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८. ४. १२ ] हिन्दी अनुवाद तथा जो दुर्गतिके दुःखरूपी कीचड़को सुखाने के लिए ग्रीष्मकालीन दिनके समान हैं, ऐसे वीर जिनेन्द्र विपुलाचल गिरिपर आकर विराजमान हुए हैं। यह बात सुनकर राजा श्रेणिका अपमें समस्त दहक आभूषण वनपालको दे दिये और तत्काल अपने सिंहासनको छोड़कर सद्विनयसे अपनेको अलंकृत करते हुए वे सात पद आगे बढ़े। उन्होंने प्रसन्न होकर उसी दिन भगवानकी वन्दनाके लिए जानेका निश्चय कर लिया। उन्होंने 'जय देव' कहकर प्रसन्न मनसे भूमितलपर अष्टांग प्रणाम किया, और बन्दन-यात्राको सूचना-रूप भेरी बजवा कर उसकी ध्वनिसे समस्त भुवनको परिपूरित कर दिया। सब लोगोंके एकत्र हो जानेपर, राजा श्रद्धापूर्वक बन्दनाभक्तिसे प्रेरित हो उत्सव सहित चल पड़ा। चलते-चलते वह राज्यलक्ष्सीका निधान राजा श्रेणिक पर्वतकी भूमिके समीपवर्ती वनमें पहुंचा। वहाँसे राजाने उस पर्वतको देखा जो उसके ही समान श्रेष्ठवंश ( उत्तम कुल अथवा अच्छे बाँस वृक्षों ) से युक्त था, प्रशंसा प्राप्त था, हाथी, घोड़ों, चमर और शोभासे युक्त था, धराधारक तथा रत्नोंका सार था ॥३॥
महावीरका उपवेशा सुनकर राजा श्रेणिकको क्षायिक
सम्यक्त्वको उत्पत्ति
राजाने समता भावसे युक्त होकर भगवानको प्रणाम किया और उनके चरणोंकी भक्तिके भारसे प्रेरित हो उनकी स्तुति की। भगवान्ने भी राजाको शुभगतिमें जानेके हेतु धर्म तथा दुर्गति-गमनके हेतुभूत अधर्ममें भेद करनेका उपदेश दिया । बहु उपदेश सुनकर राजाने शाश्वत सुखके निधान क्षायिक सम्यक्त्वको प्राप्त किया। उन्होंने जो पहले साधुका बध करनेके भावसे सातवें नरककी आयुका बन्ध किया था, उसको काटकर अत्यन्त निर्मल भावसे अपने सम्यक् दर्शनके बल द्वारा उसे प्रथम नरकके आयुबन्धमें बदल दिया। इसके अतिरिक्त उन्होंने अपने विशेष संवेग भावसे मनोहर तीर्थकर नाम-कर्मको अर्जित किया । गौतम गण
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