Mona Shah < Monica M Shah-1 @tc.umn.edu> मैंने आपका डेयरी मुलाकात संबंधित लेख पढ़ा। आपने जो आंखो देखी प्रस्तुति की वह पसंद आयी । आहार के संदर्भ में मैं पूर्ण शाकाहारी हूँ एवं वस्त्रों के संदर्भ एवं अन्य में भी मैं वनस्पति भोगी बनने के लिए प्रयत्नशील हैं। मुझे लगा है कि जैनविधि विधान, पूजा में से प्राणिजन्य । पदार्थों के उपयोग को कम या बंद करके महत्त्वपूर्ण परिवर्तन करने की बात आपने प्रस्तुत की हैं। हमारे माता-पिता एवं हमारा जैनसंघ भी पूजा विधि में प्राणिजन्य पदार्थों-दूध-घी का उपयोग करते हैं। 80 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा मोना शाह Date - Wed. 02 Sep. 1998 12:50:47 EDT From: "Kingcross Beach" kingcross@hotmail.com महत्वपूर्ण बहुमूल्य ई-मेल के लिए आभार। मैं कितना अज्ञानी हूँ यह जान कर मैं शर्म महसूस करता है। यह जानकारी मैं अपने मित्रो को दूँगा । - एन. रवि From Date - Mon. 24 Aug. 1998 12:25:57 PDT "PARIND SHAH" parind@hotmail.com मेरे एक काकाजी द्वारा ई-मेइल से भेजा हुआ गाय-भैंस संबंधी आपका लेख मैंने पढ़ा। मैं यहाँ पिछले १.५ वर्षों से आया हूँ तब से जमीं कंद नहीं खाने का प्रयत्न कर रहा हूँ जिसमें मैं अधिकांश रूप से सफल भी हुआ हूँ। परंतु मैं दूध और तज्जन्य वस्तुओं का उपयोग करता हूं... मैने जो वास्तविक हकीकत (आपके लेख द्वारा) ज्ञात की वह अति भयानक है। कृपया आप मुझे यह समझायें कि प्रतिदिन के जीवन व्यवहार में दूध और उसके उत्पादनों का त्याग आपने कैसे किया ? - परिन्द शाह Date - Mon. 24 Aug. 199821: 23 : 14 EDT From - hkmehta1@juno.com (Haresh Mehta ) मेरा नाम रिद्धि महेता है और मैं १६ वर्ष की हूँ। मैं हाल ही में कोलंबिया एस.सी. के बोस्टन एम. ए. से आई हैं। आपने जो माहिती प्रस्तुत की उससे मुझे बहुत आघात लगा । वह आपके अभिप्राय से नहीं अपितु आपने जो मानव कसाई की बात प्रस्तुत की उससे । कोलंबिया में श्री पू. चित्रभानु जी के प्रवचन सुनकर १९९७ के मई महिने से मैंने अंडे व पनीर जिन व्यंजनों में डाले जाते हैं उन पदार्थों का खाना बंद कर दिया है। मैं जो भूल गई थी उसे पुनः स्मरण कराने हेतु दी गई जानकारी के लिए आपका आभार मानती हूँ । - रिद्धि Date Tue. 21 Apr. 1998 18:25:27 EDT From Instyplanoinsty plano@aol.com 81 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा जय जिनेन्द्र ! मेरा नाम अतुल खारा है । मैं यहाँ डलास (टेक्सास) में उत्तर टेक्सास जैन समाज का भूतपूर्व अध्यक्ष एवं वर्तमान में बोर्ड का सदस्य । सर्वप्रथम 'जीवदया में प्रकाशित आपके माहिती प्रचुर संशोधन लेख के लिए आभार। डेयरी उत्पादनों का उपयोग बंद करने का निर्णय करने वाले जैनों के लिए आपका लेख सहायक / मार्गदर्शक बनेगा ऐसा मेरा विश्वास है। एक स्पष्टता करनी है कि अधिकतकर दिगंबर जैन पूजा विधि में 'दूध का उपयोग नहीं करते । कोई भी धर्मग्रंथ पूजा विधि में दूध के उपयोग का निर्देश भी नहीं करते। दक्षिण भारत में कुछ दिगंबरने पूजाविधि में दूध के । उपयोग का प्रारंभ किया है जो अन्य हिन्दु पूजा विधि का सीधा प्रभाव है। - अतुल खारा 82 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा यदि कोई हमसे पूछे कि "आप क्या खाते हैं ?" ऐसा हम विचार भी नहीं कर सकते क्योंकि यह व्यक्तिगत बात है । फिर भी आपका आहार पर्यावरण को कैसे प्रभावित करता है यह तुम्हें जानना चाहिए। • आप माने या न माने परंतु गाय-भैंस ग्रीन हाउस इफेक्ट उत्पन्न करने में महत्त्वपूर्ण योगदान देती हैं। एक अंदाज के अनुसार विश्व की १३ करोड गाय-भैंस वार्षिक तकरीबन १० करोड टन मिथेन वायु उत्पन्न करती हैं जो ग्रीन हाउस इफेक्ट के लिए सर्वाधिक शक्तिशाली है एवं जिसका प्रत्येक कण कार्बन डायोक्साइड के कण से २५ गुनी से अधिक गरमी का संग्रह करता है । • अमरीका में पशु गाय-भैंस, बछड़े, सुअर आदि पशुओं के पालने में पूरे अमरीका की पूर्ण खतर से आधे से भी अधिक पानी का उपयोग होता है । • उत्तर अमरीका की एक तिहाई से भी अधिक भूमि मात्र घास उत्पन्न करने के लिए गोचरभूमि के रूप में उपयोग में ली जाती है। अमरीका की अन्न उत्पन्न करने वाली भूमि में आधी से अधिक भूमि में सिर्फ उन पशुओं के लिए ही अनाज उगाया जाता है जिन पशुओं का माँस तथा डेयरी उत्पादनों में उपयोग किया जाता है। १४. हमारा आहार और पर्यावरण • . २२ करोड़ एकड़ जमीन पर से जंगल सिर्फ पशुपालन हेतु नष्य किए गये हैं। ब्राझिल में ऑस्ट्रिया देश के बराबर अर्थात् २५० लाख एकड़ जमीन एवं मध्य अमरीका में आधी से अधिक जमीन के जंगल सिर्फ माँस उत्पादन हेतु सफाचट कर दिए गये हैं । पशुओं में से प्राप्त आहार के कच्चे माल का मूल्य पूरे अमरीका में उपयोग में लिए जाने वाले खनीज तेल, गैस एवं कोयले के मूल्य से अधिक है। मॉस एवं डेयरी उत्पादनों में कच्चे माल के रूप में जितने धान्य, सब्जियां, फलो का उपयोग होता है उससे ५% कम धायन, शाक-सब्जी, फलों का खुराक के रूप में उपयोग होता है। • 'डायट फॉर ए न्यू अमेरीका पुस्तक के अनुसार यदि अमरीकन प्रजा अपने भोजन में सिर्फ १०% मॉस की कमी कर दें तो समग्र विश्व में भोजन बिना मरने वाले ६ करोड लोगों के लिए सरलता से पोषण युक्त धान्य एवं सोयाबीन की बचत की जा सकती है। 83 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा परिशिष्ट -१ शाकाहार संबंध व्याख्यायें: Ova-lacto-Vegetarian : पक्षी-प्राणी, गाय-भैंस, मुर्गी, सुअर आदि का माँस, मछली एवं समुद्री जलचरों का आहार नहीं करते परंतु अंडा दूध, दही, मक्खन आदि दूध के उत्पादनों को खाते है । (कुछ अमरीकन स्वयं को शाकाहारी कहलाते है परंतु मुर्गी व मछली खाते हैं। वे उपरोक्त व्याख्या के संदर्भ में शाकाहारी नहीं है।) Lacto-Vegetarian : पशु पक्षियों का माँस, अंडा, अंडे की बनावट, मछली, समुद्री जलचर का आहार नहीं करते परंतु दूध एवं उससे निर्मित का उपयोग करते हैं। Eggitarian : लेक्टोवेजिटेरियन में कुछ लोग सीधे अंडे नहीं खाते परंतु अंडा युक्त बिस्कुट आदि खाते है। Vegan : संपूर्ण शाकाहारी, संपूर्ण प्रकार के प्राणिज पदार्थों का त्याग करते हैं । माँस-मछली, समुद्री जलचर अंडे, अंडे की बनावट, दूध, दही, घी, मक्खन तथा डेयरी उत्पादन एवं शहद आदि समस्त वस्तुओं के त्यागी होते है। इसके अलावा वे चमडे, ऊन, रेशम एवं अन्य प्राणीजन्य वस्तुओं का भी त्याग करते हैं। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा II - Recommended Reading Material The Compassionate Cook by Ingrid Newkirk Favorite recipes from PETA st aff and nenber s. Available from PETA (www.peta-online.org). Cooking with PETA (PETA) In addition to nore than 200 recipes, this book incl udes helpful inf or nat i on on how and why to becone veget ari an. Available from PETA (www.peta-online.org). Diet for a New America by John Robbins. Exposes the cruelty, vast ef ul ness, and ecologi cal i npact of nechani zed neat product i on. Available from PETA (www.peta-online.org). Eat More, Weigh Less by Dr. Dean Ornish. D. Dean Oni sh's Life Choice Aogramfor Losi ng Velight Safel y Available from PETA (www.peta-online.org). Eat Right, Live Longer by Neal Barnard, M.D. Ubi ng the Natural Power of Foods to Age-Roof Your Body Available from PCRM (www.pcrm.org) and PETA (www.peta-online.org). Enemies, A Love Story by I. B. Singer. This farcical comedy is also a subtle exploration of the parallels between Holocaust refugees and non-human victims of persecution. Instead of Chicken, Instead of Turkey by Karen Davis. Features vegan alternatives to poultry and eggs. The Jungle by Sinclair. 85 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा The classic novel that exposed corrupt conditions in the Chicago meatpacking industry. The McDougall Plan for Super Health (McDougall and McDougall) An easy to understand explanation of how to "look better, feel better, and stay better." Slaughterhouse by Eisnitz. The shocking story of greed, neglect, and inhumane treatment inside the U.S. meat industry. Vegan: The New Ethics of Eating (Marcus) A thorough and engaging overview of the health, ecological, and ethical issues surrounding the human diet. Vegan Nutrition Pure and Simple by Michael Klaper. Clarifies the consequences of eating animal products and expounding the benefits of a vegan diet. Additional reading material 1 Don't Drink Your Milk 2 Dr. Dean Ornish's Program for Reversing Heart Disease 3 Pregnancy, Children, and the Vegan Diet Reclaiming Our Health Diet for a New America the Video A Physician's Slimming Guide for Permanent Weight Control 3456 N 7 Food for LifeDr. 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 8Foods That Dr. Neal Barnard The Power of Your Plate Cause Milk, A Message to My Patients Save Yourself from Breast Cancer Get the Fat Out Compassion: The Ultimate Ethic The Love Powered Diet Why Be a Vegetarian? Quit for Good Food Allergies Made Simple Carpal Tunnel Syndrome (Prevention, Treatment, Recovery) The Tofu Toll Booth 86 Neal You Dr. Frank Oski Dr. Dean Ornish Dr. Michael Klaper John Robbins John Robbins Dr. Neal Barnard Barnard Weight Lose 9 Dr. Neal Barnard Dr. Robert Kradjian Dr. Robert Kradjian Victoria Moran Victoria Moran Victoria Moran Sheth Ralph C. Cinque Phyllis Austin and Drs. Agatha & Calvin Thrash Orthodox Views Dar Williams Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा 20 Let There be Light Darius Dinshah 21 Conscious Eating Dr. Gabriel Cousins 22 The Science and Fine Art of Natural Hygiene Dr. Herbert M. Sheldon 23 Natural Hygience (The Pristine Way of Life) Dr. Herbert M. Sheldon 24 Fasting and Eating for Health Dr. Joel Fuhman 25 Medical Drugs on Trial: Verdict Guilty Dr. K.R. Sidhwa 26 A Race for Life (From Cancer to Ironman) Dr. Ruth Heidrich 27 Health for All Dr. Shelton 28 First Aid, the Natural Way Dr. Sidhwa 29 Diabetes and Hypoglycemic Syndrome Drs. Agatha & Calvin Thrash 30 Long Life Now (Strategies for Staying Alive) Lee Hitchcox Many of the above books are commonly available at most health and natural food stores, and many vegetarian societies also stock them. The easiest way to buy them is by mail-order from: American Vegan Society, P.O. Box H, Malaga, NJ 08328. III - List of Organizations of Animal care and Non-violent Activities: People for the Ethical Treatment of Animals (PETA) 757-622-PETA (7382), fax: 757-622-0457 501 Front St., Norfolk, VA 23510 Web Site: www.peta-online.org, e-mail: peta@norfolk.infi.net Exposes animal abuse and promotes respect for animals. Its credo is, "Animals are not ours to eat, wear, experiment on, or use for entertainment." PETA is probably the largest organization of its kind, now has global presence in many countries. Physicians Committee for Responsible Medicine (PCRM) 202-686-2210, fax: 202-686-2216, P.O. Box 6322, Washington, DC 20015 Web site: www.pcrm.org, e-mail: pcrm@pcrm.org Comprised of physicians and lay members; promotes nutrition, preventive medicine, and ethical research practices; publishers of Good Medicine magazine. PCRM is all pro-animals! Not only they stand for strictly vegetarian diets, but also against using animals in laboratories. They lobby hard in the Congress for eliminating meat Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा and dairy from food pyramid, which is taught in schools and used as a guideline for serving lunches. Vegetarian Resource Group 410-366-8343, fax: 410-366-8804 P.O. Box 1463, Baltimore, MD 21203 Web site: www.vrg.org Dedicated to health, ecology, ethics, and world hunger education; produces and sells books and pamphlets. One also finds vegetarian and vegan recipes, vegetarian and vegan nutrition information, vegetarian and vegan cookbooks, Vegetarian Journal excerpts, vegetarian travel information, vegetarian and vegan brochures, and even a Vegetarian Game. Their travel guide for restaurants at http:/ /www.veg.org/veg/Guide/USA/ most useful. Beauty Without Cruelty - India Web site: www.bwcindia.org The organization in India, Beauty Without Cruelty, strives to educate the people about various aspects of living a cruelty-free lifestyle. They define it as "A way of life which causes no creature of land, sea, or air, terror, torture or death." American Vegan Society 609-694-2887 P.O. Box H, Malaga, NJ 08328 Has an extensive list of available vegetarian books and sponsors annual conferences; oldest American vegetarian organization. Vegan Outreach 10410 Forbes Rd., Pittsburgh, PA 15235 Web site: www.veganoutreach.org Distributes the informative booklet, Why Vegan? EarthSave 502-589-7676 600 Distillery Commons, Suite. 200, Louisville, KY 40206 Web site: www.earthsave.org, e-mail: earthsave@aol.com An organization committed to environmental and health education; provides materials and support for people who are becoming vegetarian. 88 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा Vegan Action 510-654-6297 · P.O. Box 4353, Berkeley, CA 94704-0353 Web site: www.vegan.org Distributes information on vegan diets and lifestyles and campaigns for the increased availability of vegan foods. North American Vegetarian Society 518-568-7970. P.O. Box 72, Dolgeville, NY 13329 Web site: www.cyberveg.org/navs, - www.navs-online.org, e-mail: navs@telenet.net Dedicated to the promotion of vegetarianism through education, publications, and annual conferences. Humane Farming Association 415-771-2253 1550 California St., Suite 6, San Francisco, CA 94109 Leads a national campaign to stop factory farms from misusing chemicals, abusing farm animals, and misleading the public. Farm Sanctuary 530-865-4617 fax: 530-865-4622 3100 Aikens Rd., Watkins Glen, NY 14891 Works to prevent the abuses in animal farming through legislation, investigative campaigns, education, and direct rescue programs. Operates shelters for rescued farm animals. Jewish Vegetarians of North America 410-754-5550 .6938 Reliance Rd., Federalsburg, MD 21632 e-mail: imossman @skipjack.bluecrab.org Web - www.orbyss.com/jvna.htm Indian American Dietetic Association (IADA) Rita (Shah) Batheja, MS RD CDN Founder, Indian American Dietetic Association 825 Van Buren Street, Baldwin Harbor, NY 11510, USA Tel: 516-868-0605 E-mail: krbat1 @juno.com American Dietetic Association (ADA) 89 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा ADA's Consumer Nutrition Hotline Tel: 1-800-366-1655 9am - 4pm Central time Web: www.eatright.org/catalog Plenty International P.O. Box 394, Summertown, TN USA 38483 Web site: www.plenty.org, e-mail: plenty 1 @usit.net Has worked with villages around the world since 1979 to enhance nutrition and local food self-sufficiency through vegetarianism. The Animals' Voice 420 East South Temple #240. Salt Lake City, UT USA 84111 Tel: 801-539-8100 Web: www.animalsvoice.com/ This site contains what used to be a hard-printed a complete magazine on web, all dedicated to, as the name says, "Animal's Voice." Which is one of the oldest magazines. Here is what used to be a hard-printed a complete magazine on the web, all dedicated to, as the name says, "Animal's Voice." The address is www.animalsvoice.com/home.html to get started on this one of the oldest magazines. The Ark Trust P.O. Box 8191, Universal City, CA, USA 91618-8191 Phone (818) 501-2ARK (2275), Fax (818) 501-2226 Web: www.arktrust.org E-mail: genesis @arktrust.org An organization, honoring Hollywood and multi medica celebrities and authors presenting pro-animal issues. www.arktrust.org/ Their motto is, "Cruelty Cannot Stand Spotlight." Their annual Genesis Awards are televised on Animal Planet Channel. Envirolink Network Here is a catch-all for all the other sites that you may want to search for: http://envirolink.netforchange.com/ provides a huge list of linkages in various areas of environmental issues, including the ones listed above. 90