Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा 'वसुदेवहिण्डी' की पूर्ववर्तिता के विषय में डॉ. जैन का यह तर्क भी अधिक पुष्ट नहीं है कि 'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह' में अनुपलब्ध कथावस्तु 'वसुदेवहिण्डी' में पाई जाती है। क्योंकि, जिस कथाग्रन्थ की रचना पहले होती है, उसमें जिन त्रुटियों या कमियों को, उसी परम्परा का परवर्ती कथाकार लक्ष्य करता है, उन्हें अपनी कथाकृति में परिमार्जित या परिपूरित करता है। बृहत्कथापरम्परा के कथाकार आचार्य संघदासगणी ने वही किया है। उन्होंने 'बृहत्कथा' की नेपाली वाचना 'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह' की अपूर्णता को अपनी 'वसुदेवहिण्डी' में पूर्णत्व प्रदान किया और उसका ततोऽधिक पल्लवन-परिसंस्करण कश्मीरी वाचना—'कथासरित्सागर' और 'बृहत्कथामंजरी' में हुआ। कहना न होगा कि 'बृहत्कथा' का अपने समय में आसेतुहिमाचल या कश्मीर से कन्याकुमारी तक प्रचार था। ____ डॉ. अग्रवाल और डॉ. जैन की यह धारणा सही है कि बुधस्वामी और संघदासगणी के सम्मुख कवि गुणाढ्य की 'बृहत्कथा' का मूलरूप विद्यमान था। बहुशः कथासाम्य के आधार पर यह धारणा बनती है कि रचनाकाल की दृष्टि से बुधस्वामी और संघदासगणी में विशेष दूरी नहीं है, अपितु बुधस्वामी संघदासगणी के प्रवृद्ध-समकालीन थे और उनका 'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह' महाकवि गुणाढ्य (ई.पू. प्रथम शती) की, पैशाचीनिबद्ध, महाभारतोत्तर भारतीय वाङ्मय के आदिकथाग्रन्थ 'बृहत्कथा' की उत्तरकालीन वाचनाओं में प्रथम स्थान रखता है और 'वसुदेवहिण्डी' द्वितीय स्थान ; क्योंकि सुधर्मा-जम्बूस्वामी के संवाद-रूप जैनसूत्रों (संकलन-काल : तृतीय-चतुर्थ शती) की संरचना-शैली पर लिखित होने के कारण 'वसुदेवहिण्डी' का रचनाकाल भी तृतीय या चतुर्थ शती के आसपास ही सम्भव है। इस प्रकार, अनुमानतः ‘बृहत्कथाश्लोकसंग्रह' का रचनाकाल द्वितीय-तृतीय शतक और 'वसुदेवहिण्डी' का तृतीय-चतुर्थ शतक प्रतीत होता है। बहुत सम्भव है कि संघदासगणी ने सुधर्मा-जम्बूस्वामी के संवाद-रूप में प्रस्तुत आगमिक या आगमप्रमाण वसुदेव-कथा का, प्रथमानुयोग के अनुरूप, पुनस्संस्करण किया हो। ____डॉ. अग्रवाल भी 'वसुदेवहिण्डी' को 'बृहत्कथा' की परम्परा में द्वितीय स्थान देते हैं। उनका मन्तव्य है कि बुधस्वामी के बाद 'बृहत्कथा' की संस्कृत-वाचना की प्राप्ति न होकर, संघदासगणीकृत 'वसुदेवहिण्डी' ही प्राकृत-वाचना के रूप में उपलब्ध हुई है। निश्चय ही, पैशाची 'बृहत्कथा' का प्राकृत में नव्योद्भावन, भाषिक दृष्टि से एकशाखीय होने के कारण, अपेक्षित था; जिसे संघदासगणी ने जैनाम्नाय के परिवेश में उपस्थित कर कथा-जगत् में ऐतिहासिक महत्त्व का काम किया। यह कार्य दोनों कथाकारों ने लगभग एक ही समय सम्पन्न किया। इसीलिए, डॉ. अग्रवाल को कहना पड़ा है कि “बुधस्वामी के प्रायः साथ ही या सम्भवतः सौ वर्ष के भीतर 'बृहत्कथा' का एक प्राकृत-संस्करण, जैन परम्परा में संघदासगणी ने 'वसुदेवहिण्डी' के नाम से तैयार किया।" इसीलिए, 'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह' तथा 'वसुदेवहिण्डी' में कथा की दृष्टि से अद्भुत समानता है। यदि 'वसुदेवहिण्डी' के जैन परिवेश को हटा दिया जाय, तो दोनों की कथाएँ आपस में बिम्ब-प्रतिबिम्ब की तरह प्रतीत होंगी।
१. परिषद्-पत्रिका', वर्ष १७, अंक ४, पृ. ४६ २. द्रष्टव्य : 'स्थानांग' की भूमिका, श्रीजैनविश्वभारती (लाड)-संस्करण, भूमिका-भाग, पृ. १७ ३. 'कथासरित्सागर' के प्रथम खण्ड की भूमिका (प्र. पूर्ववत्), पृ.७