________________ Homage To Valsaly पाली मलवान् बुध और उनके सारे शिष्यों को अपने मकान में मिमंत्रित करके भोजन साक्षिणा केस में यह 'आनकानन' जेंट किया। ... लिच्छविदेश का एक मशहूर व्यक्ति पा लिगकवि भा / उसका नाम प्राचीन बौखपम्प "पुल्लवग्ग" में मिलता है। किसी अपराध में लिच्छवि भद्र महाशय का सम्बन्ध बौदसंघ से खतम हो गया। मगर बाद में उस बौद्धसंघ ने भद्र महाशय को फिर अपना लिया था। इस पुनर्मिलन के समय हमलोग भगवान् बुद्धदेव के वचन में एक सामाजिक प्रथा का उस्लेख पाते हैं। किसी सभ्य को बिरादरी से निकाल देने के समय भोजन पर बैठा कर पानी के वर्तन को उलट देने की प्रथा थी। बुद्धदेव ने संघ को सम्बोधित करके कहा था"ऐ सदस्यगण ! आइए, हमलोग लिच्छवि भद्र महाशय के साथ स्नेह का व्यवहार पुन: स्थापित करके उलटे हुए पानी के बर्तन को एक बार फिर सीधा करके बैठा दें. और भद्र महाशय को पुनः अपने दोस्त के रूप में अपना लें।" ___ मगर वैशाली नगर को बौद्धधर्म के इतिहास में एक विशेष कारण से महत्वपूर्ण स्थान मिला था। वह कारण यह था कि बुद्धदेव के जीवन की बहुत-सी विशिष्ट घटनाएं इस वैशाली नगर में गुजरी थीं। बुद्धदेव के बार-बार आगमन के कारण वैशाली नगर के प्रत्येक भाग की धूलि उनके पदार्पण और पदचिह्न से पवित्र और महिमान्वित हो उठी थी। ... सम्बोधिलाभ के तीन साल के बाद पावस ऋतु में भगवान् बुद्ध राजगृह के बीच वेणुवन के आश्रम की बैठक में थे। इस समय में वैशाली नगर में महामारी का प्रकोप हुआ। उस समय लिच्छवि-शासन-समा के समापति और महोत्तरक थे महापण्डित तोमरदेव / जनसमा ने तोमरदेव को एक दूत के रूप में बुद्धदेव के पास विपत्ति में सहायता के लिए भेजा। बुद्धदेव ने कहा कि मैं राजा बिम्बिसार की अनुमति के विना वैशाली की जनता का आवेदन ग्रहण नहीं कर सकता। राजा बिम्बिसार ने इजाजत दी। उन्होंने अपनी फौज के साथ शोभायात्रा करके बुद्धदेव को वैशाली के रास्ते पर गंगा के किनारे तक पहुंचा दिया। इस शोभायात्रा का सुन्दर वर्णन प्राचीन बौद्धग्रन्थ "महावस्तु" में मिलता है। इसी प्रकार नदी के उस पार भी उसी प्रकार फौज और चमकदमक के साथ वैशाली के राजवंश के लोग सपरिवार बुद्धदेव का स्वागत करने के लिए अजीब ठाठ-बाट से उपस्थित हुए। उनके हरेक दल का साजो सामान था एक खास रंग का। एक दल पहन कर आया था नीले रंग का साज और दूसरा दल आया लाल रंग के ठाठ-बाट से। महावस्तु में इसका वर्णन चिरस्मरणीय अक्षरों में लिखा हुआ है। उसी में एक झुण्ड आया पीले रंग के रथ पर, पीले रंग के घोड़े लगा कर, पीले रंग की पगड़ी पहन कर, पीले रंग के लोहे के बख्तर पहन कर, और पीले रंग के कपड़े और अलंकारों से सुशोभित होकर "संत्यत्र लिच्छवयः पीतास्या पीतरथा पीतरश्मि-प्रत्योद-यष्टि / पीतवस्त्रा, पीतालंकारा, पीतोष्णीशा, पीतछत्राः, पीतखड्ग-मुनिपादुका // " /