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वीरजिणिवचरिउ
८८७ )। इसमें कुल १०२ सन्धिया है, जिनमें महावीरका जीवन-चरित्र सन्धि ९५ से अन्त तक वणित है ( बम्बई १९४१ ) । स्वतन्त्र रूपसे यह परित्र कवि श्रीधर द्वारा रचा गया। उनको एक अन्य रचना पाराणाह-चरिउका समाप्ति-काल वि. सं. ११८९ उल्लिखित है, अतः इसी कालके लगभग प्रस्तुत ग्रन्थका रचनाकाल निश्चित है। श्रीधरकी अपनश रचनाएँ इस कारण भी विशेष रूपसे ध्यानाकर्षक हैं कि कयिने अपनेको हरियाणा निवासी प्रकट किया है। हरियाणा 'आभीरकाणाम' का अपभ्रंश है जिससे वह आभीर जातिकी भूमि सिद्ध होती है, और काव्यादर्शके कार्ता दाडौके अनुसार आभीरों आदिकी बोलीके आधारसे अपभ्रंश वाव्यको शैली विकसित हुई थी। अतः कहा जा सकता है कि पांचवींछठी शतीस लेकर बारीं शती तक हरियाणाम अपभ्रंश रचनाको परम्परा प्रचलित रही। सोजसे इस प्रदेशके कवियोंकी अन्य रचनाओं का पता लगाना, तथा उनके आधारसे उस क्षेत्रको प्रचलित बोलियोंका तुलनात्मक अध्ययन करना भाषाशास्त्र व ऐतिहासिक दृष्टिसे बहुत महत्वपूर्ण होगा।
विक्रम संवत् १५०० के आस-पास ग्वालियरके तोमरनरेश डूंगर सिंह और उनके पुत्र कीतिसिंहके राज्यकालमें कन्निवर रयधने अनेक रचनामों द्वारा अपभ्रंश साहित्यको पुष्ट किया। उनके द्वारा रचित 'सम्मा-चरिउ' दस सन्धियोंमें पूर्ण हुआ है। नरसेन-कृत 'बमाण-कहा' की रचनाका ठीक समय ज्ञात नहीं । किन्तु इसी कविकी एक अन्य रचना 'सिरिवाल-चरिउ की हस्तलिखित प्रति वि. सं. १५१२ की है। अतः नरसेनका रचना-काल इसके पूर्व सिद्ध होता है। जयमित्र हल्ल कुत 'अङ्कमाण-कथ्य' की एक हस्तलिखित प्रति वि. सं. १५४५ को प्राप्त है । ग्रन्यो अन्तमें पानन्दि मुनिका उल्लेख है जो अनुमानतः प्रभाबन्द्र भट्टारको वे ही शिष्य हैं जिनके वि. सं. १३८५ से १४५० तकके लेख मिले है । कविने अपनी रचनाको 'होलिवम्म-कण्णाभरण' कहा है तथा हरिइन्दु ( हरिश्चन्द्र ) कविको अपना गुरु माना है।
(अ) महाबीर-जीवनपर कन्नड़ साहित्य संस्कृतमें असम विरचित 'वर्द्धमानपुराण' से अनेक ऋन्नड़ कवियोंको स्फूर्ति मिली है। असगका 'अगस' ऐसे ही लिखते हैं और कन्नड़में इसका अर्थ रजक ( घोत्री ) होता है ! फिन्तु सचमुच 'असग' शब्द 'असंग' शब्दका जनसाधारण उच्चारण जैसा मालूम होता है। अभी-अभी दूसरे नागधर्म विरचित 'वीरवर्धमानपुराण' के एक हस्तलिखित भी प्रकाश बाया है। इसमें सोलह संग है, और उनमें महावीरका पूर्वभव और प्रस्तुत जीवनका वर्णन है। यह एक