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वरंगचरिउ और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय की पिटारी धारण करना चाहिए जो भवसागर से तारने वाली है । प्रथम सम्यग्दर्शन धारण करने से शुभगति का बंधन होता है और चतुर्गति के दुःखों को रोकने वाला है। राजा ने कहा- वह दर्शनादिरत्नत्रय क्या है? मुनिराज कहते हैं- इन्द्र, प्रतीन्द्र, चन्द्र, विद्याधर, देव, मनुष्य, चक्रवर्ती, नारायण और बलदेव ( हलधर ) जिनके चरणकमलों की धूल को सिर से ढोक देते हैं और नित्य ही प्रणाम करते हैं, जिन्होंने तीन शल्यों का अभाव किया है उन्हें जिनेन्द्र देव मानना चाहिए एवं अपने मन में दिन-प्रतिदिन स्मरण करना चाहिए। जिन्होंने बलवान मोह मल्ल (योद्धा) का नाश किया है, जो वीतरागी और केवलज्ञान से युक्त हैं, वह जिनेन्द्रदेव संसार से तारने वाले हैं, अन्य कुदेव ऐसा करने में समर्थवान नहीं है । धर्म वही है, जिसको जिनेन्द्रदेव ने कहा है, पुण्योदय से जोड़ने वाला दसलक्षण धर्म कहा है। त्रस और स्थावर जीवों पर दया कीजिए अर्थात् न तो जीव मात्र को मारिए और न किसी का मरण करवाना चाहिए। धर्म का लक्षण अहिंसा कहा गया है, यह धर्म चित्त को दृढ़ करके धारण कीजिए । सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग और सम्पूर्ण विषय-भोगों की अग्नि में पानी डाल देना चाहिए। जैसे निर्ग्रथ मुनि तप को दृढ़ता से धारण करते हैं, सुख-दुःख और तृण- सोना में समान भाव धारण करते हैं, वह गुरु स्वयं तरते हैं, फिर अन्य के लिए भी तारते हैं एवं दुर्गति में जाते हुए के लिए सहायक होते हैं। अपने मन में सप्त-तत्त्व, नव पदार्थ, छह द्रव्य एवं पंचास्तिकाय के प्रति श्रद्धा रखनी चाहिए। जो उनकी श्रद्धा रखता है, उसको जग में सम्यक्त्व - सूर्य का उदय होता है ।
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घत्ता - सम्यक्त्व के प्रभाव एवं अकुटिलता के भाव से जीव नरक और निगोद में नहीं जाता है, तिर्यंच गति को भी प्राप्त नहीं करता है और बहुत अधिक क्या कहा जाए, वह मरकर स्वर्ग में विद्यमान होता है ।
11. जुआ एवं मांस सेवन व्यसन का स्वरूप
सम्यक्त्व के बिना व्रतादि निरर्थक हैं और व्रत के बिना मनुष्य जन्म अप्रयोजनीय है । रुचि सहित ही धर्म का आकार ( आचार) होता है। इस प्रकार मैं कहता हूं कि सम्यक्त्व को प्रगट करो । सम्यक्त्व के लिए प्रथम तो व्यसन का त्याग करना चाहिए, जुआ खेलकर, अपने आपका विच्छेद नहीं करो, जुआ अनर्थ एवं संसार का मूल कारण है, अति भयानक दुःख को देने वाला है, जुआरी अपने धन को हारता और दूसरों के धन की इच्छा करता है और अपने घर तक को छोड़ता है । अपयश और अकीर्ति में पड़ते हुए दिखाई देता है, सत्य का हनन और असत्य को रखता है, खेलते हुए दयाधर्म का विनाश करता है, हारते हुए कठोर वचन बोलता है अथवा यदि दूसरे के धन को कैसे भी पाता है तो मद्य और माँस दास (सेवक) के द्वारा भेजकर मंगवाता है, धन हार