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करुणा-स्रोतः आचरण में अहिंसा मुक्त अनजाने प्राणियों के प्राण हरण करके हिंसक कार्यों द्वारा बेरहमी से उनका उपयोग करता है। इस प्रकार वह सिर्फ जीवित प्राणियों का ही दुरुपयोग नहीं करता अपितु वह अपना ही दुरुपयोग करता है कारण कि वह स्वयं एक जीवित प्राणी है। वह जीवित प्राणियों द्वारा मुक्त की जाने वाली तरंगो, आंदोलनो संबंधी वैश्विक सिद्धांत- “जैसा तुम दोगे वैसा ही प्राप्त करोगे" से स्वयं को मुक्त या अलिप्त नहीं रख सकता है।
किसी भी प्राणी का वध करने के पूर्व तुम्हें निर्दयी बनना होगा, तभी तुम उसे मार सकोगे। जब व्यक्ति अज्ञानतावश कोई पाप कर्म करता है तब वह अपने ही सद्गुणों का नाश करता है। एवं स्वयं को धिक्कारने की सीमा तक पहुँच जाता है। यदि मनुष्य को स्वयं के प्रति ही आदर भाव न हो तो उसे अन्य जीवित प्राणियों के प्रति आदर भाव कहाँ से होगा ? इस तरह निरंतर हिंसा होती रहती है और हिंसा तथा तिरस्कार का विषचक्र निरंतर चलता रहता है।
सिर्फ अपनी जीभ के स्वाद के लिए मांसाहार कराके यह स्वयं के जीवन के प्रति पीड़ा / दुःख एवं संत्रास है ऐसा विचार भी कोई नहीं करता है । जीवन किसी प्रयोगशाला में उत्पन्न करने की वस्तु नहीं है । प्रबल जिजीविषा युक्त जीवन बहुमूल्य है। पृथ्वी के प्रत्येक जीव को अपनी नियति / दिव्यता प्रकट करने के लिए योग्य समय चाहिए। अकाल मृत्यु जीवन के प्राकृतिक आविर्भाव के चक्र को खंडित करती है। तत्वचिंतक प्लेटो का कथन है- "हम सिर्फ अपनी जीभ के स्वाद हेतु इस विश्व में आनंद प्राप्ति हेतु जन्मी आत्माओं का जीवन और समय ही ले लेते हैं।"
अनेक बार लोग प्रश्न करते हैं कि यदि तुम प्राणियों का वध नहीं करते हो तो वनस्पति की विदारणा क्यों करते हो ? जैन विचारधारा इस प्रश्न का स्पष्ट उत्तर देती है। मूलतः यह समग्र ब्रह्मांड दो प्रकार के पदार्थों में विभक्त है- (१) सजीव (२) निर्जीव
सजीव उदाहरणार्थ मनुष्य, प्राणी, पक्षी, जीव-जन्तु, सूक्ष्म हलनचलन करने वाले जीव, वनस्पति वृक्ष आदि, हवा, अग्नि, पानी, पृथ्वी । जबकि निर्जीव पदार्थ उदाहरणार्थ टेबल, कुर्सी, मकान, गाडी, मोटर, मशीन आदि । जहाँ जीवन है वहाँ दुःख की अनुभूति है और उसे निरंतर दूर करने की प्रेरणा की प्रतिक्रिया भी है।
जैनदर्शनानुसार समस्त प्राणियों का वर्गीकरण उन्हें प्राप्त इन्द्रियों के आधार पर पांच विभागों में किया गया है । (१) एकेन्द्रिय (२) द्वि इन्द्रिय (३)
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