________________ 410 Homage to Vaisali के दरबार में आनेवाले प्रतिनिधि मण्डल के प्रधान वाङ्-ह्य एन-त्सी ने भी विमलकीति के घर को देखा था और उसका माप भी लिया था। मापने पर उसने प्रत्येक ओर से उसको दस हाथ (कंधे के जोड़ से उंगलियों तक बांह की पूरी लम्बाई) पाया था। इसलिए उसका नाम 'फन-चङ रखा था, जिसका अर्थ होता है दस हस्तवर्ग। सुप्रसिद्ध चीनी यात्री ई-चिङ (671-695 ई०) भी आचार्य विमलकीर्ति के घर को देखने गया था और 'फनचङ' नाम से उसका उल्लेख किया है। पीछे चलकर सभी प्रमुख भिक्षुओं का वासगृह भी इसी आकार का बनने लगा और वह 'फन-चङ' कहलाया। यद्यपि भारतीय इतिहास में इस महापुरुष के जीवन पर प्रकाश डालनेवाली कहीं कोई सामग्री उपलब्ध नहीं है, तथापि भारतीय मूल के चीनी अनुवादों में 'विमलकीर्ति निर्देश सूत्र', 'महासन्निपात मूर्षाभिषिक्तराज सूत्र', 'महायान मूर्धाभिषिक्तराज सूत्र', 'विमलकीर्तिपुत्र सूत्र', 'सुचिन्त्यकुमार सूत्र' और 'चन्द्रोत्तरदारिका परिपृक्षा' से उनके जीवन पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है / ___'विमलकीति निर्देश सूत्र' के अनुसार एक बार भगवान् बुद्ध वैशाली में आम्रपाली के सुप्रसिद्ध आम्रकानन में अपने विशाल भिक्षुसंघ के साथ ठहरे हुए थे। उनके साथ आठ हजार भिक्षु और बत्तीस हजार महाबोधिसत्त्व थे। लिच्छवि कुमार रत्नाकर ने पांच सौ लिच्छवि कुमारों के साथ आकर भगवान् बुद्ध को एक रत्नजटित बहुमूल्य छत्र भेंट किया। इस समय आचार्य विमलकीर्ति उपायकोशल्य द्वारा अपने को अस्वस्थ बनाकर रोगशय्या पर पड़े हुए थे। उनके अस्वस्थ होने का समाचार सुनकर महानगरी वैशाली के राजा, अमात्य, अधिकारी, ब्राह्मण, गृहपति, श्रेष्ठी एवं समस्त नगरनिवासी उनका कुशल समाचार पूछने के लिए आये; किन्तु भगवान बुद्ध ने किसीको उनके पास नहीं भेजा / तब लिच्छवि विमलकीति ने अपने मन में सोचा :-'मैं अस्वस्थ होकर रोगशय्या पर पड़ा हुआ हूँ, दुःखित हूँ, फिर भी भगवान् तथागत सम्यक संबुद्ध ने मुझपर अनुकम्पा नहीं की है और न किसीको मेरे रोग के बारे में पूछने के लिए भेजा है। भगवान बुद्ध ने लिच्छवि विमलकीर्ति के मन में उत्पन्न इस विचार को जानकर धर्मसेनापति सारिपुत्र से कहा :-"सारिपुत्त, लिच्छवि विमलकीति के रोग के बारे में पूछने के लिए जाओ" / भगवान् के ऐसा कहने पर सारिपुत्त ने कहा :-"भगवन, मैं लिच्छवि विमलकीति के रोग के बारे में पूछने के लिए जाने को उत्साहित नहीं हूँ, क्योंकि भगवन्, मुझे स्मरण है कि एक दिन मैं एक वृक्ष के मूल में बैठा हुआ ध्यानरत था, तब लिच्छवि विमलकीर्ति वहां पहुंचा और मुझसे कहा :-'भन्ते सारिपुत्त, जिस प्रकार आप ध्यानरत हैं, उस प्रकार ध्यानरत नहीं होना चाहिए। आपको इस प्रकार ध्यानरत होना चाहिए, जिससे सम्पूर्ण त्रिधातुक विश्व में कहीं भी शरीर और चित्त प्रकट नहीं होते। आपको इस प्रकार ध्यानरत होना चाहिए जिसमें निरोध की अवस्था में उठे विना भी आप सब प्रकार का सामान्य व्यवहार प्रकट कर सकें। आपको इस प्रकार ध्यानरत होना चाहिए जिससे अपनी लोकोत्तर उपलब्धि के लक्षणों को छोड़े विना आप सामान्य व्यक्तियों के लक्षण प्रकट कर सकें। आपको इस प्रकार ध्यानरत होना चाहिए जिससे आपका चित्त न अध्यात्म में स्थिर रहे और न बाह्य वस्तुओं में विचरण