Book Title: Varang Chariu
Author(s): Sumat Kumar Jain
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust

View full book text
Previous | Next

Page 198
________________ वरंगचरिउ 6. पिता धर्मसेन का पत्र 187 उस अवसर पर श्रेष्ठ मंत्री कहता है- राजन् सुनो अभी ( सम्प्रति) एक काम करते हैं। शत्रुओं की अनगिनत सेना वहां पर पहुंची है, आपकी सेना एवं बल कम है। युद्ध में अकेले युद्ध नहीं कर सकते हैं, देवसेन उत्तम करने वाले हैं। एक दूत वहां भेजते हैं और साथ ही एक सुन्दर पत्र भिजवाते हैं। राजा देवसेन परोपकारी है, हमारे बंधुजन के कार्य का विचार किया करते हैं। इस प्रकार मंत्री के वचन सुनकर, अपने मन में नरपति उत्तम मानता है। उन्होंने एक गुणवान दूत भेजा और वह दूत लेख (पत्र) लेकर घूमते हुए वहां गया, वहां जाकर देवसेन को नमस्कार किया, उसके द्वारा विनयपूर्वक कहा गया, पत्र लेकर सब कुछ पढ़ता है, जहां सुषेण शत्रु सेना के आने पर युद्ध भूमि से भाग गया। जिस प्रकार सुषेण छिन गया है, वैसे ही वरांग को पाने की आशा में लिखा गया है। दूत का देवसेन ने सम्मान किया, वित्त का भी पूछा गया कि उसका भी प्रतिपादन किया जाये। उस अवसर पर वरांगकुमार को बुलाया गया, सज्जन का कार्य उसके मन में भावित हुआ। राजा कहता है - हे केसरी योद्धा! वरांग इस नगर में तुम ही ठीक हो, हम दूर देश में जायेंगे, धर्मसेन नृप के सहायक बनकर युद्ध तुम्हें करना होगा । लेख के प्रत्येक वृत्तांत को दूत के द्वारा पुनः सभी के समक्ष कहा गया । घत्ता - वृतांत को सुनकर, कुशलता कहकर, वरांग चेतना युक्त हुआ । हाय विधाता यह क्या दुःख उत्पन्न किया, शत्रुबल एवं योद्धासमूह पिता के यहां आया है । 7. कुमार वरांग का मनोरमा से विवाह उसके (मनोरमा) के दोनों नेत्र जलमय हो गये मानो कमलपत्र से उसका मुख सिंचा गया हो। देवसेन उसको देखकर कहते हैं- कुमार मेरा भानजा है, जो शत्रु का त्रास करता है। राजा पत्र पढ़कर शोक से भग्न हो गया, उसकी आँखों में आंसू आ गये, इतने काल के बाद मुझे ज्ञात उसकी आंखें स्पन्दन रहित हुआ, वणिक् रूप में सम्मान किया, पुनः उत्साहपूर्वक उछलता दिखाई दीं। पुनः पुनः बाहों से स्नेहयुक्त आलिंगन ( गले लगाकर ) देकर, पुनः-पुनः उत्तम प्रशंसा करके राजा कहता है-वरांग सुनो, एक कार्य कीजिए पुत्री मनोरमा को अन्य पत्नियों के साथ में ले जाओ। यह मातुल (मामा) के वचन सुनकर भानजा (वरांग) हंसकर कहता है- प्रथम तो मैं अपने

Loading...

Page Navigation
1 ... 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250