Book Title: Veerjinindachariu
Author(s): Pushpadant, Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 196
________________ १२. ४.२] हिन्दी अनुवाद १२७ इन्द्रियाँ, आनप्राण और भाषा ये पाँच पर्याप्तियाँ होती हैं। इनके दश प्राणोंमेंसे क्रमशः छह, सात और आठ प्राण होते हैं। अर्थात् एकेन्द्रिय जीवोंके एक स्पर्श इन्द्रिय, एक कायबल, आनप्राण और आयु सहित रसना और वाक मिलकर द्वीन्द्रियोंके छह प्राण हुए। इनमें प्राण मिलनेसे श्रीन्द्रियके सात, तथा उनमें चक्षु मिलनेसे चतुरिन्द्रियके आठ प्राण हुए । ऐसा निर्मल-ज्ञानी महामनि कहते हैं। पंचेन्द्रिय जीवोंके दो भेद हैं, संज्ञी और असंज्ञी। जिनके मन नहीं होता वे निश्चय से असंज्ञी कहलाते हैं। वे अपने पापके फलस्वरूप शिक्षा व आलाप आदि ग्रहण नहीं कर सकते । वे निरन्तर अज्ञानमें गहरे डूबे रहते हैं। अज्ञानी जीत्रोंक जिनेन्द्र भगवान्ने दश प्राणोंमेंसे मनको छोड़कर शेष नौ प्राण तथा छह पर्याप्तियोंमेंसे मनपर्याप्तिको छोड़कर शेष पाँच पर्याप्तियाँ कही हैं। संज्ञी तिर्यंच जीव छहों पयाप्तियोंसे पर्याप्त होते हैं। वे स्पर्श, रस, घ्राण, नेत्र और धोत्र ये पांचों इन्द्रियोंको धारण करते हैं तथा पाँच इन्द्रियों, मन, वचन और काय इन तीन बलों तथा आनप्राण और आयु इन दो सहित दगो प्राणोंसे युक्त होते हुए जीवित रहते हैं। अब मैं इनके नाना प्रकारोंका वर्णन करता हूँ जो सामान्यतया देखने में नहीं आते। जलचर झस आदि पाँच प्रकारके होते हैं जिनमें कच्छप, मकर और मकरापहर्ता शुशुमार भी हैं। नभचर अनेत्रा प्रकारके होते हैं । कुछ ऐसे होते हैं जिनके पंखे बड़े-बड़े और स्पष्टतया विलग होते हैं, तथा कुछके पंखे चर्मसे लगे हुए, सघन रोमों सहित होते हैं । थलचर चौपाए चार प्रकारके होते हैं। एक-खुर, दो-खुर, हस्तिपद और श्वानपद । इनके असंख्य भेद हैं। उरुसी, महोरग, अजगर आदि इतने विशाल भी होते हैं कि वे हाथीको भी निगल सकते हैं । भुजसो भी सरड (छिपकली), उन्दुर (भूषक), गोधा (गोह ) आदि नामधारी अनेक भेद कहे गये हैं। जलचर जीव जल में रहते हैं, खुग वृक्षों और पर्वतोपर तथा थलचर ग्राम, पूर और वनमें रहते हैं 1 द्वीपों और समुद्रोंके बलयाकार मण्डल असंख्य हैं जिनका मध्यवर्ती प्रथमद्वीप जम्बूद्वीप कहा गया है ||३|| गति, इन्द्रिय अदि चतुर्दश जीव-मार्गणाएं व गुणस्थान (१) संसारी जीव मनुष्य, तिर्यंच, नारक और देव, इन चार गतियोंके अनुसार चार प्रकारके होते हैं। (२) स्पर्शादि पांच इन्द्रियोंके भेदसे वे पांत्र प्रकारके कहे गये हैं। (३) कायकी अपेक्षासे जीवोंके छह

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