Book Title: Veerjinindachariu
Author(s): Pushpadant, Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 192
________________ १२. २.८] हिन्दी अनुवाद १२३ पल्योपमकालकी, एकेन्द्रिय जीवोंकी चार पल्योपम तथा विकलेन्द्रिय जीवोंकी पाँच पल्योपम कही गयी है। पूर्वोक्त आहारादि छह पर्याप्तियोंमें असंज्ञी जीवोंने प्रथम पाँच अर्थत् साहार, गरी, अन्तिरा, आनप्राण और भाषा ये पाँच पर्याप्तियाँ होती हैं। उनके मन नहीं होता। किन्तु संज्ञी जीबांके मन भी होता है और इस प्रकार उनके सभी छह पर्याप्तियाँ होती हैं । जीवके नये जन्म धारण करते समय जबतक उनके ये पर्याप्तियां पूरी नहीं होतीं, अर्थात् वे आहारादि ग्रहण करके पूर्ण शरीर व इन्द्रियाँ धारण करने तथा श्वासोच्छ्वास करने व शब्दोच्चारण करनेकी योग्यता प्राप्त नहीं कर लेते, तबतक वे अपर्याप्त कहलाते हैं । अनेक जीव ऐसे भी होते हैं जो अपनी अपर्याप्त अवस्थामें ही जन्म-मरण करते रहते हैं। ऐसे जीव लब्ध्यपर्याप्त कहलाते हैं । पर्याप्त जीवोंको अपनी पर्याप्तियाँ पूर्ण करनेमें कमसे कम एक क्षण तथा अधिकसे अधिक भिन्न-मुहूर्त अर्थात् एक मुहूर्त के लगभग समय लगता है। संसारी जीवोंके शरीर पाँच प्रकारके होते हैं-औदारिक, बैंक्रियिक, आहारक, कार्मण और तैजस । इनमें से तिर्यच और मनुष्योंके स्थूल शरीर औदारिक कहलाते हैं। देवों और नारकी जीवोंके शरीर ऐसे स्थूल नहीं होते कि वे इच्छानुसार बदल न सकें । उनके ये शरीर क्रियिक कहलाते हैं । आहार शरीर केवल कुछ विशेष ऋद्धिधारी मुनियोंके ही होता है जिसके द्वारा वे अन्य क्षेत्रमें जाकर बिशेष ज्ञानियोंसे अपनी शंकाओंका निवारण करते हैं। कार्मण और तैजस शरीर सभी संसारी जीवोंके सदैव ही बने रहते हैं। कार्मण शरीरमें उनके कर्म-संस्कार उपस्थित रहते हैं और तैजस शरीर द्वारा उनके अन्य शरीरोसे मेल बना रहता है ||१|| एकेन्द्रियादि जीवों के प्रकार तिर्यंच जीव दो प्रकारके होते हैं- अस और स्थावर । इनमें से स्थावर जीवोंके पाँच भेद हैं—पृथ्वी कायिक, जल-कायिक, अग्नि-कायिक, वायुकायिक तथा नाना प्रकारके हरित बनस्पति-कायिक । पृथ्वी कायिक जीव दे होते हैं, जिनका शरीर काला, लाल, हरित, पीला, श्वेत अथवा धूसरवर्ण ही होता है, और इस कारण इन पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय जीवोंके ये ही पाँच वर्ण कहे गये हैं । ये मृदुल, पृथ्वीकायिक जीव होते हैं ।

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