Book Title: Veerjinindachariu
Author(s): Pushpadant, Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 204
________________ १३५ १२. ६. २६ ]. हिन्दी अनुदान स्वयं तीर्थंकर ही उसका सम्बोधन करें। यह कषायों का अनन्तानुबन्धी स्वरूप हैं ||५|| कषायोंका स्वरूप तथा मोहनीय कर्मको व अन्य कर्मोंकी उत्तर प्रकृतियाँ कषायोंका दूसरा प्रकार अप्रत्याख्यान कहलाता है, जिसके होते हुए सम्यक दर्शनकी प्राप्तिमें तो बाधा नहीं पड़ती, किन्तु व्रतोंके ग्रहण करनेकी वृत्ति उत्पन्न नहीं होती । कषायोंका तीसरा प्रकार प्रत्याख्यान है, जिसके सद्भावमें सम्यकदर्शन तथा अणुव्रतोंका ग्रहण तो हो सकता है, किन्तु महाव्रतों का पालन नहीं हो सकता। चौथा कषायभेद है संज्वलन, जिसके होते हुए जीव महाव्रती मुनि तो हो जाता है, तथापि वह सूक्ष्म रूप में कषायोंको लिये हुए रहता है, जिसका स्वरूप दसवें सूक्ष्म-साम्पराय नामक गुणस्थानमें किया गया है। चारों कषायोंके तीव्रता से उतरते हुए उनके मन्दतम रूपको दिखानेवाले ये चार प्रकार प्रत्येक कषायके होते हैं, और इस प्रकार उक्त चार कषायोंके सोलह भेद हो जाते हैं । ये सब कषाय सिद्ध भगवान्ने त्याग दिये है। अब आगे उन नौ नोकषायों को कहते हैं, जिनका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है। ये हैं—स्त्रीवेद, पुंवेद तथा नपुंसकवेद रूप तीनों राग, भय, रति, अरति, जुगुप्सा, हास्य और शोक | इन्हें भी जिनभगवान्ने उड़ा दिया है, जीत लिया है व अपने अन्तरंग से बाहर फेंक दिया है । इस प्रकार मोहनीय कर्मके समग्ररूपसे ये ( ४×४+९=२५ ) पच्चीस भेद हुए । जीव कभी देवकी आयु बांधता है, कभी नरक की, कभी मनुष्यकी और कभी तिथेच योनि की; इस प्रकार आयुकर्मके चार भेद हैं। नामकर्मके बयालीस भेद हैं, जिनके नाम हैं १. गति, २. जाति, ३. शरीर, ४. निबन्धन, ५. शरीर संघात, ६. शरीर संस्थान, 3. शरीरअंगोपांग, ८. शरीर संहनन, ९ वर्ण, १० गन्ध, ११. रस, १२. स्पर्श, १३. आनुपूर्वी, १४ अगुरुलघु, १५. उपघात, १६, परघात, १७, उच्छवास, १८. आताप, १९. उद्योल, २०. विहायोगति, २१. सकाय, २२. स्थावरकाय, २३. बादरकाय, २४. सूक्ष्मकाय, २५ पर्याप्ति २६ अपर्याप्त, २७. प्रत्येक शरीर, २८. साधारण शरीर, २९. स्थिर, ३०. अस्थिर, ३१. शुभ, ३२. अशुभ, ३३. सुभग, ३४. दुर्भग, ३५. सुस्वर, ३६. दुस्वर,

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