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वरंगचरिउ था, जो उत्तुंग ध्वजाओं से अलंकृत था। इसी देवपाल की प्रेरणा से अजितपुराण लिखा गया। इस ग्रन्थ की प्रथम संधि के नवम कडवक में जिनसेन, अकलंक, गुणभद्र, गृद्धपिच्छ, प्रोष्ठिल, लक्ष्मण, श्रीधर और चतुर्मुख के नाम भी आये हैं।
इस ग्रन्थ में कवि ने द्वितीय तीर्थकर अजितनाथ का जीवन वृत्त गुम्फित किया है। इसमें 10 संधियां हैं। पूर्व भवावली के पश्चात् अजितनाथ तीर्थंकर के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाण कल्याणकों का विवेचन किया है। प्रसंगवश लोक, गुणस्थान, श्रावकाचार, श्रमणाचार, द्रव्य और गुणों का भी निर्देश किया गया है।
कवि असवाल
कवि असवाल का वंश गोलाराड था। इनके पिता का नाम लक्ष्मण था। इन्होंने अपनी रचना में मूलसंघ बलात्कारगण के आचार्य प्रभाचन्द, पद्मनन्दि, शुभचन्द्र और धर्मचन्द्र का उल्लेख किया है, जिससे यह ध्वनित होता है कि कवि इन्हीं की आम्नाय का था। कवि ने कुशात देश में स्थित करहलनगर निवासी साहू सोणिग के अनुरोध से लिखा है। ये सोणिग यदुवंश में उत्पन्न हुए थे।
मल्लिनाथचरित के कर्ता कवि हल्ल की प्रशंसा भी असवाल कवि ने की है। लोणासाहू के अनुरोध से ही कवि असवाल ने “पासणाहचरिउ" की रचना अपने ज्येष्ठभ्राता सोणिग के लिए कराई थी। पासणाहचरिउ की प्रशस्ति में रचनाकाल का उल्लेख प्राप्त होता है, जहां यह प्रस्तुत है-यह ग्रन्थ वि.सं. 1479 भाद्रपद कृष्णा एकादशी को यह ग्रन्थ समाप्त हुआ। ग्रन्थ लिखने में कवि को एक वर्ष लगा था। ___ प्रशस्ति में वि.सं. 1471 भोजराज के राज्य में सम्पन्न होने वाले प्रतिष्ठोत्सव का भी वर्णन आया है। इस उत्सव में रत्नमयी जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा की गई थी। प्रशस्ति में जिस राजवंश का उल्लेख किया है, उसका अस्तित्व भी वि.सं. की 15वीं शताब्दी में उपलब्ध होता है। अतएव कवि का समय विक्रम की 15वीं शताब्दी है। कवि की एक रचना उपलब्ध है। इसमें 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का जीवन चरित अंकित है। यह ग्रन्थ 13 संधियों में विभक्त है।'
इस चरित-ग्रन्थ में कवि ने ग्राम, नगर और प्रकृति का चित्रण भी किया है। साथ ही 1. महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, पृ. 229