Book Title: Veerjinindachariu
Author(s): Pushpadant, Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 200
________________ १३१ १२. ५. ४] हिन्दी अनुवाद विरताविरत नामसे भी जाना जाता है। छठा गुणस्थान उन संयमी मुनियोंका है, जिनमें महावतोंका पालन होते हुए भी कुछ प्रमाद शेष रहता है; अतएव यह प्रमत्त-संयम गुणस्थान कहलाता है। सातवां गुणस्थान, सुन्दर गुणशाली अप्रमत्त-संयमी मुनियोंका है। अष्ठम गुणस्थानमें मुनियोंके उत्तरोत्तर, अपूर्व भावशुद्धि होती जाती है; अतएव यह गुणस्थान अपूर्वकरण कहलाता है। नवम गुणस्थान अनिवृत्तिकरण है जहाँ मान कषायका अभाव होनेसे मुनिके नीचे गिरनेकी सम्भावना नहीं रहती। दशबाँ गुणस्थान सूक्ष्म-साम्पराय या सूक्ष्म-राग कहलाता है. क्योंकि यहाँ पहुँचनेपर मुनियोंकी कषायें अत्यन्त मन्द और सूक्ष्म हो जाती है । ग्यारहवाँ गुणस्थान उपशान्त-कषाय कहा गया है, क्योंकि यहाँ साधकके सभी कषायोंका उपशमन हो जाता है। बारहवां गणस्थान क्षीण-कषाय है क्योंकि यहाँ कषायोका उपशमन मात्र नहीं, किन्तु आत्मप्रदेशोंमें उनका पूर्णतया क्षय हो जाता है । तेरहवां गुणस्थान सयोगि-जिन अथवा सयोगिकेवली कहलाता है, क्योंकि इस स्थानपर आत्माको केवलज्ञान प्राप्त हो जाता है, किन्तु शरीरका विनाश नहीं होता और इसलिए ये सयोगिकेवली धर्मका उपदेश भी करते और तीर्थकर भी होते हैं । अन्तिम चौदहवाँ गणस्थान उन अयोगि केबली जीवोंका होता है जिन्होंने मन, वचन और काय इन तीन योगोंका परित्याग कर दिया है तथा औदारिक, तेजस और कार्मण इन तीनों शरीरोंके भारसे मुक्त होकर अक्षय पद प्राप्त कर लिया है, अर्थात् परमात्मा हो गये हैं। जीवोंके आध्यात्मिक उत्कर्ष तथा क्रम-विकासकी दृष्टिसे जो ये चौदह गुणस्थान कहे गये हैं इनमेंसे नारकीय जीवोंके प्रथम चार ही गुणस्थान हो सकते हैं, और बड़े-बड़े देव भी वे ही चार गुणस्थान प्राप्त कर सकते हैं । तिर्यंच जीवोंके पाँच गुणस्थान भी हो सकते हैं, किन्तु प्रथमसे लेकर चौदहवें तक समस्त गुणस्थानोंमें तो केवल मनुष्य ही चढ़ सकते हैं ।।४।। कर्मवध कर्मभेव-प्रभेद संसारी जीव शरीरधारी होते हैं, और वे निरन्तर अपने कर्मोंसे पीड़ित रहते हैं। इनसे विपरीत जो मुक्तिप्राप्त जीव हैं, वे शाश्वत भावसे युक्त हैं और अपने दर्शन-ज्ञानरूपी स्वाभाविक सुख में तल्लीन रहते हैं। इस

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