________________ विकासोन्मुख वैशाली नागेन्द्र प्रसाद सिंह सन् 1943 ई. तक वैशाली का नाम लोगों को मालूम न था। लोग इसे बसाढ़ अथवा बनिया-बसाढ़ के नाम से जानते थे। विद्वानों अथवा अधिक पढ़े-लिखे लोगों को इसकी महत्ता का पता था, किन्तु सामान्य जनता इससे पूर्णतया अपरिचित थी। उसकी दृष्टि में अशोक का स्तम्भ 'भीमसेनकी लाठी' बन गया था भौर उसके पश्चिम के सटे-सटे स्थित दोनों स्तूप 'भीमसेन का भार' या 'भीमसेन का पल्ला' बनकर रह गये थे। सारा इलाका उपेक्षित था और अन्य गांवों या इलाकों के समान वीरान, निस्पंद और निष्क्रिय था। सन् 1942 के 'भारत छोड़ो आन्दोलन के ब्रिटिश साम्राज्यवादियों द्वारा कुचल दिये जाने और दमनचक्र के चालू रहने के कारण सर्वत्र मुर्दनी छायी हुई थी। इसी परिस्थिति में सन् 1944 ई. के उत्तराध में श्री जगदीश चन्द्र माथुर, आई. सी० एस० (इण्डियन सिविल सर्विस) के सदस्य के रूप में, हाजीपुर के एस० डी० ओ० (सबडिविजनल अफसर, अवर अनुमण्डल-पदाधिकारी) बनकर आये / वे वैशाली के गौरव से परिचित थे, किन्तु उस इलाके की दुरवस्था देख उन्हें घोर निराशा हुई। उन्होंने इस संबंध में कुछ करने का निश्चय किया, जिसका परिणाम हुआ वार्षिक वैशाली-महोत्सव और वैशाली-संघ नामक संघटन ।-आगे चलकर मुख्यतया इन्हीं दोनों संस्थाओं के माध्यम से वैशाली का विकास होने लगा। वैशाली के विकास की भावना से प्रेरित होकर श्री जगदीश चन्द्र माथुर ने 31 दिसम्बर 1944 को हाजीपुर के सरस्वती सदन में एक सार्वजनिक सभा बुलायी और इस विषय पर विचार-विमर्श किया गया। अगली बैठक 4 फरवरी 1945 को हुई, जिसमें विभिन्न काम बांटे गये। 31 मार्च और 1 अप्रैल 1945 को वैशाली के भग्नावशेषों पर राजा विशाल के गढ़ के सटे पूर्व, नीचे विस्तृत खेतों में, प्रथम वैशाली-महोत्सव मनाया गया। पहले दिन वैशाली-संघ नामक एक संस्था की स्थापना भी की गयी। इस अवसर पर विद्वानों के विद्वत्तापूर्ण भाषणों के अतिरिक्त प्रदर्शनी, नाटक, खेल-कूद, वाद-विवाद प्रतियोगिता, ग्रामोत्थान, कवि-सम्मेलन, हिन्दी-साहित्य सम्मेलन तथा पुस्तकालय-सम्मेलन भी हुए और वैशाली-संबंधी एक हिन्दी पुस्तक का प्रकाशन किया गया। प्रथम वैशाली-महोत्सव में निस्सन्देह परवर्ती संस्थाओं, विकास तथा अभिव्यक्तियों के बीज वर्तमान थे। दिसम्बर 1945 में श्री जगदीशचन्द्र माथुर का हाजीपुर से स्थानान्तरण हो गया, किन्तु