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हिन्यो मनुभाव वह अपने चित्तमें पंचाक्षर मन्त्रका ध्यान करती और निर्मल धर्मध्यान उत्पन्न करने लगी।
जब रात्रि व्यतीत हो गयी और सूर्यका उदय हुआ तब एक श्यामाङ्ग वनचर वहाँ आया । उसका नाम काल था। चन्दनाने उसे जगत्के आश्नयभूत जिनवचनोंका उपदेश दिया तथा सूर्यकी किरणोंके समान कान्तियुक्त आभरण भी दिये । वह इस प्रकार सन्तुष्ट होकर उस सुन्दरीको वहाँ ले गया जहाँ भीमशिखर नामक पर्वतके निकट एक भयंकरी नामक पल्ली में मद्य-रस-पान करनेवाला सिंह नामक भिल्ल राजा रहना था। काल-वनचरने बालिकाको उसे ही समर्पित कर दिया और उसने भी कामासक्त होकर उसे छिपाकर रख लिया। वह परमेश्वरी वहां कायोत्सर्ग भद्रामें ध्यान करने लगी। उस अवस्थामें जब वह बनकेसरी, वनचर उसका आलिंगन करनेको उद्यत हुआ तब वह उन्मूलित वृक्षके समान स्तब्ध रह गया और शासन-देवताने उसे फटकारा-देख किरात, खबरदार ! तु उस पुत्रीको अपना हाथ नहीं लगाना । तू अपनेको कालके मुखमें मत डाल । इसपर बह भिल्लराज अस्त होकर मौन हुआ रुक गया और विकारको छोड़ उसके चरण-युगलमें आ पड़ा। तत्पश्चात् उस निषादको माता, उसे स्वादिष्ट कन्द-मूल व फल देकर पोषण करने लगी।
इस प्रकार जब वह वहां कुछ दिनों तक रह चुकी तब एक दिन वत्सदेशको कौशाम्बी नगरीका वृषभसेन नामक धनवान् वणिक वहाँ आया। उसका मित्रवीर नामक एक भक्त किंकर बनराज सिंहका मित्र था। अतः बह सूकृतके जलप्रवाह रूप भिल्लके घर आया । वनराजने उस कमल. मालके समान कोमल भुजाओंवाली राजकन्याको उसीको अर्पित कर दी