Book Title: Varang Chariu
Author(s): Sumat Kumar Jain
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust

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Page 237
________________ 226 वरंगचरिउ वय (व्रत) 1/11 अशुभ कार्यों एवं हिंसादि पापों से निवृत्ति तथा शुभ कार्यों एवं अहिंसादि में बुद्धिपूर्वक प्रवृत्ति वही व्रत कहलाता है। वसण (व्यसन) 1/11 लोक निन्दित बुरी आदतों को व्यसन कहते हैं। उस महापाप रूप व्यसन के सात प्रकार हैं-1. जुआ खेलना, 2. वेश्या सेवन, 3. परस्त्री सेवन, 4. चोरी करना, 5. शिकार, 6. मद्य (मदिरा) सेवन और 7. मांस खाना। वसुविहदव्व (अष्ट द्रव्य/पूजा) 4/15 .. अष्टद्रव्य से जिनेन्द्र देव की द्रव्यपूजा किया करते हैं। वह अष्टद्रव्य इस प्रकार है-जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप और फल। ___उपर्युक्त अष्ट द्रव्यों को पूज्य जिन प्रतिमाओं के समक्ष छन्दादि बोलकर चढ़ाया जाता है। संग (परिग्रह) 1/10 संग का अर्थ परिग्रह है। साधु (मुनिराज) का एक विशेषण निसंग भी होता है। अर्थात् जो . 24 परिग्रह से निर्गत हो गये हैं, वह निसंग है। संग-आसक्त होना संग/आसक्ति है। संजमु (संयम) 4/15 “सम्यक् यमो वा संयमः' अर्थात् सम्यक् रूप से नियन्त्रण करे सो संयम । 'संजयणं संजमो' अर्थात् जो सम्यक् प्रकार से नियमन करता है, वह संयम है। संयम दो प्रकार का है-1. इन्द्रिय संयम और 2. प्राणी संयम। 1. षट्काय जीवों की विराधना नहीं करना, वह प्राणी संयम है। 2. पांचों इन्द्रियों के विषयों में प्रवृत्ति न होना इन्द्रिय संयम है। संवरु (संवर) 4/20 आस्रव निरोधः संवरः । आस्रव का निरोध संवर है अर्थात् नूतन कर्मों का आना रूक जाना संवर है। वह दो प्रकार का है-द्रव्यसंवर एवं भावसंवर। भावसंवर-संसार की निमित्त भूत क्रिया की निवृत्ति होना भावसंवर है एवं संसार की निमित्तभूत क्रिया का निरोध होने पर तत्पूर्वक होने वाले कर्म पुद्गलों के ग्रहण का विच्छेद होना द्रव्य संवर है। सत्ततच्च (सात तत्त्व) 1/10, णववि पयत्थहं (नवपदार्थ) 1/10 तत्त्व-जो पदार्थ जिस रूप से अवस्थित है, उसका उस रूप होना, तत्त्व कहलाता है। तत्त्व के 7 भेद हैं-जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष। सात तत्त्वों के साथ पुण्य-पाप को जोड़ने से नौ पदार्थ हो जाते हैं। 1. निरुक्त क्रोश, पृ. 355

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