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वरंगचरिउ 181 सरस्वती हो । मनोरमा के मन में वणिवर - प्रधान के मुख पर मोहित होने का युद्ध चलता है। जो . शत्रुओं का नाश करने वाला, कुमार वरांग नाम से जाना जाता है।
जिसने अधरों की शोभा से किसलय को जीता है। घर से ले जाकर वहां वन में उज्ज्वल शिलाखण्ड के मध्य रमण करेंगे, जहां राजहंस बैठे हों, वे वहां जाती हैं। सखी उसको अकेला छोड़ जाती है, तुम यहां वन में आनंद प्राप्त करो। जहां अपने मन में श्वास निरुद्ध हो जाती है, वहां चित्त (मन) किस तरह निबद्धता (आलिंगन) को प्राप्त करता है ।
जैसे ईश्वर अप्सरा से निबद्ध होता हो, विधाता इसके (कुमार) संग के लिए क्या करूं? इसके बिना मेरा नाश हो जायेगा, इसके बिना मेरा मनुष्य भव निरर्थक हो जायेगा । यदि प्राप्त कर लेती हूँ तो कृतार्थ हो जाऊँगी। हाय विधाता क्यों मुझे अनुष्ठान पूर्वक उसकी सुन्दर स्त्री नहीं बनाया, मुझे उसके पराधीन कर दिया। हाय-हाय क्यों उसकी दासी नहीं हुई? अच्छी तरह से उसके निकट निवास कर सकती ।
इस प्रकार विविध वचनों को जैसे कहती है, वैसे ही सखी कुटिलता से आगे गयी। पश्चात् आकर आँखों को ढकती हैं। दोनों ने दीर्घ कमल को प्राप्त किया, अपने हाथ से लिखा हुआ पत्र भेजा, जिसमें अपना रूप रेखांकित था । सखी के द्वारा यह पत्र जाना गया ।
सखी बोली- मेरे नेत्रों को छोड़ो-छोड़ो, नेत्रों को छोड़कर वह प्रसन्न होती है। सखी कहती है- क्या लिखा है । कौतुहल वश अपने हाथ से शृंगार / प्रसाधन लिखा है एवं क्या कुछ उन्हें कहा है।
घत्ता - सखी कहो, निश्चित कहो, कौतूहल सुशोभित नहीं होता हैं। मुझे कहो, कौन नर है ? जो तुम्हें हितकर है एवं जिसने तुम्हारे मन को आहत (घायल) कर दिया है ।
3. परस्त्री के सेवन के त्याग का प्रतिबोध
इस प्रकार सुनकर सखी सकाम ( कामना सहित ) वचन कहती है । नरेन्द्र की पुत्री सौभाग्य से रानी बनने के लिए आशान्वित है। हे सखी! वह वरांग मेरे चित्त को चुराने वाला है, धैर्यवान का सम्मान सहित आलिंगन लूंगी। उसके वचन सुनकर, सखी शीघ्र जाती है। वह निपुण सखी कुमार के निकट समागत हुई ।
फिर कहती है- अरे ! तुम कामरूप का अपहरण करने वाले हो, तुम्हारे समान अन्य कोई राजकुमार नहीं है। तुम्हारे रूप पर वह कुमारी (मनोरमा) आसक्त हुई है, अपनी शोभा से कुमारी