Book Title: Veerjinindachariu
Author(s): Pushpadant, Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 172
________________ -२. ३. ६ ] हिन्यी अमुवाव देवमुनिके धोवर-कर्मसे लोगों में दिगम्बरधर्मके प्रति घणा तथा थणिक द्वारा उसका निवारण राजाकी उस बातसे देवने अपने मन में जान लिया कि राजाका सम्यक्त्वभाव सर्वथा विशुद्ध है । तथापि उन्होंने बहाना बनाकर कहाहे राजेन्द्र, हमें इतने ही मत्स्योंसे प्रयोजन है, हमें और नहीं चाहिए । तब राजाने उस विरता आमिकाके हाथसे मत्स्योंको ले लिया और अपने सेवकको सौंप दिया। फिर उन्हें नमस्कार करके मगध नरेश अपने घर चले गये तथा उस संयमी और संयमिनी दोनोंको बिदा कर दिया। उस मनि और अजिकाके उस अधर्म-कार्यको देखकर लोग दिगम्बर धर्मसे घृणा करने लगे। यह बात जानकर उस बुद्धिमान् राजाने एक दिन, एक निदर्शन ( उदाहरण ) उपस्थित करके दिखलाया। उन्होंने जीवन वृत्तिसम्बन्धी लेखपत्रोंको अपनी माग-मुद्वारो मानित करने लगा उन्हें पलसे विलित करके सब राजपूत्रोंको वितरण कर दिया। उन्होंने उन दानपत्रोंको पाकर मनमें किसी प्रकारके घृणाभाव धारण किये बिना हाथ जोड़कर राजाको नमन किया, और दानपत्रोंको अपने मुकुटयुक्त तथा चम्पक पुष्पोंकी बाससे सुगन्धित सिरोंपर चढ़ा लिया। यह देखकर राजाने उन सब श्रेष्ट सामन्तोंसे कहा कि तुमने मेरी उन मलिन मुद्राओं को अपने सिरपर कैसे रख लिया ? ॥२॥ मलिन मुद्राओं के उदाहरणसे सामन्तोंको शंका-निवारण व देव द्वारा राजाको वरदान राजाके उक्त प्रकार पूछनेपर शत्रु-चक्रको जीननेवाले तथा अपने स्वामीके भक उन सभी सामन्तोंने विनय पूर्वक उत्तर दिया-हे देव, जिस प्रकार हमारा यह शरीर मलिन होनेपर भी चेतना गणतो कारण श्रेष्ठ माना जाता है, उसी प्रकार आपके द्वारा दिये हुए ये मुद्रांकित पत्र मलिन होते हुए भी हमारी जीविकाके साधन हैं, अतएव वे सब प्रकार पूजनीय और वन्दनीय हैं। उनके इस वचनको सुनकर अपने कुलरूपी कूमदको चन्द्रमाके समान प्रसन्न करनेवाले श्रेणिक नरेन्द्रने मुसकराते हुए

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