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१. ११.४] हिन्दी अनुवाद सहित उनकी स्तुति की जो मिथ्यामतोंमें दूषण दिखानेवाले थे। उनका नाम वर्धमान रखा गया । कवि कहते हैं कि उन भगवानको मैं किसके समान कहूं ? उन्हें देखकर तो समुद्र भी गम्भीर नहीं ठहरता, ऐसी उनको गम्भीरता है। गनी विचरता न धीरता ऐसो कि उन्हें देखकर पथ्वी और सुमेरु पर्वत भी स्थिर नहीं कहे जा सकते | वे ऐसे कान्तिवान् हैं कि उन्हें देखकर चन्द्रको कान्ति कुछ नहीं रहती। तेजस्वी भी वे ऐसे हैं कि उन्हें देखकर सूर्य भी तेजवान नहीं रहता। वे माध्यस्थ भावसे युक्त तथा शुभ शुक्ललेश्यावाले थे। मानो स्वयं धर्म ही पुरुषका वेष धारण कर आ उपस्थित हुआ हो। संजय और विजय नामक चारणऋद्धिधारो देवोंने परमोपदेश रूप वाणी को समझकर ही उनके शैशवकालमें ही देखकर उन्हें देवोके देव तीर्थंकर जान लिया और उनके भीषण सन्देहका कारण दूर हो गया। संयमधारी मुनियोंने अत्यन्त विनयभावसे उनकी प्रदक्षिणा की और उन्हें सन्मति कहकर पुकारा। उनके अभिषेक-जलसे मन्दर पर्वतको धोनेवाले पुरन्दरने उन्हें निर्भय कहा। देवोंको सभामें उनको ऐसी प्रशंसा सुनकर संगम नामक एक देवने उनको परीक्षा करनी चाही। बह भयंकर सर्पका रूप धारण करके कुण्डपुरके नन्दनवन में आया, जहाँ कुमार महावीर कोड़ा कर रहे थे। वे जिस वृक्षपर क्रीड़ा कर रहे थे, उस क्रोड़ा-वृक्षको उस सर्पने चारों तरफसे घेर लिया। यह देख उनके साथ क्रीड़ा करनेवाले सहचर शिशु सब भाग गये, किन्तु वे त्रिजगत्के बन्धु वहीं ठहरे रहे । वे श्रीवर्धमान निर्याकुल और अचल होकर उस भयंकर सर्पके फणपर के माणिक्यका स्पर्श करने लगे। वे उसके फण और मुख की दाढ़ोंका अपने हाथसे स्पर्श करते हुए जरा भो शंकित नहीं हुए। यह देख उस देवने उनको पूजा की और उन्हें वीरनाथ कहकर पुकारा ॥१०॥
भगवान्को मुनि-दीक्षा कुमारकालसे ही जिनके दर्शनमात्रसे शत्रु अपने द्वेष-भावको छोड़ देते थे, उनके कुमारकालको प्रवृत्तिके तीस वर्ष व्यतीत हो गये। अब