Book Title: Varang Chariu
Author(s): Sumat Kumar Jain
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust

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Page 235
________________ 224 वरंगचरिउ ___ जो वस्तु भोग अर्थात् एक बार उपयोग करना जैसे भोजन आदि और जो वस्तु उपभोग अर्थात् बार-बार उपयोग करना, जैसे वस्त्रादि। उक्त भोग-उपभोग वस्तु को सीमित करना या परिमाण करना ही भोगोपभोग परिमाणव्रत है। मंदिर 1/18 जहां पूज्य आराध्यदेव की प्रतिमाएँ विराजमान होती हैं, उसे मंदिर कहते हैं। मइरादोस (मदिरा दोष) 1/12, मज्ज (मद्य) 1/11 महुवा गुड़ आदि को घड़े में भरकर उसको जमीन के अंदर रख देते हैं। अनेक दिनों में जब महुवादि सड़कर उनमें अनेक लटें पड़ जाती है अर्थात् त्रस जीव उत्पन्न हो जाते हैं। पुनः उसको उबालकर जो रस पदार्थ तैयार किया जाता है, उसे मद्य कहते हैं। यह मद्य त्रस जीवों का रस ही है। मणवयणतिसुद्ध (मन, वचन, कायादि की शुद्धता) 1/14 मन, वचन एवं काय की एकरूपता ही मन, वचन और काय की शुद्धता है। महुमज्जमंस पंचुंवराइ 1/14 ... मद्य, मांस, मधु और पांच उदम्बर फलों (बड़, पीपल, ऊमर, कठूमर और पाकर) का त्याग ही श्रावक के अष्टमूलगुण हैं। मिच्छत्त (मिथ्यात्व) 4/19 विपरीत मान्यता का नाम ही मिथ्यात्व है। अर्थात् सात तत्त्वों के प्रति अयथार्थ श्रद्धान, ज्ञान और चारित्र का होना ही मिथ्यात्व है। मिच्छा (मिथ्या/ झूठ) 1/12 असत्य बोलना झूठ है। मुणिणाह (मुनिराज) 1/9, रिसिवर 3/7, साहु (साधु) 1/1 दिगम्बर साधु का अपर नाम मुनिराज है। जो 28 मूलगुणों का निरतिचार पालन करते हैं, उन्हें साधु या मुनिराज कहते हैं। मोह (1/10) दर्शनमोहनीयविपाक कलुष परिणामता मोहः' अर्थात् दर्शनमोहनीय के विपाक से जो कलुषित परिणाम होता है, वह मोह है। मोह के तीन भेद हैं-मोह, राग और द्वेष। मंस (माँस) 1/11 दो इन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक तिर्यंच तथा मनुष्यों के शरीर रूपी कलेवर को मांस कहते हैं।

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