Book Title: Veerjinindachariu
Author(s): Pushpadant, Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 191
________________ १२२ वीरजिणिवचरिउ [१२. १. २५-- एईडिपसु चत्नारि होति। विलिंदिपसु पंच जि कहति ।। ता जाम असण्णिाद पंच-करगु । सण्णिउ पजत्ती-छक-धरणु ॥ प्रयहि जे पचप्पंति णेय । ते जति अपज्जत्ता अणेय !! पजपतहु लगइ खणालु | जगि सबह भिषणमुहुत्तु कालु ॥ घत्ता-ओरालिउ तिरियहुँ माणबहुँ सुर-णारयहुँ विउविय। हार गंतु का वि गुगि कम्मु तेउ सयलहँ वि थिउ ॥१॥ ३० तिरिय हवंनि दुविद्य तस थावर थावर पंच-भेयया । पुहवी आउ तेड वाऊ वि य ___ बहु-विह हरिय-कायया ॥ कसिणारुण हरिय सु-पीयालय पंडुर अवर वि धूसरिय | पही महि-कायहुँ मउय महि पंच-वण्ण मई बजरिय ॥

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