________________ 29 भाग भारत के लिए वैशाली का सन्देश हो गए / इसके बाद अनेक शताब्दियों वक वृषियों या लिच्छवियों का साम्राज्य में महत्व पूर्ण स्थान रहा। ... जहाँ उत्तर बिहार का वृषिसंघ तथा उसके पश्चिम हिमालय की तराई के मल्ल, शाक्य मादि के परिष उज्ज्वल होने पर भी ये अल्पकालिक थे, वहाँ भारत के दूसरे भागों में, विशेष कर पंजाब में, ऐसे संघराज्य भी थे जिन्होंने, उससे बहुत अधिक मात्रा में बचे रहने की सामयं का परिचय दिया। पंजाब के मालव, क्षुद्रक, शिवि, यौधेय आदि संघराज्य अपने उदयकाल में वृजियों के समकालिक ही थे। वे कभी पूर्व से उठनेवाली साम्राज्य-निर्माण की एक लहर के नीचे आ जाते, तो कभी उत्तर-पश्चिम से उठे किसी आक्रमण के तूफान के झपेटे में फंस जाते / परन्तु उनका वह झुकना सदा अस्थायी होता, इन सबके बीच वे अपने सामूहिक चरित्र को बनाए रखते, अधीन करनेवाली शक्ति से मुकाबला करते और अन्त में उसे तोड़कर अपना सिर फिर ऊँचा उठा लेते। यह बात विशेषतः यौधेयों के बारे में थी, जिन्होंने आश्चर्यकारी जीवनी-शक्ति और बचे रहने की सामथ्यं का प्रदर्शन किया। उनके एक हजार वर्ष के इतिहास का खाका साहित्यिक उल्लेखों और पुरातत्त्व-सम्बन्धी अवशेषों के आधार पर खींचा जा सकता है, जो अभिलेख, मुद्रा, सिक्कों और सिक्के बनाने के सांचों तथा वास्तु-भग्नावशेषों के रूप में पूर्व में भरतपूर और सहारनपुर से पच्छिम बहावलपुर तक एक विशाल क्षेत्र पर बिखरे हुए पाये जाते हैं। एक पंजाबी होने के नाते मुझे इस विरासत पर गर्व है; परन्तु पछतावा इस बात का है कि बिहार में वैशाली की विरासत का ज्ञान आज जैसे फैल रहा है, उस विरासत का ज्ञान पंजाब की जनता और वहाँ के बुद्धिजीवी वर्ग तक अभी नहीं पहुंच पाया। वैशाली, राजगृह और चम्पा (भागलपुर) के गौरवकाल में बिहारियों ने आश्चर्यकारी साहसिक भावना का परिचय दिया था। उन्होंने अपनी ही नावों में बैठ समुद्रों को पार किया, बंगाल की खाड़ी से दक्षिणी चीनी समुद्र तक फैले विशाल प्रायद्वीप और सुमात्रा, जावा बोनियो आदि द्वीपों को साफ किया, जो कि तब आरम्भिक जंगलों से ढके थे और जहाँ नवाश्म युग के पत्थर के औजारों का प्रयोग करनेवाली फिरकर शिकारी जातियों का निवास था। उन्होंने उन प्रदेशों में अपनी बस्तियाँ बसायीं। उनमें पूर्वी तट पर, जिसे आज हिन्दचीन कहते हैं, एक बस्ती का नाम उसी नाम के एक बिहारी नगर के नाम पर चम्पा कहाता था / इन आरम्भिक अवग्राहकों (भूखोजियों), नौसंचालकों शोर उपनिवेशकों के साहसपूर्ण कार्यों की अनेक मनोरंजक कहानियां हमारे साहित्य में सुरक्षित हैं और उन उपनिवेशों के पुरातत्त्वीय ध्वंसावशेषों की एक विशाल राशि नौजवान बिहारी बुद्धिजीवियों का ध्यान आकृष्ट होने की बाट जोह रही है। उस प्राचीन युग के अपने पुरखों की तुलना में हम आज के भारतवासी बिलकुल भिन्न नस्ल के जान पड़ते हैं और इतिहास के ठोस प्रमाणों के अभाव में यह विश्वास करना भी आज कठिन होता कि ऐसा गौरवमय युग भी कभी रहा / परन्तु वह प्रमाण मौजूद है / सौभाग्य से हमारे इतिहास का सबसे अंधियारा युग बीत गया है और हम अब एक ऐसे युग में