________________ 412 * Hoinage to Vaisali विदग्ध, प्रताड़ित और सन्तप्त प्राणियों को छोड़कर स्वयं सुखधाम जाना नहीं चाहता है / प्राणिमात्र की मुक्ति और करुणा ही उसके जीवन का एकमात्र लक्ष्य होता है। इस सूत्र में अनासक्ति पर जोर डाला गया है और अनासक्ति के लिए आसक्ति का परित्याग करने का आदेश दिया गया है। आचार्य नागार्जुन (सूत्र-समुच्चय), आचार्य कमलशील (तृतीय भावनाक्रम), आचार्य शान्तिदेव (शिक्षा समुच्चय), आचार्य चन्द्रकीति (प्रसन्नपदामध्यमकवृत्ति), आचार्य सारमति (महायानावतार शास्त्र), आचार्य बसुबन्धु (रत्नकूट चतुर्धर्मोपदेश) और आचार्य अद्वयवज्र (कुदृष्टि निर्धातन) ने अपने ग्रन्थों में इस सूत्र से अनेक उद्धरण दिये हैं। डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने इस सूत्र को बौद्धधर्म की गीता कहा है। अपने मूल (संस्कृत) रूप में यह ग्रन्थ भारत में अप्राप्य है। किन्तु विश्व की विभिन्न भाषाओं में इसके अनेक अनुवाद और टीकाएं आज भी उपलब्ध हैं। भारतीय बौद्ध विद्वानों द्वारा 'आर्यविमलकीर्ति निर्देश', 'विमलकीर्ति निर्देश', 'यमकव्यत्यस्ताभिनिर्हार' एवं 'अचिन्त्य विमोक्षपरिवर्त', चीनी अनुवादों मे "विमलकीर्ति निर्देश सूत्र' (वेइ-मो-की-सो-चोउओ), 'अचिन्त्यधर्मपर्याय' (पोउ-को-स्सेउ-यि किअई-तो-फा-मेन) एवं 'अचिन्त्यविकुवर्णविमोक्षधर्मपर्याय' (पोउ-को-स्सेउ-यि-त्सेउ-त्स-चेन-पीन-किअइ-तो-फा-मेन), और तिब्बती अनुवादों में 'आर्य विमलकीर्ति निर्देश नाम महायान सूत्र' (फाया-टिमा-मेयर-टगये-तम्पा शेच्यावा थेग्याछन्योइदो अफगस-पा द्विमा भेद-पर प्रग्स-पस् बस्तन-पा शेस-च्या-वा थेग-पा छेनपोईम्दो) के नाम से इसका उल्लेख किया गया है / "विमलकीति निर्देश' की सबसे प्राचीन प्रति मध्य एशिया की तारिम उपत्यका में डॉ. आरेल स्टाइन को मिली थी। ब्रिटिश सरकार के अनुरोध पर 1901 ई० में डॉ० स्टाइन ने तारिम उपत्यका में खोज का काम शुरू किया। अपने प्रथम अभियान में उन्हें ब्राह्मी लिपि में अंकित कुछ हस्तलेख मिले, जिन्हें जर्मन विद्वान डॉ. लेन्मान और जापानी विद्वान डॉ. बतनवे ने पढने का प्रयास किया। प्राध्यापक स्तेन कोनो ने उस हस्तलेख-भाषा को ईरानी समुदाय की भाषा बतलाया और शक भाषा के नाम से उसको सम्बोधित किया था। उन हस्तलेखों में 'विमलकीति निर्देश सूत्र' का एक अनुवाद भी मिला था, जो शक भाषा और ब्राह्मी लिपि में था। अभियान से वापस लौटने के बाद डॉ० स्टाइन ने ब्रिटिश रायल सोसाइटी के जनल (1901) में तारिम उपत्यकाका विवरण प्रकाशित किया और 1902 ई० में हेम्बर्ग में आयोजित प्राच्य विद्या कांग्रेस में अपना यह संस्मरण सुनाया। इससे प्रभावित होकर फ्रान्सीसी पुराविद पेलियो ने इस क्षेत्र में खोज का काम शुरू किया और इसी क्रम में 1906 ई. में वह तुन-हुआङ आया। तुन-हुआङ नगर से लगभग 9 मील दक्षिण-पश्चिम मिग-शान की तलहटी में, 366 ई० में लो-चुन नामक एक तीर्थयात्री आया था और एक अलौकिक घटना से प्रेरित और प्रभावित होकर उसने एक गुफा का निर्माण किया था। उसके बाद फा-लिङ् नामक एक दूसरे तीर्थयात्री ने उसकी बगल में एक दूसरी गुफा का निर्माण कराया। तत्पश्चात् उस प्रदेश के प्रान्तपति चियेन-पिङ और वाङ्-हुई ने एक-एक गुफा बनवाई। इस प्रकार