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________________ Jain Education International करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा गाय-भैंस आदि दूध देनेवाले प्राणी पंचेन्द्रिय हैं। वे संज्ञी होने से मस्तिष्क वाले होते हैं । जैन धर्मग्रंथों में ऐसे प्राणियों के प्रति निर्दयी व उनकी हिंसा करना सबसे बडा पाप माना गया है। वर्तमान आधुनिक उच्च यांत्रिकी पर्यावरण के माहौल में मॉस प्राप्ति हेतु आचरित निर्दयता एवं दूध प्राप्ति हेतु आचरित निर्दयता में कोई फर्क नहीं आता । माँस प्राप्ति में गाय-भैंस को तुरंत कत्ल किया जाता है जबकि दूध प्राप्ति हेतु उन्हें मारा तो नहीं जाता परंतु उनके प्रारंभिक जीवन में कष्ट दिवा जाता है। उसकी एक बछड़ी के अलावा सभी बछड़ों को छ महिने तक पीडाजन्य परिस्थिति में रखकर अंत में मार डाला जाता है एवं दुधारु गायभैंस को भी आखिर ५-६ वर्ष के बाद यदि दूध देना कम हो जाये या बंध हो जाये तो मार डाला जाता है, जबकि उनकी कुदरती आयु १५ वर्ष होती है। डेयरी उद्योग हेतु पाली जाने वाली गाय-भैंस या उनके बछड़े इस निर्दयता एवं मृत्यु से कभी भी बच नहीं सकते। संक्षेप में, दूध प्राप्ति हेतु आचरित निर्दयता, माँस प्राप्ति हेतु आचरित निर्दयता अत्यंत बुरी होती है। हम डेयरी उत्पादनों का उपयोग करके जानेअनजाने ऐसी निर्दयता को प्रेरणा देकर प्रोत्साहित करते हैं। डेयरी उत्पादनों का जैन मंदिर में होता उपयोगः श्वेतांबर, दिगंबर दोनों सम्प्रदायों में मंदिरों में होनेवाले धार्मिक विधि-विधानों (क्रियाओं) में दूध एवं उसकी बनावट का उपयोग किया जाता है। प्राचीनकाल में (जब वर्तमानकालीन उच्च यांत्रिकीय जिनमें गाय-भैंस को अत्यंक पीडा देकर अंत में मारा डाला जाता है ऐसे डेयरी उद्योगों से पूर्व ) भारत में गाय-भैंस का कुटुंब के सदस्य की भाँति ध्यान रखा जाता था । गायभैंस का शिशु बछड़ा जब स्तनपान कर लेता था तभी गाय-भैंस का दोहन किया जाता था। उस दूध का ही मनुष्य उपयोग करता था। इसी कारण से दूध और दूध से बने पदार्थों को जैन या अन्य धर्मग्रंथों में हिंसक नहीं माना गया है । हमें नये यांत्रिक पर्यावरण के परिप्रेक्ष्य में जैन मंदिरों में होनेवाले विधि विधानों में उपयोग में लिए जाने वाले दूध और उसकी बनावट (उदा. पूजा के लिए दूध, आरती के लिए थी, नैवेद्य के लिए मिठाई आदि) के विषय में पुनः विचार करना चाहिए। किन्हीं भी परिस्थितियों में हमें जैनधर्म के उच्चतम सिद्धांत अहिंसा में किसी भी प्रकार की रियायत नहीं देनी चाहिए, किसी भी प्रकार का समाधान नहीं करना चाहिए। 20 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.000225
Book Title$JES 921H Karuna me Srot Acharan me Ahimsa Reference Book
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramoda Chitrabhanu, Pravin K Shah
PublisherJAINA Education Committee
Publication Year2006
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Jaina_Education, 0_Jaina_education, D000, & D005
File Size657 KB
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