Book Title: Veerjinindachariu
Author(s): Pushpadant, Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 198
________________ १२. ४. २२ ] हिन्दी अनुवाद १२२ भेद हैं—बादर और सूक्ष्म-एकेन्द्रिय तथा द्वीन्द्रिय आदि चार स । (४) योगको अपेक्षा वे तीन प्रकारके हैं-काययोगी, वत्रनयोगी और मनयोगी। ( ५ ) वेदकी अपेक्षा भी उनके तीन भेद हैं, पुल्लिंग, स्त्रीलिंग और नपुंसक । ( ६ ) कषायकी अपेक्षा वे क्रोधी, मानी, मायावी, और मोही ऐसे चार प्रकारके हैं। (७) ज्ञानको अपेक्षा उनके आठ भेद हैंमतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी और केवलज्ञानी ये पाँच तथा कुमति, कुश्रुत, और कुअवधि ये तीन कुज्ञानी। ( ८) संयमकी दृष्टिसे जीवोंके तीन भेद हैं संयमी, संयमासंयमी और असंयमी; अथवा सामायिक छेदोपस्थापना, सूक्ष्म साम्पराय और यथाख्यात इन चार संयमोंकी दृष्टि से वे चार प्रकारके हैं। (९) दर्शनकी दृष्टिसे क्षायिक, औपशमिक और क्षायोपशमिक ये तीन भेद हैं; अथवा चक्षु, अचक्षु, अवधि, और केवल ये चार दर्शन-रूप हैं। (१०) लेश्या भावके अनुसार उनके कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल, ये छह भेद हैं । ( ११) भव्यलगी. कहा जीवों को तो हैं, लौर अपत्य : १२) सम्यक्त्व. की अपेक्षा भी उनके दो प्रकार हैं, उपशम-सम्यक्त्वो और क्षायिकसम्यक्त्वी । (१३) संज्ञाकी अपेक्षा वे दो प्रकारके हैं, संजी, और असंज्ञी। (१४) आहारकी अपेक्षा जीव दो प्रकारके होते हैं । संसारकी चारों गतियोंमें जो जीव हैं, वे सब आहारक है, किन्तु जो जीव केबलि-समुद्घात कर रहे हैं, विग्रह गतिमें हैं तथा जो अरहन्त, अयोगी व सिद्ध परमात्मा हो चुके हैं, वे आहार नहीं लेते अतएव वे अनाहारक हैं । शेष सभी जीवोंको आहारक जानना चाहिए। ये चौदह मार्गणा-स्थान हैं, क्योंकि इनके द्वारा नाना दृष्टियोंसे जीवोंके भेदोंको खोजा-समझा जाता है।। ___ अब चौदह गुणस्थानों ( आध्यात्मिक उन्नतिको भूमिकाओं) को सुनिए। पहला गुणस्थान मिथ्यादृष्टियोंका है, जिसमें सम्यग्ज्ञानका सर्वथा अभाव होता है । सम्यग्ज्ञान प्राप्त कर वहाँसे मिथ्यात्वकी ओर गिरते हुए जीवोंका स्थान सासादन कहलाता है और वह दूसरा गुणस्थान है। तीसरा गुणस्थान सम्यक्त्व और मिथ्यात्वके मिश्रणरूप होनेके कारण मिश्र गुणस्थान कहलाता है। चतुर्थ गुणस्थान ऐसे जीवोंका कहा गया है जिन्हें सम्यग्दृष्टि तो प्राप्त हो चुकी है, किन्तु विषयोंसे विरक्तिरूप संयम उत्पन्न नहीं हुआ है। अतएव यह गुणस्थान अविरत सम्यग्दृष्टि कहलाता है । पाँचवाँ गुणस्थान उन जीवोंका है, जो सम्यग्दृष्टि भी हैं और पूर्णरूपसे संयमी न होते हुए भी अणुव्रती अर्थात् श्रावक हैं; इसीलिए यह गुणस्थान

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