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पण्डित तेजपाल विरचित वरांगचरित : हिन्दी अनुवाद
प्रथम सन्धि || जो वीतरागी हैं, उन्हें नमस्कार हो।।
1. मंगलाचरण पंचपरमेष्ठी स्तवन कामदेव के जीतने वाले, केवलज्ञान के प्रकाशक, जिनके चरण-कमल अष्टकर्मों का विनाश करने वाले और देवों, मनुष्यों, विद्याधरों एवं बुधजनों से वन्दनीय जिनेश्वर को प्रणाम कर।। छप्पय।।
जो जग में प्रसिद्ध हुए हैं, ऐसे अष्ट गुणों की समृद्धि (वैभव) से युक्त सिद्धों को प्रणाम करके, आचार्यों को नमस्कार हो, उपाध्याय एवं साधु को नमस्कार हो, जिनमें त्रिकाल गुणों में दीर्घता रहती है एवं मोक्षमार्ग को दिखाने वाले हैं, जिनकी प्रज्ञा पर सरस्वती सदा प्रसन्न रहती है, जिनेन्द्र देव की वाणी अनंतज्ञान से युक्त है, ऐसे अरहंत देव को नमस्कार करता हूँ। यद्यपि मैं छन्द, लक्षण एवं व्याकरण आदि को नहीं जानता हूँ, संधि-समास कुछ भी नहीं जानता हूँ तो भी काव्य लिखने की धृष्टता कर रहा हूँ। जिनकी विशुद्ध सुकीर्ति विस्तृत एवं निर्मल है, ऐसे जिनदेव की भक्ति का प्रयत्न मैं जानता हूँ, जो विपुल एवं विलक्षण बुद्धि से सम्पन्न है, जिनकी भक्ति में पंडित महात्मा लोग लीन रहते हैं। मैं अपने चिन्तन के अनुसार उन श्रेष्ठ पुरुष का वर्णन करता हूँ, जो देवताओं की नगरी में निवास करते हैं। मेरे द्वारा सम्पूर्ण काल बिना प्रयोजन ही व्यतीत हो गया है। मेरा नाम प्रसिद्ध तेजपाल है। ___घत्ता-इस प्रकार मैं चिरकाल के कर्ममल का हरण करने के लिए राजा वरांग के चरित्र का वर्णन करता हूँ। जो लोगों को आनंदित करने वाला है एवं अंधकार का हरण करने के लिए चन्द्रमा है। इस कौतूहलवश यह (काव्यरूप) कार्य कर रहा हूँ।
2. दुर्जन-सज्जन स्वरूप यह कलियुग का समय अत्यधिक दुस्सह और रौद्र स्वरूप दुःख रूपी समुद्र से युक्त है। जहाँ पर दुर्जनों के द्वारा दूसरों के दोषों को दिखलाते हुए अत्यधिक पापों से युक्त होकर इस पृथ्वीतल पर परिभ्रमण किया जाता है। दुर्जन के कार्य सर्प के समान हैं जो कुटिल भाव को धारण करते हुए सरलता से नहीं चलता है। क्योंकि दुर्जनों का स्वभाव अंगार के समान (तीक्ष्ण) होता है। जो दुर्जन के इस स्वभाव को देखकर मैं (कवि तेजपाल) मन में ऐसा सोचता हूँ कि काव्य रूपी समुद्र के किस तरह भरूं अथवा दुर्जन का यही स्वभाव है कि वह दूसरे के दोषों