Book Title: Varang Chariu
Author(s): Sumat Kumar Jain
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust

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Page 225
________________ 214 वरंगचरिउ उज्झाय (उपाध्याय) 1/1 रत्नत्रय से संयुक्त जिनकथित पदार्थों के शूरवीर उपदेशक' और निःकांक्षित भाव सहित ऐसे उपाध्याय होते हैं। बारहअंग चौदहपूर्व जो जिनदेव ने कहे हैं उनको पण्डित जन स्वाध्याय कहते हैं, जो स्वाध्याय का उपदेश करता है इसलिए वह उपाध्याय कहलाता है। उपाध्याय 25 विशेष गुणों से युक्त होते हैं, मोक्षाभिलाषी मुनियों को उपदेश एवं पठन-पाठन का कार्य करवाते हैं। उदय (1/10) कर्मों की फल प्रदान करने की अवस्था उदय कहलाती है या जीव के पूर्वकृत जो शुभ कर्म या अशुभकर्म उसकी चित्तभूमि पर अंकित रहते हैं, वे अपने-अपने समय पर परिपक्व दशा को प्राप्त होकर जीव को फल देकर खिर जाते हैं, इसे ही कर्मों का उदय कहते हैं। उपसग्ग (उपसर्ग) 2/2 पूर्व जन्म का बैरी या तज्जन्म सम्बन्धी दुश्मन अपने द्वेषभाव के कारण विघ्न उत्पन्न करता है अथवा पापकर्म के फलस्वरूप अचेतन कृत विपदा उत्पन्न हो जाती है, उसे उपसर्ग कहते हैं। कम्म (कर्म) 1/14 ___ जो जीव को परतन्त्र करते हैं, उन्हें कर्म कहते हैं। अथवा जीव के द्वारा मिथ्यादर्शनादि परिणामों से जो किये जाते हैं व उपार्जित होते हैं वे कर्म हैं। कर्म के मुख्य दो भेद हैं-द्रव्यकर्म और भावकर्म। द्रव्यकर्म-ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के समूह को द्रव्यकर्म कहते हैं। जीव के जो द्रव्य कर्म हैं, वे पौद्गलिक हैं और उनके अनेक भेद हैं। द्रव्य कर्म के आठ प्रमुख भेद हैं-1. ज्ञानावरण, 2. दर्शनावरण, 3. मोहनीय, 4. अन्तराय, 5. नाम, 6. आयु, 7. गोत्र एवं 8. वेदनीय । उक्त क्रम में प्रारंभ के चार घाति कर्म हैं एवं पश्चात् के चार अघाति कर्म हैं। भावकर्म-जो भावकर्म हैं, वे आत्मा के चैतन्य परिणामात्मक हैं क्योंकि आत्मा से कथंचित् अभिन्न रूप से सम्बद्ध प्रतीत होते हैं और वे रागद्वेषादि रूप हैं। कम्मासउ (कर्मों का आसव) 4/20 आस्रव = पुण्य पाप रूप कर्मों के आगमन द्वार को आस्रव कहते हैं। जैसे नदियों के द्वारा 1. नियमसारगाथा, गाथा-74 2. द्रव्य संग्रह, गाथा-53

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