Book Title: Veerjinindachariu
Author(s): Pushpadant, Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 190
________________ सन्धि १२ तीर्थंकरका धर्मोपदेश १ भोंको प्रार्थनावर जिनेन्द्रका उपदेश - जीवोंके भेद-प्रभेव J जब जिनेश्वर भगवान्ने भव्यजनों को हाथ जोड़, सिरसे प्रणाम करते हुए, भक्तिपूर्वक हर्षसे प्रफुल्ल-मुख तथा संसारके दुःखोसे उद्विग्न होकर वहाँ एकत्र होते देखा, तब उन्होंने अपने मुखसे निकलती हुई धीर और दिव्य ध्वनि से नागों, मनुष्यों और देवोंको सन्तुष्ट करते हुए तत्वों के स्वरूपका वर्णन किया। उन्होंने कहा कि संसार के समस्त वस्त्र मुख्यतः दो भागों में बाँटे जा सकते हैं। एक जीव और दूसरा अजीव । जीव पुनः दो प्रकारके हैं - सभव अर्थात् संसार में भ्रमण करनेवाले और दूसरे अभव अर्थात् मुक्त जीव जो निर्वाणको प्राप्त हो गये हैं और जिनको अब पुनर्जन्ममरणकी बाधा नहीं रही। जो वे संसारी जीव हैं, वे अपने-अपने कर्मानुसार परिणमन कर रहे हैं । वे जीवोंकी चौरासी लाख योनियोंमें भ्रमण कर रहे हैं, और अन्य अन्य शरीर धारण करके उन्हीं के अनुरागमें रमण करते हैं । इन्द्रियोंकी अपेक्षा जीव तीन प्रकारके हैं- एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और सकलेन्द्रिय । इनमें एकेन्द्रियके पुनः पाँच भेद कहे गये हैं जिनका आगे वर्णन किया जायेगा। इन सभी प्रकारके जीवोंके आहार, शरीर, इन्द्रिय, आनप्राण, भाषा और मनरूप परमाणुओंकी विशिष्ट रचना करनेका जो सामर्थ्य है उसे पर्याप्त कहा जाता है। यह पर्याप्ति आहार आदि उक्त भेदोंके अनुसार छह प्रकारकी कही गयी है। जीवकी एक भवमें कमसे कम आयुस्थिति अन्तर्मुहूर्त अर्थात् एक मूहूर्तकाल के भीतर है। किन्तु नारकीय जीवों तथा देवोंकी जघन्य आयु दस सहस्र वर्षकी तथा उत्कृष्ट आयु तेतीस सागरोपम कालकी कही गयी है । मनुष्योंकी उत्कृष्ट आयु तीन १६ .

Loading...

Page Navigation
1 ... 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212