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सन्धि २ केवलज्ञानोत्पत्ति
कूलग्राममें भगवान्को आहार-वान देवोंके देव भगवान महावीर स्थिर चित्त तथा मनःपर्यय जानसे युक्त होकर उस कूलग्नाम नामक पुरीमें पहुंचे जहाँके निवासगृह तारों और हारोंके समान उज्ज्वल दृष्टिगोचर होते थे। वहां उन परमेश्वरने भिक्षाके लिए प्रवेश किया और बड़े साम्य-भावसे एक घरसे दूसरे घरकी ओर गमन करने लगे। वे अपने मनःपर्यय ज्ञानरूपी नेत्रसे ही अपने आसपासके लोगोंके मनको जान रहे थे । वे वहाँक राजा कूलके गृहप्रांगणमें अवतरित हुए। उस प्रियंगु वर्ण-से उज्ज्वल नरेशने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया। वे भुवननाथ वहां ठहर गये और राजाने उन्हें मुनिके योग्य नव-कोटि-शुद्ध आहार दिया । जब आहार लेकर भगवान् बाहर निकले तब जिस भूमिभागपर उन्होंने आहार लिया था वह रत्नोंसे परिपूर्ण हो गया। देवोंने अयध्वनि करते हुए तूर्य बजाये तथा आकाशसे फूल बरसाये। उन्होंने घोषित किया-अहो, यह बड़ा सुन्दर दान हुआ । इस समय अतिसुगन्ध-युक्त पानी बरसा । मन्द और शीतल पवन प्रवाहित हुआ तथा उस अनेक गुणोंके निवास राजा की लोगोंने वन्दना की। यहाँ जिन भगवान् महाघोर अपने दुष्कर्मोको विनष्ट करते हुए उस पुरीके समीप भोषण निर्जन वनमें दिन व्यतीत करने लगे। वे जिनकल्पी चारित्रसे अपनो चर्या करते थे और जो कोई उनके प्राण हरण करनेको इच्छा से उनके समीप आता था उसके प्रति भी वे समभाव रखते थे। जिस वनमें श्वान, सिंह और शृगाल तथा शार्दूल गर्जना करते हुए चारों और विचरण करते थे उसी वनमैं के रात्रिभर खड़े-खड़े ऐसे ध्यान-मग्न रहते थे जैसे मानो वह कोई स्थिर स्तम्भ हो ।।१।।