Book Title: Varang Chariu
Author(s): Sumat Kumar Jain
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust

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Page 238
________________ वरंगचरिउ 227 सत्तवि भय (सात-भय) __ जिसके उदय से उद्वेग होता है, वह भय है।' भीति को भी भय कहा जाता है। सम्यग्दृष्टि सप्त भयों से रहित होता है। भय के सात भेद होते हैं-इहलोक, परलोक, अरक्षा, अगुप्ति, मरण, वेदना और आकस्मिक। सातों भयों का विश्लेषण पंडित जयचन्द्र ने समयसार की तात्पर्यवृत्ति टीका में इस प्रकार किया है__ 1. इहलोक भय-इस भव में लोगों का डर रहता है कि न जाने ये लोग मेरा क्या बिगाड़ करेंगे, यह इहलोक भय है। 2. परलोक भय-परलोक में न जाने क्या होगा ऐसा भय होना परलोक भय है। 3. अरक्षा भय-आत्मा के नाश की रक्षा के लिए अक्षमता, अत्राण भय या अरक्षा भय कहलाता है। 4. अगुप्तिभय-जहां गुप्त प्रदेश न हो, खुला हो, उसको अगुप्ति कहते हैं, वहां बैठने से जीव को जो भय होता है, वह अगुप्ति भय है। 5. मरण भय-मैं जीवित रहूँ, कभी मेरा मरण न हो अथवा दैवयोग से कभी मृत्यु न हो, इस प्रकार शरीर के नाश के विषय में जो चिन्ता होती है, वह मरण भय है। 6. वेदना भय-मैं निरोग हो जाऊँ, मुझे कभी भी वेदना न होवे इस प्रकार की मूर्छा अथवा बार-बार चिन्तवन करना वेदना भय है। 7. आकस्मिक भय-अकस्मात् भयानक पदार्थ से प्राणी को जो भय उत्पन्न होता है, उसे आकस्मिक भय कहते हैं। समत्त (सम्यक्त्व) 1/10, 4/23, सद्दाहणु 3/3, सम्मदंसणरयण 1/10 सातों तत्त्वों का यथार्थश्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है। इसी का अपर नाम सम्यक्त्व है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र - इन तीनों का एक नाम रत्नत्रय है। समभाव (समता) 4/21 मोह राग-द्वेष से रहित होकर मध्यस्थ भाव ही समता कहलाती है। अर्थात् शत्रु और मित्र, मसान और महल, कांच और कंचन (सोना), सुख-दुःख, लाभ-अलाभ तथा इष्टानिष्ट में जो समान दृष्टि है, उसे समता या समभाव कहा जाता है। सम्यक्खंडो (छह खण्ड) 3/6 छह खण्ड इस प्रकार होते हैं-पांच म्लेच्छ खण्ड एवं एक आर्यखण्ड। सल्लेहण (सल्लेखना) 1/17 अच्छे प्रकार से काय और कषाय का लेखन करना अर्थात् कृश् करना सल्लेखना है। 1. सर्वार्थसिद्धि, 8/9, पृ. 301 2. समयसार, गाथा-228, कलश-155-160

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