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वरंगचरिउ
171 कुमार ने बादल की बरसात की तरह क्रोध में रत होकर बाणों की बरसात की।
___ खंडक-शत्रु सेना उसके द्वारा घायल होकर पृथ्वी पर गिर पड़ी, यहां तक कि हाथी भी गिर पड़े। बहुत से मनुष्य (सैनिक) प्रहार से छिन्न-भिन्न हो गये। उनको देखकर कुछ के पसीना छूट गया।
17. युद्ध वर्णन अपने वीर योद्धाओं को पृथ्वी पर गिरते हुए देखकर इन्द्रसेन उसके (वरांग) मुख को एक टकी लगाकर देखता है। जिसका इन्द्रसेन राजा के यहां (पुत्र रूप में) जन्म हुआ था, आदेश प्राप्त करके युद्ध-भूमि में हमला करता है। शत्रु हजारों हाथियों से घिरा हुआ था।
__ जिसका नाम पीड़ा (उपेन्द्रसेन) है, वह युद्ध भूमि में पहुंचा, जहां कुमारवरांग था, वह अपने श्रेष्ठ हाथियों की बाह्य परिधि से संयुक्त था। दोनों ने कमर पर तरकश अच्छी प्रकार से धारण किये। श्रेष्ठ गुणयुक्त वरांग ने चाप को हाथ में ग्रहण किया। दक्षिण हस्त में श्रेष्ठ तलवार को धारण किया, जिसने दीर्घकाल तक अश्व, हाथी और मनुष्य का संहार किया है। क्रोध, मान और माया कषाय प्रकट हुई और असंख्यात बाणों से युद्ध करता है। वे दोनों राजपुत्र परस्पर भिड़ते हैं, अपने यश के कारण से युद्ध करते हैं। फिर वहां पर मदमस्त हाथियों का समूह एकत्रित होता है और कुमार के ऊपर (धूल) अर्पित करते हैं। कुमार भी अपने श्रेष्ठ (इन्द्र रूप) हाथी की प्रशंसा करता है। उसके द्वारा हाथियों के समूह भिड़ाकर भयानक नाश होता है। क्रोधातुर होकर शत्रु कहता है-जीने की इच्छा होने पर भी विष (जहर) को खाते हो। क्या-क्या! समुद्र में गोता लगाने की इच्छा है। मैं सिंह और तुम मृग के बच्चे होकर युद्ध की इच्छा करते हो। तुम्हारे समान कोई अन्य मूर्ख नहीं है। मेरा पौरुष (बल) क्या तुम नहीं जानते हो। ___घत्ता-निरर्थक कार्य क्यों करते हैं। निश्चित ही तुम मूर्खमति हो जो मरने के लिए आये हो। रे वणिपति! कुछ दिनों तक शीतल जल को पीजिए।
खंडक-तुमने अत्यंत अहंकारी दुष्ट, लज्जा रहित धृष्ट को पाया है। मैं तुमको पराधीन कर दूंगा। उपेन्द्रसेन कहता है-मैं तुमको नष्ट कर दूंगा।
18. उपेन्द्रसेन की चेतावनी रे! वंशहीन, जातिहीन तेरा पौरुष गया। अब तू इस लोक में निवास प्राप्त नहीं कर पायेगा। मूर्ख! मृत्यु को क्या प्राप्त नहीं करेगा। (तेरे) अपने घर में परिवारजन का सुख के लिए पीछे क्या