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३. ५. २८]
हिन्दी अनुवाद
कवि-परिचय इस पुराणकी रचना कश्यपगोत्रीय केशव भट्ट तथा मुग्धा देवीके पुत्र पुष्पदन्त द्वारा की गयी है। वे सिद्धिरूपी विलासिनीके मनोहर दूत हैं। उनकी चित्तवृत्ति निर्धन और धनी लोगों के प्रति समान रहती है। बे समस्त जीवों के निष्कारण मित्र हैं। उनके कान शब्दरूपी जलसे भरे हुए हैं। वे स्वच्छ निर्मल सरस्वतीका आश्रय लेकर प्रसन्न रहते हैं । वे शुन्य ग्रह या देवालयको अपना निवास बना लेते हैं। वे कलिकालकी मलिनताके प्रबल पटलसे रहित हैं। उनका न कोई अपना निजी घर है और न कोई पुत्र व स्त्री है। वे कहीं भी किसी नदी, कुए या तालाबमें स्नान कर लेते हैं और कैसे भी जीर्णवस्त्र या बल्कलको पहन लेते हैं। वे धूलिसे धूसरित अंग भी रह लेते हैं। वे धैर्यवान हैं और दुर्जनोंके । संगका दुरसे ही परित्याग करते हैं। वे भूमितलको ही अपनी दौया बना लेते हैं और अपने ही हाथका तकिया लगा. लेते हैं। वे पण्डित-पण्डितमरण अर्थात श्रेष्ठ मुनियों जैसे समाधिमरणको याचना करते हैं। उन्होंने इस उत्तम मान्यखेट नगरमें निवास किया व मनमें अरहन्त धर्मका ध्यान रखा। वे भरत मन्त्री द्वारा सम्मानित हुए। वे नय-निधान अपने काव्य-प्रबन्धकी रचना द्वारा लोगोंको रोमांचित कर देते थे। अपने मनोमालिन्यको दुरकर, भक्ति सहित परमार्थकी भावनासे जिनेन्द्रके चरणकमलोंमें हाथ जोड़कर प्रणामकर जगत्में अभिमान-मेरु नाम से विख्यात उन्हीं पुष्पदन्त कविने इस काव्यकी रचना की ओर उसे क्रोधनसंवत्सरके आषाढ़ मासके शुक्लपक्षको दशमी तिधिको पूर्ण किया।
इस प्रकार निःशेष पापोंसे रहित बहुगुणी भरतके निमित्त उक्तकविकुलतिलक पुष्पदन्त द्वारा वर्णित यह वेसठ-शलाका-पुरुष-चरित रूपी सुप्रधान पुराण समाप्त हुआ ||५||
इति पीर-जिनेन्न-वस्तिमें निर्वाणप्राप्ति विषयक
तृतीय संधि समास ॥३॥