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वरंगचरिउ प्रकाशन 1974 में भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन से हुआ है। इसका रचनाकाल 15वीं और 16वीं सदी के मध्य माना जा सकता है।
वरंगचरिउ-जैन प्रबंधकाव्य परम्परा में वरंगचरिउ का भी विशिष्ट स्थान है। पं. तेजपाल द्वारा रचित वरंगचरिउ एक चरितकाव्य है, जिसमें कुमार वरांग के जन्म से लेकर अंतिम सल्लेखना तक वर्णन किया गया है। इसका चार संधियों में विभाजन किया गया है, कुल 83 कडवक हैं। इसका समय वि.सं. 1507 है। 2. बौद्धों की अपभ्रंश रचनाएँ ___ अपभ्रंश साहित्य की मुक्तक काव्य परम्परा में बौद्ध सिद्धों की अपभ्रंश रचनाएँ भी आती हैं। इन रचनाओं के रचयिता बौद्ध सिद्ध हैं, जिन्होंने अनेक दोहे और गीतों की रचना की। पं. राहुलजी की हिन्दी काव्यधारा में सिद्धों के अनेक दोहों और गीतों का संग्रह दिया हुआ है।
- इनकी रचनाएँ दो रूपों में मिलती हैं-1. धर्म के सिद्धान्तों का विवेचन और 2. उपदेश तथा खण्डन-मण्डन। इन रचनाओं से पता चलता है कि सिद्धों का आविर्भाव के कारण बौद्ध-साधना के अनेक नये रूप प्रकट हुए। यह प्रतिपादन निम्न प्रकार से जाना जा सकता है। ____बौद्ध धर्म मुख्य दो धाराओं में विभक्त है-हीनयान और महायान। हीनयान और महायान में एक मुख्य भेद निर्वाण-स्वरूप के विषय में है। महायान के चिंतक नागार्जुन ने निर्वाण को शून्य कहा और लोकमंगल के लिए चित्तवृत्ति की प्राप्ति को 'बोधिसत्त्व' ।' बौद्धधर्म की महायान शाखा का प्रवर्तन वजयान, मंत्रयान, कालचक्रयान, सहजयान तथा तंत्रयान आदि के रूप में हुआ। शून्य के सूक्ष्म विचार को समझना दुरूह था। धर्मगुरुओं ने शून्य के लिए निराला शब्द का अविष्कार किया। बोधिसत्त्व इसी निरात्मा में लीन होकर महासुख में डूबा रहता है। इस प्रकार महासुख के परिणामस्वरूप अर्थात् महायान से वज्रयान की उत्पत्ति हुई। धीरे-धीरे वज्रयान की इस धारा में अनाचार व्याप्त हो गया। इसमें से ही एक शाखा सहजयान के नाम से प्रसिद्ध हुई, जो इसके साधक हुए, वही सिद्ध कहलाए।'
सिद्धों की कुल संख्या 84 है, जिनमें प्रमुख सरहपा और कण्हपा का परिचय इसप्रकार है
1. सरहपा-सरहपा जन्मना ब्राह्मण थे, जिन्होंने भिक्षु वृत्ति अपना ली थी। वह जन्म से ही वेद-वेदांगों के ज्ञाता थे, मध्यप्रदेश में जाकर इन्होंने त्रिपिटकों का अध्ययन किया, बौद्धधर्म में दीक्षा ली और नालन्दा में आकर आचार्य रूप में रहने लगे थे। इनका नाम सरहपा रखने का कारण यह था कि वह वज्रयान से विशेष प्रभावित हुए और एक सर (बाण) बनाने वाली कन्या की
1. अपभ्रंश : एक परिचय, पृ. 23, 2. वही, पृ. 23