________________ 162 Homage to Vaisali अपने छमस्थ तथा केवली-काल के भी कुछ समय भगवान् ने यहीं बिताये / इस दृष्टि से भी वैशाली-संघ द्वारा महावीर-जयन्ती के अवसर पर अपना अधिवेशन करना सर्वथा उचित है। एक बात इस सम्बन्ध में ध्यान रखने की और है कि भगवान् महावीर के समय में इस भूमि में पांच श्रमण-सम्प्रदाय थे-१. निग्रन्थ (जैन), 2. शाक्य (बौद्ध), 3. तापस, 4. गैरुक और 5. आजीवक / इनमें से तापस, गैरुक और आजीवक तो अपना अस्तित्व ही समाप्त कर बैठे। बौद्धधर्म की शताब्दियों तक भारत-भूमि में नाममात्र का रह गया था। अकेले निर्ग्रन्थ-सम्प्रदाय ही इतिहास के अच्छे-बुरे दिन देखता निरन्तर इस भारत-भूमि पर बना रहा / अतः, इस दृष्टि से भी वैशाली-संघ द्वारा उसके अन्तिम तीर्थंकर महावीर (जिनका शासन आज भी चल रहा है) का जन्मदिन मनाना निश्चय ही श्लाघनीय है। यह वैशाली एक गणतन्त्र था। इसके अधीन 9 मल्लकी, 9 लिच्छिवि, काशी-कोशल के 18 गणराजे थे। वैशाली के अन्तर्गत 18 गणराजाओं का उल्लेख कल्पसूत्र (सूत्र 128), भगवतीसूत्र (शतक 7, उद्देशक 9), निरयावलिका, आवश्यकचूणि आदि ग्रन्थों में मिलता है। - कुछ लोग इस पाठ का भ्रामक अर्थ लेते हैं और 9 मल्लकी, 9 लिच्छवी, 18 काशीकोशल मिलाकर गणराजाओं की संख्या 36 कर देते हैं / पर, यह हिसाब सर्वथा भ्रामक है। गणराजाओं की संख्या 18 मात्र थी। मेरी इस धारणा की पुष्टि एक और प्रसंग से होती है / जब चेटक कूणिक से लड़ने चलते हैं, तब उनकी सेना-संख्या देखने से भी एक चेटक और 18 गणराजे, 19 राजाओं की सेना होने की बात प्रमाणित होती है। सेना का यह उल्लेख निरयावलिका और आवश्यकचूणि में है / अभयदेव सूरि ने इन राजाओं के सम्बन्ध में भगवतीसूत्र की टीका में भ्रम का निवारण कर दिया है। इन गणराज्यों का भारतीय इतिहास में बड़ा ही महत्त्वपूर्ण योग रहा है। उसके गुणों का उल्लेख करते हुए महाभारत (यान्तिपर्व, 107, 15-18) में कहा गया है : अर्थाश्चवाधिगम्यन्ते सङ्घातबलपौरुषः / बाह्याश्च मैत्री कुर्वन्ति तेषु सङ्घातवृत्तिषु // ज्ञानवृद्धाः प्रशंसन्ति शुश्रूषन्तः परस्परम् / विनिवृत्ताभिसन्धानाः सुखमेधन्ति सर्वशः // धर्मिष्ठान व्यवहारांश्च स्थापयन्तश्च शास्त्रतः / यथावत् प्रतिपश्यन्तो विवर्धन्ते गणोत्तमाः / पुत्रान् भ्रातृन निगृह्णन्तो विनयन्तश्च तान् सदा / विनीतांश्च प्रगृह्णन्तो विवर्धन्ते गणोत्तमाः // -"जो सामूहिक बल और पुरुषार्थ से सम्पन्न हैं, उन्हें अनायास ही सब प्रकार के अभीष्ट पदार्थों की प्राप्ति हो जाती है। संघबद्ध होकर जीवन-निर्वाह करनेवाले लोगों के साथ .. संघ से बाहर के लोग भी मैत्री स्थापित करते हैं।