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________________ Jain Education International करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा स्वयं को देखो ।" ज्ञानी, विद्वान एवं बालक सम निर्दोष लोगों द्वारा प्रदत्त यह पहिचान क्या है ? यह जीव मात्र के प्रति आदर भाव है । हमें इस विश्व में प्राप्त गूढ ज्ञान, गुप्त विद्याओं के प्रति पूज्य भाव हैं, जो बाह्य दृष्टि से हम से भिन्न भाषित होते हुए भी हमारे चरित्र के अन्तर्गत ही हैं। वह अतिशय समान एवं दारूण रूप से सम्बद्ध है । हमारे और अन्य प्राणियों के बीच यह असमानता, अज्ञानता । अजीवपना यहाँ दूर हो जाता है । “अनंत जीवों के प्रति पूज्यभाव ही अनजानपने को दूर करना, दया, करूणा एवं अन्य जीवों के समान ही अनुभव की पुनःस्थापना करना है।" यदि हम समस्त प्राणियों को अपने समान समझेंगे तो हमारी उनके प्रति स्थापित मान्यतायें बदलेंगी और हम उनके प्रति दयालु बनेंगे । जब सचमुच हमारे अंदर यह समझदारी की भावना उत्पन्न होगी तब सर्वप्रथम उसका प्रभाव हमारी आहार पद्धति पर होगा । इससे हम कोई भी वस्तु इस शरीर में जो कि आत्मा का घर है उसमें डालने (भक्षण करने से पूर्व विचार एवं निरीक्षण करेंगे । हम अपने भोजन के विषय में जानेंगे । हम जो भी आहार करते हैं उसका सीधा प्रभाव हमारे विचारों पर पड़ता है और हमारे विचारों का प्रभाव हमारे व्यवहार-आचरण पर पड़ता है । यदि हम स्वस्थ शरीर व स्वस्थ मन चाहते हैं तो हमें रक्तरंजित भावतरंगे उत्पन्न करने वाले भोजन का त्याग करके शुद्ध, सात्त्विक एवं पवित्र स्वास्थ्यप्रद आहार करना चाहिए। अनेक लोगों को यह पता ही नहीं है कि जब वे मांसाहार करते हैं। तब प्रोटीन के साथ अनेक रसायनिक द्रव्य जो प्राणियों को मोटा करने के लिए होते हैं वे तथा उनके अनेक रोग और उनके शरीर के जीवाणुओं को नष्ट करने के लिए दी गई दवा और इन्जेक्शन भी शरीर में प्रवेश करते हैं। वे यह भी भूल जाते हैं कि माँस में दुःख, भय और अस्वीकार की नकारात्मक तरंगे भी होती हैं जो हमारे शरीर के प्रत्येक कोष में दुःख भय एवं नकारात्मक भावनाओं को जन्म देते हैं। जब शरीर में दुःख से परिपूर्ण, रसायणयुक्त नकारात्मक तरंगे कार्यरत होती हैं तब स्वास्थ्य, सुख एवं स्वस्थ मन-मस्तिष्क की सुन्दर भावनायुक्त जीवन की आशा कैसे रख सकते हैं ? मन मस्तिष्क एवं शरीर में जान लेवा रोग होने के यही कारण हैं । हम अनेक लोगों को भावनात्मक, मानसिक एवं शारीरिक रोगों से पीड़ित होते हुए देखते हैं उसके मूल में यही कारण है । सांख्यकी के अनुसार प्रतिवर्ष २० लाख अमरिकन मृत्यु प्राप्त करते हैं 44 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.000225
Book Title$JES 921H Karuna me Srot Acharan me Ahimsa Reference Book
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramoda Chitrabhanu, Pravin K Shah
PublisherJAINA Education Committee
Publication Year2006
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Jaina_Education, 0_Jaina_education, D000, & D005
File Size657 KB
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