Book Title: Veerjinindachariu
Author(s): Pushpadant, Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 182
________________ १०. ४.३२ ] हिन्दी अनुवाद ११३ तत्पश्चात् वे भगवान् महावीरके समवशरणमें जा पहुँचे । वहाँ उन्होंने वीर जिनेन्द्रको नमन किया और दोनों जन मुनिवृन्द के बीच जा बैठे । उन्होंने वहाँ धर्म के द्वारा शुभकर्म और अधर्म के द्वारा अशुभ कर्मके आगमनका उपदेश सुना और तत्पश्चात् वे वहाँसे बाहर निकल आये । जब वे जा रहे थे, तब एक स्थानपर लतागृह मण्डप में देवगणोंके ताण्डव नृत्य के साथ किसीके द्वारा गाया हुआ एक गीत सुनाई पड़ा जो इस प्रकार था अपने पतिके प्रवास में जानेपर उसकी मैली-कुचैली उदासमन पत्नी विरहसे जलती हुई कैसे जीवित रह सकती है ? यह गीत सुनकर उस द्विज- मुनिके मन में शूल उत्पन्न हुआ और वह अपनी प्रिया के पास पहुँचने के लिए अपने ग्रामकी नीरव पड़ा उसको हुआ जानकर उसका चतुर मित्र भुलावा देकर उसे अपने नगरकी ओर ले गया । अपने पुत्रको मित्र सहित आते देख रानी चेलना ने अकस्मात् उठकर उनका स्वागत किया, नमन किया और परीक्षा हेतु, उन्हें रमणीय आसन बैठनेको दिये । किन्तु वारिषेण त्यागियोंके योग्य आसनपर ही बैठे। फिर उन्होंने अपने अन्तःपुरकी स्त्रियोंको बुलवाया और कहाहे मित्र, इनमें जो तुम्हें मनोज दिखाई दें, उन्हें राज्य सहित ग्रहण कर लो। भला बतलाओ, इनके आगे उस एकमात्र दीन-हीन तथा दुर्गतिसे क्षीण ब्राह्मणीसे क्या लाभ? वारिषेणकी यह बात सुनकर वह ब्राह्मण बहुत 'लज्जित हुआ। उसने अपने मनकी दुर्भावनाओंको छोड़ दिया और बहु धर्ममें दृढ़मन हो गया। उस दिनसे लेकर वह सच्चा संयमी बन गया और उसने अपनी पाप भावना की आलोचनारूपी तीर्थ में स्नान कर लिया । - . इसी प्रकार दूसरोंके द्वारा भी जिसका मन धर्म से चलायमान हो, उसका अवश्य ही उत्तम उक्तियों और उदाहरणोंसे पाए विनाशक स्थितिकरण करना चाहिए । १५ इति श्रेणिकपुत्र वारिपेणकी योगसाधना विषयक दश सन्धि समाप्त ॥ सन्धि १० ॥

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