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वरंगचरिउ का रचनाकाल वि.सं. 1634 है।' अतः कवि का समय 17वीं सदी निश्चित है।
सत्तवसणकहा-इसमें सप्तव्यसनों की सात कथाएं निबद्ध हैं। कथाग्रन्थ सात सन्धियों में विभक्त है। यह प्रबन्धशैली में लिखा गया है। कथा में वस्तु वर्णनों का आधिक्य नहीं है। कथा सीधे और सरल रूप में चलती है। संवाद योजना बड़ी मधुर है। भाषा सरल एवं स्पष्ट है। भगवतीदास
भगवतीदास भट्टारक गुणचन्द के पट्टधर भट्टारक सकलचन्द के प्रशिष्य और महीचन्द्रसेन के शिष्य थे। महीन्द्रसेन दिल्ली की भट्टारकीय गद्दी के पट्टधर थे। पंडित भगवतीदास ने अपने गुरु महीन्द्रसेन का बड़े आदर के साथ स्मरण किया है। यह बूढ़िया, जिला-अम्बाला के निवासी थे। इनके पिता का नाम किशनदास था। इनकी जाति अग्रवाल और गोत्र बंसल था। कहा जाता है कि चतुर्थ वय में इन्होंने मुनिव्रत धारण कर लिया था।
कवि भगवतीदास संस्कृत, अपभ्रंश और हिन्दी भाषा के अच्छे कवि और विद्वान् थे। ये बूढ़िया से योगिनीपुर (दिल्ली) आकर बस गये थे। उस समय दिल्ली में अकबर बादशाह के पुत्र जहांगीर का राज्य था। दिल्ली के मोती बाजार में भगवान् पार्श्वनाथ का मन्दिर था। इसी मंदिर में आकर भगवतीदास निवास करते थे।
कवि ने अपनी अधिकांश रचनाएं जहांगीर के काल में लिखी हैं। जहांगीर का राज्य ई. सन् ., 1605-1628 ई. तक रहा है। अवशिष्ट रचनाएँ शाहजहां के राज्य में ई. सन् 1628-1656 में लिखी गई। कवि की लगभग 20 रचनाएँ प्राप्त होती है। यशःकीर्ति
इनका समय 15वीं शताब्दी है। इनकी चार रचनाओं का उल्लेख प्राप्त होता हैपाण्डवपुराण (सं. 1497), हरिवंशपुराण (र.सं. 1500),
जिनरत्तिविहाणकहा, रविवउकहा (आदित्यवय कहा)। कवि देवनन्दि'
इन्होंने भी कथाग्रन्थों की रचना कर अपभ्रंश साहित्य की श्रीवृद्धि में योगदान दिया है। ये
1. भविस्सयत्त कहा तथा अपभ्रंश कथा काव्य, भा.ज्ञा.प्र., पृ. 326 2. भगवान महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, पृ. 242