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________________ Jain Education International करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा किया है एवं रेशम के उत्पादन में कितनी हिंसा होती है उस पर प्रकाश डाला है। सुकोमल, नरम एवं चमकते रेशमी वस्त्र सदैव आकर्षक लगते हैं। वास्तव में २००० वर्ष पूर्व यह सुन्दर वस्त्र चीनसे आयात किए जाते थे और इसीलिए संस्कृत भाषा में इन्हें “चिनांशुक” कहा जाता था । उनके बनाने की प्रक्रिया उत्पत्ति को अति गोपनीय रखा जाता था क्योंकि उस प्रक्रिया में लाखों जीवों की हिंसा होती थी । रेशम के तार वास्तव में रेशम के कीडे द्वारा कोशेटो बनाने के लिए उत्पन्न एक प्रकार के पतले तार हैं। कोशेटो वास्तव में तो उसके स्वयं के रक्षणार्थ बनाया गया इल्ली एक प्रकार का मजबूत कबच है जो उसके जीवन (इयब्व) में से कोशेटा एवं तितली तक की विविध अवस्थाओं में रक्षण करते हैं । मादा तितली ४०० से ६०० अंडे देती है । दस दिन के सेवन के पश्चात् अंडों में से १/१२* लंबी इल्ली निकलती है जिसे लावां कहा जाता है। शहतूत के पत्ते उसका भोजन होता है । २५-२७ दिन तक उन शहतूत के पत्तों को खाकर वह लगभग ३ - ३.१/२" लंबी हो जाती है । पूर्ण रूप से पुख्त इल्ली अपने मुंह में से गौंद जैसा पदार्थ बाहर निकालती है एवं तार के स्वरूप में अपने इर्द-गिर्द लपेटती है और दो से चार दिन में कोशेटो बनाती है और बाद में १५ दिनमें उसी कोशेटा में इल्ली में से तितली का रूपांतरण होता है। वह तितली उस कोशेटो को काटकर बाहर आती है जिससे रेशम के तार के टुकड़े हो जाते हैं । कोशेटो के रेशम का टुकड़े न हो जायें इसलिए कोशेटो को उबलते पानी में डाला जाता है या फिर गरम हवा में से निकाला जाता है या फिर सूर्य की तेज किरणों मे सुखाया जाता है। । जिससे अंदर की इल्ली मर जाती है। पश्चात् कोशेटों के रेशम के तार को लकड़े की फिरकनी में लपेट कर रोल बनाया जाता है। I लगभग १०० ग्राम शुद्ध रेशम की प्राप्ति हेतु १५०० कोशेटों की इल्लियों को मार जाला जाता है । कुछ कोशेटों को नर-मादा तितलियाँ प्राप्त करने के लिए अलग रखा जाता है। मादा तितली के अंडे देने के पश्चात् रोगों की जाँच करने हेतु उसको नष्ट कर दिया जाता है। यदि उस मादा तितली को कोई रोग हो तो उसके अंडों का भी नाश कर दिया जाता है। इस प्रकार पीढी दर पीढी प्रजोत्पत्ति होने से बाद की तितलियों उड़ने की क्षमता खो देती हैं। नर तितली का उपयोग प्रजनन हेतु करने के पश्चात उसे एक टोकरी में रखकर बाहर फेंक देते हैं । 58 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.000225
Book Title$JES 921H Karuna me Srot Acharan me Ahimsa Reference Book
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramoda Chitrabhanu, Pravin K Shah
PublisherJAINA Education Committee
Publication Year2006
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Jaina_Education, 0_Jaina_education, D000, & D005
File Size657 KB
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