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वरंगचरिउ
5. युद्धभूमि से सुषेण का भागना
यदि बाला (मनोरमा) से विवाह किया जाये तो सम्पूर्ण लोक देखते हुए ग्रहण कर लेगा । तब मैं अपनी सुन्दर स्त्री के रूप में सेवन करूंगा। अपने महल में रति विलास (प्रमोद) का भोग करूंगा। अन्य प्रकार से रति में आसक्त नहीं हो सकता हूँ अर्थात् प्राणों के अंत तक अनुचित्त सेवन नहीं करूंगा ।
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सखी यह प्रत्युत्तर प्राप्त करके अंततः सखी सुकुमाला (मनोरमा) के पास पहुंचती है। पुत्री सुनती है कि इस प्रकार से कुमार संवर करता है, कुछ समय पश्चात् यह तुम्हारा वरण करेगा । बिना परिणय (विवाह) के अबला का सेवन नहीं करता है, मन में परस्त्री - दोष से भयपूर्वक कांपता है ।
सखी कहती है- मेरे वचनों को मानो, विधाता तेरा संयोग करेगा। इस प्रकार सुनकर मनोरमा कहती है, मुझे वरांग के बिना कुछ भी नहीं रूचता है। वह बार-बार यह कहते हुए, किसी तरह अपने घर में पहुंचती है। पृथ्वी मंडल के चन्द्र राजा देवसेन के द्वारा अपने परिजनों से यह वृत्तान्त सुना गया।
इस प्रकार नगरी में क्या ज्ञात हुआ ? धर्मसेन जहां का प्रसिद्ध राजा है, जहाँ सुषेण युवराज पद पर आसीन है। जो मन में इष्ट हो वह राज्य कार्य करता है। तब उस सीमा पर बलवान योद्धा नृपति वरांग को जानो। वहां देश में आकर युद्ध में धुरंधर शत्रु आ गये हैं और शत्रु के आग जाने पर सभी जन (लोग) भाग गये हैं ।
लोग आकर फिर पृथ्वी के विकार को दूर करने के लिए प्रार्थना करते हैं। तुम देश के विपत्तिग्रस्त (गरीब) लोगों के देवता हो । शत्रु, देश के ऊपर आ गया है। उसका नाम पृथ्वी पर विख्यात 'पराजित' है।
इस प्रकार वचनों को कहकर सुषेण बाहर निकल जाता है। वहां जाकर पुनः संग्राम करता है और फिर भग्न होकर वैसे ही अपनी नगरी में प्रविष्ट होता है, जैसे लोक में चोर को कोई नहीं देखता है।
घत्ता - पुत्र रणभूमि से भाग गया। सम्पूर्ण बात सुनकर, धर्मसेन नगर के बाहर स्थित है, अनेक गुणों को धारण करने वाले वरांग को याद करते हुए, हाय! वह घोड़ा मेरे पुत्र को कहां ले
गया।