________________ विकासोन्मुख वैशाली 471 सरकार के काशी प्रसाद जायसवाल अनुसंधान प्रतिष्ठान ने 1958-62 में वैशाली क्षेत्र में खुदाई करायी, जिसका शुभारम्भ डाक्टर ए. एस. अल्तेकर ने किया और अभिषेकपुष्करिणी के पास ही मिट्टी के एक स्तूप का अनावरण कर भगवान् बुद्ध के शरीरावशेष की मंजूषा ढूंढ़ निकाली। इस बार की चार-साढ़ेचार वर्षों की खुदाई बहुत विस्तृत यी, जिसका पूरा विवरण आगे चलकर बिहार सरकार ने एक बड़ी पुस्तक के रूप में निकाला / हाल में भारत सरकार के पुरातत्त्व-विभाग (नयी दिल्ली) ने भी कोल्हुआ में खुदाई करायी है जिसके फलस्वरूप ऊपर पड़ी मिट्टी की परतों को हटाकर अशोक-स्तम्भ और आसपास के स्तूपों का मूल रूप प्रकट हुआ है। इन खुदाइयों के फलस्वरूप वैशाली का पूरा इतिहास सामने आ गया है। 28 जनवरी 1945 को पांच व्यक्तियों का प्रथम वैशाली-महोत्सव का मूल आयोजक दल (श्री माथुर सहित) जब यहां पहुंचा था, तब अशोक-स्तंभ एक ठाकुरवाड़ी के भीतर आंगन में खड़ा था और अपनी मुक्ति की प्रतीक्षा कर रहा था। अशोक-स्तम्भ के चारों ओर अनधिकृत रूप से खड़े इन मकानों को वर्षों पूर्व हटा दिया गया है। वैशाली में पुरातात्त्विक संग्रह का प्रयल लोगों द्वारा छिटफुट रूप से किया गया था, किन्तु कोई उल्लेखनीय सफलता नहीं मिल पायी थी। वैशाली-संघ ने इस ओर ध्यान दिया। जब चकरामदास गाँव और वैशाली के निवासियों ने अभिषेक-पुष्करिणी के समीप कुछ जमीन दान के रूप में वैशाली-संघ को दी, तब वहाँ संघ ने बिहार सरकार से अनुदान प्राप्त कर एक भवन का निर्माण करवाया। इसी भवन में लोगों के व्यक्तिगत संग्रहों के पुरावशेष जमा कर दिये गये और वैशाली-संघ ने इसकी पूरी व्यवस्था करने का दायित्व स्वीकार किया। गम्भीर प्रयत्नों के फलस्वरूप भारत सरकार ने वैशाली में एक पुरातत्त्व संग्रहालय बनवाना स्वीकार किया। एतदर्थ वैशाली-संघ ने स्थानीय जनता से आवश्यक जमीन प्राप्त कर भारत सरकार को स्थानान्तरित कर दी। यह संग्रहालयभवन अभिषेक-पुष्करिणी के उत्तरी भिण्डे पर स्थित है और भारत सरकार द्वारा पूर्णतया संचालित है। जैन समुदाय द्वारा वैशाली के सटे क्षत्रियकुण्डपुर (वर्तमान बसुकुण्ड) के भगवान् महावीर के जन्मस्थान होने की मान्यता प्राप्त करना वैशाली-संघ की एक अपूर्व सफलता है / इसने प्रारम्भ से ही अनेक प्रकाशनों, लेखों आदि द्वारा जैन मतावलम्बियों को भगवान् महावीर को ऐतिहासिक जन्मस्थली की ओर जागरूक करने की कोशिश की। विद्वानों, मुनियों और सामाजिक नेताओं से दिल्ली, पटना, पावापुरी और अन्य स्थानों पर सम्पर्क स्थापित किया गया। प्रयत्नों को सफलता मिली। 1948 में महोत्सव के अवसर पर पहली बार जैन तीर्थयात्री वैशाली पधारे। जैन तीर्थङ्कर की अत्यन्त प्राचीन मूत्ति को बौना पोखर पर एक नवनिर्मित मन्दिर में प्रतिष्ठित कर उनकी जैनों द्वारा पूजा होने लगी। वैशाली-कुण्डपुर तीर्थसमिति का निर्माण किया गया। तबसे बराबर इस स्थान