Book Title: Visheshavashyak Bhashya Part 01
Author(s): Subhadramuni, Damodar Shastri
Publisher: Muni Mayaram Samodhi Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 12
________________ **************************************** * इनकी विमल प्रज्ञा-गंगा में आगमों का अमृत बहता है। इनकी प्रज्ञा में प्रवाहित ज्ञान-प्रभा न केवल * इनकी मस्तिष्कीय चकाचौंध की उपज है बल्कि इनके आचार, विचार और व्यवहार के प्रत्येक क्षण * में उस प्रभा की स्वतः स्फूर्त प्रभावना के दर्शन किए जा सकते हैं। कहं चरे, कह चिढ़े... के . * आगमीय प्रश्न इनके आचार में 'जयं चरे, जयं चिठे'.. के शाश्वत समाधान बनकर साकार हुए देखे +जा सकते हैं। न केवल अपने कृपा-पात्रों के प्रति बल्कि (निःसंदेह) प्राणिमात्र के प्रति इनकी * आत्मीयता, मृदुता, ऋजुता 'निग्गंथा उज्जुदसिणो' का सांगोपांग दर्शन प्रस्तुत करती है। साधुता की * शाश्वत सुवास से सुवासित इनके व्यक्तित्व का दर्शनार्थी मंत्रमुग्ध हो उठता है। साधना, स्वाध्याय और सृजनधर्मी व्यक्तित्व के संगम (जंगम) तीर्थ श्रद्धेय आचार्य श्री द्वारा * रचित, अनुदित, व्याख्यायित एवं संपादित शब्द-संसार भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। सर्वाधिक पढ़े* पढ़ाए जाने वाले जैन साहित्य में आचार्य श्री के साहित्य का अपना प्रमुख स्थान है। महाप्राण मुनि * * मायाराम, जैन चरित्र कोष, अहिंसा विश्वकोष, मैं महावीर को गाता हूँ, मैं सबका मित्र हूँ, आदि इनकी * * कालजयी रचनाएं हैं। इस क्रम में प्रस्तुत ग्रन्थ श्री विशेषावश्यक भाष्य का सटीक अनुवादन भी पूरी * * गरिमा के साथ जुड़ गया है। 1500 वर्ष पूर्व रचित श्री विशेषावश्यक भाष्य पर राष्ट्रभाषा में कलम चलाने वाले आप प्रथम * मुनिराज हैं / आपका यह सृजन-धर्म स्वाध्याय प्रेमियों एवं विशेषतः शोधार्थियों के लिए ज्ञानालोक के नए वातायन खोलने वाला सिद्ध होगा, इसमें किंचित् भी संदेह नहीं है। ' -अमित राय जैन (महामंत्री : एस.एस. जैन सभा बड़ौत, उ.प्र.) * *******************[8] *******************

Loading...

Page Navigation
1 ... 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 ... 520