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वरंगचरिउ इय संभवजिणचरिए सावणयारविहाणफलाणुसरिए कइ तेयपालवण्णिदे सज्जणसंदोहमणि-अणुमण्णिदे सिरिमहाभव थील्हासवणभूसणो संभवजिणणिव्वाण गमणो णाम छट्ठो परिच्छेओ समत्तो।। सन्धि 6।। कवि ने नगर वर्णन में भी पटुता दिखलाई है। वह देश, नगर का सजीव चित्रण करता हैइह इत्थु दीवि भारहि पसिद्ध, णामेण सिरिपहु सिरि-समिद्ध । दुग्गुवि सुरम्मु जण जणिय-राउ, परिहा परियरियउ दीहकाउ । गोउर सिर कलसाइय पयंगु, णाणा लच्छिए अलिंगि पंगु । जहिं जण तयणाणंदिराई, मुणि-यण-गुण-मंडियमंदिराई। सोहंति गउरवरकइ-मणहराइं, मणि जडियकिमाडइं सुंदराई। जहिं वसहिं महायण चुय पमाय, पर-रमणि-परम्मुह मुक्कमाय । जहिं समय करडि घड घड हडंति, पडिसदें दिसि विदिसा कुडंति। जहिं पवण गमण धाविय तुरंग, णं वारि-रासि भंगुर-तरंग। जो भूसिउ णेत्त सुहावणेहि; सरयव्व धवल गोहणगणेहि। सुरमण वि समीहहिं जहिं सजम्मु, मेल्लेविण सग्गालउ सुरम्मु ।।
कालक्रमानुसार दूसरी रचना का नाम 'वरंगचरिउ' है। इसमें चार संधियां हैं, जिनमें 22वें तीर्थंकर यदुवंशी नेमिनाथ के शासनकाल में उत्पन्न हुए पुण्यपुरुष वरांग का जीवनवृत्त प्रस्तुत किया गया है।
तीसरी रचना का नाम पासणाहचरिउ है। यह एक खण्डकाव्य है, जो पद्धडिया छन्द में लिखा गया है। यह रचना भट्टारक हर्षकीर्ति-भण्डार अजमेर में सुरक्षित है। कवि ने यदुवंशी साहू शिवदास के पुत्र भूघलि साहु की प्रेरणा से रचा है। ये मुनि पद्मनन्दि के शिष्य 'शिवनन्दि भट्टारक' की अम्नाय के थे तथा जिनधर्मरत, श्रावक धर्मप्रतिपालक, दयावन्त और चतुर्विध संघ के संपोषक थे। मुनि पदमनन्दि ने शिवनन्दि को दीक्षा दी थी। दीक्षा से पूर्व इनका नाम सुरजन साहु था। सुरजन साहु संसार से विरक्त और निरन्तर द्वादश भावनाओं के चिन्तन में संलग्न रहते थे। प्रशस्ति में साहु सुरजन के परिवार का भी परिचय आया है। इस प्रकार कवि तेजपाल ने चरितकाव्यों की रचना द्वारा अपभ्रंश साहित्य की समृद्धि प्रदान की है।