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सन्धि १
भगवान्का गर्भावतरण, जन्म और तप
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मंगलाचरण तथा काव्य-रचनाको प्रतिज्ञा
मैं उन सन्मति भगवान्को प्रणाम करता हूँ जिन्होंने कामदेवका विध्वंस किया है, जिनका शासन सुरपति, नरपति तथा नागपति द्वारा प्रकट किया गया है, जिन्होंने कुशानकी निन्दा की है और निर्मल मोक्षमार्गका प्रकाशन किया है। वे भगवान् जन्म-भरणकी परम्पराके विनाशक हैं तथा मनुष्यों के मन में उत्पन्न हुए अज्ञानरूपी अन्धकारको दूर करने के लिए सूर्य समान हैं । वे प्रभु पापरूपी ईंधनको नष्ट करने के लिए अग्नि समान उत्तम तपोंके निधान हैं। वे स्थिर हैं, मानसे मुक्त हैं और इन्द्रियोंको वश में करनेवाले हैं, तथा शत्रु और मित्र, सुरी और सुधीजनोंपर समान दृष्टि रखते हैं । उन्होंने अपने समताभाव द्वारा, प्रमादी रागयुक्त तथा दुर्विनीत चंचल मनको पराजित कर दिया है। उन्होंने इस जगत्को ज्ञानके मार्ग पर लगाया है, तथा शाश्वत मार्गको स्थापना की है। वे सर्वदा कषायरहित हैं और विषादहीन है । उनके हर्ष भी नहीं है और मायाका भी अभाव है। वे सदैव सुप्रसन्न रहते हैं। आहार, भय आदि संज्ञाएँ उनके नहीं होतीं । वे उन तपस्विगणोंके प्रधान हैं, जिन्होंने दिव्य द्वादश अंगों का ज्ञान प्राप्त किया है । वे महावोर नामक तोर्थंकर, उत्तम देवांगनाओं के प्रेममें आसक्त नहीं हुए। ऐसे उन जगत् भरके मुनियों और अकाओंके स्वामी, दम, यम, क्षमा, संयम एवं अभ्युदय और निःश्रेयस् रूप दोनों प्रकारके लक्ष्मी तथा समस्त द्रव्योंके प्रमाणके ज्ञानी, दयासे वृद्धिशोल वर्धमान जिनेन्द्रको में अपना मस्तक झुकाकर नमन करता हूँ और उनके चरित्रका वर्णन करता हूँ। उनके इस दिव्य काव्यको सुनिए । इसका गणधरोंने तो विस्तारसे उपदेश दिया है, किन्तु में यहाँ थोड़े में कुछ वर्णन करता हूँ ।
सूर्यरूपी दीपकसे प्रकाशमान इस जम्बूद्वीप के पूर्वविदेह नामक मनोहर क्षेत्र में निर्मल जलके प्रवाहसे युक्त सौता नदी के उत्तर तटपर पुष्कलावती नामक देश है || १ ||