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वरंगचरित
कवि सुन्दर, सुभग और मेधावी होने के साथ ही जिनदेव का भक्त भी था। उसने ग्रन्थ निर्माण के साथ संस्कृति के उत्थापक प्रतिष्ठा आदि कार्यों में भी अनुराग प्रदर्शित किया था। कवि से ग्रन्थ रचनाओं के लिए विभिन्न लोगों ने प्रार्थना की और इसी प्रार्थना के आधार पर कवि ने रचनाएं लिखी हैं। स्थिति काल/रचनाकाल
कवि तेजपाल की रचनाओं में समय का उल्लेख प्राप्त है। अतएव समय के संबंध में विवाद नहीं है। कवि ने भट्टारक परम्परा में रत्नकीर्ति, भुवनकीर्ति, धर्मकीर्ति एवं विशालकीर्ति का उल्लेख किया है, जिनका समय 15-16वीं सदी माना जाता है। अतः कवि का काल भी यही सिद्ध होता है। कवि ने वि.सं. 1507 वैशाख शुक्ला सप्तमी के दिन वरंगचरिउ को समाप्त किया था।
संभवणाहचरिउ की रचना थील्हा के अनुरोध से वि.सं. 1500 के लगभग सम्पन्न हुई। 'पासपुराण' को मुनि पद्मनन्दि के शिष्य शिवनन्दि भट्टारक के संकेत से रचा है। कवि ने इस ग्रन्थ को वि.सं. 1515 में कार्तिक कृष्णा पंचमी के दिन समाप्त किया था।' अतएव कवि का स्थितिकाल विक्रम की 15वीं सदी निश्चित होता है।
तेजपाल की अब तक तीन कृतियां उपलब्ध हो चुकी हैं, जिनके नाम-वरंगचरिउ, संभवणाहचरिउ और पासपुराण या पासणाहचरिउ है।
1. संभवणाहचरिउ-संभवणाहचरिउ के रचने की प्रेरणा भदानक देश के श्री प्रभनगर में दाऊदशाह के राज्यकाल में थील्हा से प्राप्त हुई थी। श्री प्रभनगर के अग्रवालवंशीय मित्तल गोत्रीय साहू लक्ष्मणदेव के चतुर्थ पुत्र का नाम थील्हा था, जिसकी माता का नाम महादेवी और प्रथम धर्मपत्नी का नाम कोल्हाही था और दूसरी पत्नी का नाम असाही था, जिससे त्रिभुवनपाल और रणमल नाम के पुत्र उत्पन्न हुए। साहु थील्हा पांच भाई थे, जिनके नाम खिउसी, होलू, दिवसी, मल्लिदास और कुंथदास था। ये सभी व्यक्ति धर्मनिष्ठ, नीतिवान और न्यायपालक थे।
___ लक्ष्मणदेव के पितामह साहू होलू ने जिनबिम्ब प्रतिष्ठा करायी थी। उन्हीं के वंशज थील्हा के अनुरोध से कवि तेजपाल ने संभवणाहचरिउ की रचना की। इस चरित ग्रन्थ की 6 संधियों में 170 कड़वक हैं। यह कृति अप्रकाशित है। इसमें तृतीय तीर्थंकर संभवनाथ का जीवन चरित्र गुम्फित है। कथावस्तु पौराणिक है। महापुराणों के अतिरिक्त संभवनाथ का जीवन बहुत कम लिखा गया है। इसलिए कवि ने संभवनाथ पर काव्य रचना करके उल्लेखनीय कार्य किया है। रचना सुरुचिपूर्ण एवं अत्यन्त सुन्दर भाषा में निबद्ध है। कवि ने अवसर मिलने पर वर्णनों को अधिक जीवन्त बनाया है। संधि वाक्य में बताया है
1: तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, पृ. 210