Book Title: Varang Chariu
Author(s): Sumat Kumar Jain
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust

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Page 216
________________ 205 वरंगचरिउ कुत्सित देव की शरण में प्रवेश करता है और फिर देव की शरण लेता है । भय धारण कर विद्याधर के पास जाता है, मेरी रक्षा करो, रक्षा करो, कहता है । वह क्या रक्षा करता है, क्योंकि वह भी मरता है। इस संसार - समूह में सभी अशरण रूप परिभ्रमण करते हैं। घत्ता - कुछ श्रेष्ठ दया धर्म के प्रसाद से मरकर निरन्तर देव के रूप में आकर सुख पाते हैं । कुछ-कुछ तीव्रकषाय के प्रभाव से अत्यधिक दुःख भोगते हैं और नरक में जाते हैं । 20. जीव का संसार भ्रमण कुछ तिर्यंच योनि के बहुत से भेद में हुए, कुछ ने सुख-दुःख का घर मनुष्य योनि को प्राप्त किया । वह कौन योनि है, जिसे मैंने प्राप्त न किया हो। वह जीव कौन है, जिसे मैंने भक्षित न किया हो। वह कौन माता है, जिससे मेरा जन्म न हुआ हो। वह कुल नहीं जिसमें मेरी काया उत्पन्न न हुई हो। वह पृथ्वी नहीं जहां मैं आशा में घूमा नहीं हूँ। वह नारी नहीं जिसका भोग न किया हो और विधुर न हुआ हो। वह हंस नहीं, जिसने मेरा तन न नौंचा हो, वह बंधन नहीं, जहां मैं बँधा हूँ। सभी जीव जग में योनियों में भ्रमण करते हुए, जानकर भी बंधन उत्पन्न करता है। अकेला ही प्राणी सुख-दुःख को प्राप्त करता है। ज्ञानी कहते हैं-साथ में कुछ भी नहीं जाता है । कुत्सित मृत शरीर में रति (कामभोग) करता है, मोह में अंधा जीव तप नहीं करता है, पाप से नित्य कर्माश्रव करता है एवं कर्माश्रव में अनित्य दुःख प्राप्त करता है। कुछ शुद्धभाव पूर्वक संवर करते हैं। जहां संवर है, वहाँ निर्जरा स्वभाव है। यह एक मनुष्य जन्म दुर्लभ है, फिर दूसरा दुर्लभ श्रेष्ठ धर्म है, धर्म के बिना सुख प्राप्त नहीं होता है, धर्म करना चाहिए जो दुःख को हनन करने वाला है । घत्ता - श्रेष्ठ मनुष्य के द्वारा त्रैलोक का स्वभाव एवं तत्त्वों के भाव का मन में चिन्तन होता है । फिर सूर्य जैसा प्रभाव होता है और बाद में विस्तार होता है । 21. दीक्षा के लिए पिता की आज्ञा राजा वरांग पुत्र सुगात्र को साथ लेकर चैत्यालय में जिनेन्द्रदेव के दर्शन करता है । पश्चात् राजा धर्मसेन के नगर में लौटा जो पृथ्वी पर एक ही राजा है। हे नरपति चूड़ामणि! जग में सूर्य तुल्य पिताजी सुनो-मैं जिनदीक्षा लेता हूँ। इन वचनों से सरल स्वभावी राजा व्याकुल हो जाता है, हाय-हाय पुत्र कहता है, आचारसहित धर्म घर में रहकर करो। यदि श्रेष्ठ तप दुष्कर सुखकारक

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